Mahakavi Isuri महाकवि ईसुरी

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बुन्देली चौकड़िया फाग के जनक ईसुरी का जीवन परिचय 

बुन्देली  के विख्यात महाकवि ईसुरी ने फाग विधा  मे चौकड़िया फाग की रचना कर बुन्देली साहित्य को एक नई दिशा दी। ईसुरी का जीवन दर्शन और अध्यात्म ही उनका परिचय है। Mahakavi Isuri ने लोकसंगत ढंग से लोक की बात कह दी जो जनमानस के मन को छू गई।

बुन्देली लोकभाषा के महाकवि ईसुरी के जीवन एवं काव्य साधना के बारे में लिखित प्रमाण बहुत कम उपलब्ध हैं, किन्तु उन्हीं के द्वारा कही गईं चैकड़ियाँ फागों

में उनके  जन्म स्थान के बारे में जो जानकारी उपलब्ध हो सकी है, उसके आधार पर Mahakavi Isuri का जन्म विक्रम सम्वत 1896 सन् 1839 माना जा सकता है। यद्यपि आचार्य ईसुरी के जन्म सम्बन्धी साहित्यकारों के मतों में भिन्नता है। कोई  ईसुरी का जन्म विक्रम सम्वत 1881 सन् 1824 मानते हैं, कोई इन्हे विक्रम सम्वत 1902 सन् 1945 ई. मानते हैं।

किन्तु किसी एक के मत पर पूरी तरह सम्मति अभी भी नहीं बन पाई है। महाकवि ईसुरी  के जन्मस्थान के बारे में भी अनेक मत हैं, किन्तु उपलब्ध जानकारियों में झांसी जिले का ग्राम मेंड़की उनकी जन्मभूमि माना गया है। पंडित भोला प्रसाद तिवारी (अड़जरिया) इनके पिता जी का नाम था, जो एक सामान्य किसान थे। ईसुरी तीन भाई थे- सदानन्द, रामदीन और ईसुरीईसुरी के भाई भी मेंड़की में रहकर अपना खानदानी कृषि कार्य करते रहे हैं।

महाकवि ईसुरी  का बचपन लुहरगांव, कौनियां हरपालपुर, जिला-छतरपुर में अपने मामा पं. भूधर नायक के यहाँ बीता। ईसुरी जब छोटे से थे, तब इनके माता-पिता जी का स्वर्गवास हो जाने के कारण मामा ने इनके लालन-पालन का उत्तरदायित्व निभाया। उन दिनों ईसुरी जी के मामा की कोई औलाद नहीं थी। अतः मामा उन्हें गोद लेना चाह रहे थे, किन्तु बाद में उनके संतान हो गई तो फिर उन्होंने ईसुरी को गोद नहीं लिया, किन्तु उनका विवाह-संस्कार मामा जी ने ही किया।

नमामि नर्मदे – चिरकुंवारी नर्मदा

महाकवि ईसुरी का विवाह सींगौन (नौगाँव के पास) हमीरपुर उत्तर प्रदेश के पंडित भोलानाथ मिश्र की पुत्री राजा बेटी के साथ हुआ था। ग्राम बघौरा नौगांव जिला हमीरपुर उत्तर प्रदेश वाले ईसुरी की पत्नी का नाम श्यामबाई भी कहते हैं किन्तु कुछ लोगों के अनुसार बताया गया नाम राजा बेटी ही अधिक सत्य माना जा सकता है, क्योंकि राजा बेटी की मृत्यु के सम्बंध में स्वयं ईसुरी ने एक चैकड़िया फाग में उल्लेख किया है।

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हम पै डार गई मोहनियां गोरेबदन की धनियां।

बांह बरा बाजूबंद सोहैं कर में जड़ी ककनियां।
नख सिख में सब गानो पैरैं पायन में पैजनिया।
ईसुर कात चिता पै धर दओ तो खां आज रजनियां।

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महाकवि ईसुरी के ससुराल वालों का ग्राम धौर्रा (नौगांव) में अनाज की खरीद का काम था। ईसुरी मामा के यहाँ से धैर्रा आ गए। राजा बेटी को उनके मायके वालों ने उस दुकान में से कुछ हिस्सा दे रखा था, जिसके सहारे वे अपना गुजर-बसर करने लगे थे। कुछ लोग कहते हैं ठाकुर जगत सिंह की एक बेटी थी, जिसका नाम था रज्जो राजा। महाकवि ईसुरी पर रज्जो राजा का ऐसा जादू चढ़ा कि वे उसके दीवाने हो गए।

उन दिनों वे मुसाहिब (जमीदार) के यहाँ कामगारी कर रहे थे। अतः उन्हें ठाकुर के परिवार से मिलने-जुलने के पर्याप्त अवसर मिल रहे थे। ईसुरी का रज्जो राजा से मेल जोल बढ़ता देख परिवार में चर्चा का विषय बन गया। ठाकुर साहब ने ईसुरी को धौर्रा से निष्कासित करने का निर्णय ले लिया और मौके की तलाश में थे। इन्हीं दिनों ठाकुर साहब के घर में कुछ जेवरातों की चोरी हो गई। शक की सुई घर की नौकरानी पर आकर टिक गई। कड़ाई से पड़ताल करने पर उसने अपराध कबूल लिया।

ठाकुर साहब तो मौके की तलाश में थे ही, बस क्या था…! उन्हें अवसर मिल गया। उस नौकरानी से मिले रहने का सह अपराधी महाकवि ईसुरी को बना दिया गया और उन्हें पकड़कर नीम के पेड़ से उल्टा लटका दिया गया। एक तो ब्राह्मण दूसरा ग्राम के ब्राह्मणों का जमाई, ससुराल वालों ने ठाकुर साहब से मिलकर उन्हें छुड़वाया, किन्तु महाकवि ईसुरी को इस घटना के अपमान ने बहुत आघात पहुँचाया। ईसुरी न तो ठाकुर की बेटी रज्जो राजा को जीवन भर भुला पाए और न ही उस अपमान को, महाकवि ईसुरी ने इस घटना को फागों मे ढाल कर अपनी अंतर्वेदना को प्रेसित किया…।

जा भई दशा लगन के मारे रजऊ तुम्हारे द्वारें।

जिन तन फूल छड़ी न लागी तिन तन छई तरवारें।
हम तो टंगे नीम की डारें रजुआ करें बहारें।
ठांड़ी हतीं टिकीं चैखट से, हो गई ओट किबारें।
का कएं यार अकेले ईसुर, सबरो गांव उतारें।

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लोगों का मानना है कि उस चोरी में महाकवि ईसुरी का कहीं कोई सरोकार नहीं था और न ही उनका रज्जो राजा से कोई अनुचित सम्बन्ध। वैसे भी ईसुरी शादी शुदा थे। उनकी पत्नी उनके साथ रहती थीं, किन्तु लोगों की सोच अगर दूषित हो जाय तो कोई क्या कर सकता था। ठाकुर साहब का उस समय काफी नाम था,बहुत ही पहुच वाले थे। उनके विरोध में कोई कुछ बोलने का साहस भी नहीं कर सकता था। महाकवि ईसुरी ने उन पर लगाए गए झूठे आरोप का प्रतिकार किया और उसके खण्डन स्वरूप उन्होनें फाग के माध्यम से अपनी बात कही…!

अनुआ का भओ जात लगायें जौ लो राम बचायें।

रांडें पकरीं जांय पेट से ऐबातन की बायें।
ऐंगर ठाड़े देख लेय कोउ आँखें चार मिलायें।
ईसुर चन्द होत न मैले काउ के धूर लगायें।

इस अपमान से दुःखित होकर ईसुरी ने धौर्रा छोड़ दिया और वे ग्राम ठठेवरा (धौर्रा से कुछ दूरी पर ही बसा गाँव) में जाकर बस गए। वे इस अपमान जनक घटना से इतने आहत हुए। अपनी मनःस्थिति का वर्णन स्वयं ईसुरी ने इन शब्दों को रचना मे प्रस्तुत किया…।

कैसे मिटें लगी के घाओ ई की दवा बताओ।

दिन ना रात चिहारी परतीं ज्वर ना खाये चाओ।
गुनियां और नावते हारे, खेल-खेल के भाओ।
बात ईसुरी कैसौ करिए, चलत न एक उपाओ।

महाकवि ईसुरी  ठठेवरा में रहने तो लगे थे, किन्तु वहाँ उनका मन नहीं लग रहा था। वे शरीर से तो ठठेवरा में थे और मन उनका धौर्रा में था। उन्हें रह-रहकर उस अपमान की पीड़ा सता रही थी। उन्होंने फागों के माध्यम से सफाई भी पेश की…।

कैसे मिटै लगीको घाओ, ई की दवा बताऔ ।

दिन ना रात चिहारी परती,ज्वर ना खांये चाऔ।
गुनिआ और नावते हारे,खेल-खेल के भावौ।
कात ईसुरी कैसो करिये, चलत ना एक उपाऔ।

इस तरह की घटना को कोई भी व्यक्ति भूल नही सकता…! महाकवि ईसुरी इस मिथ्या कलंक से बीमार पड गये थे,उन्होने तत्कालीन वेदना एक फाग के मध्यम से कही…।
हंसा फिरत विपत के मारे अपने देश बिना रे।
अब का बैठे तला तलैंयां छोडे़ समुद किनारे।
पैला मोती चुनत हते अब ककरा चुनत बिचारे।
अब तो ऐसे फिरत ईसुरी जैसे मौ में डारे।

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 महाकवि ईसुरी के ऊपर लगा यह झूठा आरोप ज्यादा दिनों तक टिक पाया। लोगों को जब असलियत का पता चला तो वे उन्हें ठठेवरा से धौर्रा लिवाने गए, किन्तु ईसुरी ने धौर्रा आने के लिए यह कहते हुए मना कर दिया कि जिन लोगों ने मुझ पर झूठा आरोप लगाकर अपमानित किया है, उनमें से तो कोई भी नहीं आया है। ईसुरी की बातें सुनकर लोग धौर्रा आकर ठाकुर के पास गए और उनसे ईसुरी को वापिस लिवाने चलने को कहा। ठाकुर ने अपने भाई को ईसुरी को लिवाने भेजा तथा उनसे अफसोस व्यक्त किया। तब ईसुरी धौर्रा लौट आए।

ईसुरी का मन अब धौर्रा में पहले की भाँति नहीं लगा। वे जब धौर्रा आ गए तो उन्होंने पं. चतुर्भुज किलेदार के यहाँ कामदारी करने लगे। ईसुरी चिढ़कर धौर्रा के जगजीत सिंह ने उन पर मुकदमा लगा दिया। यह मुकदमा तहसीलदार कुलपहाड़ की अदालत में चला। उस समय कुलपहाड़ में तहसीलदार माधो प्रसाद थे। उन्होंने निष्पक्ष निर्णय किया और ईसुरी विजयी हुए। ईसुरी ने तहसीलदार की निष्पक्ष न्याय प्रक्रिया की तारीफ में फाग लिख डाली…।

जब हम तासीली से छूटे, परे मुकदमा झूठे।

लै लये हैं ऐझार एक से, एक न हाकि जूठे।
उनखां बढ़ती देय विधाता, बड़े बखेड़ा टूटे।
श्री माधौ प्रसाद से हाकिम जियत जगत जस लूटे
ईसुर नीति निभाई पूरी, नबत पेट खां घूटे।।

बगौरा-नौगाँव के पास ही बसा एक गाँव है, जो जिला हमीरपुर में आता है। अतः तहसील कुलपहाड़ जिला महोबा में है। इस ग्राम की जमींदारी के आठ आना उसने पं. चतुर्भुज किलेदार को और चार आना रोशन खाँ को तथा शेष चार आने काले खाँ कामदार अलीपुर स्टेट को बेचे थे। पं. चतुर्भुज ने अपने हिस्से की जमींदारी की व्यवस्था का भार ईसुरी के सुपुर्द किया और उन्हें बगौरा भेज दिया। बगौरा आकर वे बड़ी प्रसन्नता से रहने लगे और बड़ी ईमानदारी और लगन से जमींदारी की व्यवस्था की जिम्मेदारी निभाई।

महाकवि ईसुरी 25-26 वर्ष तक किलेदार की कामदारी करते रहे। यहीं पर उन्होंने साहित्य साधना की। इन दिनों उन्हें बड़ी प्रसिद्धि मिली। वे फाग में महारत प्राप्त कर चुके थे। 54 वर्ष की उम्र में वे वृन्दावन की यात्रा पर गए। वहाँ उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति में लीन होकर फागों की रचना की। ईसुरी लगभग तीन वर्ष वृन्दावन, मथुरा, बरसाने तथा बृजभूमि के उन स्थानों पर गए, जहाँ-जहाँ भगवान कृष्ण की लीलाओं का सम्बन्ध रहा है।

पंडित चतुर्भुज किलेदार ईसुरी पर बहुत भरोसा करते थे। वे उन्हें बहुत प्यार और सम्मान करते थे। उन्होंने ईसुरी जी को वृन्दावन से वापिस बुलवा लिया। बगौरा लौट आकर ईसुरी ने पुनः जमींदारी का काम सम्भाल लिया। किसी कारण से पंडित चतुर्भुज किलेदार की जमींदारी का हिस्सा रज्जब अली ने खरीद लिया। रज्जब अली की मृत्यु के बाद उसकी बेगम आबदी बेगम, बगौरा की जमींदारी की मालिक बन गईं। बेगम ने ईसुरी को जमींदारी का कारन्दा नियुक्त किया। ईसुरी की एक फाग इस बात की पुष्टि करती है…।

जौलो रहे पगन से नीके, आय गए सबहीं के।

भये इक और रंज के मारें जा नई सकत किसी के।
इतनी ख़बर लैय जी भर गओ, प्रेम को पानी पी के।
आना आठ गाँव में हिस्सा, मजा मिलकियत जी के।
बने बगौरा रात ईसुरी, कारिन्दा बीबी के।

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महाकवि ईसुरी बेगम के कामदार भले ही बने रहे, किन्तु उनके पंडित चतुर्भुज किलेदार से सम्बंध पूर्वतः मधुर बने रहे। ईसुरी ने अपने मन की बात व्यक्त करते हुए फाग लिखी है।

दोई कर परमेश्वर से जोरें करौ कृपा की कोरें।

हम न हुए दिखैया देखैं हितन-हितन की डोरें।
उदना जान परै अन्तस की जब वे अंसुआ ढौरें।
बंदा के ठठरी करें रवानी रजऊ कोद की खोरें।
बना चैतरा देंय चतुर्भज इतनी खातिर मौरें।
होवै कऊं पै मरै ईसुरी, किलेदार के दोरें।

इस फाग में महाकवि ईसुरी की तीन अन्तिम इच्छाएँ उजागर होती हैं। वे अपनी मौत पंडित चतुर्भुज किलेदार के द्वार पर होना माँगते हैं दूसरी यह कि वे अपनी प्रेयसी रजऊ जिसके कारण उन्हें पेड़ से लटकाए रखकर सजा दी और अपमानित किया गया था, उसके दरवाजे से अन्तिम यात्रा निकले, जिसे वह देख सके। उनकी तीसरी अंतिम इच्छा थी कि उनका अन्तिम संस्कार बगौरा में ही किया जाय।

यारो इतनो जस कर लीजौ, चिता अन्त न कीजौ।

चलतन श्रम से बहै पसीना, भसम पै अन्तस भीजौ।
निगतन खुर्द चेटका लातन, उन लातन मन रीझौ।
वे सुस्ती न होय रात-दिनु जिनके ऊपर सीजौ।
गंगा जू लों मरें ईसुरी, दाग बगौरे दीजो।।

महाकवि ईसुरी की पत्नी ने चार पुत्रियों तथा एक पुत्र को जन्म दिया था। उनकी पहली पुत्री का राजकुँवर, दूसरी लाड़कुंवर, तीसरी रुकमिन तथा चैथी गुरन थी। ईसुरी के एक पुत्र भी पैदा हुआ था जिसकी 14 वर्ष की उम्र में मृत्यु हो गई थी । पुत्र की मृत्यु से बहुत दुखी हुए और ईसुरी ने एक फाग के माध्यम से अपनी अभिव्यक्ति की…।

जौ तन कर दओ राम निरासा,की की करिए आशा।

कीन्हों गजब गरीबन ऊपर, जाने कहा निकासा।
बारे कैसो खेल मिटा दओ, कर ले तनक तमासा।
ईसुर प्रान लेत काये ना, दुखिया तन की आशा।

महाकवि ईसुरी की पत्नी ज्यादातर अपने मायके में ही रहती थीं। उनके सभी बच्चों का जन्म तथा बेटियों के विवाह संस्कार ईसुरी की ससुराल सींगौन से ही सम्पन्न हुए थे। उनकी पुत्रियों के विवाह क्रमशः –राजकुँवर-महुआबांद, लाड़कुँवर लुगासी, रुकमिन-ढिलापुर और गुरन धबार गाँव में हुए थे। ईसुरी की पत्नी भी कवयित्री थीं। वे पढ़ी लिखी तो नहीं थीं, किन्तु वे लोकगीत, दादरे तथा बारहमासी गारियों के साथ-साथ फागें भी कहा करती थीं। जब राजा बेटी को श्वांस रोग हो गया था। उन्हें साँस लेने में कठिनाई होती थी तथा खाँसी भी आती थी। उन्होंने ईसुरी को अपनी स्थिति फाग के माध्यम से बताई…।

दिल में परे प्रीति के छाले,बचे तो यार बचाले।

धौंकी नहीं जात जी जामें, सये न जात कसाले।
सांसऊ मांस प्रान नारी में, बैदे चाय बताले।
द्विज को श्याम करें चतुराई, घबा फालतू घाले।

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महाकवि ईसुरी की पत्नी राजा बेटी ने अपना अन्तिम समय में जो बातें ईसुरी से कहीं वे फाग में थी, जिन्हें ईसुरी ने अपनी छाप देकर पूरा किया था…।
हम खां लेव बलम ओली में, प्राण कड़त बोली में।
आये बैद लये रस ठांडे़, का होने गोली में।
हात हमारो सबने देखो, नई प्राण चोली में।
ईसुर ले गए विदा कराके, चार जने डोली में।

महाकवि ईसुरी की पत्नी राजाबेटी की मृत्यु के बाद महाकवि का एकाकीपन उन्हे काफी परेशान करता था। इसकी पुष्टि ईसुरी की एक फाग के माध्यम से होती है…।
हम पै डार गई मोहनियां, गोरे बदन की धनियां।
बांह बरा बाजूबंद सोहें, कर में जड़ी ककनियां।
नख सिख में सब गानों पैरो, पंयन में पैजनियां।
ईसुर कात चिता पै धर दऔ, तो खां आज रजनियां।

महाकवि ईसुरी के परिजनों में उनके सगोत्र बंधु थे, अधार अड़जरिया, जिनके दो पुत्र एवं एक पुत्री थी। बड़े पुत्र का नाम आनन्द राम तथा छोटे का विन्देराम था। पुत्री का नाम रुकमिणी था, जो पंडित अछरूलाल पाठक के परदादा को ब्याही थीं। उनके पाँच पुत्र थे। ईसुरी की एक बहन थी- रामा

ईसुरी ने अपने हिस्से का मकान एवं कृषि भूमि उन्हीं के पुत्र गरीबे मिश्र को दी थी। ईसुरी की सबसे छोटी पुत्री गुरन जो धबार में ब्याही थी उनके पति की मृत्यु जल्दी हो गई थी। पुत्री के वैधव्य संकट पर ईसुरी बडे़ दुःखी हुए। वे गुरन को समझाने धबार गए और भगवान की माया को खेल कहकर उसे समझाया…।

जिदना गुरन तुमें औतारो, विध ने अक्षर मारो।

सुन्दर रूप दओ विधना ने,नख सिख सें सिंगारो।
उनपे अपनों जोर चले न, परमेंसुर सें हारो।
ईसुरी बेई पार लगा हैं, जीने बनो बिगारो।

महाकवि ईसुरी का जीवन सीधा-सच्चा था। वे मन के कवि थे। अपने काम से काम रखते थे और जो भी उन्हें दिखता था- अच्छा या बुरा, उस पर वे फाग बना लेते थे। वे जीवन की हर घटना को काव्य का रूप दे दिया करते थे। एक बार उनके ऊपर एक काला नाग आकर चढ़ गया और सिर पर बैठकर अपना फन फैलाए कुछ देर तक बैठा रहा, फिर बगैर कुछ हानि पहुँचाए धीरे से उतरा और चला गया। ईसुरी ने इस घटना पर भी फाग रच डाली …।

सिर पै करी सांप ने बामी, धन्य गरुण के गामी।

पीठ पछारूं से चढ़ आओ, उतरन उतरो सामी।
न हम करी करन दई औरन, भगति रहो हां कामी।
काये से रीझे ईसुर पै, करत जात हौ नामी।

इस घटना से महाकवि ईसुरी की ख्याति एवं महत्त्व और अधिक बढ़ गया था। लोग उनके दर्शन करने आने लगे और उनके पैर छूकर आशीर्वाद माँगने लगे थे। प्रभु की ऐसी कृपा कि उनकी वाणी में सत्यता भी आ गई। ग्राम बरी के एक लोधी के संतान नहीं थी। वह ईसुरी के पास आये और उनकी चरण वंदना कर अपनी चिन्ता का बखान करने लगे।

ईसुरी के मुँह से अनायास निकल गया कि चिन्ता न करो, भगवान तुम्हारी मनोकामना पूरी करेंगे। बस हो गया आशीर्वाद और उस लोधी के घर पुत्र पैदा हुआ। ईसुरी अपनी हर बात काव्य में ही कहा करते थे। उन्होंने जो आशीर्वाद लोधी को दिया था उसे भी फाग के माध्यम से कह डाला…।

तुमने राखे मान हमारे, होवें भले तुमारें।

डेरा दओ खास दालानन, अपने हांतन झारे।
लगा दई पानन की बिरिया, लौंग लायची डारे।
ईसुर देत असीसें तुम खां, ओली खेलें बारे।

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दीपक दया धरम को जारौ, सदा रहत उजियारो।

धरम करैं बिन करम खुलैं ना, ज्यों कुंजी बिन तारो।
समझा चुके करै ना रैयो, दिया तरें अंधियारो।
कात ईसुरी सुन लो प्यारी, लग जै पार निवारो।

एक समय की बात है, चन्दपुरा गाँव के ठाकुर गम्भीर सिंह ने अपने यहाँ फाग के लिए महाकवि ईसुरी को आमंत्रित किया। उन्होंने ठाकुर का आमंत्रण स्वीकार कर लिया तथा उन्हें यह भी आश्वासन दे दिया कि वे आयेंगे और साथ में धीरे पण्डा व बेड़नी रंगरेजिन को भी लेकर आयेंगे। यद्यपि धीरे पण्डा कवि नहीं थे, बल्कि बहुत अच्छे गवैया थे। वे ईसुरी की फागें बहुत अच्छी तरह से गाते थे। प्रभु मिश्रा नगड़िया, सूरे झींका बजाते थे और रंगरेजिन बेड़नी (नर्तकी) नृत्य किया करती थी।

उन दिनों लोग शादी-विवाह, बच्चों के जन्म, नामकरण आदि के शुभ अवसरों पर फाग कराया करते थे। ईसुरी के साथ ढोलक, नगड़िया, झांझ-मजीरा बजाने वालों की पूरी मण्डली चलती थी, किन्तु न जाने ऐसी क्या मुसीबत आ बनी कि ईसुरी ठाकुर के यहाँ नहीं पहुँच सके। अपने वचनों की पूर्ति न कर पाने पर उन्हें खेद हुआ और उन्होंने ठाकुर के पास क्षमा याचना लिख भेजी…।

मोरी केबो लाख छिमां को, जो कसूर उदना को।

बन्दे विनती करत बनी ना, बिगरी खां ना ताको।
सब कोऊ कात अपुन खां ऐसो, बढ़ौं मिजाज मजा को।
ईसुरी श्री गम्भीर सिंह जू, कलसा चन्द्रपुरा को।

महाकवि ईसुरी ने माफी माँगते हुए आश्वासन देते हैं कि ऐसी भूल अब वे दोबारा नहीं होने देंगे। और एक फाग की रचना कर संदेश भेजा…।
जिदना हम खां आप बुलावें, हुकुम के सुनतन आवें।
गाँव घिसलनी घोड़ा भेजो, विधिगत कौन बतावें।
पडुआ से धीरे पण्डा इक, रंगरेजन खां ल्यावें
ऊ दिन की लाचारी हम खां, रात तिजारी दावें।
दरवाजे पै बना ईसुरी, नई-नई फाग़ें गावें।

महाकवि ईसुरी बगौरा गाँव में रहते हुए न केवल आस-पास के गाँवों में फागें गाने जाते थे, बल्कि उन्हें दूर-दूर तक बुलाया जाने लगा था। वे अपनी मण्डली सहित बुलाने पर जाया करते थे। उनकी मण्डली में जिन लोगों का उल्लेख मिलता है,उनमें धीरे पण्डा, रंगरेजिन बेड़नी (नर्तकी) पिरभू मिश्रा, प्रेमानन्द सूरे, नत्थे खां दफेदार आदि प्रमुख थे।

तत्कालीन प्रसिद्ध फगवारे गंगाधर व्यास और ईसुरी में बड़ी नजदीकी थी। गंगाधर-ईसुरी से मिलने उनके घर भी आया-जाया करते थे। उनके बीच हास-परिहास भी चलता था। गंगाधर के दो पुत्र थे। एक का नाम मगन था और दूसरे का चगन। गंगाधर ईसुरी की पत्नी को भौजी कहा करते थे और उनसे हँसी-मज़ाक भी कर लिया करते थे। ईसुरी की पत्नी राजाबेटी जो प्रखर कवि हृदय थीं, इन्होंने इस मज़ाक का उत्तर उसी दक्षता के साथ बडे़ वीभत्स रसात्मकता के साथ दिया और गंगाधर को उनकी गलती का एहसास करा दिया। उन्होंने गंगाधर से कहा ….।

गंगाधर झाडे़ खां निकरे,

रिपट परे ते गू में।
सबरी देह मगन ने चाटी, तनक छपो रहो मू में ।
प्यारी सूरत सकल बनायें, गांव भरे में घूमें।

महाकवि ईसुरी की बुन्देली फाग साहित्य में गहन रुचि होने से वे फागों की चैकड़िया विधा के जनक माने गए हैं। उनके साथ-साथ उनके समकालीन कवियों ने भी फाग को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम अपना लिया था। ईसुरी के सभी साथी फाग रचने में माहिर हो गए थे, जिनमें धीरे पण्डा, पिरभू मिश्रा, रंगरेजन बेड़नी तथा प्रेमानन्द सूरे उल्लेखनीय हैं। गंगाधर व्यास तो उस समय के प्रसिद्ध फगवारे बनकर उभरे ही थे। उन्हीं दिनों फाग साहित्य में फड़बाजी का भी विकास हुआ था।

ईसुरी और उनकी मण्डली गाँव-गाँव जाकर फागें गात थे। कुछ ही दिनों बाद लोगों ने दो-दो मण्डलियाँ बुलानी शुरू कर दी थी और वे दोनों मण्डलियाँ एक के बाद एक, एक-दूसरे की फागों के उत्तर दिया करते थे। उन दिनों नाथूराम माहौर फाग में प्रसिद्धि प्राप्त कर चुके थे। वे और उनका मण्डल फागें गाने के लिए बुलाने पर जाया करते थे।

वास्तव में चैकड़ियाँ फागें रीतिकालीन कवियों की परम्परा का अपनी स्थानीय बोलियों में उच्छवास मात्र कहा जा सकता है, किन्तु बहुत प्रभावशील मनोरंजक और मारक अभिव्यक्ति सहित। इसी कारण महाकवि ईसुरी और उनके समकालीन फगवारे जनप्रिय और लोकप्रिय हुए। फड़बाजी से प्रेरित होकर ईसुरी और उनके समकालीन कवियों ने शब्दालंकारों की नई-नई उद्भावनाएँ भी गढ़ी थीं।

छूटे नैन बान इन खोरन, तिरछी भौंय मरोरन।
इन गलियन जिन जाव मुसाफिर, गजब परो इन खोरन।
नोकदार बरछी से पैने, चलत करेजे फोरण।
ईसुर हमने तुम से कैदई, घायल डरे करोरन।

 धीरे पंडा और ईसुरी के बीच घनिष्ठ मित्रता थी । का धीरे पंडा कवि नहीं थे वह एक सुप्रसिद्ध गायक आवश्यक है स्वयं ईसुरी ने उनकी प्रशंसा में कुछ फागें लिखी है…।
दोहा-

द्विज धीरे खां ईसुर,पौंंचाई परनाम।
दिल जाने दिल सौंप दओ,दिल की जाने राम।
दिल राम हमारी जानें,मिंत झूठ ना मानें।
हम तुम लाल बतात जात ते,आज रात बर्रानेंं।
सापरतीत आज भई बातें सपनन काये दिखानें।
नां हौ मों हो देख लियत ते,फूले नई समानें।
मांत दिवन मे मोरी ईसुर,तुमे लगो दिल चानें।

जिनके चले अगारू साका बड़ी मोहिनी भाखा ।
बांकेके बोल लगत औरन खां गोली कैसो ठांका ।
बैठे रओ सुनो सब बेसुध खैंचे रओ सनाका ।
दूनर होत नाचने वाली मईंं खांं जाएं छमाका ।
फागन खां एक धीरे पंडा ईसुर आएंं पताका।

पहले ईसुरी स्वयं फागें गाया करते थे पर उम्र काफी हो जाने के बाद उन्होंने फाग गाना छोड़ दिया था और पूर्णता गायन का भार धीरे पंडा जी पर आ गया था। इस बात का प्रमाण उनकी एक भाग में मिलता है।
आ गए मरबे के दिन नी रे चलन चात जे जी रे ।

अब बा देह अगन रई नईयां हाथ पाव सब सीरे ।
डारन लगे रात हैं नैयां पत्र होत जब पीरे ।
जितनी फाग बनावे ईसुर गावे पंडा धीरे।

बड़े गांव और बगोरा की सीमाओं के बीच की पहाड़ी के संबंध में स्टेट अलीपुर के अधिकारियों तथा जिलाधीश हमीरपुर के बीच कुछ विवाद चल पड़ा था पहाड़ी पर अपना-अपना अधिकार सिद्ध किया जा रहा था इसी पर ईसुरी ने एक लंबी फाग लिखी थी जिसकी टेक इस जनपद के ग्राम पंचायतों में मूल मंत्र का काम देती है।

तन तन दोऊ जने गम खावें करो फैसला चायें।

नायं बगोरा को मेडो है बड़े गांव को मायें।
माझ पारिया पै झगड़ा है तूदा फिरत बनायें।
कानूनगो जू कान सें लगकें सबको मंत्र बतायें ।
लाला बसी मानत नैयां नाबसाब समझायें।
फिरें खतौनी औ खसरा खां लाला जू कखयायें ।
हो गए हैं हैरान बिचारे कांलों किये बतायें।
अपनी लांंच खाएबे कौं बे नायं की मायं मिलायें ।
गड्डी गाडे ढड़कत नयां ओंगन बिना लगायें ।
इनका मिनका धुनका बडकैं तिनैं वकील बनायें ।
मंगल टूडिया दुबे रबुदे फल्ले खां दबकायें ।
जिनकेंं नयां चून चनन को उनसे लाग मंगायें ।
झल्ले मोदी कनक ना देवे मोल बिसाकें खायें।
हो गए हैं हैरान विचारे कांंनों किये बतायें ।
नंबरदार चतुर्भुज जू के हम कारिंदा आयें।
पंद्रा-सोरा दिन भय ईसुर द्प्टी जू खां आयें।

महाकवि ईसुरी की देहान्त
इस प्रकार साहित्यिक समृद्धि से परिपूर्ण ईसुरी का सारा जीवन साहित्यिक उधेड़ बुन में लगा रहा। वे सच्चाई पर चलने वाले, ईमान का पालन करने वाले निश्छल, निष्कपट, खुले मन विचारों वाले कवि थे। बुन्देली लोकभाषा को उन्होंने समृद्धि प्रदान की और अपनी भूल-चूक लेनी-देनी कहकर अन्तिम विदा ली। ईसुरी ने अपनी अन्तिम इच्छा के रूप में लिखा है……।

यारो इतनो जस कर लीजौ, चिता अन्त न कीजौ।
चल तन श्रम से बहे पसीना, भसम पै अन्तस भीजौ।
निगतन खुर्द चेटका लातन, उन लातन मन रीझौ।
वे सुस्ती ना होय रात-दिन, जिनके ऊपर सीजौ।
गंगा जू लौ मरें ईसुरी, दाग बगौरे दीजौ।

एक अन्य फाग में भी उनकी अन्तिम इच्छा उल्लेखित है….।
दोई कर परमेसुर से जौरैं, करौ कृपा की कौरें।
हम ना हुए दिखैया देखें, हितन-हितन की डौरें।
उदना जान परै अन्तस की, जब वे अंसुआ ढौरें।
बंदा की ठठरी करे रवानी, रजउ कोद की खौरें।
बना चैतरा देंय चतुर्भुज, इतनी खातिर मोरें।
होवै कउं पै मरे ईसुरी, किलेदार के दौरें।

महाकवि ईसुरी  की ये दोनों कामनाएँ पूर्ण नहीं हो सकीं। ईसुरी को मृत्यु के कुछ महीना पूर्व पेट की बीमारी हो गई थी। वे बगौरा में अकेले ही रह गए थे। उनका कोई परिजन वहाँ नहीं था और न ही उनकी फाग मण्डली का कोई साथी। ठाकुर भवानी सिंह उनकी सेवा में लगे रहते थे। ईसुरी चलने-फिरने यहाँ तक की दैनिक क्रियाओं के लिए भी उठ बैठने में मजबूर हो गए थे।

जब यह समाचार उनकी पुत्री गुरन को मिला तो वे उन्हें बैलगाड़ी से धबार ले गईं। लोक मान्यता के अनुसार ईसुरी पुत्री के घर का भोजन-पानी नहीं ले सकते थे। अतः उनकी इच्छानुसार उनके निवास और भोजन आदि की पृथक व्यवस्था की गई थी। महाकवि ईसुरी अन्तिम समय तक अपने रचना कर्म में लगे रहे।

लैलो सीताराम हमारी, चलती बेरा प्यारीं।
ऐसी निगा राखियो हम पै, नजर न होय दुआरी।
मिलकें कोऊ बिछुरत नैयां, जितने हैं जिउधारी।
ईसुर हंस उड़त की बेरां, झुकआई अंधियारी।

मोरी राम राम सब खैंया, चाना करी गुसैयां।
दै दो दान बुलाकें बामन, करौ संकलप गैयां ।
हाथ दोक जागा लिपवा दो, गौ के गोबर मैयां।
हारै खेत जाव ना ईसुर, अब हम ठैरत नैयां।

महाकवि ईसुरी अपने फगवारे मित्र धीरे पण्डा की याद करते हुए कहते हैं…।
पण्डा धीरे इतै लौ आहें, हमें मरो सुन पाहैं।
समझा दैयो सोच करैं ना, हो तब पै बस काहैं।
जितने मिलें चिनारी मोरे, राम-राम सब खांहैं ।
सबर करैं उदना जे ईसुर, जिदना फागें गाहैं।

और कदाचित यह उनकी अन्तिम रचना है, जिसके अन्तिम शब्दों के साथ उनके बोल थक गए थे।
मोरी सब खां राधावर, की भई तैयारी घर की।
रातै आज भीड़ भई भारी, घर के नारी नर की।
बिछरत संग लगत है ऐसा छूटत नारी कर की।
मिहरबांनगी मोरे ऊपर, सूधी रहै नजर की।
बंदी भेंट फिर हूहैं ईसुर, आगे इच्छा हर की।

हमारी पावन धरा वीरभूमि बुन्देलखण्ड की लोकभाषा बुन्देली का महाकवि ईसुरी मार्ग शीर्ष कृष्ण सप्तमी शनिवार वि. 1966 को हम सबसे विदा ले गये।

संदर्भ-

ईसुरी की फागें- घनश्याम कश्यप
बुंदेली के महाकवि- डॉ मोहन आनंद
ईसुरी का फाग साहित्य – डॉक्टर लोकेंद्र नगर
ईसुरी की फागें- कृष्णा नन्द गुप्त

मार्गदर्शन-

श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’

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