Bundelkhand Ka Lok Jivan बुन्देलखण्ड का लोक जीवन

Photo of author

By admin

कला,संस्कृति और साहित्य का आधार
The basis of art, culture and literature
किसी भी देश की संस्कृति का आधार उस देश के भौगोलिक आधार के साथ- साथ साहित्य, कला, संगीत, धर्म, दर्शन, कला तथा राजनितिक विचारों पर आधारित रहती है। भारत की संस्कृति अनेक तत्वों के मिश्रण से बनी है। विश्व की अनेक प्राचीन संस्कृतियां नष्ट हो चुकी है , परन्तु भारतीय संस्कृति आज भी तट्स्थ है आज भी जीवंत है और उसकी चमक आज भी प्रवाहित हो रही है।

/> भारतीय समाज की जीवन शैली एक जैसी है किन्तु उसमें आंचलिकता और लोकत्व की झलक उसे विशिष्टता प्रदान करती है। लोक जीवन के सांस्कृतिक पक्ष में लोक संगीत, लोकगीत, लोकनृत्य, लोकवाद्य, लोककथायें, लोकगाथायें, बुझौअल, पहेली, लोकोक्तियां, रीतिरिवाज, पर्व उत्सव, व्रत-पूजन, अनुष्ठान, लोक देवता, ग्रामदेवता, खेल, मेले, बाज़ार, आदि का समावेश है। कला पक्ष के अन्तर्गत भूमि, भित्त चित्र , मूर्तिकला, काष्ठशिल्प, वेशभूषा, आभूषण, गुदना, आदि है।

बुन्देलखण्ड की सामाजिक समरसता
Social Harmony of Bundelkhand
बुन्देलखण्ड की लोकधारा वैदिक काल से प्रवाहित होती हुई अपनी लोक शक्ति के माध्यम से समाज के सभी वर्गों में समरसता बनाए हुई थी। वर्ण व्यवस्था पर आधारित समाज व्यवस्था समन्वयवादी, पारस्परिक स्नेह एवं सम्मानवर्धक है। जन्म से लेकर मृत्यु तक हर ऐसे मौके पर समाज के हर वर्ग का एक दूसरे के प्रति परस्पर प्रेम, सौहार्द और एक दूसरे की मदद करना जीवन का अभिन्न अंग है।

जिस प्रकार नाई का विशिष्ट स्थान है जन्म से लेकर शादी-विवाह और जीवन के अंतिम चरण तक नाई अपनी क्रियात्मक उपस्थिति दर्ज कराता है। समाज के लोग स्नेह से उसे खबास जू कह कर पुकारते हैं। उसी प्रकार खबास जू की पत्नी खबासन का हमारे सामाजिक कर्म काण्डों मे विशेष स्थान है। धोबिन से सुहाग मांगा जाता है। कुम्हार मिट्टी के बर्तन जिसे शतप्रतिशत शुद्ध और पवित्र माना जाता है। बढई की,माली की, ढीमर की सभी का रचनात्मक योग्यदान होता है।

सामाजिक एकरुपता में सभी वर्ग एक दूसरे पर निर्भर हैं। विवाह की लकड़ी काटने हेतु छेई के बुलउवा से अन्त्येष्टि तक का बुलउवा लगता है। मृत्यु के पश्चात भी फेरा डालने में सभी जाति/वर्गों का अपना-अपना स्थान और योग्यदान है। सामाजिक तथा आर्थिक सहयोग की भावना महत्वपूर्ण है।


इसे भी देखिए: बुन्देलखण्ड के लोकनृत्य

ग्राम देवताओं में आस्था
(Faith in Village Deities)
हरदौल तथा कारसदेव आदि वह व्यक्तित्व हैं जिसे मानव होकर भी देवताओं की तरह पूजा जाता है। उनका प्रतीक उनका चबूतरा बन जाता है और वही उनकी आस्था का केन्द्र बन जाता है। बुन्देलखण्ड के विशिष्ट पर्व कजलियों के मेले में प्रेम से आलिंगनबद्ध होकर मिलना, कजलियां देना तथा बड़ों का चरण स्पर्श करना लोक धर्म है। दशहरे मे रावण रूपी सामाजिक बुराई का जलना और सभी का एक दूसरे को पान खिलाकर एक दूसरे से गले मिलना हमारी संस्कृति का अंग है।

सुअटा, नौरता, टेसू, अकती, विशिष्ट लोक-पर्व हैं। यह खेल बालक बालिकाओं को जीवन क्षेत्र में उतारने के पूर्व प्रशिक्षण देते हैं। बुन्देली लोक जीवन में अधिकतर शुभकार्य उत्तरायण तथा मुहूरत निकलवा कर किये जाते हैं। विज्ञान की दृश्टि से पर्वतों नदियों, सरोवरों, और वृक्षों की पूजा की जाती है। पीपल, बरगद, नीम, आंवला, तुलसी, केला, बेलपत्र आदि वनस्पतियों को पूज्यनीय श्रेणी में रखा गया है। भोजन बनने के पश्चात तुलसी डाल कर ठाकुर जी को प्रसाद लगाकर खाना तथा तुलसी के बिरवे को नित्य जलदान देना प्रतिदिन का कर्तव्य माना गया है। वनस्पतियों का संरक्षण एवं सम्बर्द्धन वातावरण को शुद्ध कीटाणु मुक्त करता है।


लोक गीत Folk Song
बुंदेलखंड के लोग अपनी अभिव्यक्ति लोक गीतों के माध्यम से व्यक्त करता है। किसी को इन गीतों के रचनाकार का पता नहीं होता है। यदि किसी गीत का रचनाकार ज्ञात हो तो उसे लोक-गीत की श्रेणी में परिगणित नहीं किया जाता है।

यह गीत प्रायः देवी-देवताओं के पूजा विषयक संस्कार गीत, ॠतु विषयक गीत, श्रृंगार गीत, श्रमदान गीत, जातियों के गीत, बालक-बालिकाओं के क्रीड़ात्मक (खेलपरक) गीत, उपासना गीत या शौर्य गीत होते हैं। अपनी भावनाओं को व्यक्त करने का एक सुंदर तरीका है। बुन्देली लोक गीत लोक संस्कृति के दर्पण हैं।


लोक नृत्य Folk Dance
भावनाओं का अति उत्साहित होना, लोकनृत्य उल्लास पूर्ण अभिव्यक्ति का सशक्त माध्यम हैं। हर्ष के क्षणों में जब समूह में उमंग की हूक उठती है तो पैर स्वतः ताल लय में थिरकने लगते हैं। यह नृत्य प्रायः तीन प्रकार के होते हैं-सार्वजनिक नृत्य, पारिवारिक नृत्य तथा जातीय या आदिवासियों के लोकनृत्य। करमा और शैला आदिवासियों के लोक नृत्य हैं। सार्वजनिक नृत्य के अंतर्गत दिवारी नृत्य हाथ में डण्डे और लाठिया लिये रहते हैं कमर में घुंघरु बांधे रहते हैं तथा टेर के साथ गाते हैं। नृत्य ढ़ोलक तथा नगड़िया के साथ समूह में होते हैं।

राई नृत्य प्रमुख रुप से बेड़िनी जाति का नृत्य है। झिंझिया क्न्वार माह की पूर्णिमा को टेसू के अवसर पर कुंवारी बालिकाओं से लेकर वृद्ध महिलाओं तक के द्वारा नृत्य किया जाता है। धुबियायी, रावला, काछियाई, चमार, गड़रिया, मेहतर, कोरी आदि के अपने अलग अलग परमपरागत सामजिक लोक है जिनमे पुरुष स्री का वेश रखता है और दूसरा विदूषक बनकर गीत गाते है रमतूला, केकडी( सारंगी जैसा ) ढोलक, नगडिया, मंजीरा, खड्ताल आदि के साथ गाते नाचते हैं।

ढीमरयाही ढीमर जाति द्वारा विवाह के अवसर पर पुरुष तथा महिलाओं द्वारा नृत्य प्रस्तुत किया जाता है। पारिवारिक नृत्य में चंगेल या कलश नृत्य। शिशु जन्म के समय बुआ द्वारा लाये गये बधाई के साथ किया जाता है। लाकौर या रास बधावा नृत्य विवाह में भांवर की रस्म पूरी होने के पश्चात कन्या पक्ष की महिलाओं द्वारा जब वह डेरों पर जाती हैं तो बहू का टीका पूजन, वर पक्ष के रिश्तेदारों द्वारा किया जाता है। बालिकायें व महिलायें बन्नी गाते हुये नृत्य करती हैं। इसी प्रकार बहू उतराई का नृत्य विवाहोपरान्त वर पक्ष के निवास में होता है। सगुन चिरैया गीत गाये जाते हैं सास देवरानी, जिठानी, बुआ आदि उल्लास में नाचती हैं।


लोक कथायें – लोक गाथायें
Folk Stories – Folk Songs
दादी या नानी द्वारा सुनाई जाती थीं। बहुधा यह पद्यमय होती थीं। लोकोक्तियां व्यवहार तथा नीति सम्बन्धी होती हैं। बुझौअल (पहेली) बालक, बालिकायें आपस में बूझते हैं। मुहावरों का प्रयोग लेख या मौखिक वार्ता में होता है। लोक देवता, ग्राम्य देवता तथा रीति-रिवाज सामाजिक स्वीकृति के आधार पर जन्मते तथा विकसित होते हैं।

लोक कलायें हमारे सामाजिक जीवन को सुसंस्कृत और सम्पन्नता प्रदान करती हैं। भूमिगत अलंकरण में गणेश जी, स्वास्तिक, यक्राकार सातिया (स्वास्तिक), कलश, कमल, शंख, दीपक, सूर्य चन्द्र आदि गोबर या चावल के घोल तथा गेरु से बनाये जाते हैं। इन पर जौ के दाने चिपकाते हैं। मूर्तिकला की दृष्टि से महालक्ष्मी तथा हस्ति (हाथी) गनगौर, सुअटा, दीवाली पर गणेश, लक्ष्मी तथा मलमास में काली मिट्टी की शिव प्रतिमायें बनाई जाती हैं। अक्ती के अवसर पर पुतरिया बनाई जाती हैं।


वेशभूषा Costumes
बुन्देली वेशभूषा में महिलाओं में घाघरा पहिनने का प्रचलन था। श्रमिक महिलायें कांछ वाली धोती पहिनती हैं। पुरुष साफा, बंडी, मिर्जई, कुर्ता, धोती पहिनते हैं, स्रियां पैरों में पैंजना तथा गले में सुतिया ये प्रायः चांदी या गिलट के होते हैं। बालक चूड़ा, पैजनिया, करघनी, कड़ा, कठुला पहिनते हैं। आदिवासी तथा ग्रामीण आंचल की महिलायें सौन्दर्य वृद्धि के लिये गुदना गुदवाती हैं। इनमें पशु, पक्षी, फूल, स्वयं का नाम इष्टदेव का नाम आदि होता है।

भोजन में प्रमुख बरा, बछयावर, फरा, हिंगोरा, ढुबरी, महेरी, सुतपुरी, आदि प्रमुख थे। लोकाचार में सगुन-असगुन, टोटका झाड़फूंक पर विश्वास अधिक प्रचलित है। लोक मंच में रामलीला, रास लीला, स्वांग, नौटंकी समय-समय पर आयोजित होते हैं। लोक क्रीड़ाओं में बालिकाओं के खेल चपेटा या गुट्टा लोकप्रिय हैं। मैदानी खेलों में बालक सामान्यतः गुल्ली डंडा, छुआ छुऔअल, ओदबोद, कंचा (गोली), कबड्डी, खोखो आदि खेलते हैं।
बुंदेलखंड साहित्यिक, सामाजिक, राजनैतिक सांस्कृतिक, कलात्मक, प्राकृतिक, धार्मिक तथा भौगोलिक दृष्टि से बहुत सौभाग्यशाली रहा है।

सांस्कृतिक सहयोग के लिए For Cultural Cooperation

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

error: Content is protected !!