Homeलोक कलाएंBaghelkhand Ki Lok Kalaye बघेलखण्ड की लोक कलाएं

Baghelkhand Ki Lok Kalaye बघेलखण्ड की लोक कलाएं

बघेलखण्ड की पारम्परिक लोक कलाओं में बिरहा, कोलदहका कलसा, राई, केहरा, दादर, केमाली, करमा, सैला, नृत्य प्रमुख हैं । Baghelkhand Ki Lok Kalaye  आदि काल से ही लोकजीवन मे लोक से परिपूर्ण रही हैं। इस क्षेत्र की अनेक लोक कलायेँ बहुत अधिक विकसित हैं। बघेलखंड आदिवासी प्रधान क्षेत्र के साथ आदिवासियों की नृत्य व जातीय संस्कार गीतों एवं कर्मकांडो पर आधारित संस्कृति  की मजबूत परम्परा को लिए हुए आज भी जीवंत है ।

बघेली लोकगीत
बघेली लोकगीत की गायन-शैली मध्यप्रदेश के अन्य अंचलों से थोड़ी भिन्न है, क्योंकि बघेली बोली अवधी से प्रभावित है। बघेली लोकगीतों में लोक की व्यापकता, सरलता, भाव प्रवणता और सुबोधता सहजरूप से देखी जा सकती है।

बसदेवा गायन
बसदेवा बघेलखण्ड की एक पारम्परिक गायक-जाति है, जिन्हें हरबोले कहा जाता है। श्रवणकुमार की कथा गायन करने के कारण इन्हें सरमन गायक भी कहा जाता है। बसदेवा परम्परा से कई तरह की कथा और गाथाएँ गाते हैं। बसदेवा सिर पर कृष्ण की मूर्ति और पीला वस्त्र धारण कर हाथ में चुटकी पैजन और सारंगी लिये गाते हैं। वसदेवा जाति रामायण कथा, कर्ण कथा, मोरध्वज, गोपीचंद, भरथरी, भोले बाबा आदि लोक नायकों की चरित्र कथा गाते हैं।

बिरहा गायन
बघेलखण्ड में बिरहा गायन-परंपरा सभी जातियों में पाई जाती है। बिरहा की गायनशैली सर्वथा मौलिक और माधुर्यपूर्ण है। बिरहा प्रायः खेत, सुनसान राहों में सवाल जवाब के रूप में गाया जाता है। कहीं-कहीं बिरहा बिना वाद्यों और सवाद्य गाए जाते हैं। कानों में ऊँगली लगाकर ऊँची टेर के साथ बिरहा गाया जाता है। बिरहा शृंगारपरक विरह-गीत है।

बिदेसिया गायन
बिदेसिया गायन समूचे बघेलखण्ड में मिलता है। गड़रिया, तेली, कोटवार जाति के लोग बिदेसिया गायन में दक्षता रखते हैं। बिदेसिया की राग लंबी और गंभीर होती है। बिदेसिया का गायन प्रायः जंगल अथवा सुनसान जगह में किया जाता है।

फाग गायन
बघेलखण्ड में फाग गायन की परंपरा सबसे भिन्न और मौलिक है। यहाँ नगाड़ों पर फाग गायन किया जाता है। फाग गायनों में पुरुषों की मुख्य भागीदारी होती है। सामूहिक स्वरों में फाग गीतों की पंक्तियों का गायन नगाड़ों की विलंबित ताल पर शुरू होता है और धीरे-धीरे तीव्रता की ओर बढ़ता है।

बघेलखण्ड के लोकनृत्य

बिरहा अथवा अहिराई नृत्य
बघेलखण्ड में बिरहा गायन के साथ नृत्य वृत्ति भी है। बिरहा नृत्य का कोई समय निश्चित नहीं होता। मन चाहे जब मौज में बिरहा किया जा सकता है। विशेषकर सगाई-शादियों और दीपावली में बिरहा नृत्य अवश्य होता है। जब बिरहा नृत्य अहीर लोग करते हैं तब वह अहिराई कहलाता है।

इसी प्रकार जिस जाति में यह नृत्य किया जाता है उसी जाति के नाम से यह जाना जाता है। बिरहा में पुरुष नाचते हैं और कभी-कभी स्त्रियाँ भी उसमें शामिल होती हैं । जब स्त्री-पुरुष नाचते हैं तब सवाल जवाब होते हैं।

बिरहा की दो पंक्तियाँ दोहे की तरह बघेली शैली में लंबी तान लेकर प्रमुख नर्तक गाता है और दोहे के अंत में नृत्य तीव्र गति से चलता है। सवाल जवाब की अंतिम पंक्ति के छोर पर वाद्य नगड़िया, ढोलक, शहनाई घनघना कर बज उठते हैं। इधर स्त्री और पुरुष नर्तक गति के साथ नृत्य करते हैं।

राई नृत्य
बुन्देलखण्ड की तरह बघेलखण्ड में भी राई नृत्य का प्रचलन है। दोनों की राई में बेहद फर्क है। बुन्देलखण्ड में नर्तकी और मृदंग राई की जान होती है। बघेलखण्ड में राई ढोलक और नगड़ियों पर गाई जाती है, लेकिन पुरुष ही स्त्रीवेश धारण कर नाचते हैं।

केहरा नृत्य
केहरा, स्त्री और पुरुष दोनों, अलग-अलग शैली में नाचते हैं। इसकी मुख्य ताल केहरवा ताल है और इसके साथ बाँसुरी की जब मधुर धुन छिड़ जाती है तब पुरुष नर्तकों के हाथ और पैरों की नृत्य-गति असाधारण हो उठती है। महिलाओं के हाथों और पैरों की मुद्राओं का संचालन और गतिमय हो जाता है।

नृत्य के पहले पुरुष केहरा गाते हैं । नृत्य के सम पर पहुँचने पर मुख्य नर्तक कोई दोहा कहता है और दोहे की अंतिम कड़ी के साथ हाथों के झटकों के साथ पूरी गति से नृत्य प्रारंभ होता है।

दादर नृत्य
दादर बघेलखंड का प्रसिद्ध नृत्य है। दादर गीत अधिकांशतः पुरुषों के द्वारा खुशी के अवसर पर गाए जाते हैं और कहीं कहीं पुरुष नारी वेश में नाचते हैं, दादर के लिए कोल, कोटवार, कहार, विशेष रूप से प्रसिद्ध हैं। दादर के मुख्य वाद्य नगड़िया, ढोल, ढोलक, ढप और शहनाई है।

महिलाएँ नृत्य करती हैं और पुरुष वाद्य बजाते हुए गाते हैं। महिलाएँ प्राय: यूँघट में नृत्य करती हैं, पैरों में चूँघरू बाँधती हैं। हाथ, पैरों और कमर की मुद्राओं से दादर नृत्य-परंपरा का निर्वाह करती है।

कलसा नृत्य
बारात की अगवानी में सिर पर कलश रखकर नृत्य करने की परंपरा बघेलखण्ड में प्रचलित है। द्वार पर स्वागत की रस्म होने के पश्चात् नृत्य शुरू होता है। नगड़िया, ढोल, शहनाई की समवेत धुन पर कलसा नृत्य चलता है।

केमाली नृत्य
केमाली नृत्य को साजन-सजनई नृत्य भी कहते हैं। केमाली में स्त्री-पुरुष दोनों हिस्सा लेते हैं। केमाली विवाह के अवसर पर किया जाता है। केमाली के गीत सवाल जवाब की शैली में होते हैं। साजन-सजनई गीत बड़े कर्णप्रिय और भावप्रिय होते हैं।

बघेली लोकनाट्य
छाहुर
छाहुर मूलतः बघेलखण्ड में कृषक जातियों का लोकनाट्य है। दीपावली से गोप-अष्टमी तक छाहुर नाट्य गायन का आयोजन करते हैं। चार छह लोग मिलकर छाहुर नाट्य करने में सक्षम होते हैं। इसमें किसी मंच की भी जरूरत नहीं होती। गाँव के चौराहे अथवा चौपाल पर या घर के आँगन में छाहुर नाट्य किया जा सकता है।

छाहुर में पुरुष ही स्त्री की भूमिका निभाते हैं। पुरुष स्त्री का शृंगार बघेली परंपरा के अनुसार करते हैं। अन्य पात्र विषय और प्रसंग के अनुसार निश्चित होते हैं। इसका संगीत पारंपरिक है। गीत के साथ कथा का विस्तार छाहुर में होता है। छाहुर बघेलखण्ड का प्रतिनिधि लोक-नाट्य है।

मनसुखा
मनसुखा एक लोक-प्रहसन है। यह रास का बघेली रूपांतर है। इसमें दो मंच और दो पदों का प्रयोग होता है। साथ में मेकअप का स्थान भी होता है। मनसुख उर्फ विदूषक महोदय और गोपियों में नोंकझोंक व छेड़छाड़ भी चलती है। मसखरों को गाँवों में मनसुखलाल भी कहते हैं।

हिंगाला
हिंगाला एक मंच-रहित सीधा और सरल नाट्यरूप है। दो दलों में गीतों की (नोंकझोंक) मचती है। माँदर टिमकी इसके मुख्य वाद्य हैं।

जिंदबा
जिंदबा विवाह के अवसर पर होता है। यह मूलत: महिला-नाट्य है। लकड़बग्घा : लकड़बग्घा आदिवासी युवक-युवतियों का लोकनाट्य है, जो खुले मंच पर अभिनीत होता है। यह विवाह के बाद खेला जाता है। लड़की को लकड़बग्घा उठा ले जाता है, लड़की करुण क्रन्दन करती है । इस वन्य नाट्य में पशु और मनुष्य के हार्दिक योग का अभिनय मार्मिकता से किया जाता है।

रास
राधा, कृष्ण और गोपियों के नाना प्रसंगों को लेकर कृष्णलीला बघेलखण्ड के गाँवों में की जाती है। रास कृष्णलीला का ही अंग है। बघेली में इसका अभिनय पारसी कम्पनियों के प्रभाव से आक्रांत दिखता है। कालीदह प्रसंग, गेंदलीला, वैद्यलीला या नर्तकी प्रसंग यहाँ देखने को मिलते हैं। 

नौटंकी
नौटंकी का बघेली संस्करण उत्तरप्रदेश में प्रचलित नौटंकी से मिलता-जुलता है। इंदल और बैरग राजा की कथा अथवा मनिहारिन के प्रसंग को लेकर नौटंकियाँ चलती हैं। नौटंकी में कई पदों का प्रयोग किया जाता है। बघेली नौटंकियों में दाम्पत्य जीवन के हास्य-उत्पादक अंश को भी जोड़ा जाता है। 

रामलीला
बघेलखण्ड में रामलीला की अनेक पारम्परिक मंडलियाँ हैं। रामलीला में राम की कथा का उनकी लीला के अनुसार मंचन होता है।

बघेल लोक-चित्रकला
बघेलखण्ड में भित्तिचित्र, भूमि-अलंकरण और भित्ति-उद्रेखण करने की परंपरा है। भित्ति अलंकरण किसी-नकिसी अनुष्ठान, त्योहार और व्रतकथा से जुड़े हैं। भित्तिउद्रेखण तथा अलंकरण सौन्दर्य-बोध से जुड़े हैं।

कोहबर, हरछठ, करवाचौथ, नागपंचमी, नेउरा नमे, छठी, दिवाली, चित्र आदि बघेलखण्ड के परंपरागत चित्र हैं। बघेलखण्ड के गाँवों में दीवारों पर मिट्टी और गोबर से कलात्मक रूपांकन बनाए जाते हैं।

ऐसे अभिप्रायों में चिड़ियाँ, मोर, चाँद, सूरज, हाथी, फूल-पौधे, तुलसी क्यारी, शेर तथा देवी-देवताओं की आदमकद आकृतियाँ प्रमुख होती हैं। पारंपरिक चित्रों का रूपांकन, प्रायः महिलाएँ ही करती हैं।

कोहबर
कोहबर एक वैवाहिक भित्तिचित्र है। कोहबर के मूलरंग गेरू और चावल का श्वेत घोल है। सिन्दूर और हल्दी से पीला रंग पत्थर पर घिसकर प्राप्त किया जाता है। कोहबर बनाते समय महिलाएँ गीत गाते हुए चित्र बनाती हैं। कोहबर बन जाने के बाद दूल्हा-दुल्हन पूजा करते हैं। कोहबर की आकृतियों को पुतरियाँ कहते हैं। कोहबर के आसपास पुरईन की आकृति अवश्य बनाई जाती है।

तिलंगा
तिलंगा कोयले से बनाई जाने वाली आकृति है। कोयले में तिल्ली का तेल मिलाकर भित्ति पर तिलंगा की आकृति उकेरी जाती है।

छठी चित्र
शिशु-जन्म के छठवें दिन पर छठी माता का रेखांकन किया जाता है। गेरू और चावल के आटे के घोल से बनाया जाता है तथा इसके चारों ओर गोबर की लकीर से इसे सजाया जाता है। नेऊरा नमे बघेलखंड का पारम्परिक भित्तिचित्र है। यह चित्र भादों महीने की नवमी के दिन सुहागन महिलाएँ व्रत करके पूजा के समय बनाती हैं।

मोरइला
मोरइला का अर्थ मोर के चित्रों से है। इसे मोर-मुरैला भी कहते हैं। इसका संबंध भित्ति अलंकरण से है। दीवारों को छुही मिट्टी से पोतकर उस पर पतली गीली मिट्टी से मोरों की जोड़ी की आकृतियाँ बनाई जाती है, सूखने के बाद जिन्हें गेरू, नील, खड़िया आदि कई रंगों से रंगते हैं।

नाग भित्तिचित्र
नागपंचमी के दिन बघेली महिलाएँ घर की भीतरी दीवार पर गेरू अथवा गोबर के घोल से दूध पीते हुए नाग नागिन के जोड़े का रेखांकन करती हैं, पूजा करती हैं। भूमिचित्रों में कोंडर और चौक प्रमुख हैं।

मध्य प्रदेश की शिल्प कलाएं 

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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