Isuri ka Saundarya Shringar ईसुरी का सौंदर्य श्रृंगार

Isuri ka Saundarya Shringar ईसुरी का सौंदर्य श्रृंगार

महाकवि ईसुरी  नें अति सौंदर्य श्रंगार में कुछ फागे लिख डाली। जिन्हें कुछ लोगों ने अश्लील साहित्य के रूप में प्रचारित किया और महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri को विवादों के पटल पर लाकर खड़ा कर दिया। Isuri ka Saundarya Shringar  की फागों की कुछ खास विशेषताएं यह थी कि उनकी भागें जनमानस के हृदय मे बस जाती थी। Bundelkhand के हर उम्र के लोग उनकी फागों को अपने आप मे जोड़ लेते थे।

बुन्देलखंड के महाकवि ईसुरी की सौंदर्य श्रंगारिक फागें  

Bundelkhand के बुन्देली
लोकसाहित्य
के महाकवि ईसुरी का साहित्य काल ऐसे समय का है, जब भारत गुलामी की जंजीरों में जकड़ा हुआ था। अंग्रेज़ों की सत्ता थी और कुछ भारतीय जो अंग्रेजों के पक्षधर थे, उनकी जी हुजूरी कर माफीदार, ज़मीदार, दीवान आदि पदों पर जमे थे। भारत की भोली-भाली जनता पर जुल्म ढाते थे।

महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri उन्हीं में से कुछ एक की बर्बरता के शिकार हुए। ईसुरी-ग्राम साहित्य के कवि हैं Isuri is a poet of village literature। ग्राम-साहित्य में सौंदर्य श्रृंगार वर्णन करना कठिन कार्य होता है। जो भाव कोई नागरिक संकेत या ध्वनि में प्रकट करता है उसे भोला भाला ग्रामीण अपनी सीधी-साधी भाषा में व्यक्त कर देता है। और यही Isuri ka Saundarya Shringar  के साथ हुआ।

महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri जिस समय के कवि है, उस समय लोगों के पास मनोरंजन के कोई साधन नहीं थे। ग्रामीण जीवन में उन दिनों लोकगीत, राई, रावला, स्वांग तथा फाग ही ऐसा माध्यम था जिसके द्वारा कुछ मनोरंजन किया जा सकता था। साहित्य में रोचकता लाने तथा लोगों को आकर्षित करने के लिए फाग साहित्य में तत्कालीन आवश्यकताओं को देखते हुए ऐसी कुछ शब्दावलियाँ जोड़ी जा रही थीं, जिनसे कवि सामान्य जनजीवन में व्याप्त कुरीतियों पर कटाक्ष कर सके। लोगों का ध्यान आकर्षित कर सके।  ईसुरी की कुछ उन फागों का उल्लेख भी जरूरी है जिस पर ईसुरी को लोगों की आलोचनाओं का भाजन होना पड़ा।

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जुबना बीते जात लली के, पर गए हात छली के।
मस्कत रात पुरा पाले में,सरकत जात गली के।
कसे रात चोली के भीतर, जैसे फूल कली के।
कात ईसुरी मसकें मोहन, जैसे कोऊ भली के।

जुबना कड़ आए कर गलियां, बेला कैसी कलियां।
न हम देखे जमत जमी पै, ना माली की बनियां।
सोने कैसे तबक चठे हैं, बरछी कैसी भलियां।
ईसुर हात समारे धरियो, फूट ना जावे गदियां।

जुबना छाती फोर दिखाने, मदन बदन उपजाने।
बड़े कठोर फोर छाती खों, निबुआ से गदराने।
शोभा देत बदन गोरे पै, चोली के बंद ताने।
पोंछ-पोंछ के राखे रोजऊ, बारे बलम के लाने।
ईसुर कात देख लो इनको, फिर भए जात पुराने।

तुमसे मिलन कौन विधि होने, परकें एक बिछौने।
बातन-बातन कडे़ जात हैं, जे दिन ऐसे नौने।
प्रानन के घर परी तलफना, नैनन के घर रोने ।
ईसुर कात प्रिया के संग में,कब मिल पाहै सोने।

जुबना कौन यार को दइये, अपने मन में कइये।
हैं बड़ भोल गोद गुरदा से, कांलौ देखे रइये ।
जब सारात सेज के ऊपर, पकर मुठी रै जइये।
हात धरत दुख होत ईसुरी, कालौ पीरा सइये।

लै गओ मजा मिजाजी तनको, छैला बालापन को।
खोलूं खूट दुखूट खोलतन, लूटो सुक्ख मदन को।
घूंघट खोल कपोलन ऊपर, दै गओ दार दसन को।
ईसुर इन बालम के लाने, खाली कोठा धन को।

जुबना धरे ना बांदे राने,ज्वानी में गर्राने।
मस्ती आई इन दोउन पै,टोनन पै साराने।
फैंकें -फैंकें फिरत ओढ़नी, अंगिया नहीं समाने।
मुन्सेलू पा जाने जिदना, पकरत हा-हा खाने।
जांगन में दब जाने ईसुर, राम घरै लौ जानै।

अब न लगत जुबन जे नोने,रजऊ हो आई गौने।
मयके में नीके लागत ते,सुन्दर सुगर सलौने।
बेधरमा ने ऐसे मसके,दए मिटाय निरौने।
चलन लगीं नैचें खां कसियां,हलन लगीं दोई टोने।
सबरे करम करा लए ईसुर, हर के ऐ बिछौने।
     
जुबना अबै न देती मांगें, पछतेहौ तुम आगें।
कर-कर करुना उदना सोचो, जबै ढरकने लागें।
कछु दिनन में जेई जुबनवां, तुमरौ तन लौ त्यागें।
नाई ना करहौ और जनन खां, सुन-सुन धीरज भागें।
भरन भरी सो इनको ईसुर, उतरी जाती पागें।

जुबना जिय पर हरन जमुरियां, भए ज्वानी की बिरियां।
अब इनके भीतर से लागीं, झिरन दूध की झिरियां।
फौरन चले पताल तरैया, फोरन लगे पसुरियां।
छैल छबीली छुअन ना देती, वे छाती की तिरियां।
जे कोरे मिड़वा कें ईसुर, तनक गम्म खा हिरियां।

छाती लगत जुबनवा नौने, जिनकी कारी टोने।
फारन लगे अबै से फरिया, आंगू कैसो होने।
सीख लली अन्याव अवैसें, कान लगी चल गौने।
करन लगे चिवलौरी चाबै, भर-भर कठिन निरौने।
बचे ईसुरी कांलौ रैइयत, कईइक खौं जो खोने।

जानी हमने तुमने सबने,रजऊ के जुबना जमने।
सोने कलस कुदेरन कैसे, छाती भौंरा भुमने।
जोर करै जब इनकी ज्वानी, किनकी थामी थमने।
निकरत बजैं चैन की बंसी, कईइक पंछी मरने।
जा दिन द्रगन देखबी ईसुर, दान जो देबो बमने।

छाती नोकदार है तोरी, जी से चित्त लगोरी।
एक दार हेरो चित देकें, कईइक दार कहोरी।
होय अधार तनक ई जी खां, लगी बुरत की डोरी।
ओंठ से ओंठ लगे न ईसुर, अधर राप से जोरी।


इसे भी देखिए: ईसुरी की संयोग श्रंगारिक फागें

           ईसुरी की वियोग श्रृँगारिक फागें
 
महाकवि ईसुरी ने  फागों में अंग श्रृँगार का पूर्ण मनोयोग से चित्रण किया है। इसे अश्लीलता का नाम देना  श्रृँगारिक साहित्य को अकारण लांछित करना है। चढ़ती उम्र में यौवन निखार पर आता है। काम भाव अपने नए-नए रूपों में प्रस्फुटित होने को आतुर होता है। इन परिस्थितियों में मनचले युवतियों को बहकाने का प्रयास करते हैं। उनके आव भाव शब्द व्यंजनाएँ कैसी-कैसी हो सकती हैं और उनके प्रभाव क्या हो सकते हैं। ईसुरी ने प्रेमानुभूति से मिश्रित नायक-नायिका सम्वाद का चित्रण किया हैं और उन्हे परिभाषित किया है।

बालम नओ बगीचा जारी, दिन-दिन पै तैयारी।

बिरछन बेल लतान फैल गई, झुक आई अंधिआरी।
डौंड़ा लोंग लायची लागी, फरीं जिमुरियां भारी ।
ईसुर उजर जान न दइयो, करा देव रखवारी ।

नारी आकर्षण, उनकी कामुक अदाएँ तथा कामेक्षा से आग्रह टाल पाना किसी के वश में नहीं रहता है। सुन्दरियों की चंचल चाल से कंकनों की खनक करधनियों के घुघरुओं की ध्वनि और पायल की मधुर झंकार, तथा हरिणी के समान कटाक्ष से क्या कोई अपनी रक्षा कर सकता है। नारी के इन गुणों के कारण ही पुरुष उनके जाल में बड़ी आसानी से फँस जाते हैं। इस तारतम्य में ईसुरी ने कहा है कि जब कोई नारी किसी पुरुष को रति भोग की इच्छा से आमंत्रण दे तो कौन होगा वह पुरुष जो उसके आग्रह को ठुकरा सकेगा।

मोरी कही मान गैला रे, दिन डूबें ना जा रे।

आगूं गांव दूर लौ नइयां, नैया चैकी पारे।
देवर हमरे कछू ना जाने, जेठ जनम के न्यारे।
पानी पियो पलंग लटका दों,धर दूं दिया उजारे।
डर ना मानों कछू बात को, पति परदेश हमारे।
ईसुर कात रैन भर रइयो, उठ जइयो भुन्सारे।

जब सौंदर्य श्रृंगार कामिनी कामपीड़ा से इस तरह खुला एवं स्पष्ट आग्रह करे तो फिर इस कामजाल से बच पाना किसी पुरुष के लिए आसान नहीं होता है। महाकवि ईसुरी ने नारी की उस पीड़ा का वर्णन किया है जो विरह अग्नि में जल रही है। पति घर पर नहीं है। उसे काम पीड़ा सता रही है। होली का त्योहार है। मनचले पिचकारी लिए घूम रहे हैं। वह भी रंग-गुलाल से खेलना चाहती है, किन्तु सामाजिक प्रतिबंध उसे ऐसी अनुमति कहाँ देने वाले हैं। वह अपने दिल की कसक किन शब्दों में व्यक्त करती है।

हम पै नाहक रंग न डारौ, घरै न पीतम प्यारो।
फीकी लगत फाग बालम बिन, मनमें तुमई विचारो।
अतर-गुलाल अबीर न छिरको, पिचकारी न मारो।
ईसुर सूझत प्रान पति बिन, मोय जग में अंधियारो।

देखो कबहुं न देखो जिन खां, धन्य आज के दिन खां।
जिनकी देह दमक दर्पन सी, देवता लौचें इनका।
तेरो जस रस भरो कात हों, नाम चले पैरन खां।
ऐसे नौने प्रान ईसुरी, करौ निछावर छिन खां।


इसे भी देखिए: ईसुरी की सामाजिक चेतना
            ईसुरी की साहित्यिक प्रतिभा

            ईसुरी की शिक्षाप्रद फागें
 
महाकवि ईसुरी  की फागें बुन्देलखण्ड के गाँव-गाँव एवं घर-घर में गायीं जाती हैं, जिस तरह धार्मिक विचार सम्पन्नता वाले व्यक्ति हर बात में तुलसीदास जी के रामचरित मानस, कबीर की साखियाँ, सूर के पद और रहीम के दोहे बतौर उदाहरण व्यक्त करते हैं, उसी तरह श्रृंगारिक मनोभावों वाले सहृदय ईसुरी की फागों के माध्यम से अपने दिल की बात कह देते हैं।

प्यार किसी को किसी से भी हो सकता है। प्रेमी-प्रेमिका बंधनों को सहन नहीं कर पाते, स्वीकार नहीं कर पाते हैं। वे स्वच्छन्द विहार ही इच्छाशक्ति वाले होते हैं और कैसे भी इस इच्छा की पूर्ति चाहते हैं। ईसुरी ने इस मनोदशा का अपनी फागों में बढ़िया चित्रण किया है।

ससुरे अब नहिं जान बिचारें, बाई ननद के द्वारें।

बखरी बाहर पांव न धरवी, चाहे चले तरवारें।
जाय जो केदो बारे बालम सें, इतै ना डेरा डारें।
ईसुर विदा होन ना पावै, लगवारन के मारें।

तुमरी विदा न देखी जानें, रो-रो तुमे बतानें।
कोसक इनके संगे जाने, भटकत पांव पिरानें।
पल्ली और गदेली जोरो, नए-नए ठन्ना पानें।
जो कउं होते दूर तलक ते, सुनी न जातीं कानें।
रंधे भात जे कहिए ईसुर, काके पेट समानें।

मानुष विरथा राम बनाओ, दावा सब मंझयाओ।
मैं भई ज्वान ललकरई भर-भर, बिरहा जोर जनाओ।
बारे बलम लिलोर गरे से, जान बूझ लजबाओ।
कामदेव ने जोर जनाओ, मदन पसर के धाओ।
दई रूठे को हुई है ईसुर, मिलो न जैसे चाओ।

जो जी नैये देख डरावै, बेर-बेर इत आवे।
ऐसो लगन लगत बेधरमा, कान बिदा की चावे।
बलम के घर की सबरी बातें, आ-आ इतै सुनावे।
ईसुर ई को मौं ना देखूं, मैड़ो ना मझयावै।

जब नायिका (प्रेमिका) अपने प्रेमी से कहती है कि मेरा गौना होने वाला है। मेरे ससुराल वाले लेने के लिए आने वाले हैं। मैं तुमसे दूर नहीं जाना चाहती हूँ । तब प्रेमी की प्रतिक्रिया क्या है, कैसी है, ईसुरी की फाग में देखिये।

जो हम बिदा होत सुन लैबी, मा डारें मर जैबी।
हम देखत को जात लुबाकें, छुड़ा बीच में लैबी।
अपने ऊके प्रान इकट्ठे, एकई करके रैवी।
ईसुर कात लील को टीका, अपने माथे दैवी।

सिर पै गंगा जली धरी ती, दगा दैन ना कईती।
करने हतो तमासो ऐसो,काहे खां बांह गहीती।
दै परमेसुर दोई बीच में, कैसी ठौर परीती।
ईसुर दओ राम रस पैला, फिर बिषबेल बईती।

काती मजा लूटलो नौने, फिर जैयत है गौने।
आसों साल भाव फागुन में, होने कात गलौने।
ऐसे अडे़ विदा के लाने, आ गए श्याम सलौने।
आहैं बरस रोज में छैला, बीच मिलन नहिं होने।
ईसुर कात पराये डोला, छोड़ लए हैं कौने।

सुनतन हात पांव सब थाके, टिया सुने से ताके।
जोर दओ संयोग विधाता, तुम काकी हम काके।
सावन लौके टिया टार दो, राखो पांव उमा के।
अब थोरे दिन रये ईसुरी, अक्ती भोर विदा के।

पंछी भये ना पंखन वारे, इतनी जंगा हारे।
कड़-कड़ जाते सांसन में हो, अड़ते नहीं किनारे।
सब-सब रातन मजा लूटते, परते नहीं नियारे।
ईसुर उड़ प्रीतम सों मिलते, जां है यार हमारे।।

तुम तो भोर सासुरे जातीं, का कए हमसे जातीं।
तुम खां चैन चैगुनी होने, लगौ बलम की छाती।
जो-जो बात गती ती तुमने, किए गहाए जाती।
ईसुर देत अशीषें तुमकों, बनी रहे ऐबाती।

महाकवि ईसुरी  साहित्य के ऐसे धनी थे कि उन्होने हर विषय पर अपनी रचनाएँ कहीं हैं। भक्ति, श्रृँगार, नीति, दर्शन, उत्सव, त्योहार, ऋतुएँ कोई भी विषय उनकी कलम से अछूते नहीं रहे। ईसुरी का साहित्य यद्यपि बुन्देली और ब्रज भाषा में अधिक है, किन्तु अब इसे क्षे़त्रीय सीमा रेखा में बांधकर नहीं देखा जा सकता है। ईसुरी का साहित्य व्यापक है और उनके चिन्तन पर अनेक विद्यार्थी शोध कर चुके हैं। ईसुरी के साहित्य की व्यापकता उनकी लोकप्रियता का  विस्तार प्राप्त करता जा रहा है, जो बुन्देली भूमि के गौरव की बात है।

का सुक भओ सासरे मइयां,हमें गए कौ गुइयां।

परवू करैं दूद पीवे कौं, सास के संगें सइयां।
दिन भर बनी रात संकोरन चढें ससुर की कइयां।
भर-भर देबौ करें दूर से, देखत हमें तरइयां।
कटी बज्र की उम्र ईसुरी, लटी होत लरकइयां।

 Mahakavi Isuri की जिन फागों को अश्लील कहकर उनको लांछित करने का उपक्रम किया गया है, उनका अध्ययन करने से ऐसा पाया गया कि कुछ-कुछ जगहों पर अवश्य गोपनीय अंगों के नाम को अपनी अभिव्यक्ति में लिखा गया है, किन्तु उन्हें निन्दनीय अथवा प्रतिबंधित की श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। सौंदर्य श्रृंगार की प्रतिष्ठा को शाश्वतता प्रदान करने के लिए साहित्य में इसका समाविष्ट उचित माना गया है।

संदर्भ-
ईसुरी की फागें- घनश्याम कश्यप
बुंदेली के महाकवि- डॉ मोहन आनंद
ईसुरी का फाग साहित्य – डॉक्टर लोकेंद्र नगर
ईसुरी की फागें- कृष्णा नन्द गुप्त
मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’

admin

Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.

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