Isuri Ki Sahityik Pratibha ईसुरी की साहित्यिक प्रतिभा

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Bundelkhand के महाकवि ईसुरी की पहचान एक प्रसिद्ध फगुआरे के रूप में है, किन्तु उन्होंने केवल फागें ही नहीं, अपितु दोहा, कुण्डलियाँ, छन्द आदि में भी रचनाएँ की हैं। Isuri Ki Sahityik Pratibha का कोई ओर-छोर नही।   अंतिम समय मे वे कविताएँ रचने लगे थे और अन्तिम सांस भी उनकी कविता के रूप में ही निकली।

कविता उनकी सहज वाणी थी। Isuri Ki Sahityik Pratibha वे जो भी बोलते थे, वह कविता होती थी, चाहे वे सामान्य वार्तालाप कर रहे हों, पत्र व्यवहार या अन्य कोई और कार्य सभी में कविता का माध्यम रहा। उन्होने केवल फागें ही नही अपितु अन्य सभी प्रचलित छंदों मे भी रचनाये की हैं।

बुन्देलखंड के महाकवि ईसुरी की सामाजिक चेतना

कुण्डलियाँ
स्वामी से सेवक सकुच, विनय करत करजोर।
मरजी माफक फर्द की, लगै सौ अरजी मोर।
लगै सौ अरजी मोर, सुतर आगे को धावें।
नाय माय की खबर, खुशी खातिर की ल्यावें।
लगी फिरै दिखनौस, एक कौतल का जोड़ा।
अच्छे से असवार, उडे़ हाथी संग घोड़ा।

छड़ी चैर पंखा हरकारा, दो सोटा वरदार।
वान लपेटी झंडिया, बल्लम बारे चार।।
बल्लम बारे चार, ऊंट पै नौबद बाजै।
सुख को शुभ दिन होंय, सजन जब द्वारें साजे।
डंका संग निसान, जरी-पटका के लाले।
ढोलक टामक बजे, हलें राजक के भाले।

दोहा –

ढपला रमतूला तुरइ, अलगोजा की टेक।
मिलके बजै कसावरी, सब बाजन में एक।।

सब बाजन में एक पालकी पीनस आवै ।

गांव के नायकन कीनों सुख सम्बन्द ।।
थोरौ थोरौ सबइ बहत को रूप दिखावै ।
सानैयां संग ढोल झाँझ सगै हो ठोकी ।
बजे सुबा औ सांज सूहावन रोसनचौकी।
जितने हैं सामान सूनत साजन में साजे ।
चलन चाल चल गई चहत अंग्रेजी बाजे ।
गांव में परवीन एज रंडी को डेरा।
रथ के सगे बहल चाहिये मिल कर बेरा ।
गाड़ी पन्द्रा-बीस भार बरदारी एती।
मिहरबानगी होय सदा मोऊ पै जेती ।
एक थार में खांय एकसैएक बिरादर।
ऐसौ आवौ चहत होय मंडप में आदर ।
इससे जुदे नतैत होंय हेती बेबारी।
ईसे बाहर होंय लोग सब खिजमतगारी ।
फूखन की फुल वाद अजूबा आतिसबाजी।
तेज मसालौ घलत लगै सबऊ खां साजी ।
जगर मगर हो रहे जरब जेबर की जोतें।
रवि से मारें होड़ होत भोरइ के होते।

दोहा-
हौ भण्डार के मिसर जू पूरन दुज कुलचन्द
लौर कीनों सुख मम्बन्द समझ के करी सगाई।
विश्वनाथ जहं भूप बाई भूधर की ब्याही।
दीनों कन्यादान कहत कवि कीरत ताकी।
काहों दैवे लाक कहा दैवे में बाकी।
चरनोदक लै ईसुरी धर चरनन पै सीस ।
होय बरदान बरात को नर छैसो छत्तीस ।
है भड़ार के मिसर जू, पूरन दुज कुलचन्द्र ।
लौट गांव के नायकन, कीनो सुख सम्बन्ध।।
महाकवि ईसुरी   की एक रचना ऐसी भी प्राप्त हुई है जो घनाक्षरी जैसी है…।

बातन से राजा इतराज करैं बसुधा पै।
बातन से करतब नाटक लगायबौ।
बातन से जाय परै नरक के कचरा में।
बातन से होत बैकुण्ठ लोक पायबो।
बातन से ईसुर जौ बनौ ठनो बिकरजात।
बातन में बिगरे कौ बनता बनायबौ।
राखियो जा बात ख़्याल खूब खबरदारी में।
राख लेत बात जात बातन बतायबौ।

महाकवि ईसुरी  की लिखी दो प्रभातियाँ भी मिली हैं जिन्हें वे नित्य प्रातः गाया करते थे…।
जीवन श्री जगन्नाथ जाल सों निनोरो।
थाके न हाथ-पांव कोऊ ना धरै नाव।
चलत फिरत चलो जांव घोरुआ ना घोरो।
जीवन की जगन्नाथ जाल सौ निनोरो।
बनी रहे बान बात इज्जत के संग सात।
दीन बन्धु दीनानाथ रै गओ दिन थोरो।
जीवन की जगन्नाथ जाल सौ निनोरो।
हाथ जोर चरन परत चरनामृत धोय पियत
जियत राम देखो ना दूसरों को दोरो।
जीवन की जगन्नाथ जाल सौ निनोरो।
ईसुरी परभाती पढ़त आबरदा सोऊ बढ़त।
कीचड़ से सनो भओ नीर ना बिलोरो।
जीवन की जगन्नाथ जाल सौ निनोरो।

भूलौ ना भली होत, भजन सी दबाई।
नाच संग धावत में नाम गान गावत में।

परबतै पढ़ावत में गनका ने खाई।
भूलौ ना भली होत भजन सी दबाई।
ऐसें विद गओ अंग, लागो है भजन चंग।
नाम देव सज संग सीतन में पाई।
भूलौ ना भली होत भजन सी दबाई।
सुफल भओ नरतन सौ सफा देह धरतन।
निज चाम काम करतन रैदास ने लगाई।
भूलौ ना भली होत भजन सी दबाई।
सूत बिनन चीर की तारन तगदीर की।
मरजी रघुवीर की कबीर ने मंगाई।
भूलौ ना भली होत भजन सी दबाई।
ई को इतवार करै रुज कौ ना दोष धरै।
गिरधर के हात धरै मीरा ने चाई।
भूलौ ना भली होत भजन सी दबाई।
हूं खां जा आगूं लऔ मान राख मोंरा दओ।
सोनी स्वर्ग सूदो गओ सदन सौ कसाई।
भूलौ ना भली होत भजन सी दबाई।
जीवन जौन इयै खात हर हमेश खुशी रात।
पीपा के साथ अजामील ने चटाई।
भूलौ ना भली होत भजन सी दबाई।
धन जाट कण्ठ धरत सोरी संग साक भरत।
औखद की मील करै बैजुआ बढ़ाई।
भूलौ ना भली होत भजन सी दबाई।
सबने कही साजी पै बिदुर बनक भाजी पै।
भओ राम राजी पै इतनी रुचि आई।
भूलौ ना भली होत भजन सी दबाई।
धरै गए वामा के मित्र आए रामा के।
तन्दुल सुदामा के खात न अघाई।
भूलौ ना भली होत भजन सी दबाई।
बिना नाम सेवा सुख पावै न देवा।
दुर्योधन की मेवा की खाई ना मिठाई।
भूलौ ना भली होत भजन सी दबाई।
तुलसी ने सत्य कही मलुक टूक टोर दई।
खीचरी बनाय गई करमा करबाई।
भूलौ ना भली होत भजन सी दबाई।
बोलन ना हते मौन जौन काम करौ तौन।
पंछी जौन जतन जान गऔ है जटाई।
भूलौ ना भली होत भजन सी दबाई।
कातन ना बने राम दीनों है आप धाम।
उलट-पलट नाम बाल्मीक की पढ़ाई।
भूलौ ना भली होत भजन सी दबाई।
हरि को भज हरि की कात पूछो ना जात पात।
एक बहन एक गात राखे रघुराई।
भूलौ ना भली होत भजन सी दबाई।
एक जैसे आठ दस कर गए बैकुण्ठ वास।
हिरदै की खुलो खास सुर ने सराई।
भूलो ना भली होत भजन सी दबाई।
जीव जबै बोलै तब हृदै नैन खोलैं।
लै ईसुर परभाती जा भौर समैं गाई।
भूलो ना भली होत भजन सी दबाई।


महाकवि ईसुरी का स्वाभिमान

महाकवि ईसुरी   जितने विद्वान कवि थे, उतने ही स्वाभिमानी भी। एक बार छतरपुर महाराज विश्वनाथ सिंह जू की इच्छा हुई कि महाकवि ईसुरी उनके राजकवि की पदवी स्वीकार कर लें। उन्होंने अपने मंत्री को ईसुरी को पालकी पर बैठा कर सम्मान सहित ले आने को भेजा। ईसुरी उस समय भजन गा रहे थे, जब मंत्री उनकी कुटिया पर पहुँचे। बहुत देर तक मंत्री और उनका लाव लश्कर ऐसे ही खड़ा रहा।

जब ईसुरी भजन-पूजन से निवृत्त हुए तो लोगों ने मंत्री के आने की सूचना दी। ईसुरी ने मंत्री को आने की अनुमति दे दी। मंत्री जी ईसुरी से मिले और महाराज का बुलौआ कह सुनाया। परन्तु ईसुरी ने राजाश्रित कवि बनकर रहना नहीं स्वीकारा। उन्होने असहमति व्यक्त कर दी, किन्तु आशीर्वाद के रूप में एक फाग जरूर मंत्री के हाथों महाराज के लिए भेज दी।

मिथ्या नहीं कविन की बानी, जीभ पै रात भुमानी।
छत पै छाई छतरपुर मैया, धरम बेल हरयानी।
दौरे आय दच्छिना पावत, विमुख जात न प्रानी।
ईसुर हुए काम करबे खां, ई गादी की रानी।

उन्होंने मौखिक संदेश भेजकर महाराज से कहा- मैं आपके सम्मान का आभारी हूँ, किन्तु मुझे आज़ाद ही रहने दिया जाय। मैं आपके यहाँ आता-जाता रहूँगा। भगवान राधावर आप, आपके परिवार तथा राज्य की जनता को सुखी रखे। ऐसा कहा जाता है कि महाराज विश्वनाथ सिंह के उन दिनों औलाद नहीं थी। वे दुःखी रहते थे, उन्होंने रानी सहित ईसुरी की चरण-पूजा की और अपनी चिन्ता कह सुनाई। महाकवि ईसुरी  ने उन्हें आशीर्वाद दिया जो फलीभूत हुआ और पुत्र भवानी सिंह जू देव उनके आशीर्वाद से पैदा हुए ।

इसे भी देखिए:   Mahakavi Isuri महाकवि ईसुरी

महाकवि ईसुरी की देहान्त
इस प्रकार साहित्यिक समृद्धि से परिपूर्ण ईसुरी का सारा जीवन साहित्यिक उधेड़ बुन में लगा रहा। वे सच्चाई पर चलने वाले, ईमान का पालन करने वाले निश्छल, निष्कपट, खुले मन विचारों वाले कवि थे। बुन्देली लोकभाषा को उन्होंने समृद्धि प्रदान की और अपनी भूल-चूक लेनी-देनी कहकर अन्तिम विदा ली। महाकवि ईसुरी  ने अपनी अन्तिम इच्छा के रूप में लिखा है……।

यारो इतनो जस कर लीजौ, चिता अन्त न कीजौ।
चल तन श्रम से बहे पसीना, भसम पै अन्तस भीजौ।
निगतन खुर्द चेटका लातन, उन लातन मन रीझौ।
वे सुस्ती ना होय रात-दिन, जिनके ऊपर सीजौ।
गंगा जू लौ मरें ईसुरी, दाग बगौरे दीजौ।

एक अन्य फाग में भी उनकी अन्तिम इच्छा उल्लेखित है….।
दोई कर परमेसुर से जौरैं, करौ कृपा की कौरें।
हम ना हुए दिखैया देखें, हितन-हितन की डौरें।
उदना जान परै अन्तस की, जब वे अंसुआ ढौरें।
बंदा की ठठरी करे रवानी, रजउ कोद की खौरें।
बना चैतरा देंय चतुर्भुज, इतनी खातिर मोरें।
होवै कउं पै मरे ईसुरी, किलेदार के दौरें।

महाकवि ईसुरी  की ये दोनों कामनाएँ पूर्ण नहीं हो सकीं। ईसुरी को मृत्यु के कुछ महीना पूर्व पेट की बीमारी हो गई थी। वे बगौरा में अकेले ही रह गए थे। उनका कोई परिजन वहाँ नहीं था और न ही उनकी फाग मण्डली का कोई साथी। ठाकुर भवानी सिंह उनकी सेवा में लगे रहते थे। ईसुरी चलने-फिरने यहाँ तक की दैनिक क्रियाओं के लिए भी उठ बैठने में मजबूर हो गए थे।

जब यह समाचार उनकी पुत्री गुरन को मिला तो वे उन्हें बैलगाड़ी से धबार ले गईं। लोक मान्यता के अनुसार ईसुरी पुत्री के घर का भोजन-पानी नहीं ले सकते थे। अतः उनकी इच्छानुसार उनके निवास और भोजन आदि की पृथक व्यवस्था की गई थी। ईसुरी अन्तिम समय तक अपने रचना कर्म में लगे रहे।

लैलो सीताराम हमारी, चलती बेरा प्यारीं।
ऐसी निगा राखियो हम पै, नजर न होय दुआरी।
मिलकें कोऊ बिछुरत नैयां, जितने हैं जिउधारी।
ईसुर हंस उड़त की बेरां, झुकआई अंधियारी।

मोरी राम राम सब खैंया, चाना करी गुसैयां।
दै दो दान बुलाकें बामन, करौ संकलप गैयां ।
हाथ दोक जागा लिपवा दो, गौ के गोबर मैयां।
हारै खेत जाव ना ईसुर, अब हम ठैरत नैयां।

महाकवि ईसुरी  अपने फगवारे मित्र धीरे पण्डा की याद करते हुए कहते हैं…।
पण्डा धीरे इतै लौ आहें, हमें मरो सुन पाहैं।
समझा दैयो सोच करैं ना, हो तब पै बस काहैं।
जितने मिलें चिनारी मोरे, राम-राम सब खांहैं ।
सबर करैं उदना जे ईसुर, जिदना फागें गाहैं।

और कदाचित यह उनकी अन्तिम रचना है, जिसके अन्तिम शब्दों के साथ उनके बोल थक गए थे।
मोरी सब खां राधावर, की भई तैयारी घर की।
रातै आज भीड़ भई भारी, घर के नारी नर की।
बिछरत संग लगत है ऐसा छूटत नारी कर की।
मिहरबांनगी मोरे ऊपर, सूधी रहै नजर की।
बंदी भेंट फिर हूहैं ईसुर, आगे इच्छा हर की।

हमारी पावन धरा वीरभूमि बुन्देलखण्ड की लोकभाषा बुन्देली के महाकवि ईसुरी मार्ग शीर्ष कृष्ण सप्तमी शनिवार वि. 1966 को हम सबसे विदा ले गये।

सांस्कृतिक सहयोग के लिए For Cultural Cooperation

संदर्भ-
ईसुरी की फागें- घनश्याम कश्यप
बुंदेली के महाकवि- डॉ मोहन आनंद
ईसुरी का फाग साहित्य – डॉक्टर लोकेंद्र नगर
ईसुरी की फागें- कृष्णा नन्द गुप्त
मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’

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