Aadikalin Chandelkal ka lokkavya आदिकालीन चंदेलकाल का लोककाव्य   

Photo of author

By admin

चन्देल सत्ता का उत्कर्ष चन्देलनरेश मदनवर्मन (1128-1164   ई.) से होता है। उसका शासनकाल चन्देली  इतिहास का युग था। Bundelkhand मे Chandelkal ka lokkavya और लोक साहित्य एवं अन्य लोककलायें इसी युग मे सबसे अधिक सम्पन्न हुईं।

शिलालेखों, सिक्कों, दानलेखों, मूर्तियों के पादलेखों, मन्दिरों, सरोवरों, साहित्य-ग्रन्थों आदि से स्पष्ट है कि डेढ़ सौ वर्षों के इस उत्कर्ष-काल में समृद्धि और सुख का प्रसार था। धार्मिक समन्वय और कलाओं की उन्नति निरन्तर बनी रही। Chandelkal ka lokkavya अकाश की उचाईयों को छू रहा था।

उत्कर्ष
का काल (
1128 ई.-1286 ई.)

नरेश परमर्दिदेव (1165-1203  ई.) का राज्यकाल भी ऐश्वर्य और शौर्य का प्रतीक था। इस कालखंड में चैहानों और तुर्कों के दो प्रसिद्ध युद्ध हुए, जिन्होंने चन्देलों की वीरता और प्रजा की देशभक्ति बहुत ऊचाई पर पहुँचा दी। परमर्दि के उत्तराधिकारियों में त्रौलोक्यवर्मन (1203-42 ई.) और वीरवर्मन (1242-86 ई.) ही ऐसे वीर और योग्य थे जो मध्ययुग की वीरता के प्रतिमान कालिंजर दुर्ग को अपनी खड्ग  से सुरक्षित रख सके। इस प्रकार इस काल का निर्धारण 1128  से 1286  ई. तक उचित है।

चैहान नरेश पृथ्वीराज और मुसलमानों के आक्रमणों  ने प्रजा के शौर्य,  बलिदान और देशप्रेम को काफी निखार दिया था।  परिणामस्वरूप यहाँ  साहित्यिक रूपकों, काव्यग्रन्थों आदि की रचना हुई थी। प्रबोधचन्द्रोदय और रूपकषटकम् साहित्यिक वैभव के साक्षी हैं। इन सभी साक्ष्यों से सिद्ध है कि इसी समय लोकगीत और लोकगाथाएँ रचे गए। आज उनकी खोज में कठिनाई अवश्य है, पर यहाँ प्रथम बार उनका निर्धारण, वर्गीकरण और परीक्षण किया जा रहा है।

काव्य-सम्पदा एवं वर्गीकरण
इस चरण में लोकगाथाओं और विशेषतया वीररसपरक लोकगाथाओं का उत्कर्ष रहा, जिनकी आधारभूमि भक्तिपरक देवी गीत और गाथाएँ तैयार कर चुकी थीं। गाथाओं के प्रवाह का प्रारम्भिक चरण राछरों गीतों की समृद्ध परम्परा थी , उसके बाद चरागाही और वीररसपरक गाथाएँ धीरे-धीरे प्रबन्धात्मक रूप लेती गईं। इस प्रकार इस चरण  में निम्न क्रम में उत्कर्ष की ऊंचाई पर लोककाव्य खड़ा हुआ।

(अ) राछरों की परम्परा
(ब) लोकगाथाओं का उत्कर्ष (देवीपरक, चारागाही)
(स) लोकगाथात्मक लोक महाकाव्य: आल्हा
(द) मुक्तकों की परम्परा (नौरता के गीत, संस्कारपरक गीत)

राछरों की परम्परा
राछरा गीतों की पृष्ठभूमि में सावन के वे ऋतुपरक गीत हैं, जिसमें बहिन को अपना मायका-बाबुल-भाई, भइया-भौजाई घर-बाहर, पशु-पक्षी, लता-वृक्ष आदि सब कुछ मन में आकर कौंधता रहता है। सावन का महीना कजरियों रूपी लहलहाती समृद्धि और झूला के पेंगों रूपी स्वप्निल आरोहों में खोई प्रसन्नता का प्रतीक है।

बहिन गा उठती है। ‘‘बदरिया बरसौ बीरन के देसा में’’, ताकि उसके भाई के गाँव में कजरियाँ लहलहा उठें और ‘‘ऊंचे अटाचढ़ हेरें सहुद्रा, अजहूँ न आए राजा बीर, माई मोरी आसों की कजरिया मायके की’’, क्योंकि कजरियाँ ही बहिन को भाई से जोड़नेवाले सूत्र हैं।

दूसरा सूत्र है भाई के द्वारा बहिन की रक्षा। विदेशी आक्रमणों के निरन्तर दबाव से बहिन की रक्षा भारतीय संस्कृति की रक्षा बन गई और भाई संस्कृति के रक्षक का प्रतीक। स्पष्ट है कि ऐसे संकटकाल में लोककवि को रक्षा के गीत गाना बहुत जरूरी था और वे रक्षा के गीत-राछरे उस समय के राष्ट्रीय गीत ही है, जिन्होंने विजातीय संस्कृति के हमलों से रक्षा का संकल्प किया था।
राछरे का अर्थ
‘‘राछरा’’ बुन्देली का अपना शब्द है। ‘‘राछरा’’ शब्द की उत्पत्ति ‘‘रक्षा’’ शब्द से उचित है। रक्षा से ‘‘रच्छा’’ और ‘‘राछ’’ दोनों निकलते हैं। विवाह में दूल्हा की ‘‘राछ’’ फिरना अभी तक प्रचलित है। Chandelkal ka lokkavya का उत्कर्ष हो रहा था तभी आदिकालीन विवाह अधिकतर युद्ध से हो रहे थे और उसमें दूल्हा की रक्षा करना अभीष्ट था।

रक्षा के लिए दूल्हा की ‘‘राछ’’ कई घरों में फिरती थी, ताकि उन सब घरों के लोग दूल्हे की रक्षा का संकल्प करते हुए अपने अस्त्र-शस्त्र लेकर चल सकें। रियासत के राजा जब युद्ध करने जाते थे, तब उनकी भी ‘‘राछ’’ फिरती थी और रियासत के प्रजाजन उन्हें तिलक कर युद्ध में सहयोग स्वरूप तन एवं धन अर्पित करते थे।

दूल्हा की ‘‘राछ’’ में दूल्हा शस्त्रा से सज्जित रहता था। आज की कई जातियों में दूल्हा कटार या छुरी लटकाए रहता है। ‘राछ’ के समय गाए जानेवाले बन्ना गीतों में भी छुरी, कटारी आदि शास्त्रों का उल्लेख है। राजा की ‘राछ’ में तो पूरा शस्त्र प्रदर्शन होता ही था। ‘राछ’ में प्रत्यय स्वरूप रा जुड़ जाने से ‘‘राछरा’’ बना है। इस प्रकार आदिकाल में बहन की रक्षा के लिए भाई के युद्ध का वर्णन करने वाले गीतों को ‘‘राछरा’’ नाम दिया गया था।

भले ही बुन्देली का ‘‘रायछौ’’ शब्द कुछ अन्य पड़ावों से गुजरा हो, पर इतना निश्चित है कि ‘‘राछरे’’ गीतों से वीरगाथात्मक प्रबन्ध और राइछौ ग्रन्थों का आविर्भाव हुआ है। इस तरह बुन्देलखंड में दानवीरता के देवीगीतों से एक तरफ ‘‘राछरों’’ और दूसरी तरफ ‘‘वीरगाथाओं’’ का विकास हुआ है तथा इनकी अगली कड़ी ‘‘रायछौ’’ ग्रन्थ हैं।

कजरियाँ और राखी के गीत
राछरे स्त्रिायों के गीत हैं, लेकिन कभी-कभी सुपुरुष भी गाते हैं। ये अधिकतर सावन में ही गाए जाते हैं। राछरे झूला झूलते या चक्की पीसते समय गाए जाते थे। अब कजरियाँ kajariyan खोंटने के पहले उन्हें घेरकर राछरे गाए जाते हैं। राखियाँ बनाते समय भी स्त्रिायों का गायन चलता रहता है।

वैसे इन गीतों का जुड़ाव कजरियों से है। स्व. शिवसहाय चतुर्वेदी ने उन्हें भुजरियों के गीत माना है। असल में राछरों का सम्बन्ध एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक घटना से है, जो कजरियाँ खोंटने के समय रक्षाबन्धन की पूर्णिमा को घटित हुई थी।

कजरियाँ या भुजरियाँ इस अंचल में बड़ी धूम से निकलती हैं। श्रावण  शुक्ल नवमी के अपरान्ह स्त्रिायों के झुंड मिट्टी लेने जाते हैं। पहले खदान की पूजा होती है, फिर कुछ गेहूँ-जौ के दाने मिट्टी से ढककर मिट्टी खोदी जाती है। मिट्टी लोकगीतों के मीठे स्वरों के साथ घर लाई जाती है और उसे पाँच या सात छेवले के दोनों में गोबर की खाद के मिश्रण के साथ रखकर गेंहूँ या जौ बो दिए जाते हैं। वे रोज पानी और दूध मिलाकर सींचे जाते हैं। प्रतिरात घी का दिया दिखाया जाता है।

इस प्रकार उनमें पीले रंग के पौधे लहरा उठते हैं। कहीं सावन की पूर्णिमा को और कहीं भादों की कृष्ण प्रतिपदा को कजरियाँ किसी सरोवर में खोंटी और सिराईं जाती हैं। इस तरह कजरियाँ मूलतः कृषि के सम्मान के लिए एक उत्सव था। मिट्टी के चुनाव, खाद के मिश्रण, बीज की बुवाई, सींच, सेवा आदि से परिवार के हर आदमी का परिचय हो जाता था और फसल का अन्दाज भी लग जाता था। लेकिन 1182 ई. की ऐतिहासिक घटना ने इस कृषिपरक उत्सव में नया अर्थ भर दिया, जिससे भाई-बहिन का प्रेम कजरियों से जुड़ गया।

ऐतिहासिक घटना आल्हखंड में महोबे या कजरियों की लड़ाई के नाम से प्रसिद्ध है। सावन में दिल्ली के पृथ्वीराज चैहान ने महोबा का घेरा डाल दिया था, जिससे चन्देलनरेश परमर्दिदेव की पुत्री राजकुमारी चन्द्रावली की कजरिया पूर्णिमा को नहीं खोंटी गयी। वीर आल्हा- दल कन्नौज में थे, जिन्हें जाने के लिए कवि जगनिक को भेजा गया था।

चन्द्रावलि ने दूसरे दिन डोले सजवाए और सात सौ डोले किले के बाहर निकल पड़े। पीछे थी चन्देल सेना और सेनापति। युद्ध हुआ और जब पृथ्वीराज का दबाव बढ़ रहा था, तब योगियों की एक सेना अचानक कूद पड़ी और चन्द्रावलि ने कजरियाँ खोंटी। आखिर उसके भाई दल ने बहन की रक्षा की और भाई-बहिन के प्रेम का एक लोकादर्श खड़ाकर दिया, जिससे प्रभावित होकर लोककवियों ने कई राछरे गीत रच दिए।

राछरे की विशेषतायें
राछरे एक ऐतिहासिक युद्ध की कोख से जन्मे वे गीत हैं, जिनके कन्धों पर हिन्दी के समस्त वीरकाव्य का भार है। इसलिए उनके अध्ययन में बहुत सतर्कता और सचेतनता की आवश्यकता है। उनकी वस्तु और शैली का विवेचन तो यहाँ अलग-अलग प्रस्तुत है। साथ ही उनके व्यक्तित्व के कुछ ऐसे केन्द्रिय सूत्र भी खोजे गए हैं, जिनके वीरकाव्य की परम्परा पर नवीन प्रकाश पड़ेगा।

राछरों की वस्तुगत विशेषतायें
आदिकालीन लोककाव्य में राछरे गीत अपनी वस्तु के कारण  अपनी पहचान बनाने में सफल हुये हैं। उनकी कथावस्तु में युद्ध एक सांस्कृतिक संघर्ष बनकर आया है, क्योंकि भाई बहन की कजरियाँ सिराने के लिए युद्ध करता है। अगर आक्रमणकारी बहन का अपहरण  करने अथवा उसकी प्रतिष्ठत गिराने आया है, तो भी उसके विरुद्ध यह युद्ध मानवीय मूल्यों के समर्थन का प्रतीक है। इस प्रकार युद्धपरक राछरे उस युग के राष्ट्रीय गीत कहे जा सकते हैं। संदेशपरक और अपहरणपरक राछरे उन्हीं की कथावस्तु के अंग हैं।

‘कजरियन कौ राछरौ’ युद्धपरक राछरों की प्रतिनिधि रचना है। इस गीत में महोबा के चन्देल-चैहान युद्ध की झलक मिलती है। आल्हा गाथा में इस युद्ध को महोबे की लड़ाई या कजरियन की लड़ाई कहा गया है। सावन में पृथ्वीराज चैहान ने महोबा पर चढ़ाई की थी और कजरियाँ खोंटते समय युद्ध हुआ था। आल्हा- दल के कन्नौज से न आने के कारण राजा परमाल (परमर्दिदेव) की पुत्री राजकुमारी चन्द्रावलि की कजरियाँ एक दिन दुर्ग में बिलखती रहीं, दूसरे दिन भादों में खोंटी गईं।

यही कारण  है कि आज भी महोबा में कजरियाँ पूर्णिमा के अगले दिन खोंटी जाती हैं। लोकगीत में भी भादों में कजरियाँ सिराने को कहा गया है। भाई बहिन से अनुरोध करता है कि इस वर्ष कजरियाँ घर पर ही खोंट लो। सोने की बड़ी-बड़ी नादों में दूध भरा है, उन्हीं में सिरा लो। इस पर बहिन हठ करती है कि वह या तो सरोवर में जाएगी या फिर कजरियाँ यहीं रखी सूख जाएँगी।

यहाँ पर चन्द्रावलि की तरह बहिन भी प्रतिष्ठा का प्रश्न बना लेती हैं। भाई कहता है कि यह कैसी बहिन है जो अपनी हठ से भाई के प्राण लेना चाहती है। इस सावन में युद्ध हो रहा है, अगले सावन में कजरियाँ वहीं तालाब पर खोंट लेना। बहिन नहीं मानती और फिर हर घर में बुलौआ पहुँचता है।

बहिन श्रृंगार करती है और भाई अपनी ढाल-तलवार लेता है। सोने के थार में छप्पन प्रकार के भोजन परोसे जाते हैं, लेकिन भाई एक कौर खाकर ही उठ जाता है। वह कहता है कि ‘‘वह तो रण  में जूझने जा रहा है। कलेवा वे करते हैं, जो कुमारी कन्या ब्याहने जाते हैं।’’ फिर डोला और चैंड़ेज सजते हैं। जैसे ही कजरियाँ सरोवर के घाट पर पहुँचती हैं, शत्रुओं की सेना टूट पड़ती है।

भाई बहिन से कहता है कि ‘‘अभी लौटना हो, तो लौट जाओ। किसी के हाथों में न पड़ना, नहीं तो कुल में कलंक लग जाएगा। बहिन वीर है और भाई भी। दोनों मोर्चे पर लड़ते हैं। शत्रुओं को मारते-मारते भाई की भुजाएँ थक गई हैं और ललकारते-ललकारते आवाज बैठ गई है। भाई की इस वीरता के वर्णन तक लोकगीत समाप्त हो जाता है और ऐसा लगता है जैसे कुछ छूट गया हो।

इस राछरे में राजा परमाल की पुत्री  चन्द्रावलि के प्रसंग की छाया स्पष्ट रूप में दिखाई पड़ती है। अन्तर इतना ही है कि इस गीत के बहिन-भाई लोकसामान्य पात्रा हैं। जबकि चन्द्रावलि और दल लोक के होते हुए भी विशिष्ट बन गए हैं। मुख्य घटना दोनों में एक-सी है, पर आल्हागाथा  में उसका विस्तार है जबकि राछरे में उसका उल्लेख भर है। वस्तुतः यह राछरा आल्हा की ‘‘महोबे की लड़ाई’’ का एक लोकचित्र मात्र है।

गीत में पुरानी बुन्देली के कुछ शब्द गेंवड़े, सिराय, मानिक चैक, वीरा, जूझ, बखरी, घुल्लन, बागो, पाग, गड़अन, डोला, भुज्जें, भाँस आदि उसे आदिकाल का सिद्ध करते हैं। सोने की नाँदें दूधों भरी, सुरसी को बागो, निरमोला पाग, छप्पन भोजन, सोने के थारन, रूपे के गडुअन, बारन-बारन मोती गोए, किसवारन हीरा लाला आदि से भी उसकी प्राचीनता सिद्ध होती है। नकीब (अरबी) दुश्मन (फारसी), दाग (फारसी), जैसे शब्द मध्ययुग में जुड़ गए हैं। लेकिन यह गीत 13वीं शती की ही रचना है।

प्रस्तुत राछरे में लोकसंस्कृति के कुछ चित्रा उभरे हैं। कजरियाँ सिराना, वीरा (पान का बीड़ा) उठाना, बागो और पाग धारण करना, घोड़े के सुम्म और पूँछ रचाना आदि तत्कालीन संस्कृति के द्योतक हैं। बहिन की कजरियों के लिए भाई का संघर्ष इस अंचल का लोकादर्श है। कजरियाँ बोना, खोंटने के पहले चैक में रखना, झूला में झुलाना, पान के बीड़े लगाकर रखना ताकि वीर उठाकर चुनौती का सामना करने की जिम्मेदारी ले सके, युद्ध में प्रयाण के पूर्व मुँह मीठा करना, डोला पर कजरियाँ ले जाना, तालाब के घाट पर खोंटना, भाई और पति को कजरियाँ देना आदि सभी क्रियाएँ लोकसंस्कृति का अंग रही हैं। इस दृष्टि से भी यह गीत आदिकालीन ठहरता है।

मुरैना-भिंड के राछरों की विशेशता
मुरैना-भिंड क्षेत्र में एक ऐतिहासिक राछरा प्रचलित है। उसमें चन्द्रावलि प्रसंग का ही वर्णन है। चन्द्रावलि अपनी माता मल्हना से झूला डलवाने के लिए कहती है। पृथ्वीराज चैहान के महोबा पर चढ़ाई के कारण मल्हना भयभीत है। आल्हा- दल भी महोबा में नहीं हैं। चन्द्रावलि कहती है कि ‘माता दिवला (देवलदे) के पुत्र  दल के बिना उसका सावन सूना है। दत्न ने झूला पर आने का वचन दिया था, पर वह अपनी चाल चल गया और नहीं आया।’’

इतना कहकर चन्द्रावलि अपनी सहेलियों के साथ बाग में झूलने जाती हैं। मौका पाकर शत्रु-सैनिक वहाँ जा पहुँचते हैं, पर अभई और रंजित उन्हें बन्दी बना लेते हैं। तभी चैड़ा अभई और रंजित पर हमला कर देता है और उन्हें मार गिराता है। राजा परमाल का सुपुत्र ब्रह्मानन्द पीछे से आकर चैड़ा को पकड़ लेता है और उसे जनाने कपड़े पहनाकर भेज देता है।

इसके बाद भयंकर युद्ध होता है। देवी के द्वारा स्वप्न दिए जाने पर दल अपने वीरों के साथ जोगी वेष में आते हैं। उनकी तीन लाख सेना भी आ पहुँचती है। आल्हा Alha, उदल Udal, लाखन Lakhan, इन्दल Indal जैसे वीरों की रक्षापंक्ति के कारण  चन्द्रावलि सरोवर में भुजरिया सिराती है और त्यौहार मनाती है। इस कथा के आधार पर उसे ‘चन्द्रावलि का राछरौ’ कहना उचित है।

सन्देशपरक राछरे
सन्देशपरक राछरे बहिन और भाई के सन्देशों से भरे हुए हैं। बहिन एक जोगी से भाई को सन्देश भेजती है कि ‘‘सावन आ गया है। उसने बड़े भोर चुनरिया रंगा ली है और माँग सिन्दूर से भर ली है। हे बीरन (भाई), मुझे माता के देश (मायका) दिखाने ले जाना।’’ प्रश्नोत्तर शैली में वह माता-पिता और भाई-भौजी की स्मृति में खो जाती है।

माता का कहना है कि ‘‘नित्य आना, लेकिन पिता छः माह का समय बताते हैं। भाई अवसर-काज पर आने के लिए कहते हैं, पर भौजी अपने को व्यर्थ समझती है। माता के रोने से नदी बह उठती है, पिता के रोने से सागर-ताल भर जाते हैं, और भाई के रोने से हृदय फटता है, लेकिन भौजी का जी कठोर है। इन स्मृतियों  में खोई बहिन भाई को मायके ले जाने के लिए सन्देश भेजती है।

दूसरे सन्देशपरक राछरे में भाई का सन्देश है। जब बहिन ऊंचे अटा पर चढ़कर भाई को देखती है और उनके न दिखाई देने पर निराश होती है, तब भाई की सूचना उसे मिलती है। भाई कहता है ‘‘हम इतनी घनी डाँग (जंगल) पार कर कैसे आएँ ?’’ बहिन उत्तर देती है ‘‘बढ़ई को बुलाकर डाँग कटवा दूँगी और भाई हाथी पर बैठकर आ जावें।’’

इसी शैली में जब भाई नदी की बाधा कहता है, तब बहिन केवट बुलाकर नाव डलवाने का तर्क देती है। भाई बहुत चतुर है। वह भूख का जोर बतलाता है, तो बहिन मिठया (हलवाई) से लड्डू तैयार कराने की बात कहती है। प्यास के लिए वह ढीमर का प्रबन्ध करती है और पान के लिए बरई का।

अन्त में नींद का मसला आता है, जिसके लिए वह पलका और सेज की व्यवस्था करने को तत्पर है। तात्पर्य यह है कि भाई के इन उपालम्भों से काम नहीं चलेगा, उसे बहिन को लेने आना जरूरी है। इस प्रकार इन दोनों गीतों में भाई-बहिन के प्रेम की मनुहारें ही प्रकट हुई हैं।

अपहरणपरक राछरे में एक जोगी भाई बनकर आता है और बहिन कहकर लुवा ले जाता है। देवर अपनी माता से जोगी के छल का संकेत देता है, पर माता नहीं मानती। गोरी धन अपने पिता के बाग-बगीचा देखकर डोली उतारने को कहती है, लेकिन जोगी स्पष्ट कर देता है कि वह उसका भाई नहीं, स्वामी है। यह सुनकर उसने कटारी मारकर आत्महत्या कर ली और अपने पति को स्वप्न दिया कि वे चन्दन लकड़ी काटकर उसका अन्तिम संस्कार करें। आदिकालीन समाज में अपहरण के  साक्ष्य  मिलते  हैं।

चन्देलनरेश  परमर्दिदेव (1165-1203ई.) के अमात्य वत्सराज के ग्रन्थ ‘‘रूपकषटकम्’’ में रूपवती कन्या के गुणों को सुनकर छलबल से उसका अपहरण  करना तत्कालीन शौर्य का अंग बताया गया है । साथ ही पातिव्रत्य को चन्देलों के विवरणों में आदर्श माना गया है। दोनों की परिणति इस राछरे में हुई है। एक तरफ नारी छल से अपहृत की गई है, तो दूसरी तरफ पातिव्रत्य का निर्वाह करती हुई वह आत्महत्या कर लेती है।

उक्त गीत में चन्देलकालीन नारी की वास्तविक स्थिति का चित्राण हुआ है। उस युग में शाक्तों ने नारी, भोग और तन्त्रा को प्रमुख स्थान दिया था। कापालिक और अघोरपंथियों की संख्या बढ़ गई थी। चन्देलों की राजधानी महोबा में गोखा या गुखार पर्वत गोरखनाथ के नाम पर प्रसिद्ध है। उसमें एक चट्टान पर योगी के आकर्षण का दृश्य उत्कीर्ण किया गया है, जिसे लोग सुनरा-सुनरिया कहते हैं।

अभी कुछ वर्षों पहले तक महोबा में ‘जुगयाना’ उठता था, जिसमें निर्गुणी भजन गाए जाते थे। मतलब यह है कि चन्देलकाल में जोगियों का एक समुदाय प्रबल था। इस गीत का योगी यदि छल से नारी का अपहरण करता है, तो इसमें युग का यथार्थ ही प्रकट हुआ है और यदि नारी ने आत्महत्या की है, तो उसमें युग का एक आदर्श बोला है। इस प्रकार इस राछरे में यथार्थ और आदर्श का अच्छा समन्वय हुआ है।

राछरों की  शैलीगत विशेषता
राछरों में पुरानी बुन्देली के शब्द-गेंवड़े, सिराय, बीरा, जूझ, घुल्लन, गडुअन, भुज्जें, उरगिया फेंटली, पाँवड़ी, सतखंडा, खेरो, अग्गम-पच्छम, इड़ियन-छिड़ियन, लहर-पटोर आदि मिलते हैं। कजरियाँ सिराना, पान के बीड़ा रखना, जाने के पहले मुँह मीठा करना, मुतियन माँग भरना, छप्पन भोजन, मानिक चैक, सोने की नाँदें दूधों भरी, सोने के थार, रूपे के गडुआ, घोड़ी के पाँव रचाना और पूँछ रंगना, चन्दन लकड़ी आदि चन्देलकालीन संस्कृति का आलेखन करते हैं।

स्पष्ट है कि इन गीतों की भाषा में तत्कालीन ओजस्विनी अनुभूति को अभिव्यक्त करने की पूरी क्षमता है। अभिधात्मक होते हुए भी उसमें अद्भुत व्यंजकता है। एक-एक पंक्ति एक-एक प्रसंग का प्रतिनिधित्व करती है। तीस-चालीस पंक्तियों का हर राछरा खंडकाव्य-सा प्रभाव रखता है।

जिस प्रकार एक रासो में एक युद्ध प्रमुख होता है और किसी विशेष उद्देश्य से वीरता की अभिव्यक्ति प्रधान होती है, ठीक उसी प्रकार इस गीत में कजरियों के सिराने के लिए भाई दुश्मनों से युद्ध करता है और कुल एवं राज्य की रक्षा के लिए बलिदान तक हो जाता है। उरई के युद्ध में वह अपनी मात भूमि के लिए मृत्यु का वरण करता है, जबकि कजरियों के युद्ध में उसकी वीरता का वर्णन एक पंक्ति में हो जाता ह

‘मारत-मारत भुज्जें रै गई ललकारत रै गई भाँस।’

कजरियन के राछरे के प्रारम्भ में एक पंक्ति प्रकृति-वर्णन की है, एक पंक्ति काल-बोध की है और एक पंक्ति बहिन को ससुराल से बुलाने की है। फिर छः पंक्तियों में बहिन-भाई के संवाद हैं, जिनमें ताल में कजरियाँ खोंटने की बहिन की हठ जीतती है। दो पंक्तियों में कजरियाँ सिराने के लिए घर-घर का बुलौआ हुआ। प्रश्नोत्तर शैली की दो पंक्तियों में नारियों का श्रृंगार और चार पंक्तियों में पुरुषों की वस्त्र-शस्त्र-सज्जा का वर्णन  है। तीन पंक्तियों में भाई का भोजन और दूसरा कौर खाने से मना करना।

चार पंक्तियों में कलेवा न करने का कारण , दो पंक्तियों में अश्व-सज्जा और तीन में डोलादि की व्यवस्था को व्यक्त किया गया है। तीन पंक्तियों में दुश्मन का आक्रमण और बहिन के लिए भाई की सीख का कथन है। एक पंक्ति में युद्ध और एक पंक्ति में लोथों का वर्णन है। इस तरह एक राछरा अपने वामन रूप में एक रासोप्रबन्ध ही है। उसमें थोड़े में सबकुछ है, जो उसकी व्यंजक शैली की विशेषता है।

इसीलिए राछरे से वीरगाथाओं और फिर रासोकाव्यों का आविर्भाव हुआ है। इस ऐतिहासिक कड़ी को विस्म त करने से बड़ी हानि हुई है। हिन्दी के ऐतिहासिक काव्य के बीज देवीगीत और जड़ राछरे हैं, तना आल्हागाथा के रूप में प्रस्फुटित हुआ है तथा वीरगाथाएँ, रासोकाव्य, चरितकाव्य आदि उसकी शाखाएँ-प्रशाखाएँ हैं। राष्ट्रीय काव्यधारा का उद्गम राछरों से ही हुआ है। अगर देवीगीत और राछरे न होते, तो आल्हा जैसा राष्ट्रीय लोकमहाकाव्य न बनता।

आदिकालीन राछरों में अनोखी रसवत्ता है, जिससे प्रभावित होकर लोक ने उन्हें आज तक जीवित रखा है। कथारस से बँधी वीर, श्रृंगार और करूण  की रसगेदियाँ धीरे-धीरे फूटकर लोकमानस को रससिक्त कर देती है। उनमें सराबोर करने की क्षमता भले ही न हो, पर भीतर का विचलित करने का गुण  अवश्य है।

बैठी जो रइयो रानी सतखंडा, खइयो डबन के पान।
हम तो पलट घर आहैं, मुतियन भरा देंव तोरी माँग।।
बरजैहें अटरियाँ जे सतखंडा, पानई पै परजै तुसार।
प्यारे तुमारे अकेले जियरा बिन, सूनो लगै सिंसार।। (उरई कौ राछरौ)
धरीं कजरियाँ तला के पारैं, बिटिया आन सिराव।
टूटी फौजें दुस्मन की बहिना, भगनें होय भग जाव।।
हाँत न परियो तुम काऊ के, लगजैहै कुल में दाग। (कजरियन कौ राछरौ)


जुगिया माता बड़ो बैरगिया भौजी छलें लै जाय। हमाये बाबुल के बाग बगीचा ओई तरें डोली उतार।। जोगी वीरन जिन कहौ धनियाँ जोगी है स्वामी तुम्हार। इतनो सुनो तो प्यारी धनियाँ मार कटारी मर जायँ।। अपने महल में स्वामी सोबें गोरी धन सपनो देय।
चन्दन लकड़ी कटावौ मोरे स्वामी गोरी धन दाग दिबाव।। (अपहरण कौ राछरौ)


पहले उदाहरण में श्रृंगार, दूसरे में ओजत्व और तीसरे में करुण  भावों की लोकसहज अभिव्यक्ति हुई है। लोकभावों की लोकाभिव्यक्ति ही लोकगीतों में अभीष्ट है। राछरों में श्रृंगार, वीर और करुण  तीनों रसराजों का सहज रूप मिलता है, जिसकी वजह से राछरों की प्रभावोत्पादकता बढ़ गई है।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

संदर्भ
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

Leave a Comment

error: Content is protected !!