Maharaj Madhukarshah महाराज मधुकरशाह

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प्राचीन बुंदेलखंड की राजधानी ओरछा और ओरछा के नरेश महाराज मधुकरशाह एक कर्मनिष्ठ और धर्मनिष्ठ थे। वे जीवन-पर्यन्त बुन्देलखण्ड की  आन-बान की रक्षा करते रहे। मुगल शाशको ने कई बार उन्हे नीचा दिखाने की कोशिश की पर वे कभी सफल नही हो पाये। अकबर भी Maharaj Madhukarshah के आत्मबल की प्रशंसा करते थे।

बन्देलखंड गौरव ओरछा नरेश महाराज मधुकरशाह

भारत का हृदय स्थल बुंदेलखंड और प्राचीन बुंदेलखंड की राजधानी ओरछा के नरेश श्री रुद्रप्रताप ने बैसाख शुक्ल 13 (रोहिणी नक्षत्र) सम्वत् 1588 में ओरछा को अपनी राजधानी बनाया था। महाराजा रुद्र प्रताप के दो पुत्र थे, भारतीचन्द और मधुकरशाह। भारती चन्द वीरता में श्रेष्ठ थे तो मधुकर कर्मनिष्ठ और धर्मनिष्ठ थे।

एक बार ओरछा पर शेरशाह ने चढ़ाई की तब भारतीचन्द ने अपने रण-कौशल द्वारा उसको पराजित किया। वे जीवन-पर्यन्त बुन्देलखण्ड की आन-बान की रक्षा करते रहे। भारतीचन्द के उपरान्त Maharaj

Madhukarshah ओरछा की गद्दी पर बैठे। इन्होंने भी मुरादशाह को पराजित कर कई दुर्ग अपने आधीन किये और बुन्देलखण्ड का अधिक विस्तार किया। लेकिन यह बात सम्राट अकबर के सम्मान के विरुद्ध थी, क्योंकि यह वह काल था जबकि भारत के सभी राजा अकबर के आधीन थे।

इसके अतिरिक्त पं० गौरीशंकर द्विवेदी ने अपने ‘बुन्देल वैभव’ में खेमराज की कविता द्वारा सिद्ध किया है कि महाराणा रुद्रप्रताप के नौ पुत्र थे। खेमराज महाराजा रुद्रप्रताप के दरबारी कवि थे। इन्होंने ‘प्रताप हजारा’ नामक ग्रन्थ में, जिसका रचनाकाल वि० सम्वत् 1560 माना जाता है, नौ पुत्रों का वर्णन इस प्रकार किया है।

प्रथम भारतीचन्द, दुतिय मधुकर सा जानों,
कीरत उदया जीत सिंह, आमन पहिचानों।
भूपत भूपतशाह, चान चाह न तिहीन का,
प्रागदास, दुरगेस, स्याम, सुन्दराहि हीन का।
कह ‘खेमराज’ गढ़ ओरछे गढ़ कुढ़ार पति मानिये,
नव पुत्र रुद्रपरताप के सो नौऊँ खण्ड बखानिये।

राजा रुद्रप्रताप ने खंगार राजा को पराजित करके पहले कुढ़ार गढ को अपने आधीन किया, उसके बाद ओरछा नगर बसाकर अपनी राजधानी बनाई और फिर अपने नौ पुत्रों को जागीरें बाँटीं। इसका वर्णन इस प्रकार है….।

1 – भारतीचन्द और
2 – मधुकरशाह क्रमशः ओरछा की गद्दी पर बैठे।
3 – उदयजीत सिंह, इन्हें मऊ, और महेवा की जागीरें दी गईं, इनके ही वंशज महाराजा छत्रसाल हुए । इन्होंने पन्ना राज्य की नींव डाली।
4 – अमानदास, इन्हें पंडारा की जागीर मिली थी।
5 – भूपतिशाह, इन्हें कुण्डरा मिला, और इनकी ही मिरच बाली, बिराव वाली, गढ़ कोटा और चरखारी की शाखायें चलीं।
6 – चन्दनदास को कटेरा मिला, इनकी विजरावन, नराटा, डोंगरा आदि की शाखायें चलीं।
7 – प्रागदास को हरसपुर (ललितपुर) की जागीर मिली।
8 – दुर्गादास को दुर्गापुर जो कि दतिया राज्य में है वहां की जागीर; फिर कटेरा वाली, लारौन वाली, और सिजौरा वाली, शाखायें आपके ही प्रयास से बनीं।
9 – घनश्याम दास को मँगवा की जागीर मिली।
(बुदेल वैभव, पृ० २७२)

कुशल राजनीतिज्ञ और साहसी नरेश
Skilled politician and courageous king Madhukar Shah
ओरछा नरेश मधुकर शाह कुशल राजनीतिज्ञ थे। इस कारण अकबर उनके विरुद्ध कोई चाल नहीं चल पाता था, किन्तु ओरछा राज्य उसके हृदय में खटकता अवश्य था। आगरा में प्रत्येक वर्ष अकबर का बसंत दरबार लगता था। इस दरबार में भारतीय नरेश घोषणा होने पर जुहार करने आते थे।

इस बार अकबर ने मधुकरशाह से ईर्ष्या होने के कारण यह आज्ञा निकाली कि बसंत दरबार में कोई भी भारतीय नरेश तिलक-माला धारण करके प्रवेश नहीं करेगा। जो राजा आज्ञा का उल्लंघन करेगा, उसका भाल लाल गर्म लोहे से दाग दिया जायेगा।

यह शाही फरमान सुनकर जो भारतीय नरेश उस समय उपस्थित थे, सबसे आश्चर्य में पड़ गये, और अकबर की निंदा करते हए अपने-अपने स्थानों को लौट गये। स्व० श्री मुंशी अजमेरी जी ने अपनी पुस्तक ‘मधुकर शाह’ में इस घटना का उल्लेख इन शब्दों में किया है।

एक दिन आके बादशाह की बहार में
बोले बादशाह उसी खास दरबार में।
राजा महाराजा यह हुक्म सुनें मेरा सब,
तिलक लगा के आना ठीक नहीं होगा अब ।
देखिये किसी का नहीं यह घर-बार है,
जानें आप लोग यह मेरा दरबार है।
तिलक लगाना मुझे सख्त नागवार है,
आप से इसी से यह मेरा इसरार है।
तिलक लगा के यहाँ कोई अब आवेगा,
दाग गर्म लोहे से लिलार दिया जावेगा।
कह गये बादशाह बातें ये गम्भीर हो,
रह गये राजा सब शिथिल शरीर हो।
लौट दरबार से विचार किया सब ने,
दोष बादशाह को यथेष्ट दिया सब ने।

महाराज मधुकर शाह रात्रि में बादशाही हुक्म पर विचार करते हुए अपनी बुन्देली संस्कृति और आन-बान पर विचार करने लगे। उन्होंने यह दृढ़ निश्चय किया कि मैं स्वधर्म से मुख नहीं मोडूंगा और कल दरबार में तिलक-माला धारण करके अवश्य जाऊँगा भले ही चाहे प्राणों का बलिदान करना पड़े। यह विचार करते-करते सुबह हो गयी।  प्रातःकाल अपने नित्य-कर्म से निवृत्त होकर वे पूजन गृह में गये। उपासना के आधारभूत उन्होंने नित्य प्रति की अपेक्षा अधिक उभरा और स्पष्ट तिलक धारण किया।

ओरछेश प्रातःकाल नित्य कृत्त करके,
पूजा में प्रवृत्त हुए पूर्ण ध्यान धरके।
तिलक लगाते नित्य माथे पर छोटा सा,
उस दिन नाक से लगाया बड़ा मोटा सा ।
महाराज मधुकर शाह जब अकबर के दरबार में तिलक लगाकर उपस्थित हुए, उस समय का वर्णन कवीन्द्र केशवदास ने इस प्रकार किया है…।


राजाधिराज मधुशाह नप यह विचार उहित भयब।
हिन्दवान धर्म रक्षक समुह पास अकबर के गयब।
दिल्ली पति बरबार जाय मधुशाह सुहायब।
जिमि तारन के माहि इन्दु शोभित छवि छायब।
देखि अकबर साह उच्च आभा तिन केरी।
बोले बचन विचारि कहो कारन यहि केरी।
तब कहत भयब बुंदेल मणि, मम सुदेश कंटक अवनि।


कवीन्द्र केशवदास की रचना से महाराज मधुकर शाह के दरबार में प्रवेश और अकबर के कारण अपनी भूमि को ‘कंटक अवनि’ कहने से उनका स्वाभिमान झलकता है। स्व० मुंशी अजमेरी जी ने अपनी लेखनी द्वारा इस का स्पष्टीकरण करते हुए लिखा है……।
आम दरबार वह भली भांति था भरा,
फूला हुआ खेत जैसे पोसते का हो हरा।
राजा-महाराजा पांच-सात-नौ हजारी थे,
थे वजीर, उमरा-अमीर-दरबारी थे ।
बांधे थे पगड़ियां सफेद-लाल पीली वे,
कांकरेजी, कासनी, कपूरी और नीली वे।
अकबर शाह आके तरूत पे बिराजे थे,
महिमा महान् वे महान् छवि-छाजे थे।
तिलक विचित्र ओरछे के नरनाह का,
देख, चकराया चित्त अकबर शाह का।
सोचा भूपवृन्द ने, बुंदेला मिट जायगा,
उद्धत अवज्ञा का अवश्य फल पायगा।
बोले बादशाह तब भूप ओर देख के,
तिलक लगाने की अवज्ञा निज लेख के।
मधुकर शाह आप मुझे जानते हैं क्या,
और कहें, अपने को आप मानते हैं क्या।
ओरछा-अधीश लगे कहने-जहांपनाह,
जानता हूं आपको मैं भारत का बादशाह।
और, अपने को मानता हूं आपके अधीन।
छोटा सा नेपाल एक क्षात्र, धर्म-कर्म-लीन ।
शाह फिर बोले, कल मैंने हुक्म था दिया,
तिलक लगाने को सभी को मना था किया।
कल दरबार में क्या आप नहीं आये थे।
या वह हुक्म सुन आप नहीं पाये थे।
महाराज बोले, मैं अवश्य कल आया था।
और सुना हुक्म भी था जो कि फरमाया था।

महाराज मधुकर शाह ने अपनी कर्मनिष्ठा पूर्ण निर्भय वाणी से ओज भरे शब्दों में कहा कि मैं कल दरबार में भी आया था और शाही हक्म भी सुना था। यह सुनकर अकबर क्रोधित हो गर्जने लगा।

गंजी गिरा, अच्छा तब्द तिलक न छोड़ कर।
आपने दिखाया मुझे मेरा हुक्म तोड़ कर।
मधुकर शाह परवाह हुक्म शाही की।
आपको नहीं है तभी तो यों चित्त चाही की।
देखें आप जितने नरेश यहां आये हैं।
कोई उनमें से कहीं तिलक लगाये हैं।
सिर्फ आपने ही शाही हुक्म को न मान कर।
तिलक लगाया है अनोखा एक तान कर ।
तो हैं आप बागी यह पूछा बादशाह ने।
उत्तर दिया यों ओरछे के नर नाह ने ।
बागी अनुरागी जो हूँ सामने हूँ चाह से।
चाहता नहीं हूँ मैं बिगाड़ बादशाह से।
चाहें शाह शीश अभी देने को तयार हूँ।
परवा नहीं है मुझे प्राण की जुझार हूँ।
बिना दगा भाल हाल नजर करूंगा मैं।
धर्म अपने की आन-बान पै मरूंगा मैं।
धर्म मुझे प्राणों से पचासों गुना प्यारा है।
धर्म ही तो लोक परलोक का सहारा है।

इसके उपरान्त मधुकर शाह ने साहसपूर्ण शब्दों में अकबर से पुनः कहा….।
धर्म दिव्य दीपक है मोक्ष की भी राह का,
धर्म से नहीं है बड़ा हुक्म बादशाह का।
जीते जी कदापि धर्म से नहीं मुंह मोडूंगा,
डर से किसी के कर्म धर्म को न छोडूंगा।
तिलक लगाना धर्म मेरा है सदा ही से,
धर्म छोड़ सकता नहीं मैं हुक्म शाही से।

मधुकर शाह के यह धर्म और कर्मनिष्ठा पूर्ण निर्भीक वचन सुनकर राजा महाराजा तथा अकबर शाह सब प्रभावित होकर वाह वाह करने लगे।
ओरछेश की इस अशंक बात चीत से,
राजा महाराजा हुए चकित-सभीत-से।
मौन बादशाह, दंग सब दरबारी थे,
विस्मित वजीर आदि उच्च अधिकारी थे।
देखा सबने कि उग्र ओरछाधिराज हैं,
कुछ कर डालने को उद्यत से आज हैं।
सन्नाटा सभा का तोड़ गूंजा शब्द वाह वाह,
बोले बादशाह वाह मधुकर शाह वाह।
आपने ही निज-नेम अपना निभाया है,
जान पर खेल कर तिलक लगाया है।
तिलक बिना है राजों-महाराजों का समाज,
निकले टिकेंत सच्चे सिर्फ एक आप आज ।

अकबर मधुकर शाह को आफर्रा देते हुए बोले, केवल आप ही एक सड़ टिकेत अर्थात् टीका लगाने वाले राजा हो जो कि अपने धर्म की आन-बान पर मर मिटने के लिये तैयार हो, और फिर शाह प्रसन्न मुद्रा में कहने लगे, कि आज से यह टीका आप के नाम से ही विख्यात होगा।
आप के ही नाम से लगाया अब जायगा,
मधुकर शाही यह टीका कहलायगा ।

अकबर की इस घोषणा से दरबार के सभी राजा-महाराजा मधुकर शाह की प्रशंसा करने लगे। उसी समय एक कवि ने उनकी प्रशंसा में यह कवित्त पढ़ा।
हुक्म दिया है बादशाह ने महीपन कों,
राजा राव राना सो प्रमान लेखियतू है।
चंदन चढ़ायो कहूं देव-पद बंदन कों,
देहों सिर दाग जहां रेखा रेखियतु है।
सूनों कर गये भाल छोड़-छोड़ कंठ-माल,
दूसरो दिनेश और कौन देखियतु है।
सोहत टिकेत मधुशाह अनियारी इमि,
नागन के बीच मनियारो पेखियतु है।
(मधुकर, पृष्ठ १७, वर्ष १)

बुन्देली झलक ( बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य )

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

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