Bundeli Bhasha Aur Sahitya Ka Vikas बुन्देली भाषा और साहित्य का विकास एवं संरक्षण

Bundeli Bhasha Aur Sahitya Ka Vikas

बुन्देली भाषा मुख्य रूप से अखंड बुंदेलखंड में बोली जाने वाली भाषा है। इसे बुन्देलखंडी भाषा भी कहा जाता है। इसकी लगभग 25 बोलियाँ हैं। बुन्देली भाषा के प्रयोग और इसके साहित्य के साक्ष्य पुरातन काल से मिलते हैं। 12वीं सदी, विक्रमी संवत 1230 में कवि जगनिक द्वारा रचित आल्हा चरित‘ (परमाल रासो) को बुन्देली का आदिकाव्य और जगनिक को बुंदेली का आदिकवि माना जाता है। Bundeli Bhasha Aur Sahitya Ka Vikas evam Sanrakshan बुंदेलखंड की दिशा और दशा को सुसंस्कृत बनाएगा । 

बुन्देली भाषा चार सौ सालों तक राजभाषा रही। इसमें पद्य और गद्य साहित्य की रचना चंदेलकाल से आजतक होती आ रही है। बुंदेली साहित्य और लोकसाहित्य साहित्य की दुनिया में प्रतिष्ठित है। जनकवि जगनिक, तुलसीदास, आचार्य केशवदास, महाकवि ईसुरी, गंगाधर व्यास, आचार्य चतुर्भुज ‘चतुरेश’, मदनेश,  अवधकिशोर श्रीवास्तव ‘अवधेश’, रामचरण हयारण ‘मित्र’, घासीराम व्यास, कन्हैयालाल ‘कलश’, बनारसीदास चतुर्वेदी, भैयालाल व्यास ‘विंध्यकोकिल’, डॉ० नर्मदाप्रसाद गुप्त, डॉ० रामनारायण शर्मा, डॉ० बहादुर सिंह परमार, डॉ० बलभद्र तिवारी, डॉ० शरद सिंह, दुर्गेश दीक्षित, गंगाप्रसाद गुप्त ‘बरसैंया’, डॉ० अवध किशोर जड़िया, डॉ० राघवेंद्र उदैनियाँ ‘सनेही’, महेश कटारे ‘सुगम, सतेंद सिंघ किसान ‘कुसराज’ आदि प्रमुख बुन्देली साहित्यकार और भाषासेवी हैं।

बुन्देली भाषा और साहित्य के विकास एवं संरक्षण में साहित्यकारों, चंदेल राजाओं, बुन्देला राजाओं, भारत सरकार, उत्तर प्रदेश सरकार और मध्य प्रदेश सरकार के साथ ही बुन्देली वार्ता शोध संस्थान गुरसरांय झाँसी, बुन्देली विकास संस्थान बसारी छतरपुर, बुन्देली पीठ सागर विश्वविद्यालय, बुन्देलखंड साहित्य परिषद छतरपुर, बुन्देली भारती परिषद पृथ्वीपुर, बुन्देली झलक आदि संस्थाओं और मधुकर, बुन्देली वार्ता, मामुलिया, चौमासा, ईसुरी, बुन्देली बसंत, अथाई की बातें, खबर लहरिया, बुन्देली बौछार आदि पत्र-पत्रिकाओं का उल्लेखनीय योगदान है।

बीज शब्द
बुन्देली भाषा, बुन्देली साहित्य, बुन्देलखंडी, बुन्देलखण्ड, अखंड बुंदेलखंड, भाषा, साहित्य, विकास, संरक्षण।

मुख्य प्रतिपाद्य / प्रस्तावना
बुन्देली भाषा की उत्पत्ति और विकास अपभ्रंश से हुआ है, जिसकी आदिजननी भाषा संस्कृत है। बुन्देली भाषा और साहित्य विश्व पटल पर अपनी अनोखी पहचान रखता है क्योंकि बुन्देली भाषा और साहित्य के साक्ष्य विक्रमी 10वीं सदी से मिलते हैं। तभी से बुन्देली भाषा का प्रयोग विविध कार्य-व्यवहारों और साहित्य सृजन में होता आ रहा है। 12वीं सदी में रचा गया बुन्देली महाकाव्य ‘आल्हा’ सदियों से लोकगीतों में जनमानस की पहली पसंद बना हुआ है।

बुन्देली भाषा में कविता, महाकाव्य, कहानी, नाटक, निबंध और लोकगीत आदि का प्रचुर मात्रा में सृजन हुआ है और सूचना क्रांति से तारतम्य बनाते हुए सृजन जारी भी है। 10वीं सदी से लेकर आज 21वीं सदी तक आते-आते बुन्देली भाषा और साहित्य में अनेक बदलाओ हुए हैं। बदलाओ के चलते ही चार सौ वर्षों तक ‘राजभाषा’ के पद को सुशोभित करने वाली ‘बुन्देली भाषा’ अपने विकास के नए द्वार खोलने के लिए संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने के लिए सरकार और जनता का ध्यान आकर्षित कर रही है।

शोधपत्र / शोध-प्रविधि
बुन्देली भाषा
बुन्देली भाषा या बुन्देलखंडी भाषा अखंड बुन्देलखंड की भाषा है। इसका विकास अपभ्रंश से हुआ है। बुन्देली भाषा और साहित्य के विकास एवं संरक्षण का इतिहास बुन्देलखंड के इतिहास से जुड़ा हुआ है। अखंड बुन्देलखंड का अस्तित्त्व धरती की उत्पत्ति के समय से ही रहा है। इसे गोंडवानालैण्ड के नाम से जाना जाता रहा है। इस क्षेत्र का विस्तार विशाल भू-भाग में है।

पुराण काल में इसे चेदि महाजनपद के नाम से पहचाना जाता था। इस प्रदेश में दस नदियाँ बहने के कारण यह ‘दशार्ण प्रदेश’ भी कहलाया। विंध्य पर्वतमालाओं से घिरा होने के कारण इसे विंध्य भूमि की भी संज्ञा दी गई। कालान्तर में यह विन्ध्येलखण्ड के नाम से विख्यात हुआ। इसी विन्ध्येलखण्ड को आज बुन्देलखण्डके नाम से जाना जाता है। जिसे हम (किसान गिरजाशंकर कुशवाहा ‘कुशराज’) अखंड बुन्देलखंड मानते हैं। यहाँ के निवासी बुन्देलखंडीऔर बुन्देला कहलाए। (1.)

बुन्देली और बुन्देलखण्ड के बारे में भिन्न-भिन्न विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं। एक मतानुसार, अग्रलिखित प्रचलित दोहा बुन्देली भाषी क्षेत्र अखंड बुंदेलखंड की सीमा बतलाता है –
इत यमुना उत नर्मदा, इत चंबल उत टौंस।
छत्तसाल सों लरन की, रही न काहू हौंस।।

अखंड बुंदेलखंड की उत्तरी सीमा यमुना नदी और उत्तरी-पश्चिमी सीमा चंबल नदी निर्धारित करती है। इसके दक्षिण में मध्यप्रदेश के जबलपुर और सागर-संभाग तथा दक्षिण-पूर्व में बघेलखण्ड और मिर्जापुर की पहाड़ियाँ स्थित हैं।

बुन्देली और बुन्देलखंड के संबंध में प्रसिद्ध ग्रंथ ‘बुंदेली भाषा साहित्य एवं संस्कृति’ में प्रतिपादित डॉ० कन्हैयालाल ‘कलश’ का मत तर्कसंगत लगता है। उनके अनुसार – ” मुगलकाल की दरबारी भाषा में जैसे जेवर, जेर और पेश अर्थात अकार, इकार और उकार के उच्चारण विलोपन से ‘विंध्येला’ का इकार और उकार में तथा ‘ध्य’ शब्द मात्र ‘दकार’ में परिवर्तित होकर ‘बुन्देला’ शब्द प्रचलित हुआ। अतः इस क्षेत्र के लोग बुन्देला कहलाए और इनकी भाषा ‘बुन्देली भाषा’ कहलाई।

वस्तुतः, विक्रमी 10वीं सदीं विक्रमी में हमें बुन्देली में साहित्य सृजन होने का प्रामाणिक पता लगता है। विक्रमी 11वीं-12वीं सदी में चंदेल शासनकाल में बुन्देली पल्लवित-पुष्पित हुई। ‘मध्यदेश’ पर जब चंदेलों के बाद बुन्देलों का शासन आया, तब उनके नाम पर उनके द्वारा प्रयोग की जाने विशेष भाषा को ‘बुन्देली’ कहा जाने लगा।  ‘सर्वे ऑफ लिंग्विस्टिक‘ में डॉ० जॉर्ज ग्रियर्सन ने ब्रज और बुन्देली भाषा में मौलिक भेद बताकर बुन्देली को एक स्वतंत्र भाषा माना है और इसका नामकरण ‘बुन्देलखंडी’ किया। 

बुन्देलखंड क्षेत्र में बनाफर, सबर, गौंड, रीछ, निषाद, राउत, सौर आदि जातियों का उल्लेख अरण्य सभ्यता यानी वनवासी सभ्यता की जातियाँ के रूप में मिलता है। इनका वर्णन गोस्वामी तुलसीदास विरचित श्रीरामचरित मानस में भी किया गया है। विदुषी ‘लोपामुद्रा’ और महर्षि ‘पतंजलि’ यहाँ निवास करते थे। इन्हीं निवासियों की साहित्यिक भाषा ‘बुन्देली भाषा’ मानी गई। बुन्देलखंड में आज भी बनचारी, बनाफरी और शबरी, सौरयाई बोलियाँ जीवित हैं। जगनिक के परमाल रासो में ‘बनाफर’ शब्द का प्रयोग मिलता है, जिससे बुन्देली की प्राचीनता सिद्ध हो जाती है। 

बुन्देली भाषा-भाषियों की जनसंख्या दस-बारह करोड़ है। बुन्देली भाषा-भाषी प्रदेश ‘अखंड बुन्देलखंड’ में उत्तर प्रदेश के आठ जिले – झाँसी, ललितपुर, जालौन, हमीरपुर, महोबा, बाँदा, चित्रकूट, फतेहपुर और मध्य प्रदेश के चौबीस जिले – टीकमगढ़, निवाड़ी, सागर, पन्ना, छतरपुर, दमोह, जबलपुर, दतिया, शिवपुरी, गुना, अशोकनगर, ग्वालियर, भिंड, मुरैना, श्योपुर, विदिशा, भोपाल, नरसिंहपुर, नर्मदापुरम, रायसेन, सीहोर, छिंदवाड़ा, सिवनी, बालाघाट आदि आते हैं। इन्हीं बत्तीस जिलों को हम मानक बुन्देली भाषा-भाषी क्षेत्र मानते हैं। 

‘बुन्देली भाषा-भाषी क्षेत्र दर्शन’ के अन्तर्गत आलोचक डॉ० राम नारायण शर्मा जनपदीय क्षेत्र विशेष और जाति विशेष में बुन्देली भाषा के नाम का उल्लेख करते हैं, जिन्हें हम बुन्देली की बोलियाँ मानते हैं। उनके अनुसार अग्रलिखित बारह बोलियाँ हैं – शिष्ट हवेली, खटोला, बनाफरी, लुधियातीं, चौरासी, ग्वालियरी, भदावरी, तवरी, सिकरवारी, पवांरी, जबलपुरी, डंगाई। 

बुन्देलखंड में रहने वाले वाली जातियों की अपनी-अपनी बोलियाँ हैं। जातियों के आधार पर बुन्देली के प्रमुख बोलियाँ और उनकी जातियाँ इस प्रकार हैं –  कछियाई (काछी/कुशवाहा), ढिमरयाई (ढीमर/रायकवार), अहिरयाई (अहीर/यादव), धुबियाई (धोबी/रजक), लुधियाई (लोधी/राजपूत), बमनऊ (बामुन/ब्राह्मण/पंडित), किसानी (किसान), बनियाऊ (बनिया/व्यापारी), ठकुराऊ (ठाकुर/बुंदेला), चमरयाऊ (चमार/अहिरवार), गड़रियाई (गड़रिया/पाल), कुमरयाऊ या कुम्हारी (कुम्हार/प्रजापति), कलरऊ (कलार/राय), बेड़िया (बेड़नी/आदिवासी) आदि। 

यद्यपि लुधियातीं और लुधियाई बोली एक ही है इसलिए डॉ० रामनारायण शर्मा द्वारा प्रस्तुत उपर्युक्त बारह (12) बोलियाँ और हमारे द्वारा प्रस्तुत तेरह (13) बोलियाँ मिलाकर बुन्देली भाषा की 25 बोलियाँ मुख्य रूप से प्रचलित हैं। इनके अलावा भी बोलियाँ हैं, जिनका अभी संज्ञान में आना अपेक्षित है।

ओरछा नरेश मधुकर शाह जू देव बुन्देला, बुन्देलखंड नरेश महाराज छत्रसाल बुंदेला और झाँसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई के सरंक्षण में बुन्देली भाषा का विकास शिखर पर पहुँचा। लगभग सन 1531 से 1950ई के बीच लगातार चार सौ सालों बुन्देली राजभाषा के पद पर आसीन रही। ऐसा तत्कालीन राजाओं के शासकीय दस्तावेजों, ताम्रपत्र, सनदों और पत्रों से प्रमाणित होता है। 

आज 21वीं सदी में बुन्देली भाषा का साहित्य, शिक्षा, पत्रकारिता, सिनेमा और राजनीति के माध्यम से व्यापक प्रचार-प्रसार हो रहा है और बुन्देली विश्व पटल पर नए कीर्तिमान स्थापित करने जा रही है। अतः इस प्रकार, बुन्देली भाषा के विकास की विवेचना होती है।

बुन्देली साहित्य
बुन्देली साहित्य अपनी अनोखी विशेषताओं के कारण विश्वविख्यात है। बुन्देली भाषा के प्रयोग और इसके साहित्य के साक्ष्य पुरातन काल से मिलते हैं। 12वीं सदी, विक्रमी संवत 1230 में कवि जगनिक द्वारा रचित ‘आल्हा चरित’ (परमाल रासो) को बुन्देली का आदिकाव्य और जगनिक को बुंदेली का आदिकवि माना जाता है। बुन्देली भाषा चार सौ सालों तक राजभाषा रही।

बुन्देली भाषा में पद्य साहित्य और गद्य साहित्य की रचना चंदेलकाल से आजतक निरंतर होती आ रही है। बुंदेली साहित्य और लोकसाहित्य साहित्य की दुनिया में प्रतिष्ठित है। बुन्देली भाषा के विकास के इतिहास में इसकी विभाषाओं – शबरा और बनचरी के समानांतर साहित्य रचा गया। इस विकास का क्रमवार निरूपण करने हेतु बुन्देली भाषाविदों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से चरणबद्ध विभाजन किया।

बुन्देली भाषाविज्ञानी कन्हैयालाल ‘कलश’ ने अपने ग्रंथ ‘बुन्देली भाषा साहित्य एवं संस्कृति’ में बुन्देली साहित्य को अपभ्रंश काल से लेकर आधुनिक काल तक भाषाई दृष्टिकोण से आठ चरणों में विभाजन किया है।

वहीं डॉ० राम नारायण शर्मा ने अपने ग्रन्थ बुन्देली भाषा साहित्य का इतिहास में पूर्ववर्ती भाषा और साहित्य के इतिहास के विभाजन से सामंजस्य रखते हुए और जनता के बीच प्रचलित अलिखित साहित्य, दादी-नानी की कहानियाँ, कहावतें और लोकगीत आदि को दृष्टिगत रखते हुए काल विशेष की साहित्यिक प्रवृत्तियों के आधार पर बुन्देली साहित्य को चार कालों में विभाजित किया है। काल विशेष में साहित्य विशेष और कवि एवं साहित्यकार को प्रमुखता दी गई है।

डॉ० रामनारायण शर्मा के अनुसार चार कालों का विभाजन इस प्रकार है –
1- शौर्य्य एवं गाथा काल (10वीं से 14वीं सदी तक)
2- उपासना और लीलामृत काल (14वीं से 17वीं सदी तक)
3- श्रृंगार काल पूर्वार्द्ध-उत्तरार्द्ध (17वीं से 19वीं सदी तक)

श्रृंगार काल उत्तरार्द्ध
कवित्रय काल – ईसुरी, गंगाधर, ख्यालीराम।
चतुरंगिनी काल और फड़ साहित्य काल
काव्य चतुष्टय काल- चतुरेश नीखरा, आचार्य चतुर्भुज ‘चतुरेश’ ,कुलपहाण के चतुरेश, दतिया के चतुरेश

4- आधुनिक और वार्ताकाल (19वीं सदी से आज तक) (14.)

वहीं डॉ० आरती दुबे की पुस्तक बुन्देली में उल्लिखित काल-विभाजन इस प्रकार है –
1- विक्रमी संवत 10वीं सदी से 14वीं सदी तक का बुंदेली साहित्य – शौर्यकाल एवं गाथाकाल।
2- विक्रमी संवत 14वीं सदी से 17वीं सदी तक का बुंदेली साहित्य – रीतिभक्ति काव्य काल।
3- विक्रमी संवत 17वीं सदी से 19वीं सदी तक का बुंदेली साहित्य – श्रृंगार काव्य एवं सांस्कृतिक उन्मेष काल।
4- विक्रमी संवत 19वीं सदी से आज तक का बुंदेली साहित्य – आधुनिक काव्यकाल एवं गद्य काल। 

हम (किसान गिरजाशंकर कुशवाहा उर्फ सतेंद सिंघ किसान) बुन्देली साहित्य को इस प्रकार चार कालों में विभाजित करना उचित समझते हैं –
पुरातन काल – बीरकिसा काल (विक्रमी 10वीं सदी-14वीं सदी)
मंझला काल – भगती काल (विक्रमी 14वीं सदी-17वीं सदी)
संजला काल – सिंगार काल (विक्रमी 17वीं सदी-19वीं सदी)
अधुनातन काल – गद्य काल ( विक्रमी 19वीं सदी-आज तक)

बुन्देली पद्य / काव्य साहित्य
डॉ० राम नारायण शर्मा के अनुसार बुन्देली साहित्य का पहला काल ‘शौर्य काल एवं गाथा काल’ (10वीं से 14वीं सदी) है। इस काल में मुख्य रूप से कवियों ने आश्रयदाता राजाओं और उनकी सेना के शौर्य की प्रशंसा करने वाली और  वीरता की गाथा सुनाने वाली रचनाएँ ही की हैं। इस काल में गद्य के प्रयोग साहित्य में नाममात्र के देखने को मिलते हैं। इस काल को हम बीरकिसा काल की संज्ञा देते हैं। इस काल का प्रमुख ग्रन्थ आल्हा खंड है। जिसे हम आल्हा चरित कहना ज्यादा उचित समझते हैं क्योंकि इसमें मुख्य रूप से आल्हा-ऊदल की वीरता का बखान है।

बुन्देली साहित्य और लोक साहित्य की सुदीर्घ परंपरा रही है। डॉ० आरती दुबे बुन्देली साहित्य की शुरूआत विक्रमी 10वीं सदी से मानती हैं लेकिन चंदेल राजवंश के आखिरी शासक राजा परमार्दिदेव उर्फ परमाल के शासनकाल के दौरान 12वीं सदी, विक्रमी संवत 1230 (सन 1173 ईस्वी) में कवि जगनिक द्वारा रचित ‘आल्हा चरित’ (परमाल रासो) बुन्देली का आदिकाव्य और जगनिक बुंदेली के आदिकवि हैं। आल्हा सदियों तक अल्हैतों द्वारा गाया जा रहा और विश्व की सबसे लंबी लोकगाथाओं में शुमार हो गया।

श्रीकृष्ण पुस्तकालय चौक, कानपुर से प्रकाशित विख्यात आल्हा गायक अमोल सिंह ने अपनी पुस्तक में बावन लड़ाईयों का वर्णन जनश्रुति के आधार पर किया है जबकि जनजातीय लोक कला एवं बोली विकास अकादमी, मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद, मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय, भोपाल से सन 2001 में प्रकाशित ग्रंथ “चंदेलकालीन लोक महाकाव्य  ‘आल्हा’ प्रामाणिक पाठ” में प्रो० नर्मदा प्रसाद गुप्ता ने तेईस लड़ाईयों का उल्लेख किया है।

आल्हा की निम्नलिखित पंक्तियाँ वीर- क्षत्रियों के जीवन को चरितार्थ करती हैं –
बारह बरस लौं कूकर जीवैं, अरु तेरह लौं जियें सियार।
बरस अठारा छत्री जीवैं, आगे जीबन को धिक्कार।।

जनकवि जगनिक खुद युद्ध में लड़ते थे और  अपने नायक का शौर्यवर्द्धन भी करते थे। वीर रस के ऐसे कई प्रसंग लोक प्रचलित आल्हा में मिलते हैं। जैसे – 
चली सिरोही दोऊ तरफ सें अंधाधुंद चली तरवार।
कट कट सीस गिरै धरती पै उठ उठ खंड करै तरवार। 
जगनिक के साथ इस काल के प्रमुख कवियों और उनकी रचनाओं में विष्णुदास (महाभारत, स्वर्गारोहण एवं रामकथा/रामायन), मानिक कवि (बेताल पच्चीसी), थेघनाथ (गीता का पद्यानुवाद), छीहल अग्रवाल (बावनी) आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

आचार्य हरिहर निवास द्विवेदी ने ‘मध्यदेशीय भाषा’ नामक ग्रंथ के परिशिष्ट में विष्णुदास, मानिक कवि और थेघनाथ की काव्य-भाषा को ग्वालियरी-बुन्देली माना है। डॉ० राम नारायण शर्मा के अनुसार बुन्देली साहित्य का दूसरा काल ‘उपासना और लीलामृत काल’ (14वीं से 17वीं सदी) है। इस काल में भक्ति परक काव्य की प्रचुरता में रचना हुई। जिसमें भगवत भक्ति और राज भक्ति प्रमुख है। इसलिए इसे हम ‘भगती काल’ कहते हैं।

इस काल के प्रमुख कवियों और उनकी रचनाओं में बलभद्र मिश्र (शिखनख, बलभद्री व्याकरण, गोवर्धन सतसई), हरिराम व्यास (रागमाला), कृपाराम (हित तरंगिणी), गोविंद स्वामी (बुन्देल वैभव भाग-1), तुलसीदास (रामचरितमानस, विनय पत्रिका), केशवदास (रामचंद्रिका, कविप्रिया, रसिक प्रिया, नखशिख), राय प्रवीन, भूषण (छत्रसाल दशक), महाराजा इंद्रजीत सिंह, गुलाब कवि, बलभद्र कायस्थ, मंडन मिश्र, रतनसेन, मोहनदास मिश्र आदि।

कृपाराम की बुन्देली भाषा की बानगी देखिए –
तौ लौ ठानैई रहे, सून पनौ प्यौ जान।
जौ लौ चित्त ना सुनै, मेरी बांकी तान।। 

केशवदास के इस पद में बुन्देली की स्पष्टत झलक मिलती है –
उल्टौ सूधौ बांचिए, एकहि अर्थ प्रमान।
कहत गतागत ताहि कवि, केशवदास सुजान।। 

राय प्रवीण ने अपनी कविता से हरम के प्यासे मुगल सम्राट अकबर को स्त्री अस्मिता और स्वाभिमान की रक्षा करने हेतु कहा और अकबर को पराजित किया –
विनती राय प्रवीण की, सुनिए साह सुजान।
झूठी पातर भखत हैं, बायस-बारी-स्वान।।  

तुलसीदास जी धर्म-परिवर्तन और धार्मिक अत्याचारों का विरोध करते हुए कहते हैं
जब जब होय धरम की हानि।
बाढ़हि असुर, अधम अभिमानी।
तब-तब प्रभु धर मनुज सरीरा।
हरहिं कृपा निधि सज्जन पीरा।।  

डॉ० राम नारायण शर्मा के अनुसार बुन्देली साहित्य का तीसरा काल ‘श्रृंगार काल पूर्वार्द्ध-उत्तरार्द्ध’ (17वीं से 19वीं सदी) है। इसे डॉ० आरती दुबे ‘श्रृंगार काव्य एवं सांस्कृतिक उन्मेष काल’ की संज्ञा देती हैं। इस काल में श्रृंगार या प्रेम प्रधान काव्य और रीतिपरक रचनाओं की प्रधानता रही इसलिए हम भी इसे ‘सिंगार काल’ ही मानते हैं।

इस काल के प्रमुख कवि और उनकी रचनाओं में बिहारी (बिहारी सतसई), छत्रसाल (कृष्णावतार, राम ध्वजाष्टक, फुटकल कवित्त), अक्षर अनन्य (अनन्य प्रकाश, अनन्य की कविता, ज्ञान पचासा), बख्शी हंसराज (सनेह सागर, फाग तंरगिनी), बोधा, ठाकुर (ठाकुर ठसक), पद्माकर (प्रबोध पचासा, जगत विनोद), ईसुरी ( ईसुरी की फागें ), गंगाधर व्यास (भरथरी चरित, नीति मंजरी), ख्याली राम (ख्यालीराम की फागें) इनके अतिरिक्त गोरेलाल ‘लाल कवि’, खुमान कवि, बन्दीजन कवि, मान कवि, खूबचंद इत्यादि के नाम उल्लेखनीय हैं।

बिहारी का यह दोहा नायिका के रूप – सौन्दर्य की कसौटी पर खरा उतरता है –
लिखन बैठि जाकी सबी, गहि-गहि गरब गरुर।
भये न केते जगत के, चतुर चितेरे क्रूर।।

बख्शी हंसराज ने सनेह सागर में बख्शी बुंदेलखंड के वैवाहिक रीति-रिवाजों को अभिव्यक्ति दी है –  “
पांचन पंच इन्द्रियन जुरकै धीरज खंभ गड़ायौ।
काम कलस आनंद नीर भर चित कौ चौक पुरायौ ।। 

ठाकुर ने हिम्मत बहादुर को एक बार अपने शत्रुओं से सचेत करते हुए लिखा था –
कहबे सुनिबे की कछू न हियाँ,
न कही न सुनी को दुख पाबनो है।
इनकी सबकी मरजी करकै,
अपने जिय को समुझाबनो है।
कहि ठाकुरलाल के देखिबे को,
निज मंत्र यही ठहरावनो है।
इन चौदह हायन में परि के,
समयो यह वीर बरावनो है।

पद्माकर प्रकृति के सौंदर्य का वर्णन करते हुए रचते हैं –
कूलन में केलिन में कुंजन में कछारन में।
बागन में बेलिन में बगरौ बसंत है।।

ईसुरी बुन्देली के महाकवि हैं। ईसुरी की फागों में उनकी प्रेमिका और नायिका ‘रजऊ’ का उल्लेख बहुतायत हुआ है –
सोभा रजउ की कीसें कइए, किये उनारन जइये।
बड़कै चीज इकइसों सौनौ, ईखौ का परखइये।
सबइ सरापा एक तरफ है, जौहरी काँ सैं लइए।
साजी फागें कहीं ईसुरी‘, सुगर सुनइया चइये।।

राम नाम के महत्त्व को समझाते हुए ईसुरी कहते हैं –
जिनके रामचंद रखवारे, को कर सकत दगारे।
बड़े भये प्रह्लाद पक्ष में, हिरनाकुश को मारे।
राना जहर दऔ मीरा खों, प्रीतम प्रान समारे।
मसकी जाय ग्राह की गरदन, गह गजराज निकारे।
ईसुरप्रभु ने लाज बचाई, सिरपै गिरत हमारे।।

ख्यालीराम का श्रृंगार परक एवं नखसिख वर्णन हर किसी को प्रेम की ओर आकर्षित करता है –
बूंदा दओ बेंदी के नीचें, प्रान लेत हैं खींचे।
मानो जलज शुक्र तारागण बसत चन्द्र के नीचें।

डॉ० राम नारायण शर्मा के अनुसार बुन्देली साहित्य का चौथा काल ‘आधुनिक और वार्ताकाल’ (19वीं से आज तक) है। इसे डॉ० आरती दुबे ‘आधुनिक काल – गद्य काल’ की कहती हैं और हम इसे ‘अधुनातन काल – गद्य काल’ मानते हैं। इस काल में गद्य के साथ तत्कालीन देश और समाज की परिस्थितियों, समस्याओं और समाज-कल्याण की भावना को ध्यान में रखकर पद्य का सृजन भी बहुतायत हुआ है।

इस काल के प्रमुख कविओं और उनकी रचनाओं में आचार्य काली कवि (हनुमतपताका), वृषभान कुंवरि (लीलामृत सार), चार चतुरेश कवि क्रमशः चतुरेश नीखरा झाँसी (झाँसी रानी का रायसो), चतुर्भुज शर्मा ‘चतुरेश’ दतिया (हंसी का फौब्बारा), चतुरेश पाराशर कुलपहाड़, आचार्य चतुर्भुज ‘चतुरेश’ भसनेह झाँसी (गौ-अवतार, फुलकल रचनाएँ), मदन मोहन द्विवेदी ‘मदनेश’ (लक्ष्मीबाई रासो), नाथूराम माहौर (दीन का दाबा, गोरी बीबी), मैथिलीशरण गुप्त (भारत भारती, साकेत), रामचरण हयारण ‘मित्र’ (लौलईयाँ, बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य), घासीराम व्यास (वीर ज्योति), वियोगी हरि (मेरी हिमाकत, पगली, वीर हरदौल), भगवान सिंह गौड़ (अथाई की बातें), कन्हैयालाल ‘कलश’ (दीपशिखा, बुन्देली आने अटके, बुन्देली भाषा का व्याकरण, बुन्देली भाषा साहित्य और संस्कृति, चतुरंगिनी), भैयालाल व्यास ‘विंध्यकोकिल’ (विजयादसमी, साँझ सकारे), कृष्णानंद व्यास ‘बेआस’ (लाला हरदौल, सांस्कारिक बुन्देली गीत, पुजयारन के पाप), संतोष सिंह बुन्देला (गाँव की संध्या), अवध किशोर श्रीवास्तव ‘अवधेश’ (बुन्देल भारती, श्रमणा, बुन्देली पंचतंत्र), नर्मदा प्रसाद गुप्त (संपादन- मामुलिया, लोक महाकाव्य आल्हा, ईसुरी की प्रामाणिक फागें, बुन्देलखंड का साहित्यिक इतिहास, बुंदेलखंड लोक संस्कृति का इतिहास), गंगा प्रसाद ‘बरसैंया’ (बुन्देलखंड के अज्ञात कवि), दुर्गेश दीक्षित (गमईयंन के गाँधी, सगुन की हरईया), लोकेंद्र सिंह नागर (ईसुरी की फागों का संपादन), राघवेंद्र उदैनियाँ ‘सनेही’ (बेर-मकुईंयाँ), अवध किशोर जड़िया (वंदनीय बुन्देलखंड, कारे कन्हाई के कान लगी है), कैलाश मडबैया (जय वीर बुन्देले ज्वानन की), महेश कटारे सुगम (गाँव के गेंवड़े, अब जीवै को एकई चारौ), रमेश कुमार पुरोहित (आदमी से सावधान), प्रताप नारायण दुबे, राना लिधौरी (उकताने),सतेंद सिंघ किसान (किसान की आबाज), अभिषेक बबेले (वीरगति) आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

‘गौ’ भारतीय संस्कृति की द्योतक है। आचार्य चतुर्भुज ‘चतुरेश’ गौ-रक्षा हेतु चिंतित हैं-
साँचउँ गैया के बिना, जीवन जियौ न जाय।
हे भारत के भाईयों गैया लेहु बचाय।।

मदन मोहन द्विवेदी ‘मदनेश’ झाँसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई पर दोहा रचते हैं.       बाई नै दीनों हुकुम को यह काकौ आय।
कहौ वेग लै जाय गज, ऊधम रयौ मचाय।।

नाथूराम माहौर की यह कविता मातृभूमि और बुन्देलखंड प्रेम को दर्शाती है –

नोनों खंड बुंदेल हमारौ, नोऊँ खंड को न्यारौं
बालमीक तुलसी केसब भए, जई में सुकवि हजारौं
आला-ऊदल, मधुकर चंपत, बैरिन को मद झारौ
वीरसिंह देव छत्ता भयो, रन में कभउँ न हारौ
बाई लक्ष्मी रानी जई में धारौ नगन दुधारौ
दीनी सूर सिरोमनि जई में भए अनगिनत विचारौ।।

कन्हैयालाल ‘कलश’ इस गीत में बुंदेली लोकजीवन की दिनचर्या का सुंदर चित्रण किया है-

सूरज ऊरौ तारन तार, धरती करन लगी सिंगार।
मन्दिर की बज उठी झालरें
खुले गाँव के द्वार।
सारन में बज उठीं दुहनियां,
मुरली स्वर उन्हार।
हिमगिरि कैसों कजरी कौंछर,
स्त्रवत दूध की धार।

भैयालाल व्यास ‘विंध्यकोकिल’ बुंदेली-बसंत का चित्रण करते हुए रचते हैं –
गैंदा फूल रये बागन में आ गऔ बसंत।
गैंदा फूल रये रापन में गा रऔ बसंत।।

कृष्णानंद व्यास ‘बेआस’ भ्रष्टाचार का खुलासा करते हुए लिखते हैं –
रिसवत सबई जगां भई चालू,
का तरवा का तांलू।
बिन पइसा के कोऊ न चीनें,
का मामू का खालू।।

संतोष सिंह बुन्देला की ‘हमारे रमटैरा की तान’ कविता बहुत लोकप्रिय हुई। प्रस्तुत हैं उसके अंश –
हमारे रमटैरा की तान, समझ लौ तीरथ कौ प्रस्थान,
जात है बूढ़े बालै ज्वान, जहाँ पै लाल ध्वजा फहराय।
नग नग दैह फरक बै भइया, जौ दीवाली गायें।।

नर्मदा प्रसाद गुप्त बुंदेली भाषा का बखान करते हुए रचते हैं –

बोलिन में प्यारी बुंदेली, सबसे रई अलबेली।
जनम लओ बुंदेलखंड में, चंदेलन संग खेली।
प्राकृत माता की जा तनया, ब्रजी की आय सहेली।
मउआसी मीठी मदमाती, मिसरी कैसी ढेली।
ठुमकत ठुमकत ठसकीली, दरपीली गरबीली,
सेन चिरैया जा प्रसादकी अपनी घाँई अकेली।।

दुर्गेश दीक्षित अपनी कविता ‘प्यारे बापू काँ गये’ में लिखते हैं –
अंग्रेजन के मारें सवरे, उकरादै हो गये ते।
मनकौ धन कर लओ तो उन्नें, यैंन धराते लये ते।।

राघवेंद्र उदैनियाँ ‘सनेही’ अपनी कविता चलीं बीनबे बेर-मकुइँयाँ बुन्देली लोकजीवन का मनोहारी चित्रण करते हैं –
रती गौमती, पारबती, औ रामकली, रमुकुइयाँ,
लयें गुटउआ चलीं बीनबे हिलमिल बेर मकुइँयाँ।
परीं प्यार में कथरी ओड़ें, बाट घा में हेरें,
सोसें बेर-मकुइँयाँ बींनन जानें हमें सबेरें,
निरख उरइयाँ उठीं सपाटें झट्टइं धोलइँ गुइयाँ।
रती गौमती, पारबती, औ रामकली, रमकुइयाँ,
लयें गुटउआ चलीं बीनबे हिलमिल बेर-मकुइँयाँ ।।

महेश कटारे ‘सुगम’ अपनी गजल में लिखते हैं – 

मान्स सबई बेघर हो जें तौ
गाँव-गाँव ऊजर हो जें तौ
सोचौ तौ जब भेंस बराबर
करिया सब अक्षर हो जें तौ
का हुइयै जब भले आदमी
सत्ता सें बाहर हो जें तौ
सबरौ खून बेई पी जें हैं
नेता सब मच्छर हो जें तौ…।।  

सतेंद सिंघ किसान (कुशराज बदलाओकारी) ‘किसान विमर्श’ की अपनी कविता ‘किसान की आबाज’ में किसान-सुधार की बात करते हैं –
तुम औरें मारत रए भैंकर मार
और मार रए अबै भी
धीरें – धीरें सें
धरम, जात, करजा और कुरीतयंन मेँ बाँधकें
अन्धविश्वास, जुमले और बेअर्थ कानून बनाकें
पढ़ाई-लिखाई सें बंचित करकें
लूटत रए हमें
पर
अब हम जग गए हैं
अपन करम की कीमत पैचान गए हैं
अबसें हम अपन फसल कै दाम खुद तै करहैंगे
अपन मैनत कौ पूरो फल चखहैंगे।।  

अतः इस प्रकार पुरातन काल से अधुनातन काल तक के बुन्देली काव्य – पद्य साहित्य की विवेचना होती है।

बुन्देली गद्य साहित्य 
बुन्देली गद्य की शुरुआत 16-17वीं सदी से मानी जाती है। बुन्देला शासन काल जब बुन्देली राजभाषा थी अभी से सरकारी पत्रों, शिलालेखों आदि में बुन्देली गद्य का प्रयोग होता रहा है। अक्षर अनन्य का ‘अष्टांग योग’ बुन्देली गद्य साहित्य का शुरुआती ग्रंथ है।

सन 1701 में लिखी गई ‘बारह राशि नव भरन’  पूर्ण रूप से बुंदेली गद्य रचना है। 1726 में लिखित मीनराय प्रधान के ग्रंथ ‘हरतालिका की कथा’, 1764 में भास्कर रामचंद्र भालेराव के लोकवार्ता संग्रह ‘चकवा की परंपरा’ के साथ ही अष्टमाम मानसी पूजा और नासिकेतोपाख्यान, स्वप्न परीक्षा (1793), रामश्वमेघ (1705), भारतवार्तिक (1864), कवि पद्माकर कृत हितोपदेश का अनुवाद – राजनीति की वचनिका (1822-23), व्यंग्यार्थं कौमुदी (1825), श्रीम‌द्भागवत महापुरान (1862) में बुन्देली गद्य का ऐतिहासिक विकास देखा जा सकता है। (20.)

19वीं सदी में ओरछा महाराज ने पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी और यशपाल जैन जैसे विद्वानों से ‘मधुकर’ और ‘लोकवार्ता’ जैसी पत्रिकाएँ प्रकाशित कराके बुंदेली गद्य के विकास में युगांतकारी योगदान दिया।

अधुनातन काल – गद्य काल (19वीं सदी से आज तक) में कहानी/किसा, उपन्यास, निबंध/आलेख, नाटक, एकांकी, पत्र, डायरी, आलोचना, सिनेमा आदि गद्य विधाओं के बुन्देली साहित्यकार और उनकी रचनाएँ इस प्रकार हैं –

बुन्देली में लोक कहानियों के प्रचलन और उनके संकलन-संपादन के साथ ही बुन्देली में कहानी / किसा लेखन बहुतायत से हुआ है। कहानी / किसा में इन कहानीकारों और उनकी कहानियों का उल्लेखनीय योगदान है – शिवसहाय चतुर्वेदी (गौने की विदा, ई हात दे ऊ हात ले), हरगोविंद गुप्त, गोविंद मिश्र (फांस), भगवान सिंह गौड़ (अथाई की बातें), डॉ० राम नारायण शर्मा (चिरुआ, ), डॉ० रामशंकर भारती (रमरतिया, गुलाबो, पंचनदे कौ मेला), सतेन्द सिंघ किसान (रीना, पिरकिती) इत्यादि। 

बुन्देली में उपन्यास लेखन प्रायः कम ही हुआ है। सन 2008 में प्रकाशित डॉ० राम नारायण शर्मा द्वारा लिखित ‘जय राष्ट्र’ को बुन्देली का पहला उपन्यास माना जाता है। जबकि बुन्देलखंड क्षेत्र के प्रतिष्ठित हिन्दी उपन्यासकारों जैसे- वृन्दावनलाल वर्मा, मैत्रेयी पुष्पा इत्यादि ने अपने उपन्यासों के संवादों में बुन्देली भाषा का प्रयोग बहुतायत से किया है।

बुन्देली में निबंध / आलेख लेखन पर्याप्त मात्रा में हुआ है। निबंध में कन्हैया लाल ‘कलश’ (बुंदेली बोली कौ उगरौ और उन्सार), आसंका गीता की (अक्षर अनन्य), बुंदेली भासा की चिंहार (गंगाराम शास्त्री), पं० बनारसी दास चतुर्वेदी और कुंडेश्वर (दुर्गेश दीक्षित), डॉ० राम नारायण शर्मा (पेज तीन), आचर्य बहादुर सिंह परमार (निहारौ नोंनों बुन्देलखण्ड ), डॉ० शरद सिंह (बतकाव बिन्ना की), सुरेंद्र अग्निहोत्री (त्योहारन कौ मेला), सतेंद सिंघ किसान (राम बिराजे) आदि उल्लेखनीय हैं।

बुन्देली नाटक में पद्मनाथ तैलंग (गाँव गॉंव है और सहर सहर), बलभद्र तिवारी (आल्हा-ऊदल), डॉ० महेन्द्र वर्मा (सारंधा), श्याम मनोहर जोशी, अवध किशोर श्रीवास्तव ‘अवधेश’ (मूसर की करामत और दसरये कौ मेला, नाटिका-वाटिका) और बुन्देली एकांकी में भगवत नारायण शर्मा (भारत की बेटी) इत्यादि उल्लेखनीय हैं।

बुन्देली आलोचना में कन्हैयालाल ‘कलश’, डॉ० नर्मदाप्रसाद गुप्त, डॉ० रामनायरण शर्मा, डॉ० आरती दुबे, प्रो० बहादुर सिंह परमार, डॉ० शरद सिंह इत्यादि का नाम उल्लेखनीय है।

बुन्देली डायरी लेखन में डॉ० राम नारायण शर्मा और गिरजासंकर कुसबाहा ‘कुसराज झाँसी’ (बुंदेलखंडी युबा की डायरी) का नाम उल्लेखनीय है। (22.)

बुन्देली सिनेमा-फिल्म के क्षेत्र में अभिनेता राजा बुंदेला, राम बुंदेला, सुष्मिता मुखर्जी (किसने भरमाया मेरे लाखन को), आशुतोष राणा, देवदत्त बुधौलिया (ढलकोला), आरिफ शहड़ोली (गुठली लड्डू), जित्तू खरे बादल (किसान का कर्ज), हरिया भैया (जीजा आओ रे), किशन कुशवाहा उर्फ कक्कू भैया (शकिया बालम), मिस प्रिया बुन्देलखंडी ( एसडीएम पत्नी) इत्यादि का नाम उल्लेखनीय है।

बुन्देली भाषा और साहित्य का सरंक्षण
बुन्देली भाषा और साहित्य के विकास एवं संरक्षण में साहित्यकारों, चंदेल राजाओं, बुन्देला राजाओं, भारत सरकार, उत्तर प्रदेश सरकार और मध्य प्रदेश सरकार के साथ ही बुन्देली वार्ता शोध संस्थान गुरसरांय झाँसी, बुन्देली विकास संस्थान बसारी छतरपुर, बुन्देली पीठ सागर विश्वविद्यालय सागर, हिन्दी विभाग बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय झाँसी, हिन्दी विभाग महाराजा छत्रसाल बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय छतरपुर, बुन्देलखंड साहित्य परिषद छतरपुर, बुन्देली भारती परिषद पृथ्वीपुर, बुन्देलखंड साहित्य उन्नयन समिति झाँसी (अध्यक्ष – आचार्य पुनीत बिसारिया), बुन्देली झलक (संस्थापक – गौरीशंकर रंजन), अखंड बुंदेलखंड महाँपंचयात झाँसी आदि संस्थाओं एवं मधुकर, बुन्देली वार्ता, मामुलिया, चौमासा, ईसुरी, बुन्देली बसंत, अथाई की बातें, खबर लहरिया, बुन्देली बौछार आदि पत्र – पत्रिकाओं के साथ ही बुन्देलखंड के जीवंत विश्वकोश हरगोविंद कुशवाहा, राजा बुन्देला (खजुराहो फिल्म महोत्सव, ओरछा साहित्य महोत्सव), आचार्य बहादुर सिंह परमार (बुन्देली उत्सव बसारी, संपादन – बुन्देलखंड की छन्दबद्ध काव्य परंपरा, बुन्देलखंड की साहित्यिक धरोहर, बुन्देली लोक साहित्य, बुन्देली व्यंजन,  छतरपुर जिले की लोक कथाएँ, होरी : बुन्देली में होली गीत, ‘बुन्देली बसंत’ पत्रिका, मिठौआ है ई कुआँ को नीर – संतोष सिंह बुन्देला, ‘अथाई की बातें’ तिमाही पत्रिका), आचार्य पुनीत बिसारिया (बुन्देलखंड लिटरेचर फेस्टिवल-2020, संपादन – बुन्देली महिमा, बुन्देली काव्य धारा, बुन्देली के भूले-बिसरे गीत), पन्नालाल असर (संपादन – बुन्देली रसरंग, बुन्देली के भूले-बिसरे गीत), सांसद अनुराग शर्मा (संस्थापक – बुन्देलखंड विरासत संस्थान, बुन्देलखंड विश्वविद्यालय, झाँसी) इत्यादि बुन्देली सेवियों का उल्लेखनीय योगदान है। (23.)

19 नवंबर 2021 को राष्ट्र रक्षा समर्पण पर्व के अवसर पर झाँसी में माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा बुन्देली भाषा में भाषण देना और राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के तहत क्षेत्रीय भाषाओं में निहित बुन्देली भाषा की शिक्षा और बुन्देली माध्यम में शिक्षा के विशेष प्रावधान होना बुन्देली भाषा के विकास और संरक्षण को नए आयाम प्रदान करता है।

निष्कर्ष
निष्कर्ष रूप में हम कह हैं कि 10वीं सदी से लेकर आज तक बुन्देली भाषा में पद्य साहित्य और गद्य साहित्य का बहुतायत से सृजन हुआ है। साहित्य ने बुन्देली भाषा के विकास में महनीय योगदान दिया है। बुन्देली साहित्य को काल विशेष की साहित्यिक विशेषताओं के आधार पर चार कालों में विभाजित किया गया।

जगनिक, तुलसी, केशव, कन्हैयालाल ‘कलश’, मदनेश, अवधेश, डॉ० नर्मदा प्रसाद गुप्त, डॉ० रामनारायण शर्मा, हरगोविंद कुशवाहा, राजा बुन्देला, आचार्य बहादुर सिंह परमार, आचार्य पुनीत बिसारिया, सांसद अनुराग शर्मा आदि विद्वानों का बुन्देली भाषा और साहित्य के विकास एवं संरक्षण में उल्लेखनीय योगदान है। आज 21वीं सदी में बुन्देली भाषा नए कीर्तिमान रच रही है।

संदर्भ
1-  शर्मा, डॉ० रामनारायण, सन 2001ई०, बुन्देली भाषा साहित्य का इतिहास, झाँसी, बुन्देली साहित्य समिति झाँसी, पृष्ठ – 1.

2-  वेदव्यास, महर्षि, महाभारत, शांति पर्व, अध्याय-29, श्लोक-12-13.

3- शर्मा, डॉ० रामनारायण, सन 2001ई०, बुन्देली भाषा साहित्य का इतिहास, झाँसी, बुन्देली साहित्य समिति झाँसी, पृष्ठ – 1.

4- मिश्रा, डॉ० रंजना, सन 2016 ई०, बुन्देलखण्ड : सांस्कृतिक वैभव, दिल्ली, अनुज्ञा बुक्स, पृष्ठ-25.

5- दृष्टि पब्लिकेशन्स, संपादक, सन 2019 ई०, मध्य प्रदेश समग्र अवलोकन, दिल्ली, दृष्टि पब्लिकेशन्स, पृष्ठ-148.

6- शर्मा, डॉ० रामनारायण, सन 2001ई०, बुन्देली भाषा साहित्य का इतिहास, झाँसी, बुन्देली साहित्य समिति झाँसी, पृष्ठ-1-3.

7- दुबे, आरती, सन 2017 ई०, बुंदेली, नई दिल्ली, साहित्य अकादेमी, पृष्ठ-9-37.

8- सतेंद सिंघ किसान, किसान गिरजासंकर कुसबाहा, 30 दिसंबर 2023, बुंदेली भासा की बकालत करत हैगी ‘अथाई की बातें’ पत्तिका, झाँसी, कुसराज की आबाज, https://kushraaz.blogspot.com/2023/12/blog-post_30.html?m=1

9- शर्मा, डॉ० रामनारायण, सन 2001ई०, बुन्देली भाषा साहित्य का इतिहास, झाँसी, बुन्देली साहित्य समिति झाँसी, पृष्ठ-1-3.

10- सतेंद सिंघ किसान, किसान गिरजासंकर कुसबाहा, 30 दिसंबर 2023, बुंदेली भासा की बकालत करत हैगी ‘अथाई की बातें’ पत्तिका, झाँसी, कुसराज की आबाज,
https://kushraaz.blogspot.com/2023/12/blog-post_30.html?m=1

11- मिश्रा, डॉ० रंजना, सन 2016 ई०, बुन्देलखण्ड : सांस्कृतिक वैभव, दिल्ली, अनुज्ञा बुक्स, पृष्ठ-25

12- दुबे, आरती, सन 2017 ई०, बुंदेली, नई दिल्ली, साहित्य अकादेमी, पृष्ठ-46

13- शर्मा, डॉ० रामनारायण, सन 2001ई०, बुन्देली भाषा साहित्य का इतिहास, झाँसी, बुन्देली साहित्य समिति झाँसी, पृष्ठ-10.

14- शर्मा, डॉ० रामनारायण, सन 2001ई०, बुन्देली भाषा साहित्य का इतिहास, झाँसी, बुन्देली साहित्य समिति झाँसी, पृष्ठ-10.

15- दुबे, आरती, सन 2017 ई०, बुंदेली, नई दिल्ली, साहित्य अकादेमी, पृष्ठ-44-80.

16- मिश्रा, सोनाली, 10 अक्टूबर 2021, हिन्दू पोस्ट, हरम के प्यासे बादशाह अकबर को कविता से ही पराजित करने वाली सनातनी स्त्री “राय प्रवीण”,

17- शर्मा, डॉ० रामनारायण, सन 2001ई०, बुन्देली भाषा साहित्य का इतिहास, झाँसी, बुन्देली साहित्य समिति झाँसी, पृष्ठ-71-294.

18- कुमार, ललित, महेश कटारे ‘सुगम’, बुन्देली गजलें, मान्स सबई बेघर हो जें तौ, कविता कोश, kavitakosh.org

19- श्रीवास्तव, आशुतोष, 23 दिसम्बर 2023, किसान की आबाज, साहित्य सिनेमा सेतु,

 https://sahityacinemasetu.com/kavita-kisan-ki-aabaj/

20- दुबे, आरती, सन 2017 ई०, बुंदेली, नई दिल्ली, साहित्य अकादेमी, पृष्ठ-81-115.

21- ‘सनेही’, डॉ० राघवेंद्र उदैनियाँ, वर्ष – 15, क्वांर-कार्तिक-अगहन 2080, अक्टूबर-नवंबर-दिसंबर 2023, झाँसी की बुन्देली किसायें – सतेंद्र सिंघ किसान, छतरपुर, अथाई की बातें, बुन्देली तिमाही पत्रिका।

22-  झाँसी, कुशराज, 15 मई 2022, राम महोतसओ 2022 ओरछा, बुंदेलखंडी युबा की डायरी – गिरजासंकर कुसबाहा ‘कुसराज झाँसी’, झाँसी, कुसराज की आबाज,

https://kushraaz.blogspot.com/2022/05/2022.html?m=1

23- जागरण, दैनिक, 15 मार्च 2022, गुमनाम पांडुलिपियों को मिलेगी पहचान, झाँसी।

बुन्देली जन्म संस्कार परिचय 

©️ किसान गिरजाशंकर कुशवाहा ‘कुशराज झाँसी’
(परास्नातक छात्र – हिन्दी विभाग, बुन्देलखण्ड महाविद्यालय, झाँसी / इतिहासकार, सीसीआरटी, संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार के योगदानकर्त्ता)
मो० – 9569911051, 8800171019
ईमेल – kushraazjhansi@gmail.com
पता – 212, नन्नाघर, जरबो गॉंव, बरूआसागर, झाँसी, अखंड बुंदेलखंड, पिनकोड 284201

©️ दीपक नामदेव
(परास्नातक छात्र – हिन्दी विभाग,
बुन्देलखण्ड महाविद्यालय, झाँसी)
मो० – 8840052043
ईमेल – deepaknamdev39589@gmail.com
पता – महारानी लक्ष्मीबाई मेडिकल कॉलेज झाँसी के पास, करगुवांजी, झाँसी, अखण्ड बुन्देलखण्ड, पिनकोड 284128

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