Bundeli Kavya Saundarya बुंदेली काव्य सौन्दर्य

Bundeli Kavya Saundarya बुंदेली काव्य सौन्दर्य

बुंदेली लोककाव्य मे कवियों ने सौन्दर्य को तरह–तरह से परिभाषित किया है। Bundeli Kavya Saundarya मे बुन्देलखंड के लोक जीवन की सरसता, मादकता, सरलता और रागयुक्त संस्कृति की रागिनी से मदमस्त करने की क्षमता है। बुंदेली लोककाव्य सौन्दर्य मे श्रंगार, सामाजिक परिवेश, भक्तियोग, संयोग, वियोग, लौकिकता, शिक्षा चेतावनी, काया, माया सभी का बोध हैं काव्य मे रूपसौदर्य और आभूषणों की सहज अभिव्यक्ति हो जाती है। लोक काव्य में आभूषणों को अधिक महत्व दिया गया है। जो हृदय को उद्वेलित कर देती है।

बुन्देलखण्ड का बुंदेली काव्य सौन्दर्य

गोरो रंग चम्पा कली, बूँदा दयें लिलार।
नाक नथुनिया नगजड़ी, रूच रूच गढ़ी सुनार।
पैलउँ पैल की चिनार, हम तो पुंगरिया सें चीन गये।
बिन काजर कजराभरे, मृगनैनी के नैन।
जाँ तिरछी हेरन परै भूलै दिन ना रैन।
हेरन सें ना मार, हम तो नजरिया सें चीन गये।
गोरी घुँघटा ना डार, हम तो चुनरिया सें चीन गये।

नायिका की देह चम्पा की कली की तरह गोरी और छरहरी है। उसके नेत्र हरिणी की तरह बिना काजल लगाये कजरारे और चंचल हैं, जिनकी तिरछी हेरन जिसे छू जाती है, वह उसे रात-दिन नहीं भूलता। लोक काव्य में आभूषणों को अधिक महत्व दिया गया है। इसलिए लोकगीतों में आभूषणों की जमावट की अतिशयता है।

हंसन सें चाल मिली खंजन सें नैना।
बिजुरी नें हँसी दयी, कोयल नें बैना।
इसमें उपमानों के महत्व की प्रतिष्ठा से बुंदेली काव्य सौन्दर्य का एक चित्र खड़ा किया गया है, जिसमें हंसों से नायिका की गति, खंजन पक्षी से उसके नेत्र, बिजली से हँसी और कोयल से बोली मिलने के द्वारा गति, नेत्र, हँसी और मधुर बोली के गुणों से नायिका की पहचान दर्ज हो जाती है।

मखमल में बदन मोरो चमकै।

सेजन पै चुनरिया सी दमकै।
बागन में चमेली सी फूल रई
घूंघट में नैन मोरे मटकें।
नग नग में तुरइया सी फूल रई
हँसतन में जिया मोरो ललचै।
इसमें नायिका के शरीर की तुलना मखमल से की है। उसकी देह का चमकना, दमकना और आंखों का मटकना चंचल सौन्दर्य को व्यक्त करता है और अंग अंग तुरैया की तरह फूलना शारीरिक सौन्दर्य का वर्णन है।

मोरी विंदिया को रंग गुलजार
सूरज तुम धीरे से उगो रंग उड़ जैहै।
इसमे नायिका के श्रृंगार के विषय मे कहा गया है. नायिका सूरज से उलाहना देती है कि तुम धीरे धीरे उगो ( निकलो) तुम्हारी तेज चमक से मेरी बिंदी का रंग फीका पड जायेगा।

नदिया अकेली न जइयो री गोरी धना,

नदिया अकेली न जइयो लाल।
ऊसई तो नैना कँटीले तुमारे,
कजरा लगाकें न जइयो री गोरी धना, नदिया।
ऊसई गुलेल बनीं तोरी भौहैं,
बूँदा लगाकें न जइयो री गोरी धना, नदिया।
ऊसई रसीले ओंठ तुमारे,
पान रचाकें न जइयो री गोरी धना, नदिया.।
ऐसे बाग ना लगाव, कइयक फिरें मतवारे।
पुर गये बरछी के घाव, नैना के घाव पुरत नइयाँ।

इसमें नायिका के आंखों का कँटीलापन और उसमे काजल लगाना, और भौंहों तुम्हारी गुलेल (पत्थर मारने का यंत्र) की तरह है उन भौहों के बीच बिंदी लगाकर मत जाना वैसे भी तुम्हारे होठ इतने रसीले है उस पर पान खा कर मत जाना नही तो उनकी सुन्दरता इतनी बढ़ जायेगी कि खतरे से खाली नहीं है।

संयोग श्रृंगार
Sanyog Shringar
 मानव का जीवन क्षणभंगुर है, इसलिए उसे क्षणिक जीवन में सुखों का भोग कर लेना चाहिए। हंसा कर ले किलोल, जानें कबै रे उड़ जानें। इसमें हंस जीवन का प्रतीक है और उसका उड़ जाना क्षणभंगुरता का। जीवन को जीने के लिये इस संसार में रहकर आनंद और उत्साह के साथ जीवन यापन करना चाहिये क्यों कि जीवन अनिश्चित और नश्वर है।

हँस खेल बखत कटि जाय बारे रसिया,

को कहँ को रमि जाय बारे रसिया।
जैसें रंग पतंग रे रसिया, पवन चलै उड़ जाय
जैसें मोती ओस को रसिया, घाम परै ढरि जाय
हँस खेल बखत कटि जाय बारे रसिया।
पतंग के पवन में उड़ जाने और ओस के धूप में ढुलक जाने से जीवन का नाशवान होना सिद्ध किया गया है और हँस-खेल कर आनंदमय जीवन व्यतीत करने की सीख दी गयी है। हमारा समाज खेतिहर लोकसंस्कृति का प्रतिनिधि था। जब कृषक किसी प्रिया पर मुग्ध हो जाता है, तब उसका मन खेती के कार्य में नहीं लगता, वह गा उठता है…..।
जब सें देखो तुमें, अब तो बखर नईं हँकत है।

वही हाल नायिका का है उसकी अपनी पीडा है उसका अपना दर्द है….।
जो मैं होती बदरिया घुमड़ राती,
पिया प्यारे के अँगना बरस जाती।
जो मैं होती निब्बू नारंगी,
पिया प्यारे की बगिया लटक राती।
जो मैं होती मलयागिर चन्दन,
पिया प्यारे के माथे दमक राती।
जो मैं होती डबिया को कजरा,
पिया प्यारे के नैना चमक राती।
जो मैं होती लौंगा इलायची,
पिया प्यारे के मुख में गमक राती।
जो मैं होती मोतिन की माला,
पिया प्यारे की छतियाँ चिपक राती।।

उड़ जा निगोड़े काग चोंच मढ़वा देंउ तोरी।
चोली के बंध गये टूट फरक रई डेरी आँख मोरी।
बिंदिया ररक रई माथे की, सारी अंग ते सरकत है।
छूट जात गाँठ जूरे की, मोतियन की लर लरकत है।
रतनारे हैं नैना भँवर कजरा
बड़ी बड़ी अँखियाँ थोरो थोरो कजरा
मानो चंद्र घेरे हैं जे बदरा।रतनारे.।
प्यारे सें मिलबे खों जा रईं गोरी
हाँतन में लीन्हें फुलन गजरा।रतनारे.।

मैं कैसें आओं मोरे बारे सँवरिया, पाँवों के बिछिया बाजना रे।
बिछिया उतार गोरी ओली में धर लेव, रुनक झुनक चलीं आँवना रे।।
बिछिया की तरह टोड़ल, कंगन, झुमका आदि भी बजने वाले हैं, जिन्हें भी नायिका को उतारना पड़ता हैं। संयोग में हास-परिहास और विनोद भी आनंदमयी क्रीड़ाओं के अंग हैं, इसलिए लोकगीतों में दोनों के उदाहरण मिलते हैं।

रसिया को नारि बनाव गोरी, रसिया को।टेक।
सालू सरद कसब का लहँगा
कर दयें कजरा ऊपर दयें सिंदुरा।रसिया.।
बहियाँ बरा बाजूबंद सोहें, माथे पै बेंदी लगाव गोरी।रसिया.।
कोऊ इतै आवरी, कोऊ उतै जावरी
मोरी नौंनी दुलइया खों देख जावरी।
सबेरे सें करबे जा बैठीं सिंगार
खीर में लगा दओ हींग को बघार

कोऊ चींख जावरी।मोरी नौंनी.।
चूले पै डारें जा बैठी पटा
ईनें खबा दये मोये रौंने भटा।
कोऊ इतै आवरी।मोरी नौंनी.।

रसिक को लहँगादि वस्त्र पहनाकर काजल और सिन्दूर लगाकर तथा बरा बाजूबंद एवं बेंदी जैसे आभूषण से नारी बनाने का विनोद परम्परित ही है। लोकोत्सवों में संयोग के अनेक अवसर प्राप्त होते हैं। इसीलिए उत्सव से संबद्ध मेले भी लगाये जाते थे। इसमें वसन्तोत्सव, फाग, जलबिहार, बुड़की (मकर संक्रान्ति), नवरात्रि, शिवरात्रि आदि के मेलों में अपने रसिक प्रिया या प्रिया से मिलने का एकान्त मिल ही जाता था। होली या फाग में तो काफी आजादी रहती थी।

होरी में लाज न कर गोरी, होरी में।
जो तुम होरी में लाज कर रैहौ,
बरबस अबीर मलहौं गोरी। होरी में।
हम रसिया तुम नई किसोरी,
अरे कैसी बनी सुन्दर जोरी। होरी में।
उक्त पंक्तियों में पुरूष प्रेमी मुखर है, जबकि निम्न पंक्तियों में गाँव की गोरी, जो अपने प्रेमी को होरी खेलने के लिए बुलाती है और गुलाल से उसके कपोल मीड़कर मनभाई कर लेती है।

आओ छैल तुमें होरी खिलाबैं

मन भाबे सोई लला कराबैं।
सखि सिरमौर होइ मनभावन, केसर रंग बरसाबैं।आओ।
अबीर गुलाल कपोलन मींड़ै, नारि सिंगार बनाबैं।आओ।

परकीया तो और अधिक मुखर होती है। घर में अकेली होने पर वह किसी भी परदेशी को अपने घर में रोक लेती है और उसे भोजन की रसद भी देने को तैयार रहती है। बुंदेलखण्ड की स्वच्छंद रसिकता का यह साक्ष्य निम्न लोकगीत में मिलता है।

दैहों दैहों कनक उर दार, सिपहिया डेरा करो मोरी पौंर में।
अरी ओरी गुइयाँ कहाँ गये तोरे जेठ ससुर औ कहाँ गये तोर घरबारे?
तुम लरकिनी काँ रहत अकेली, ऊँचे महल दियना बारे?
दूर गये मोरे ससुर जेठ, परदेस गये मोरे घरबारे।
सास गई मायके ननद सासुरे, हम घर रहत अकेली,
ऊँचे महल दियना बारे।
अरे हाँ रे सिपहिया डेरा करो मोरी पौंर में।।

इस गीत में जब परदेशी युवती से पूछता है कि उसके ससुर, जेठ, पति आदि सब कहाँ गये हैं, तो उत्तर उक्त गीत में उसके ससुर और जेठ दूर गये हैं और पति परदेश सास मायके और ननद ससुराल में हैं, जबकि वह बिल्कुल अकेली है। नायिका को यह सब भेद खोलने में जरा भी संकोच नहीं है। व्यंजना में पूरा आमंत्रण। लेकिन जब पति रात दूसरे घर में व्यतीत करता है, तब वह कठोर होकर पूछती है कि उसके पति ने रात्रि कहाँ काटी, क्योंकि उसकी टोपी, जुल्फें, फटा कुर्ता इस बात के गवाह हैं कि वह रात में कहीं रहे हैं।

साँची बताओ पिया प्यारे कहाँ तुमनें रैन गँवाई।
माथे की टोपी तोरी येंड़ी-बेंड़ी, जुल्फन लटकन आई।साँची।
कुरता तोरो अबै फटो सइयाँ, छतिया धड़कन आई।साँची।

बादशाहों और राजाओं के अन्तःपुरी संस्कृति ने सौतों और रखैल सौतों का वातावरण फैलाया था, जिससे संयोग की क्रीड़ाओं में बाधा पड़ती थी। यह स्थिति धीरे-धीरे लोक को प्रभावित करने लगी थी, इसलिए सौत को केन्द्र बनाकर कई लोकगीत प्रचलित हुए।

बलम सें ऐसी का बिगरी,

ऐसी का बिगरी, मोये छोड़ अकेली गये परदेस रे, बलम सें हो…..।
बलम से कछू न बिगरी,
कछू ना बिगरी, मोरी सौतन नें भर दये उनके कान रे, बलम सें हो….।
काँटो बुरो करील का, औ बदरी का घाम।
सौत बुरी है चून की, औ साझे का काम।।

संयोग के स्पर्श-सुख के गीत खोजने पर ही मिलते हैं, क्योंकि उनमें परिवार के बीच कहने या गाये जाने की मर्यादा का उल्लंघन है। इसी कारण उनमें प्रतीकों का सहारा लिया गया है। हंस और सुआ तो दोनों जीव के प्रतीक हैं, पर हंस का जीव मुक्त जीव है, जबकि सुआ (तोता) का भोगी।
उड़ जा बारे सुअना मोरी बेरी फरी।
उड़ सुअना ओके सिहरे पै बैठो,
घुँघटा को रस लै गओ री।उड़ जा।
उड़ सुअना ओेके कन्धा पै बैठो,
हियरा को रस लै गओ री।उड़ जा।

बेला फूल की कली, बेला फूल की कली,
रनबन करी रे भौंरा नें।
बगिया हो रई लाल, बगिया हो रई लाल,
भौंरा घिरे रे अनघेरे।
बगिया हो रई लाल, बगिया हो रई लाल,
एक एक कली पै दो दो भौंरा।

वियोग श्रृंगार
Viyog Shrngar
लोकगीतों में संयोग श्रृंगार का पक्ष जितना समृद्ध और भावमय है, उतना वियोग का नहीं। इसका कारण लोक का आशावादी स्वभाव और लोकमन है। वह गीतों में दुखड़ा नहीं सुनाना चाहता । जिस प्रकार कुछ लोग अपना दुख दूसरों को सुनाकर उन्हें दुखी नहीं करना चाहते, उसी प्रकार का लोक का दृष्टिकोण रहा है। लेकिन जो भी अनुभूत पीड़ा है, वह तो गीत बनकर निकलेगी ही, लेकिन तब, जब ज्वालामुखी की तरह भीतर ही भीतर विस्फोट की ताकत अर्जित कर ले।

पिया पिया कहत पीरी भई देहिया,
लोग कहें पिंड रोग।
गाँव के लोग मरम न जानें री,
भओ न गौना मोर।।

इनमें कोई दुराव-छिपाव नहीं है और न ही कोई कुण्ठाग्रस्तता। सीधा सरल कथन है। लेकिन विरहिणी जब अपनी सहेलियों को संयोग का सुख भोगता देखती है और उसके प्रियतम बहुत दूर है। फिर नारी का स्वाभिमान आड़े आ जाता है। इस कारण वह कुछ कह नहीं पाती, जिससे उसके हृदय में समुद्र जैसी तरंगें तीव्र वेग से उठती-गिरती हैं।

सबके सैयाँ नियरे बसैं, मो दुखनी के दूर।
घरी घरी पै चाहत है, सो हो गये पीपरामूर।
हमखाँ आबैं हिलोरैं समुँद जैसी।।

पीपरामूर‘ में श्लेष है, जिसका एक अर्थ है ओषधि, लेकिन दूसरे अर्थ में पी=पिय+ परा=दूसरे की+मूर=औषधि अर्थात् मेरे प्रिय दूसरे की ओषधि हो गये, जो उसके मिलन का सुख भोग रही है, इस अर्थ में ओषधि है। प्रिय के विदेश जाने की तैयारी से ही विरह की आशंका आरम्भ हो जाती है। संयोग की स्थिति में प्रिय ने प्रीति के रस का पौधा लगाया था, पर प्रवास में जाने से उसका सिंचन करने वाला नहीं रहेगा। वह तो रस का बिरवा है, उसे पानी नहीं प्रीति का रस चाहिए, तभी बह हरा-भरा रह सकता है। इसी आशंका से ग्रस्त नायिका अपने प्रिय से कहती है।
प्रेम-रीति-रस-बिरवा रे, पिय चलेउ लगाय।
सींचन की सुद लीजो, देखो मुरझि न जाय।।…..

इस उदाहरण में प्रेमानंद को पौधे के रूप में कल्पित किया गया है, जबकि एक गीत में पुष्प और भ्रमर के परम्परित उपमान-युग्म को प्रतीकात्मकता प्रदान कर दी गयी है। प्रिय रूपी भौंरा के चले जाने पर प्रिया रूपी बेला-कली कुम्हला जाती है। यहाँ प्रश्न सींचने का नहीं है, क्योंकि पठार के झरने से जल झिरता ही रहता है। झरने के जल के बावजूद बेला-कली मुरझा रही है।

बेला-कली कुम्हलाय रे, भौंरा परदेसै निकर गये।

पाठे में झिरना झिरें, बेला कली कुम्हलायँ
पापी घड़ेलना न डूबे, मोरे मित्र प्यासे जायँ।बेला कली।….
विरह की पीड़ा की अभिव्यक्ति बारामासियों में अधिक घनीभूत है। ऐसा प्रतीत होता है, जैसे विरहिणी सभी परिस्थितियों में करवट बदल-बदल कर रो रही हो। बारामासी में बारह माहों की प्रकृति से मिलती-जुलती भावना सुना जा सकती है।

माह अषाढ़ असाढ़ मास आगी लगी, जर गये सकल सरीर।
प्रेम बूँद बरसी नहीं, मोरो जियरा धरै न धीर रे।।
अषाढ़ और क्वाँर के तीन-तीन रूप हैं। अषाढ़ के पहले रूप में विरहिणी को आग जैसी गर्मी से पीड़ा होती है और उसे शान्त करने के लिए प्रिय की प्रीति रूपी बूँद तक नहीं बरसी, जिससे उसका हृदय बैचेन है।

असाढ़ मास लागे सजनी, चहुँ दिस बदरा घिर आये।
बोले मोर पपीहा बोले, दादुर वचन सुनाये।।
माह क्वाँर क्वाँर मास लागे हते, अंगन उड़ी भबूद।
इसमें बादलों के घिरने और मोर, पपीहा तथा मेंढ़क के बोलने से नायिका की पीड़ा उभरती है क्योंकि ऐसे समय प्रिय से संयोग-सुख उसे बैचेन करते हैं।

सिर पै जटा रखाय कें, घर घर माँगे भीख रे।।
क्वाँर मास तीखे महिना, तप गये नदिया झोरा।
मैं दोखन बिरहा की मारी, छाती में उठत ककोरा।।
क्वाँर के पहले रूप में गर्मी के कारण अंगों में धूल लिपट गयी है, जो जोगी की भभूत (राख) जैसी है। सिर्फ सिर पर जटा रखाकर भीख माँगने की कसर है। दूसरे में गर्मी के ताप से नदी और उसके पोखर तप्त हैं। नायिका का दोष यही है कि वह विरह की सतायी है, इसलिए उसकी छाती में (दुगनी गर्मी से) फफोले फूट पड़े हैं।

अषाढ़-क्वाँर असढ़ा बोले मोर सोर भये भारी।

सावन मासें जामुन बाढ़ी बिपन दरियारी।
भादों डर लागे मोय देख निस कारी।
क्वारें कौल हजार किये बनवारी।
प्रिय के हजार वायदे किये गये थे, पर वे नहीं आये। स्पष्ट है कि हर माह की प्रकृति से उत्पन्न अनुभव ही जो प्रिय के कारण संयाग-सुख देते थे अथवा जिनकी पीड़ा महसूस नहीं होती थी, वे प्रिय के प्रवास से पीड़क हो गये हैं।

असाढ़ मास जब लागे सजनी, चहुँ दिस बादर छाये।
मोरा बोले पपीरा बोले, दादुर बचन सुहाये।।
क्वाँर मास की छुटक चाँदनी, बाढ़े सोच हमारे।
घर होते नैनन भर देखते, अउतन कंठ जुड़ाते।।
फागुन मास फरारे मइना, सब सखि खेलें होरी।
जगन्नाथ की बारामासी, गाबैं नंदकिसोरी।
क्वाँर का महीना खिली चाँदनी का बताया गया है, जो सुखद है। फिर चिन्ताजनक इसलिए हो गया है कि प्रिय घर में नहीं है। अगर वे घर होते, तो उन्हें नैंना भरकर देखते और कंठ लगाते। इस प्रकार इनमें क्वाँर की चाँदनी को लिया गया है, जबकि प्रथम दो में गर्मी का वर्णन था। उद्दीपन दोनों से होता है, चाहे सुखद हो या पीड़ादायक उदाहरण की अंतिम पंक्ति मेें लोककवि का जगन्नाथ नाम बताया गया है और गायक का नंदकिशोर।

वर्षा ऋतु के बादल विरहिणी को सबसे अधिक सताते हैं। साथ ही साथ वे विरहिणी के दूत बनकर प्रिय के पास जाते हैं और उसका संदेश पहुँचाते हैं। प्रिय को भी प्रिया की तरह वेदना से व्यथित करते हैं और अपनी प्रिया की स्मृति ताजा करते हैं।

जिनके पिया परदेस बसत हैं, अँसुअन भींजे गुलसारी।
जिनके पिया परदेस बसत हैं, छाई महल अँधियारी।।
ओ कजरारे बादरा सुनियो मो संदेश।
मो दुखिनी के छाये हैं, सजना काऊ देस।।
जो कारौ रूप डरावनों, अपनो उतईं दिखाव।
जी डर सइयाँ आ मिलें, ऐसो रचो उपाव।। ओ कजरारे…।
मो दुखिनी की तुम करो, इतनी कऊँ सहाय।
तौ आँखन में राखहौं, कजरा तुमें बनाय। ओ कजरारे….।।

वर्षा ऋतु के बाद दूसरी ऋतु बसंत है, जो विरहिणी को सदा दुख देती आयी है। कोयल का बोलना अकेली विरहिणी को भयभीत करता है। ठीक उसी तरह, जैसे वर्षा का मेघ।
ऐसे बोल न बोल कोयलिया,
अकेली मोये डर लागे।
गुइयाँ अब होरी को लागो महिनवा।
एरी हाँ, मोरे अजहूँ न आये सजनवा।

बनतागन होरी खेलें पिया संग, अपने री अपने भवनवा।गुइयाँ।
कोइल मोर बोल तन छेदत, बेधत बदन मदनवा।गुइयाँ।….
होरी का महीना और स्त्रियों का अपने प्रिय के साथ होरी खेलना विरहिणी के मन को दुख देते ही हैं। साथ ही कोयल और मोर के बोल मन को छेद डालते हैं और काम तन को घायल कर देता है। इस प्रकार वर्षा और वसंत के सारे संभार विरहिणी को सालते हैं।

सांस्कृतिक सहयोग के लिए For Cultural Cooperation

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

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