Karas Dev कारस देव-बुन्देलखण्ड के लोक देवता

 Karas Dev कारस देव

बुन्देलखंड मे कारस देव को लोक देवता के रूप मे माना जाता है। बुन्देलखंड अंचल में Karas Dev को पशुओं के डॉक्टर रूप मे माना जाता है। जो दुधारू पशु गर्भधारण नहीं करते या किसी बीमारी से ग्रसित होते हैं, ऐसे पशुओं का इलाज कारस देव करते हैं। ऐसी स्थिति मे ग्रामीण कारस देव मंदिर आकर मनौती मांगते हैं।

ठीक होने पर उसके दूध से बने प्रसाद को कारस देव के चबूतरे (मंदिर)  पर चढ़ाया जाता है। अनेक जगहों से पशु पालक कारस देव के मंदिर पर गाय-भैंस का इलाज कराने आते हैं। कारस

देव ग्रामीण जनमानस की आस्था का केंद्र है।

चारागाही संस्कृति पर आधारित लोकगाथा 

कारस देव की गाथा
Karas Dev की गाथा का प्रचलन अधिकतर मुरैना, भिंड, ग्वालियर, दतिया, झाँसी, ललितपुर, जालौन, हमीरपुर, महोबा, बाँदा जिलों में रहा है, क्योंकि पशुपालक गूजर बुन्देलखंड जनपद के इस क्षेत्रों में निवास करते थे। इस क्षेत्रों में कारसदेव के चबूतरे भी अधिक संख्या में हैं। पश्चिम की ओर इनकी संख्या कम होती गई है।

छतरपुर जिले के दक्षिण में बसे गाँवों में उनकी पूजा होती है, लेकिन उत्तर की ओर कम होती गई है। उत्तर प्रदेश प्रान्त की सीमा से लगे मध्यप्रदेश के सीमावर्ती जिलों जैसे पन्ना, छतरपुर, टीकमगढ़, शिवपुरी में भी सीमा-पट्टी पर कारसदेव की मान्यता है।

कारस देव की गाथा का रचनाकाल
लोकगाथा के रचना-काल का निर्धारण एक कठिन समस्या है। भाषारूप, कथानक, रूढ़ियाँ, ऐतिहासिक घटना एवं पात्र, लोकप्रसिद्ध घटना एवं पात्र, लोकसंस्कृति के उपकरण और कालबोधक शब्दों के आधार पर यह गाथा 16वीं शती से पहले की है।घोड़े की सज्जा का विवरण भी आदिकालीन ‘कजरियन कौ राछरा’ से मिलता-जुलता है। चन्देला-चन्देलन शब्द कई बार आया है, जिनका राज्य-काल 9वीं से लेकर 14वीं शती तक रहा है।

कारसदेव के अवतार, जन्म के प्रभाव से पर्वत हिलना, सवा हाथ कंचन बरसना, गढ़राझौर के कंगूरा ढहना और फूस की मड़ैया कंचन की हो जाना, चमत्कारपरक रूढ़ियाँ, मोर द्वारा सूचना, बिटिया-बहन का डाँड़ माँगना, बदले की भावना से द्वन्द्व युद्ध आदि आदिकालीन कथानक रूढ़ियाँ हैं।

कारस देव गाथा के पाठों की योजना
गाथा के मूल पाठ में एक इकहरी कथा है, जिसमें राजू गूजर की पुत्री एलादी द्वारा गढ़राझौर के राजा का हाथी पछाड़ा जाने पर राजा उसका विवाह अपने सुपुत्र हरनाम से करने की माँग करता है, जिसके कारण राजू इसे डाँड़ मानकर अपनी जन्मभूमि छोड़ चम्बल नदी के तट पर स्थित झाँझ में बस जाता है तथा उसका पुत्र कारसदेव राजा को द्वन्द युद्ध में पराजित कर पिता के अपमान का बदला ले लेता है।

कारस देव के लोकदेवत्व के कारण यह गाथा भक्तिपरक और धार्मिक बन गई है और उन्हें प्रसन्न करने के लिए चबूतरे के सामने गाई जाती है। धार्मिकता के कारण पाठ में रूपान्तरण और परिवर्तन कम हुआ है। एक क्षेत्र के कई स्थानों में एक-सा पाठ मिलता है।

वस्तुतः यह गाथा टुकड़ों में गाई जाती है और हर टुकड़े को गोट कहते हैं। एक गोट गाने से यदि घुल्ला (व्यक्ति जिसको देवता आते हैं) में कारसदेव आ जाते हैं, तो दूसरी नहीं गाई जाती है। तात्पर्य यह है कि कारसदेव के जन्म या अवतार, उनके विविध चमत्कारों से सम्बन्धित भक्तिपरक गोटें अधिकतर गाई जाती हैं।

एलादी द्वारा शिव की साधना का र्वणन करने वाली गोट के प्रति भी भक्तगायकों का लगाव रहता है। गोटों के अलग-अलग गायन से गाथा में पाठ-भेद की अधिक गुंजाइश रहती है। मुझे दो प्रकार के पाठ मिले हैं, जिनमें एक है पहले से प्रचलित प्राचीन पाठ, जिसमें रूपान्तरण या परिवर्तन नहीं के बराबर हुआ है तथा दूसरा है विकासशील पाठ जिसमें क्रमिक विस्तार होता रहा है।

1 – मूल पाठ ( पहला अध्याय)  में गढ़राझौर का राजा राजू गूजर को बुलवाकर उसकी पुत्री एलादी को पुत्रवधू बनाने की माँग करता है और न मानने पर उसे जबरन उठवा लेने की धमकी देता है, जिसे राजू ‘‘डाँड़’’ कहकर रात में अपनी जन्मभूमि त्याग देता है।

लेकिन दूसरे पाठ में एलादी का विवाह बचपन में ही कांकर नामक ग्राम के एक युवक से होना बताया गया है, जिसके कारण उसके पिता राजा के पुत्र से एलादी का विवाह करने से इंकार कर देते हैं। कारसदेव द्वारा राजा से बदला लेने के कारण की दृष्टि से पहला पाठ उचित लगता है।

2- दूसरे पाठ में चम्बल नदी की बाढ़ के कारण एलादी उससे प्रार्थना करती है और चम्बल का जलस्तर उतरने लगता है, लेकिन पहले पाठ में चम्बल सूखी बताई गई है और राजू गूजर रेत में डेरा डाल देता है। पहले पाठ का विवरण ही अधिक उचित है, क्योंकि गूजर लोग नदी की सूखी रेत में ही डेरा डालते थे।

3- पहले पाठ में कारसदेव कमल के फूल रूप में प्राप्त होते हैं, जबकि दूसरे पाठ में गेंदा के फूल रूप में पहला पाठ अधिक उपयुक्त है।

4- दूसरे पाठ में भगवान शंकर द्वारा कारसदेव की परीक्षा लेना और उन्हें सेहली एवं डमरू के साथ-साथ शक्तिशाली होने का वर प्रदान करना, सूरपाल या सूरजपाल को काले नाग द्वारा डँसा जाना और मोर द्वारा सूचना पाकर कारसदेव सूक्ष्मरूप में वहाँ पहुँचकर नाग को विष चूसने के लिए विवश करना तथा नाग की फुंकारों से काला पड़ जाना। 

गड़राझौर के राजा की पुत्री को झूला समेत उठवा लेना और उसके ‘भाई’ कहने पर उसे ‘बहिन’ बना लेना, हिमालय पर कारसदेव का यज्ञ करना और वहीं प्राण त्याग का निश्चय करना, बहिन एलादी की पुत्री नैना के विवाह में सूक्ष्म शरीर भात देना आदि प्रसंग पहले पाठ में नहीं हैं।

5- कुछ पाठों में सूरपाल या सूरजपाल और गड़राझौर के राजा के मध्य सात युद्धों का र्वणन। कुछ में सूरपाल के साथ कारसदेव ने जीवनभर छोटे-छोटे राज्यों के राजाओं से युद्ध किया और 52 गढ़ जीत लिए।

6- कुछ पाठों में कारसदेव के चमत्कार-प्रसंगों का विस्तार किया गया है और उनमें किंवदन्तियों को बुनकर अधिक रोचक और चमत्कारी बनाने का प्रयास है। उक्त आधारों पर यह निष्कर्ष निकलता है कि इस गाथा का मूलपाठ लघु और इकहरे कथानक का था, पर उसके बृहद् पाठ कविगायकों द्वारा बुने गए हैं।

उदाहरणार्थ के लिए, कारसदेव का अपनी भांजी को भात देने का प्रसंग हरदौल की गाथा का अनुकरण है और वह 17वीं शती के बाद इस गाथा में जुड़ा है। इसी प्रकार कारसदेव द्वारा 52 गढ़ों की विजय आल्हा गाथा की 52 लड़ाइयों का अनुसरण है, जो इस गाथा को भी ‘‘आल्हा’’ की तरह सिद्ध करता है

दोनों पाठों की योजना में भी अन्तर है। पहले पाठ का प्रारम्भ लोकसहज है, क्योंकि उसमें खिरक का तैयार होना, गायों-भैंसों की दोहनी जैसे चरागाही दृश्यों का चित्रण है, जिससे राजू गूजर की दिनचर्या के माध्यम से लोकजीवन के प्रातः कालीन कार्यकलाप मुखरित हो उठते हैं। एलादी का दूध की खेप लेकर गली से निकलने और राजा के हाथी को पछाड़ने का प्रसंग कथा के आरोह का प्रमुख कारण है।

राजा अपने हाथी के अपमान से विचलित होकर राजू गूजर की पुत्री एलादी को अपने पुत्र से ब्याहना चाहता है, इसलिए राजू गूजर से माँग करता है और जबरन ब्याहने की धमकी देता है, जिसे राजू गूजर डाँड़ (दंड) कहता है। ब्याहने को डाँड़ ही संघर्ष की उच्च सीमा अंकित करता है।

परिणाम स्वरूप राजू अपनी जन्मभूमि त्यागकर चम्बल नदी की झाँझ में बस जाता है, इस घटना से कथा का अवरोह प्रारम्भ होता है। लेकिन एलादी द्वारा शिव की 12 वर्ष तक आराधना से वरदान की आशा बँधती है, जिससे अवरोही रेखा पठार प्रदर्शित करने लगती है।

कारसदेव का जन्म, बचपन और उनके अनेक चमत्कारों से पठार का विस्तार तब तक होता है, जब तक कारसदेव अपने पिता के अपमान का बदला लेने के लिए युद्ध की तैयारी शुरू नहीं करता। कारसदेव का सूरजपाल के साथ गढ़राझौर पर आक्रमण करना। 

राजा के द्वन्द्व युद्ध की घटना कथा को पुनः संघर्ष की चरमसीमा तक पहुँचा देती है और कारसदेव की विजय से कथा अन्त की ओर बढ़ जाती है। विजय के बाद सूरजपाल का राजा के पशुधन को ले जाना, मार्ग में राजा की पुत्री का शक और युद्ध की घटनाएँ कथा के अन्त को विस्तार दे देती हैं।

द्वितीय पाठ में संघर्ष की स्थिति टाल दी गई है। छतरपुर पाठ में पड़ा की लड़ाई द्वारा चुनौती संघर्ष का उद्वेलन थोड़ी देर के लिए करती है। दूसरे पाठ में चमत्कारी प्रसंगों से पठार का अधिक विस्तार होता है तथा कारसदेव का नाग की फुंकारों से काला पड़ना, गढ़राझौर के राजा की पुत्री को झूलासमेत उठा लेना, हिमालय पर कारसदेव का यज्ञ करना और वहीं प्राण त्याग का निश्चय तथा सूक्ष्म शरीर से एलादी की पुत्राी को भात देना आदि प्रसंगों से अन्त लम्बा हो जाता है।

कै भये कनैया कै कारस भये,
जिन्नें गइयन की राखी लाज हो ओ
धनधन झाँझ की गइयाँ,
धनधन झाँझ को खोड़

धनधन कारस महाराज हो ओ
लोक गाथा का वस्तु एवं शिल्प
यह गाथा गोचारणी संस्कृति का दृश्यांकन है, जिसमें खिरकों से लेकर गढ़राझौर के राजा से द्वन्द्व युद्ध तक के चित्र टँके हुए हैं और इन चित्रों में भी सबसे मुखर है गढ़राझौर के गूजर राज का, जो एक पशुपालक होता हुआ भी स्वाभिमानी है। गढ़राझौर का राजा जब उसे अपने दरबार में बुलाकर कहता है कि या तो हमारे पुत्र से अपनी पुत्री का ब्याह रचा लो या फिर हम जबरन उसकी बेटी को उठवा लेंगे, तब राजू उत्तर देता है कि क्या उसकी बेटी को डाँड़ के रूप में माँग रहे हो।

वह विवश होकर आधी रात को अपना घर छोड़कर परदेश चल पड़ता है। ग्वालों से कहता है कि एलादी (पुत्री) उसके मूँछ का बाल है, उसे डाँड़ में नहीं दिया जा सकता। राजू की पुत्री एलादी सबेरे उठकर भैंसें और गायों की दोहनी करवाती है और दूध की खेप अपने सिर पर रख बछड़ा और पड़वा हाथ से नियन्त्रिात किए बाजार जाती है। सँकरी गली में राजा का हाथी धूरी खड़ा है जिसे हटाने के लिए एलादी बार-बार विनती करती है। फिर भी हाथी नहीं हटाया जाता, तो वह अपने पैर के दायें अँगूठे से उसकी साँकल दबाकर उसे पछाड़ देती है।

महावत राजा से शिकायत करता है कि अब स्त्रिायों का राज हो गया है क्योंकि ऐलादी ने धूरी जैसे गजराज का मान भंग कर दिया है। गाथा की यह घटना ही राजू के परिवार के निष्कासन का कारण बनती है। महावत एलादी को अवतार मानकर भयभीत हो जाता है और अवतार मानने की गाँव की प्रवत्ति को उजागर कर देता है। राजा की जबरन एलादी को अपने पुत्र हरनाम से विवाहित करने की धौंस सामन्ती प्रवत्ति की प्रतीक है। गाँवों का शोषण इसी तरह से हुआ करता था।

पशुपालकों की स्थान बदलने की प्रवत्ति स्वाभाविक है। इसी कारण राजू गूजर दूसरी झाँझ में आश्रय ले लेता है। कुछ दिनों के बाद उसके पशु रोगग्रस्त होकर उसे गरीबी का जीवन जीने के लिए विवश कर देते हैं और गरीबी का सहारा होता है । एलादी बारह वर्ष तक शिव की आराधना करती है, जिसके फलस्वरूप उसे बलशाली भाई के अवतरण का वरदान प्राप्त होता है। एलादी के वरदान माँगने में गाँव के नारीत्व का पता चलता है।

राजन के उड़वैया, भूतन के भगवैया,
भैंसन के चरवैया, बाँहबल भइया
भोला जू मोखों ऐसो वर दइयो, हो ओ।

गाँव के व्यक्ति को भैंसों (पशु) को चराने में सक्षम होना बहुत जरूरी है। भूतों को भगाने में आन्तरिक शक्ति और राजाओं को पराजित करने में वाह्य शक्ति का परिचय मिलता है। भूत भगाना गाँव की चमत्कारी प्रक्रिया है। राजा से बदला लेने की प्रवत्ति में गाँव की नारी का स्वाभिमान झलकता है। वरदान के रूप में कारसदेव का अवतरण होता है और वे शिव के ही अवतार हैं। माता सरनी ने कमलों की सेज पर राजकुमार को लेटा हुआ पाया। लोककवि ने दैवी अवतार का र्वणन परम्परित रूप में किया है।

सौ-सौ दल कमला खिले, भमर रये गुंजार,

एक कमल पै ऐसो लगै जैसें दियला जरैं हजार, हो ओ।
सूरज थके चन्दा थके, मौं की जोत निहार,

जनम-जनम कों घर को मिट गओ सब अँधयार, हो ओ।
बारे जनमत सरनी के घर, डगडगे परबत धरनी पातार,
सवा हाँत कंचन बरसे हरियल झाँझ में, कलि में हो गए उजयारे,
ढै गये कंगूरा गढ़राझौर के, हो ओ ओ…।

शतदल कमलों का खिलना, हजार दीये जलने की ज्योति, सूर्य-चन्द्रमा का मुख का आभा देखकर थकित होना, जन्मते ही पर्वत, प थ्वी और पाताल का कम्पित होना, सवा हाथ सोने का बरसना और गढ़राझौर के कंगूरों का ढहना सब कुछ अवतार का ही चमत्कार है, जो लोक के आकर्षण का केन्द्र है।

कारसदेव के देखते ही कुम्हार मैगल का कोढ़ ठीक होना, आँखों में प्रकाश आ जाना और उसके द्वारा बनाए हुए मिट्टी के घोड़े लीला को स्पर्श करते ही उसका सजीव हो जाना भी दैवी चमत्कार थे, जो कारसदेव को देवता बनाने में सहायक सिद्ध होते हैं।

प्रस्तुत गाथा में र्वणनों का उचित समावेश है। युद्ध की तैयारी के अन्तर्गत घोड़े की सज्जा, कारसदेव की सज-धज, बन की शोभा, युद्ध आदि के र्वणनों का संयोजन यथोचित रूप में किया गया है।

अश्व-सज्जा का र्वणन आदिकालीन ‘कजरियन कौ राछरा’ से मेल खाता है। र्वणनों में अतिशयता नहीं है, इसलिए वे स्वाभाविक लगते हैं। दूसरी विशेषता यह है कि कोई भी र्वणन, र्वणन के लिए नहीं किया गया, वरन् कथा और पात्र के अनुरूप उन्हें गति देने के लिए सँजोया गया है।

इक बन चाले, दो बन चाले, तिज बन पौंचे डाँग,
डाँगन हरी करौंदी सेंहुरी, उलटी छाई मकोर, हो ओ…
जाँ गबीली झारी डाँग में, देखी गाड़र घास,
छाई कौरैया झालरी, डरैया पै कूक रई भोर, हो ओ…।

आदिकालीन साहित्य में बदला लेने की प्रवत्ति बलवती रही है। बुन्देली लोकगाथाओं में भी वह परिलक्षित होती है। खासतौर से वीररसपरक गाथाओं में। कारसदेव जैसे अवतारी भी उससे अछूते नहीं रह सके। 

(अब तौ बदलौ लेउँ चुकाय, बैरी सें सामूँ लरौं; जनमभूम खाँ लेउँ छुड़ाय, हो ओ ओ…) उनका शत्रु गढ़राझौर का राजा खोड़ों का हिसाब सुन रहा था कि कारसदेव लीला पर सवार हो महलों में पहुँचे और उन्होंने पुरखों (पिता) का बदला लेने के लिए द्वन्द युद्ध किया।

काड़ो खाँड़ौ बिजुरिया ऐसौ, जैसें जीभ काड़ै करिया नाग,
दो ओर सें बज रये खाँड़े, बिजुरी चमक-चमक बुझ जाय,
कारस गरजे जैसें घन गरजो, खाँड़ो गिरो जैसें गाज, हो ओ…।
राजा धरन में ऐसें गिर गओ, जैसें गिरै टूट के डार,
बारा बरस कौ कारस खेलै, लैकें नगन तलवार,
झाँझ के मिट गये दुःख अपार, हो ओ ओ…।

राजा की मृत्यु से गाथा का अन्त दिखाई पड़ता है, लेकिन राजा के पशुओं को घेरकर ले जाने में एक छोटी-सी घटना जरूर दिखाई पड़ती है। कारसदेव के अग्रज सूरजपाल राजा से खोड़ लेकर मार्ग भूल जाते हैं और कुआँ पर पनहारी से पानी पीकर प्यास बुझाते हैं। पनहारी अपने पिता के पशु पहचान लेती है और सूरज से उनके ले जाने का कारण पूछती है।

सूरजपाल ने जब उन्हें खरीदे हुए बताया, तब वह चारा के बहाने उसे रोककर पति को लड़ने के लिए भेजती है। युद्ध हुआ और बावन गढ़ों के राजा मारे गए। सूरजपाल विजयी हुआ। गढ़राजौर पर विजय के आनन्द में मांगलिक गीत गाए गए। गाथा का अन्त भरत वाक्य से होता है, जिसमें कारसदेव की जयकार के साथ सर्वजन-कल्याण के लिए विनती की गई है।

चामल-सी बयें दूद की नदियाँ, बाजै दुहनिया कछार,
दूदन-पूतन गोरी धन फलबै, हार-पहारन करै सिंगार,
कारस तोरी जै-जैकार, हो ओ ओ…।

इस सन्देश से पूरी गाथा सांस्कृतिक हो जाती है। जन्म के अवसर पर बहुओं को तिलचाँवरी बाँटना, पुरुषों को पान देना, शुभ अवसरों पर मंगल गीत गाना आदि लोक संस्कृति के चित्र अंकित हुए हैं। गाथाकार ने डाँड़ (दंड) में बिटिया लेने की प्रथा को एक सांस्कृतिक समस्या की तरह अंकित किया है, जिसे युद्ध के द्वारा हल किया गया है।

चरागाही संस्कृति के यथार्थ को सहज रूप में कथासूत्रा से बाँधकर चित्राण करना रचनाकार की कुशलता का परिचायक है। अन्त में, प्रस्तुत लोकगाथा की प्रमुख विशेषता वह समन्वय है, जो धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक चेतना को संघटित करता है।

एक ओर उसमें एलादी की साधना, कारसदेव का अवतरण और उनके चमत्कार धार्मिकता को व्यक्त करते हैं, तो दूसरी ओेर झाँझ में रहनेवाला गूजर परिवार, पशुओं के रहने का प्रश्न, बिटिया को जबरन ब्याहने की समस्या और जन्मभूमि छोड़ने के बाद निर्धनता का जीवन पारिवारिक-सामाजिक स्थितियों का अंकन करते हैं।

कारसदेव एक पशुपालक का पुत्र होता हुआ भी राजा से संघर्ष करता है और सत्ता को चुनौती देता है। यह राजनीतिक जागरूकता इस गाथा में छोटे-बड़े के बीच समता का आग्रह करती है। लोककथाओं में अक्सर राजा-रानी की कथा आती है, पर छोटे से छोटा आदमी राज-काज में हस्तक्षेप करने की शक्ति रखता है।

यह हस्तक्षेप लोकगाथाओं में भी घटित हुआ है, जो राजतन्त्र के युग में प्रजातान्त्रिाक प्रतिक्रिया का प्रामाणि साक्ष्य है। इस समन्वय की क्रिया चरागाही भूमि पर घटित होती है, इसलिए यह गाथा चरागाही लोकसंस्कृति के स्वरूप का प्रामाणिक दस्तावेज बन गई है।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

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