Bundelkhand Ke Loknritya बुन्देलखण्ड के लोकनृत्य

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बुंदेलखंड में विभिन्न लोकनृत्यों का प्रचलन है। बुंदेली लोक नृत्य में विभिन्न प्रकार के गीतों का गायन होता है। बुंदेलखंड में लोकप्रिय लोकनृत्य मे बधाई नृत्य, बरेदी नृत्य, होली नृत्य, जवारा नृत्य, आदिवासी करमा नृत्य, सैरा नृत्य, रावला, राई नृत्य, कानड़ा नृत्य, ढ़िमरयाई नृत्य, नौरता नृत्य आदि हैं । Bundelkhand Ke Loknritya बुंदेलखंड के लोग जीवन में प्राण वायु की तरह रचे बसे हैं।

बुन्देलखण्ड के लोकनृत्य 

बुंदेलखंड में लोकप्रिय मुख्य लोकनृत्य निम्न प्रकार है:- बधाई

नृत्य, बरेदी नृत्य, होली नृत्य, जवारा नृत्य, आदिवासी करम नृत्य, सैरा नृत्य,रावल, राई नृत्य, कानड़ा नृत्य, ढ़िमरयाई नृत्य, नौरता नृत्य आदि। बुंदेलखंड के ये समस्त लोकनृत्य प्रदेश की परंपरा को संजोये हुए है।

प्रत्येक नृत्य किसी न किसी परंपरा अथवा रीति-रिवाज से जुड़ा हुआ हैं। इन नृत्यों की वेशभूषा बुंदेलखंड के रंग में रंगी हुई हैं। इन नृत्यों में प्रयुक्त गीत पुर्णतः बुंदेलखंड की बोली में होता है। प्रत्येक नृत्य के गीतों की लय अलग-अलग होती है तथा इनके गीतों की लयात्मकता भी भिन्न होती है।

बधाया लोकनृत्य
Badhaya lok Nritya
बधाया लाने या बुलौआ करवाने पर यह लोकनृत्य सामूहिक रूप में स्त्रियाँ करती हैं ढपले और नगड़िया के स्वरों पर स्त्रियों का एकल या सामूहिक नृत्य सहजता और उन्मुक्तता की चरम सीमा में होता है। लहँगा और नुगरो पहने तथा पीली-सी ओढ़नी ओढ़े नचनारी स्त्रियाँ हाथ की अंगुलियों के जादू से मन को मोहने में कुशल हैं। पद-चालन की गतों और अंगुलियों के मौन नर्तन में गजब का तारतम्य रहता है, जो इन लोकनृत्यों का प्राण है।

इस नृत्य में बाजी बधइयाँ अवधपुर में गीत अधिक प्रचलित है। वाद्यों की लय द्रुत और अति द्रुत होने पर लोकगीत के बोल और नर्तकी या नर्तकियों के चरण उसी गति से संगत करते है। कभी-कभी लोकगीत के बोल थककर चुप हो जाते हैं, पर गीत की लय पर वाद्य बजते रहते हैं और नृत्य होता रहता है।

चंदेल-काल में दीपावली और होली के त्यौहार मनाये जाते थे। त्यौहार आनन्दभरे लोकोत्सव हैं, इसलिए उनमें लोकनृत्यों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। जैसा कि त्यौहार होता है, वैसा ही लोकनृत्य उसमें उपयुक्त बैठता है। त्यौहारों में कोई जातिगत, वर्गगत और सम्प्रदायगत भेदभाव नहीं होता, तो लोकनृत्यों में भी किसी पूर्वाग्रह का कोई प्रश्न नहीं उठता। वे हर पक्षपात से मुक्त होते हैं। त्यौहारों का आनन्द उद्देश्यपूर्ण हुआ करता है और किसी-न-किसी आदर्श से उसका जुड़ा होना निश्चित रहता है। इस दृष्टि से लोकनृत्य में भी वही लोकादर्श प्रतिबिम्बत होता है।

मौनियाँ नृत्य या बरेदी नृत्य
Moniya Nritya / Baredi Nirtya

मौनियाँ नृत्य को ही अहीर या बरेदी या दिवारी नृत्य कहते हैं। अन्तर यह है कि मौनियाँ से किसी अनुष्ठान का, दिवारी से त्यौहारी का संकेत मिलता है, जबकि अहीर या बरेदी से जाति और व्यवसाय का बोध होता है। इस प्रकार यह नृत्य अनुष्ठान, व्यवसाय और त्यौहार की संवेदनाओं का प्रतिनिधित्व करता है।

यह पुरुषप्रधान समूह नृत्य है
, जिसमें कम से कम 4-5 और सब मिलाकर 10-15 से कम की मण्डली नहीं होती और उसमें 8-10 वर्ष के आयु-समूह से लेकर 55-60 वर्ष तक की आयु के वृद्ध सम्मिलित रहते हैं। वे पहले दिवाली के दूसरे दिन से कार्तिक पूर्णिमा तक नृत्य करते थे, पर अब दिनों की संख्या बहुत कम हो गयी है।

दिवारी के दूसरे दिन बड़ी भोर गाँव के ग्वाले, अहीर, गड़रिये, यादव आदि पशुपालक तालाब या नदी में स्नान करते हैं और अपनी परम्परित पोशाक पहनते हैं। मौन व्रत धारण करने वाले मौनियाँ कहलाते हैं। सफेद चमकीली कौंड़ियों से गुँथे लाल रंग के लाँगिये (जाँघिये) और उनपर छोटी-छोटी घंटिकाओं से जड़ी झूमर कटि पर शोभित हो ’लांगझूमर‘ नाम से प्रसिद्ध, दोनों नर्तकों की पहचान निश्चित करते हैं।

स्वस्थ गठे हुए वक्षस्थल पर लाल रंग की कुर्ती या सलूका एक निराला पौरुष खड़ा कर देते हैं। झूमर पर बँधती है गलगला (बड़े घुँघरुओं की दो पंक्तियाँ), जो पाँव के घुँघरुओं के नारीत्व पर हँसने के लिए हर समय आतुर रहती हैं, लेकिन वस्त्रों के किनारों से लटकते फुंदने बार-बार सिर हिलाकर उन्हें मना करते हैं। हाथों में मोरपंखों के मूठों की ढाल और दो डण्डों का शस्त्र लेकर जब वे मौन धारण कर लेते हैं, तब भले ही लोग उन्हें मौनियाँ कहें, पर वे वीरता के साक्षात अवतार लगते हैं।

मौनियाँ के साथ घुटनों तक धोती एवं वक्ष पर ढीला कुर्ता और बण्डी पहने तथा सिर पर पगड़ी या साफा बाँधे कई लोकगायक दिवारी गीत गाने का संकल्प किये तैयार रहते हैं। तीसरा दल होता है लोकवादकों का, परम्परित लोकगायकी में प्रयुक्त ढोल, नगड़िया और झाँझ वाद्य प्रमुख रहते हैं और रमतूला तो चेतावनी की घण्टी है।

दूसरे क्षेत्रों में मृदंग, टिमकी, कसावरी, मंजीर, ढोलक, बाँसुरी आदि में से अपनी रुचि के अनुसार चुनकर प्रयुक्त कर लेते हैं। पहले जब ढोल का धौंसा पाँच-छः नगड़ियों के साथ रमतूला की भैरवी पर गरजता था, तब श्रोता दर्शकों के नग-नग फड़क उठते थे।

अरे ढोल के ओ बजवैया,
तोरें न आयी ओंठन रेख रे,
एक बजौरी ऐसी बजा दे,
मोरी नग नग फरकै देह रे…..
गाँव के ग्योंड़े में बाँस की लाठी के सिरे पर तुलसी जैसे बोबई पौधे की शाखें बाँध दी जाती हैं, जिसे छ्याँवर बाँधना कहते हैं। छ्ँयावर बँधने पर दिवारी नृत्य शुरू होता है और 12 गाँवों की मेंड़ें लाँधने के बाद गाय के नीचे से निकलने पर खत्म होता है।

गायक द्वारा दिवारी गीत गाये जाने के बीच पहली पंक्ति की यति पर ढोला का धौंसा घोष करता है, परन्तु दूसरी पंक्ति के अंत में गायक के साथ नर्तकदल का सामूहिक स्वर कुछ क्षणों तक तार सप्तक की ऊँचाई पर खड़ा रहता है और तभी वाद्य बज उठते हैं तथा नर्तक हाथ में लाठी या डण्डे लेकर उचकने लगते हैं। धीरे-धीरे वे एक घेरा बना लेते हैं और फिर कई तरह से नृत्य करते हैं।  इस नृत्य के तीन रूप हैं।

पहला है कि मौनियाँ हाथों में केवल मोरपंखों के मूठे लेकर गोलाकार घेरे में वाद्यध्वनि के अनुरूप नृत्य करते हैं। आरम्भ में गति मंद होती है और अंग-संचालन मंथर, लेकिन तीव्र गति होने पर कला की उत्कृष्टता दिखने लगती है। हाथों और जंघाओं की नस-नस थिरक उठती है और कौंड़ियों की खनक एवं फुँदनों की हिलन से संयुक्त होकर इतनी ऊर्जस्वित हो जाती है कि ओजस्वी पौरुष झलकने लगता है फिर धीरे-धीरे गति धीमी पड़कर नृत्य को विराम देती है।

दूसरा रूप है डण्डा नृत्य या चाँचर का, जो मौनियों के द्वारा सम्पन्न होता है। हर नर्तक नृत्य करते हुए अपने दोनों डण्डों से अगल-बगल, सामने-पीछे के साथियों को अपने कौशल का प्रदर्शन करते हुए उनके डण्डों पर चोट करता है, तब उसकी कला निखर उठती है।

तीसरा है लाठी नृत्य, जो गाँवों में अधिक प्रचलित है और दाँव-पेंच की कुशलता के साथ-साथ व्यायाम की दृष्टि से भी महत्वपूर्ण है। आक्रमण करने या आक्रमण से रक्षा के सभी तरीके इस नृत्य के अंग हैं। दरअसल, दिवारी या बरेदी नृत्य उद्धत (Dithyrambic/प्रचंड) नृत्य हैं। घुँघरुओं और घंटिकाओं के स्वराघात से महीन और उलझे पदक्षेप भले ही कभी-कभी कलाप्रेमियों को भ्रम में डालें, लेकिन कुल मिलाकर यह नृत्य ओजस्वी और पौरुषेय है।

नृत्य की ताण्डवी भंगिमा सभी भारतीय लोकनृत्यों से निराली है। एक विशेषता यह भी है कि यह नृत्य पड़ोस के बारह गाँवों से एक गाँव के जुड़ाव का माध्यम है। इसी तरह हर गाँव सामाजिक और राष्ट्रीय एकता के लिए आनुष्ठानिक संकल्प से काम करता है और उसकी यह भूमिका देश की सेवा का सजीव उदाहरण है।

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होरी नृत्य
Holi Nritya /Holi Dance
होली के अवसर पर राग-रंग और आनन्द के क्षणों में होरी नृत्य करने की परम्परा है। यह नृत्य अधिकतर सामूहिक होता है। युवा वर्ग होली के उल्लास में अलग से नृत्य करता है और स्त्रियाँ अलग से। हुरयारों नर्तकों पर दर्शक गुलाल लगाते और रंग डालते हैं। उनके साथ बादक दल मृदंग या ढोलक, नगड़िया, मंजीरा, झींका आदि लोकवाद्यों से संगत करता है।

जैसे ही चौकड़िया फाग की चैथी कड़ी का अन्त होता है, वैसे ही वाद्यों की लय पर नृत्य शुरू हो जाता है। केवल नगड़िया बजती रहती है और नृत्य चलता रहता है। फगवारों में कोई दल नचनारी बुलवा लेता है, जो अलग से नृत्य करती है और नर्तकदल उसका सहयोगी बनकर उसी का अनुकरण करता हुआ उसी की संगत करता है।

कभी-कभी दोनों में होड़ लग जाती है, तब दोनों के नृत्य में कलात्मक निखार आ जाता है। पदचालन और हस्तचालन में विविधताओं का संयोजन होने लगता है, लेकिन सब श्रृंगार और रसिकता में डुबोकर आकर्षण की तीव्रता गहरा देता है। मैंने तो फाग लोकोत्सव में चाँचर (डण्डिया रास) खेलते और नृत्य करते भी देखा है। फगवारों की अपनी मौज-मस्ती होती है और अपना राग रंग, चाहे जो अपना लें।

अनुष्ठान से जुड़े हुए लोकनृत्य आनुष्ठानिक कहलाते हैं। अनुष्ठान देवी-देवता के सामने किया हुआ एक तरह का ऐसा संकल्प है, जो किसी लक्ष्य को सामने रखकर किया जाता है। अभीष्ट फल की प्राप्ति उसका उद्देश्य है, जिसमें देव का अराधन रहता ही है। इसलिए यह एक धार्मिक कृत्य हो जाता है और आनुष्ठानिक लोकनृत्य भी उसकी परिधि में आ जाता है। धार्मिक या भक्तिपरक भावना प्रधान होने से इस नृत्य मे पदचालन और हस्तचालन संयमित रहता है। भावात्मक क्रियाएँ या अभिप्राय ही मुख्य भूमिका अदा करते हैं।

जवारा नृत्य
Jawara Nritya/ Jawara Dance
चैत और क्वाँर की नौ देवियों के प्रारम्भ में मिट्टी के घटों में जौ डालकर जवारे बोये जाते हैं और नौ दिनों तक उनका पूजन होता है। रात्रि को भजन होते हैं। सुहागिन स्त्रियाँ सज-धजकर आती हैं और जवारों के दिवाले में नृत्य करती हैं। घर के खाली कमरे में जवारे रखे जाते हैं, उसे दिवाले के नाम से अभिहित किया जाता है। यह शब्द देवालय/मंदिर का ही अपभ्रष्ट है, जो जवारों में देवी के वास की प्रतिष्ठा करता है। ये दिवाले मनौती मानकर ही रखे जाते हैं।

संध्या को होम लगने के बाद स्त्रियाँ धोती, सलूका या पोलका तथा गहनों में कानों में कनफूल, गले में कठला या लल्लर, हाथों में चूड़ियाँ और पैरों में बाजने पैजना पहने सज-सँवरकर आती है, जवारों का पूजन करती हैं और नृत्य करती हैं। नृत्य के बीच तालियाँ बजाती हैं और देवी की भक्ति में आह्लादित होकर बार-बार झूककर प्रणाम करती हैं।

भजन में देवीगीत गाये जाते हैं, जो नृत्य के बोल होते हैं। लोकवाद्यों में ढोलक, नगड़िया, मंजीरा, झींका आदि स्त्रियाँ ही बजाती हैं। कई भक्तिपरक मुद्राओं में कटि को झुका दोनों हाथ जोड़ने से विनती करने की मुद्रा प्रमुख है।

नवें दिन संध्या को जवारे जुलूस में निकलते हैं, तब आगे पुरुषवर्ग देवीगीत गाता है और उनकी लय पर सिर पर जवारे रखे स्त्रियाँ गाती हुईं कभी सीधे चलती हैं, तो कभी नृत्य करते हुए। घटों को बिना हाथ लगाये साधकर वे झुककर नृत्य को मंद्र या द्रुत गति से करने में सफल होती हैं। इस नृत्य में पदचालन और आंगिक लोच की प्रधानता है। इसमें स्त्रियों की भागीदारी अधिक रहती है। कहीं-कहीं जवारा नृत्य केवल पुरुषों के द्वारा किया जाता है और उस नृत्य का आधार भी आनुष्ठानिक होता है।

आदि शक्ति देवी दुर्गा या काली की भक्ति में आख्यानक या मुक्तक भजन गाये जाते हैं, जो नृत्य के बोल बनते हैं। इस नृत्य में आत्मिक, आध्यात्मिक और सामाजिक संवेगों का तादात्म्य मिलता है। वस्तुतः इस नृत्य की मौलिकता उसकी भक्तिभावना से जुड़ी नट और स्वाँग की कला में है। जवारे-विसर्जन के लिए नदी या तालाब तक नंगे पैर जाना पड़ता है।

इतनी दूर नृत्य करना कठिन है, पर इतना निश्चित है कि नृत्य के भावात्मकता प्रधान होने से उसकी भाव-मुद्राएँ रोम-रोम को तृप्त कर देती हैं। अतएव यह आनुष्ठानिक नृत्य अपने में एकमात्र होने के कारण अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। खप्पर, बाना आदि लोकनृत्य इसी के अंग रूप में इसी का पूर्णता में सहायक हैं।

                        खेलपरक नृत्य  Khelpark Nritya
ढिरिया / नौरता लोक नृत्य Dhiriya / Naurata Folk Dance
बुंदेलखण्ड में क्वाँर की नौ देवियों में किशोरियाँ नौरता नामक एक धार्मिक भावों से भरा खेल खेलती हैं, जिसमें लोककलाओं का संगम मिलता है। उसमें गायन, नर्तन और चित्रांकन की लोककलाएँ खेल-खेल में सीखने की व्यवस्था है। क्वाँर शुक्ल नवमी खेल का अंतिम दिन होता है, जिसमें पूजा के बाद सभी किशोरियाँ गौरा-महादेव की मूर्तियाँ सिराने तालाब या नदी जाती हैं और सिराकर पीछे की ओर नहीं देखतीं।

रात्रि होते ही ढिरिया या झिंकिया फिराई जाती है। एक मटकी के ऊपरी भाग में चारों ओर छेद कर लिए जाते हैं। फिर आधे भाग में राख भरकर उस पर एक दीपक में तेल-बाती डालकर उसे जलाकर रख देते हैं। उसे ही ढिरिया या झिंझिया कहते हैं। एक किशोरी ढिरिया को अपने सिर पर रख लेती है और आगे-आगे चलती है। उसके पीछे सब किशोरियाँ रहती हैं। वे सब बारी-बारी से पास-पड़ोस के घरों में जाती हैं और हर घर के द्वार पर खड़े होकर गाती हैं –

तुम जिन जानो भौजी माँगने, नारे सुअटा, घर घर देत असीस।
पूत जो पारो भौजी पालने, नारे सुअटा, बिटियन अच्छत देव।
लै अच्छत भौजी निग चली, चँदने रिपटो पाँव।
चँदने रिपटीं भौजी गिर परीं, नारे सुअटा, अच्छत गये बगराय।
जितने अच्छत भौजी भौं परे, नारे सुअटा, तितने दुलैया तोरें पूत।
पूतन पूतन भौजी घर भरै, नारे सुअटा, बहुअन भरै चितसार।।

गीत के साथ ढिरिया के चारों ओर घेरा बनाकर वे नृत्य करती हैं। इस नृत्य में पद और हस्त-चालन से तो रहता ही है, पर मुख मुद्रा की अभिव्यक्ति भी असरदार होती है। यह नृत्य अधिकतर सम पर रहता है, दु्रत पर कम ही जाता है। फिर भी इससे लोकनृत्य की सीख मिलती हैं। वस्तुतः इस नृत्य में उस आदिम नृत्य की प्रतिच्छाया है, जो अग्नि के चारों ओर घेरा बनाकर किया जाता था। स्पष्ट है कि इन लोकनृत्यों में आदिम नृत्यों का बढ़ाव ही है।

आदिवासी लोक नृत्य
Adivasi Lok Nritya (Tribal folk dance)
आदिवासियों के लोकनृत्य स्वतः चालित होते हैं। वे प्रकृति के परिवेश में ही नृत्य की शिक्षा पा लेते हैं। आकाश में उड़ते पंछियों से पंक्तिबृद्ध होने, हवा के झोंकों से उठती जल-तरंगों से गोल घेरा बनाने, जंगल की घास के लहराने से नृत्य की लोचनीयता लाने, जंगल के वृक्ष-कुजों से समूह में नृत्य करने और मयूर के नृत्यों से नृत्य करने की प्रेरणा उन्हें प्रकृति के साहचर्य से मिली थी। इस दृष्टि से आदिवासियों के लोकनृत्य प्रकृति की देन है। बुंदेलखण्ड के प्रमुख आदिवासी हैं-गोंड और सौंर (सहरिया), जो लोकनृत्यों में कुशल होते हैं। उनके प्रमुख लोकनृत्य निम्नांकित हैं।

करमा नृत्य
Karma Nritya (
Karma Dance)
करमा आदिवासियों का सबसे प्रिय नृत्य है, जो विवाह, मेले आदि के आनंददायी क्षणों के अवसरों पर किया जाता है। स्त्री-पुरुष नर्तक घुटनों के ऊपर अधोवस्त्र पहनकर सिर पर मोरपंख लगा लेते हैं। दो या तीन पुरुष मुख्य वाद्य माँदर बजाते हैं और नगड़िया सहायक वाद्य की श्रेणी में आता है।

7 से 16 तक स्त्रियाँ नर्तक रहती हैं और 8-10 पुरुष नर्तक स्त्रियों के सामने मुख करके खड़े हो जाते हैं। गीत के बोलों (हो हो रे ओ हो हम रे गा आय हाय हाय हो रे) से नृत्य शुरू होता है। स्त्रियों और पुरुष नर्तकों की आमने-सामने खड़ी पंक्तियाँ एक-दूसरे की कमर में हाथ डाले नाचती हैं। सबसे पहले कदम्ब वृक्ष की एक टहनी बीच में गाड़ दी जाती है, तब उसके चारों ओर करमा नृत्य होता है। उस डाल के पास गोबर से लीपकर चैक पूरा जाता है।

रात्रि में व्रत रखने वाली लड़कियाँ स्नान करने के बाद जलाशय से कोरे घड़ों में पानी भरकर उसी डाल के पास रख देती हैं। घड़ों पर दिये जलाकर रखे जाते हैं। पुजारी आकर पूजा करता है। इसके बाद नृत्य होता है।

शीत ऋतु में यह नृत्य पूरी रात चलता है, पर वर्षा में नहीं होता। यह नृत्य सृजन, कर्म और जिजीविषा पर आस्था का है, इस वजह से पैर उठाकर कदम रखने (स्टैपिंग) की सामूहिक संगति अनिवार्य है और उसी में नृत्य का सौंदर्य है। पुरुष नर्तकों का झुकते, उठते और झूमते हुए नृत्य करना आंगिक क्रियाओं की समरसता प्रदर्शित करना है। जब स्त्री नर्तक आगे बढ़ती हैं, तब पुरुष नर्तक पीछे बढ़ते हैं और जब पुरुष नर्तक आगे बढ़ते हैं, तब स्त्री नर्तक पीछे की ओर बढ़ती हैं। नृत्य में कदम रखना (स्टैपिंग) ही महत्व का है, क्योंकि उसी पर नृत्य निर्भर है।

सबेरे के पहले पुजारी डाल उखाड़कर आगे चलता है और उसके पीछे गाँव के लोक नृत्य करते हुए जाते हैं। तालाब के पास पहुँचकर डाल जमीन में गाड़ देते हैं और उसके पास नृत्य करते हैं। सूर्योदय के पूर्व डाल और घड़ों को जल में विसर्जित कर देते हैं। 

आदिवासी करमा को तीन भागों में मनाते हैं-
(1) करमा तीजा- यह क्वाँर मासकी तीज को मनाया जाता है, इसमें क्वाँरी कन्याएँ ही भाग लेती हैं।
(2) करमा एकादशी- यह क्वाँर मासकी ग्यारस को मनाया जाता है, इसमें क्वाँरी लड़कियाँ एवं लड़के भाग लेते हैं।
(3) करमा जितिया- यह क्वाँर मास की ग्यारस के बारह दिन बाद मनाया जाता है, इसमें सभी भाग लेते हैं।

करमा नृत्य का उद्देश्य केवल मनोरंजन नहीं है, वरन् गाँव के सभी लोगों के प्रति मंगल कामना और कल्याण की भावना है। करमा को दो भागों में रखा जा सकता है-एक तो आनुष्ठानिक करमा, जो मध्यप्रदेश के पूर्व-उत्तर क्षेत्र में गाया और नाचा जाता है। उसमें पूजा मुख्य और अनिवार्य है, गीत और नृत्य गौण।

मध्यप्रदेश के मध्य और दक्षिण भाग में करमा गीत और नृत्य भी प्रधान है। पहले में करमा मनौती और कर्म की प्रतिष्ठा के लिए एक उत्सव है, तो दूसरे में मनोरंजन के लिए। करमा गीतों में पारिवारिक प्रसंग, गरीबी, अभावग्रस्तता, मँहगाई आदि समस्याएँ, आर्थिक एवं सामाजिक पक्षों, व्यावसायिक पक्ष, धार्मिक पक्ष आदि पूरे जीवन को प्रतिबिम्बित कर एक प्रतिष्ठा-कर्म बना दिया गया है।

सैला नृत्य Saila Nritya
सैला नृत्य आदिवासियों का पुरुष नृत्य है, जिसमें पौरुष की प्रतीक छोटी लाठियाँ नर्तकों के दोनों हाथों में रहकर बजती हैं। यह नृत्य विवाह, मेले आदि के अवसरों पर होता है और कभी-कभी दो दलों में होड़ का माध्यम बनता है। इस नृत्य में पुरुष नर्तक घुटनों तक धोती पहनते हैं और सिर में मोरपंख लगाते हैं, जबकि स्त्री नर्तक वक्ष को ढकती हुई घुटनों तक की साड़ी पहनती हैं। वाद्यों में माँदर, ढोल और नगड़िया प्रमुख हैं।

नृत्य के प्रारम्भ में कम पदों वाले गीत गाये जाते हैं। नर्तक गोलाकार खड़े होकर दो-तीन कदम आगे बढ़ते हैं और दो बार दोनों लाठियाँ बजाते हैं, फिर पीछे हटकर अपने अगल-बगल के नर्तकों से लाठी बजाते हैं। इस प्रकार अपनी जगह में घूमकर, बैठकर और एक दूसरे से लाठी बजाते हुए झूम-झूमकर नाचते हुए नर्तक अपना चक्र पूरा करते हैं। माँदर और ढोल की ताल पर नृत्य द्रुति पर पहुँच जाता है और उसमें लाठियों के बजने की आवाजें मधुर लगने लगती हैं। गीत की लय पर ही नृत्य बंद होता है।

तर हर नाना तरिहा रे तरिहरि है नाना।
कारबर डेरा डीह डोगर, कारबल कोइल कछार,
कारबर है अमरइया, काबर पभर दुबारा,
सिंहा के डेरा अमरइया, डेरिहा परम दुआर।

एक गायक गीत उठाता है और सभी उसे दुहराया करते हैं। सैला-नर्तक दूसरे गाँव जाकर नृत्य करते हैं, तो उसे गिरदा नृत्य कहते हैं। गिरदा नृत्य अन्तग्र्राम नृत्य है, इस आधार पर सिद्ध है कि लोकनृत्य के द्वारा गाँव-गाँव का जुड़ाव होता था। जिस तरह मौनियाँ 12 ग्रामों में जाकर नृत्य करते हैं, उसी तरह सैला नृत्य राष्ट्रीय समस्या का उपचारक है और आपका स्वागत करता है।

गोंडों के नृत्य गोंडों के नृत्यों में भड़ौनी, कहरवा और सजनी प्रमुख है। भड़ौनी विवाह नृत्य है, जिसमें बरातियों को गीत गा-गाकर गालियाँ दी जाती हैं और गीत-गायन पर स्त्रियाँ नाचती हैं। बराती गालियों का नेग चुकाते हैं। कहरवा गीत और नृत्य दोनो हैं।

विवाह में भाँवरों के बाद बराती पुरुष और स्त्रियाँ कहरवा गीत गाते और नाचते हैं तथा दूल्हे के पिता, काका आदि न्योछावर करते हैं। सजनी नृत्य उस समय का है, जब लड़की की विदा कराने समधी आते हैं। आँगन में अतिथि बैठाये जाते हैं और गायक, वादक के साथ नर्तक नाचते हैं। घर की समधिन अपने समधी के साथ नृत्य करती है। यह नृत्य रातभर चलता रहता है।

सोंर या सहरियों के दो प्रमुख लोकनृत्य हैं लहँगी और दुलदुल घोड़ी। लहँगी वर्षा का लोकनृत्य है, जो अषाढ़ से भादों तक किया जाता है। इस नृत्य के बोलों के रूप में ’चैका और चैपाई‘ गीत गाये जाते हैं और डण्डे के साथ विभिन्न मुद्राओं में लहँगी नृत्य किया जाता है।

नृत्य की गतों और संगीत का तालमेल औचित्यपूर्ण और आकर्षक होता है। दूसरा नृत्य है दुलदुल घोड़ी, जो शिशु-जन्म, विवाह, नौदेवी और मेलों में किया जाता है। इसमें घुड़सवार के रूप में नृत्य करता पुरुष प्रमुख होता है, जो स्त्री वेश धारण करता है। दर्शकों को हँसाने और व्यंग्यों से कौंचने के लिए एक विदूषक होता है। इस नृत्य में भी पद या गीत गाये जाते हैं। इसमें डिग्गा, तमोड़ी, मसक एवं झींका लोकवाद्य संगत करते हैं।

राई लोक नृत्य
Rai lok Nritya
प्रत्येक लोकनृत्य की तरह राई का भी अपना शास्त्र है, जिसके बिना राई राई नहीं कही जा सकती। राई भले ही पहले लोकसुलभ नृत्य रहा हो, लेकिन अब व्यावसायिक लोकनृत्य है, इसलिए उसमें सजधज, श्रृंगार और कौशल की अधिक आवश्यकता है। सबसे पहले बेड़िनी को नृत्य के लिए साई (बयाना) के रूप में खुले पान, सुपाड़ी और कुछ धनराशि दिये जाने का चलन है।

निश्चित तिथि को मंच तैयार किया जाता है। किसी भी लम्बे-चैड़े मैदान के बीच में धूलरहित समतल भूभाग को चारों ओर रस्सी से घेर देते हैं, ताकि दर्शक संयमित रहें। घेरे के एक तरफ गायकों का दल अपने लोकवाद्यों-मृदंग, ढोलक, टिमकी, मंजीरा, नगड़िया, झाँझ, झींका, किंगरी और रमतूला के साथ संगत के लिए तैयार रहता है और उसी के पास मृदंग, ढोलक, नगड़िया सेंकने के लिए आग सुलगती रहती है। शेष तीनों तरफ दर्शकों की भीड़ प्रतीक्षा करती है।

रोशनी के लिए पहले मशालें जलती थीं, फिर पैट्रोमैक्स या विद्युत का प्रकाश और भी रौनक बाँध देता है। शहरों में तो ऊँचे सजेधजे मंचों का प्रचलन है, जहाँ ’राई‘ एक सीमा में बँधकर सिकुड़ जाती है। वस्तुतः राई के मंच की बनावट और सज्जा-संभार के लिए गम्भीरता से सोचने की आवश्यकता है, क्योंकि सीमित मंच में राई की नर्तन और वादन की होड़ मर जाती है, जो नृत्य की आत्मा है।

बेड़िनी सराई (चुस्त चूड़ीदार पैजामा) पर बीस हाथ का सौ चुन्नटोंवाला घाँघरा या लहँगा और अँगिया या चोली पर चुनरिया या साड़ी पहने, आँखों में कानों की ओर बढ़ती काजल-रेखा, भौहों से कनपटी तक रंगीन टिपकियाँ सजाये और अधरों पर पान की लाली रचाये जब उतरती है, तो दर्शकों की निगाहें वहीं ठहरी रहती हैं।

माथे पर बिन्दी या बूँदा, सिर पर बेंदा या बिंदिया, कानों में कनफूल या ऐरन, नाक में सितारे जड़ी फूलदार पुँगरिया, गले में सोने या चाँदी की हँसुली, दोनों हाथों में चूड़ियाँ, चूरा, ककना और गजरा, कटि में चाँदी की करधौनी और पाँवों में बजते घुँघरू बेड़िनी की गाँव की नचनारी बना देते हैं। होती भी है वह गाँव की, इस कारण इस श्रृंगार में उसे रूचि रहती है।

कुशल बेड़िनी का मुख घुँघट से ढँका रहता है, इसलिए कि दर्शक मुख की सुंदरता पर न रीझकर कला की बारीकियों को परखें। इससे दर्शकों के मन में जिज्ञासा का सागर उमड़ता रहता है। नर्तकी के हाथ में फहरता एक रूमाल भले ही मध्यकाल की देन हो, पर नर्तकी की अभिव्यक्ति में सदैव क्रियाशील बना रहता है।

घूँघट और रूमाल, दोनों मुगल काल की सौगात हैं और इस लोकनृत्य के अनिवार्य अंग बन गये थे, पर अब मुख से घूँघट हट गया है और मुख में अंकित भावों की अभिव्यक्ति के लिए रास्ता खुल गया है। भारतीय नृत्यों में मुखाभिव्यक्ति का विशेष महत्व है। मुगल काल में अपहरण के भय से घूँघट अनिवार्य हो गया था। वर्तमान में लोकनृत्यों में निहित कलात्मकता का महत्व बढ़ा और मुख से घूँघट हट गया।

कानड़ा लोक नृत्य
Kanhda Lok Nritya
यह मूलतः जातिगत नृत्य हैं। धोबी समाज के लोग इसे करते है। इसलिए कहीं-कहीं ये नृत्य धुबियाई नृत्य भी कहलाता है। इस समाज में वैवाहिक अवसरों पर कानड़ा किया जाता है बल्कि कुछ समय पूर्व तक तो विवाहों में यह अनिवार्य रूप से किया जाता रहा है। वर्तमान में यह प्रायः लुप्तप्राय नृत्य हैं।

समाज की वैवाहिक रस्मों में जैसे मेहर का पानी भरने अथवा दुल्हे की रछवाई निकलने पर, द्वारचार, टीका, भाँवर पड़ाई, विदाई आदि अवसरों पर, वैवाहिक संस्कारों के अलावा जन्म के समय भी इस नृत्य का आयोजन होता था । कानड़ा पुरुष प्रधान नृत्य है – कानड़ा नाचने वाला प्रधान नर्तक होता है। कानड़ा का विशेष वाना (पोषाक) होता है। नृत्य में रूचि रखने वाले युवक को परम्परानुसार वाना दे दिया जाता हैं।

नृत्य की पोषाक या वाना मध्यकाल की प्रतीत होती है, क्योंकि उस समय राजे- महाराजे इसी तरह के बागे पहनते थे। नर्तक सफेद रंग का कलीदार बागा धारण करता है। वह सिर पर राजसी पगड़ी या साफा पहनता हैं। पगड़ी पर कलगी, कन्धों पर रंगीन कलात्मक कंघिया, गले में ताबीज, कमर में फैंटा, कंधे से कमर तक सेली, कमर में रंग-बिरंगे बटुए लटकते रहते हैं।

दोनों बाजुओं में बाजूबंद, पैरों में बड़े-बड़े घुंघरू, चेहरे पर हल्का मेकप, आँखों में काजल या सुरमा। नर्तक सुसज्जित होकर ऐसा प्रतीत होता है कि उस नर्तक के रूप में कोई राजा- महाराजा हो अथवा मोरपंख लगाकर कृष्ण हो। नर्तक नृत्य के लिए सुसज्जित होता है तो उसे कानड़ा बनना कहा जाता है।

इस नृत्य को घूम-घूमकर नाचा जाता है। घेरे को बुन्देली में कोण भरना कहा जाता है और इस नृत्य को भी घेरे में नाचते हैं। इसलिए इस नृत्य का नाम काड़रा नृत्य पड़ा। काड़रा नृत्य का प्रमुख वाद्य सारंगी या केकड़िया हैं। इस वाद्य को काड़रा नर्तक स्वयं बजाता है। मुख्य गायन भी वही करता हैं। अन्य वाद्यों में खंजड़ी, मृदंग, तारें, झूला तथा लोटा प्रयुक्त होते हैं।

गायक जब कथा गायन करता है तब बीच-बीच में उसे संवाद भी बोलने पड़़ते हैं। दोहा, साखी, विरहा, गारी, भजन, भगत प्रायः सभी तरह के गायन इस नृत्य में किया जाता है। विभिन्न श्रृंगार, हास्य, वीर, शांत,करूण, रसयुक्त लोकगीत, धुनों के आधार पर विरहा, रामपुरिया, बधाई, आदि नामों से इस नृत्य को जाना जाता है।

ढ़िमरयाई लोक नृत्य
Dhimaryai Lok Nritya
यह जातिगत नृत्य है. ढ़ीमर जाती के लोग इसे करते हैं इसलिए इसका नाम ढ़िमरयाई नामकरण हुआ । बुंदेलखंड में निवासरत ढीमर जाती का काम पानी से सम्बंधित रहा है, जैसे घरों में पानी भरना या जलाशय से मछली पकड़ना। इसलिए व्यवसाय का आधार जल ही है, चाहे वह पीने के लिए हो अथवा जल-मछली के पकड़ने को । ढ़िमरयाई नृत्य में जो गीत प्रयुक्त होते है उनमें जल और मछली का चित्रण जरुर होता है-
“ ढ़ीमर कीने मेंक दवो जार, बीद गई जल मछरी “

ढ़ीमर जब शाम को थके हारे लौटते थे, तब अपनी थकान दूर करने के लिए गुनगुनाते थे, नाचते थे। ढ़िमरयाई नृत्य में गीत, कथा, संगीत, पदचालन, मुद्राएँ, वेशभूषा, अनुष्ठान आदि जुड़ते चले गए और ढ़िमरयाई एक सम्पूर्ण लोकनृत्य की संज्ञा पा गया।

इस नृत्य में सारंगी या रैकड़ी वादक की प्रमुख भूमिका होती है या उसकी भागीदारी को देखकर यह कहा जा सकता है कि यह नृत्य व्यक्तिगत नृत्य है, क्योंकि एक व्यक्ति जो कि सारंगी का वादन करता है, नर्तन भी वही करता है तथा प्रमुख गायक भी वही होता है। इसलिए इस नृत्य को व्यक्तिगत कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी। नृत्य में प्रमुख नर्तन एक व्यक्ति ही होता है, अन्य तो उसके सहायक होते है।

ऐसा व्यक्ति जो बहुमुखी प्रतिभाओं का धनी हो वही इस नृत्य को कर सकता है।  इसके अलावा खंजड़ी वादक, लोटा वादक, तारे या झीका, मृदंग तथा सहगायक नृत्य में होते है। वादक जो कि प्रमुख नर्तक होता है वह धोती, कुरता, जैकेट, साफा पहने होता है, पैरों में घुंघरू बंधे रहते हैं। ढ़िमरयाई नृत्य चक्करदार नृत्य है, इसके अलावा भी कई तरह की नृत्य मुद्राएँ होती हैं। बुंदेलखंड की परंपरा के अनुरूप ढिमरयाई नृत्य में गीतों की श्रृंखला ईश्वरीय पदों से होता है जिसको सुमरनी कहा जाता है।

सदा भुवानी दायनी।
सन्मुख रहत गणेश ।।
पांच देव रक्षा करे।
सो वरमा विष्णु महेश।।


बुंदेली ढ़िमरयाई गीत

नौरता लोक नृत्य
naurata Lok Nritya ( Naurata Folk Dance)
नौरता अर्थात नवरात्री। नवरात्री के नई दिनों में बुंदेलखंड अंचल में कुँवारी कन्याओं द्वारा किया जाने वाला देवी जी का अनुष्ठान है। नौरता का आयोजन क्वार की नवरात्री में किया जाता है। नौरता कुँवारी लड़कियों का एक विशेष खेल है, जो क्वार मास में नवरात्री के समय मनाया जाता है।

प्राचीन समय में सुआटा नामक दैत्य कन्याओं का अपहरण किया करता था। उससे रक्षा हेतु कन्याओं ने दुर्गा की आराधना की। दुर्गा ने प्रसन्न होकर उस दैत्य का वध किया और तभी से बालिकाओं का यह आराधना खेल के रूप में प्रथा बन कर चली आ रही है। क्वार की नवदुर्गा आरंभ होने के प्रथम दिन से अन्तिम नव दिन तक यह खेल खेला जाता है। आश्विन नवरात्र प्रारंभ होने से कई दिन पहले लड़कियां नौरता की तैयारी प्रारंभ कर देती हैं। किसी एक घर अथवा बड़ी दालान में नौरता बनाया जाता है।

मिटटी का चबूतरा बनाया जाता हैं जिसमे नीचे हाथ-पाँव जोड़कर दैत्य का रूप दिया जाता है। फिर दीवाल के सहारे चबूतरे के पीछे पत्थर मिटटी से पर्वत का आकर बनती हैं उसके दोनों ओर सूर्य चंद्र बनाये जाते हैं। पर्वत के नीचे दो पकी पूरियां गाड़कर दुग्ध कुण्ड बनाये जाते है। पर्वत शिखर को रंग-बिरंगे कंकड़ पत्थरों तथा कई रंग की मिटटी से सुसज्जित करती हैं।

कुम्हड़ा तुरैया के फूल उस पर चढ़ा देती हैं। नदी की रेत में मिलने बाली सफेद सीप तथा शंखिया बीन कर उन्हें महीन पीसकर कटोरी में रख लेती है जिससे चमकदार चूर्ण तैयार हो जाता है। इंट तथा लाल खपरा पीस कर लाल रंग का चूर्ण तैयार कर लिया जाता है। इन दोनों चूर्णों से नित्य नौरता के आसपास तथा उसके सामने वाली गली में बड़ी चतुराई और सुंदरता के साथ चैक पूरे जाते हैं।

सुबह सुबह ही कन्याएँ पुष्प तोड़कर छिटन्ना में सजाना आरम्भ कर देती हैं जो बांस की बनी एक गोलाकार थाली नुमा होती है । नवरात्र की प्रतिपदा को लड़कियां जलाशय में स्नान करने जाती हैं। जाते समय नौरता विषयक गीत गाती रहती हैं। स्नान के पश्चात् लौटते समय गोरा महादेव की मूर्ति लाई जाती है जिसे पहाड़ पर स्थापित करती हैं। पूजन के समय दुग्ध कुण्ड से दूध दूब से छिड़का जाता हैं फिर काय डाली जाती है । इस समय से नौरता के गीतों का क्रम शुरू हो जाता है।

हिमांचल जू की कुवरि लडायति ,नारे सुहटा ।
सो गौरा बाई नेरा नैयो बेटी नो दिना, नारे सुहाट।
खेल लो बेटी खेल लो माई बाबुल के राज
जब ढुरि जेहो बेटी सासरे ,सास न खेलन दे।
रात में पिसाबे पीसनो, दिन ले गुबर की हेल।
सूरज की मैया जो कहै ,नारे सुहटा, मोरे सूरज कहाँ खो जाये।

सांस्कृतिक सहयोग के लिए For Cultural Cooperation

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

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