Kanhda Parampara काँड़रा-परम्परा

Kanhda Parampara काँड़रा-परम्परा

बुन्देलखंड का काँड़रा राई की तरह मूलतः नृत्य ही है, लेकिन भक्तिकाल के दौरान 16वीं शती के उत्तरार्द्ध और 17वीं शती के पूर्वार्द्ध में जब रासलीला को उत्कर्ष मिला, तब उसकी प्रतिक्रिया में निर्गुण ब्रह्म के भक्तों ने Kanhda-Parampara काँड़रा-परम्परा / काँड़रा नृत्य का विकास किया।

बन्देलखंड का लोक नृत्य काँड़रा  उद्भव और विकास  

बुंदेलखंड का प्रसिद्ध नृत्य कांडरा मूलत: धोबियों का नृत्य है। इस नृत्य को चकरी / फिरकी के समान घेरे मे घूम-घूम कर नाचा जाता है। घेरे

को बुंदेलखण्ड में कौंड़ा कहा जाता है। इसलिये इस नृत्य का नाम कौंड़ारा / कांडरा नृत्य पड़ा।

नृत्य करने वाले कलाकारों की वेशभूषा बड़ी आकर्षक और मनमोहक होती है। वह सफेद रंग का बागा (पैरों तक नीचे कुर्ता) पहनता है, सिर पर पागड़ी  बाँधता है और पागड़ी में पक्षियों के पंखों की कलगी लगी रहती है तथा पैरों में घुंघरू पहना जाता है।

इस नृत्य का उड़भव भक्ति काल के दौरान हुआ इस लिए काँड़रा नृत्य में निर्गुनिया भजन गाता हुआ नर्तक नृत्य करता है और अपने गीत के अनुरूप हावों-भावों का प्रदर्शन भी करता है।

काँड़रा के इस रूप में संवाददात्मकता का प्रवेश तब हुआ जब निर्गुण-सगुण मतों के बीच विवाद-जैसी स्थिति बनी। साथ एक ही कलाकार द्वारा लम्बे समय तक गाने और नृत्य करने में उत्पन्न थकान और ऊब के कारण भी उसमें किसी प्रसंग, घटना, विनोद और कथा को गूँथना जरूरी समझा गया। फलस्वरूप उसमें पहले गीतिबद्ध संवाद, फिर गीतिबद्ध कथा या स्वाँग आए और वह नृत्यपरक लोकनाट्य में परिवर्तित हो गया।

वस्तुतः 17वीं शती के उत्तरार्द्ध में ही रासलीला-जैसी संवादशैली बन गई, किन्तु कथारहित होने के कारण लोकप्रिय न हो सकी। 18वीं शती में जैसे ही भोगविलासपरक संस्कृति का रुतबा बढ़ा और लोक उससे चमत्कृत हुआ, वैसे ही उसमें प्रेमपरक कथागीत या विनोद और शृँगार-परक स्वाँग समाहित हो गए।

बुन्देलखंड में काँड़रा का मंच खुला मैदान, चबूतरा, मन्दिर का प्रांगण, चैपाल आदि होते थे, किन्तु अब सज्जित और पर्देदार मंच का उपयोग हो रहा है। मंच के पृष्ठ के करीब वादक मृदंग, कसावरी, मंजीरा और झींका पर संगति करते खड़े रहते हैं, जबकि नर्तक सारंगी-वादन करता किसी निर्गुनिए गीत से मंगलाचरण प्रारम्भ करता है।

वादक वेशभूषा पर ध्यान नहीं देते, लेकिन नर्तक जो काँड़रा नाम से प्रसिद्ध रहता है, सराई पर रंग-विरंगा जामा (बुन्देली में झामा) पहनता है और सिर पर कलगीदार पगड़ी बाँधता है। जामा पर रंगीन या सफेद कुर्ती। कुल मिलाकर उसकी सज्जा रासलीला के कृष्ण की तरह होती है और ऐसा प्रतीत होता है कि कान्ह से कान्हड़ा या कान्हरा और फिर काँड़रा हुआ है।

काँड़रा कलाकार अपने नृत्य में अधिकतर फिरकी/चाकरी की मुद्रा में वैसा ही घूमता है, जैसे कृष्ण एक खास नृत्य मुद्रा में चक्राकार परिधि बनाते हैं। नृत्य की गतों के अनुरूप जामा तरंगायित होता रहता है और नर्तक अपनी विविध भावमुद्राओं से गीत के कथ्य को अभिनेय बनाता गत्यात्मक चित्र उपस्थित करता है।

उसमें जामा की लहरदार थिरकन दर्शकों को मोहित कर देता है। कभी-कभी दो-चार गीतों का जब एक लम्बा सिलसिला चलता है, तब नृत्य-कला के हुनर प्रदर्शित होते हैं, खास तौर से दो या तीन दलों की प्रतियोगिता में। जो दल विजयी होता है, दूसरे की कलगी छीन लेता है।

यह परम्परा मध्ययुग की फड़बाजी की देन है। धोबी जाति के कुछ बुजुर्गों का कथन है कि कलगी तो धोबियों को दी गई थी। अगर कोई दूसरी जाति का लगाता है, तो धोबी कलाकार उसे परास्त कर कलगीविहीन कर देता है।

निर्गुनिया गीतों के बाद प्रेमपरक गीतनाट्य शुरू होता है, जिसमें कथा के अनुसार स्त्री पात्र -पुरुष पात्र अभिनय करते हैं। कभी स्त्री नहीं तो पुरुष ही स्त्री का पाठ करते हैं। उनके श्रंगार के लिए मुर्दाशंख सहज उपलब्ध सामग्री का उपयोग किया जाता है। एक साक्ष्य के अनुसार ढोला-मारू, सारंगा-सदाब्रज जैसे आख्यान रात-रात भर चला करते थे, जिनमें गीतों के माध्यम से ही कथा कही जाती थी। हर पात्र नृत्य करते हुए कथा को आगे बढ़ाता था। इस कारण अभिनय अधिकतर आंगिक और वाचिक होता था और संवादों में भी हावों-भावों के प्रदर्शन से अभिव्यक्ति प्रभावी बनती थी।

मतलब यह है कि नृत्य, संगीत और अभिनय की त्रिवेणी का बहाव कथापरक गीत की गति से बँधा हुआ संयमित रहता है। यदि स्वाँग को बीच में संयोजित किया जाता है, तो अभिनय अधिक मुखर हो जाता है, लेकिन वह विष्कम्भक-जैसा बुना हुआ भी कथा अथवा गीतधारा के बीच मुख्य वस्तु से विलग रहता है। फिर भी श्रोताओं की थकान को तोड़ने के लिए एक सशक्त माध्यम ठहरता है।

बुंदेलखंड मे जमींदारी खत्म होने के पहले हर गाँव में काँड़रा हुआ करता था, लेकिन उसके बाद विवाहोत्सव में ही कभी-कभी उसका प्रदर्शन यदा-कदा दिखाई पड़ता है। बुन्देली लोकमंच का यह लाड़ला नृत्यनाट्य सर्वाधिक प्रभावशाली सिद्ध हो सकता है, शर्त यह है कि पुराने कलाकारों को  प्रोत्साहन मिले।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

संदर्भ बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

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