Home Blog

Shri Pratapeshwar Dham श्री प्रतापेश्वर धाम

यह प्रतापेश्वर महाराज धाम Shri Pratapeshwar Dham मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश के बोर्डर लहार से 17 km पर नावली माता मन्दिर फिर उससे 3 km की दूरी बंगरा रोड पर श्री प्रतापेश्वर धाम ( बरगुवां) पोस्ट नावली जिला जालौन उत्तर प्रदेश में है ।

Shri Pratapeshwar Dham सरकार यह प्रतापेश्वर महाराज धाम मंदिर परम पूज्य श्री श्री 1008 श्री परताप बाबा महाराज एवं श्री पठान बाबा महाराज को समर्पित है और उनके साथ भगवती माँ काली भगवती माँ पीतांबरा धूमावती माई भगवती माँ स्कंद माता श्री गुरु गोरखनाथ जी महाराज,बाला जी महाराज श्री कारस देव श्री भैरव बाबा श्री परीत बाबा श्री नागदेव मेवाती महाराज विराजमान है।

यह स्थान ग्राम बरगुवां, पोस्ट नावली जिला जालौन उत्तर प्रदेश मे पड़ता है लोग यहाँ बताते है कि जहा आज बाबा का स्थान है वहा तकरीबन 350 बर्ष पूर्व  एक तालाब हुआ करता था और उस तालाब के बीच  ओ बीच मे एक पीपल नीम का पेड़  के नीचे दो मडियाँ ( छोटे मंदिर ) बनी हुई थी जिसे सब श्री परताप बाबा महाराज और पठान बाबा साहब के नाम से पूजते थे।  

सुना है जो नीम और पीपल का पेड़ था वो बाबा ने तातून के डॉ भाग करके तालाब मे गाड़ दिये थे उनसे यहा पेड़ लग गए थे कुछ लोग बताते है की बाबा बंगाल से आये थे बारह पाठी और कुछ बताते है कि यहाँ गाँव के  बसने से पहले से ही ये स्थान बना हुआ है कुछ बर्ष पूर्व यहाँ जो नीम पीपल अपने आप सूख गये लोगो को स्थान पर जाने मे डर लगने लगा तालाब मे पानी नही रहता था लोगो को इतना डर लगने लगा था की पूजा करना भी कम कर दिया था।

गॉव मे लोग पागल होने लगे जो नये जोड़ा की शादी होती वो लोग परेशान होने लगे बहुत लोग सांप के काटने से मर गए बहुत समय तक ऐसा चलता रहा जो नई बहुये आती उनकी गोद न भरती लोग जब बाहर कही देव स्थान पर जाकर पूछते तो सब यही कहते कि जिसके शरण मे रहते हो उसे ही छोड़ रहे हो जाओ वही जाओ हम कुछ नही कर सकते है सबने हाथ खड़े कर दिये थे।  

फिर यहा एक लोहार जाती मे बालक हुआ जब वो 8 साल का था तबसे उसे यह स्थान से बहुत लगाव  होने लगा था वो रोज  शुभ संध्या धूप दीप करने आने लगा तकरीबन 13 बर्ष की आयु हुई होगी उस बालक की उसी समय स्थान पर बाहर से लोग गोटिया भंडारा करने आये हुए थे वो लोग गोट कब्बाली गान कर रहे थे और वह बालक स्थान पर बैठा हुआ था अचानक उस बच्चे पर सवारी आई  तो सब देखते रह गये तब गोटियाओ ने पूछा की आप कौन  ? हो क्यों आये हो?  अपना परिचय दो?

तब बाबा ने पहली जयकार गुरु गोरखनाथ की फिर काली माई की जयकारा लगाई  तब अपना नाम आकासचारी परताप बाबा महाराज बताया और हमारे साथ ये ये शक्तियां साथ चलती है  तब ऐसा पहली बार हुआ था की बाबा की सवारी आई हो जो गॉव वाले इकठ्ठा हुए थे उन्होंने पूछा महाराज पूरा गॉव परेशान है लोग पागल हो रहे किसी को सांप काट ले रहा लोगो के वंश नही जी रहे गाय भैंस का दूध सूख जाता है क्या करे आप हम सबका मार्ग दर्शन करे और हमसे जो भी गलती हुई हो उसे बच्चे समझ कर क्षमा करे।

तक लोगो के यह कहने पर बाबा महाराज ने गॉव वालो को आदेश दिया कि जो यहाँ दर्शन करने आयेगा उसके सारे कष्ट बाधाओं से मुक्ति पायेगा तक बाबा ने बताया था की यहाँ समस्त देव शक्तियां निवास करती है।   

यहा की एक कथा और सुनने को आती है  कि जब डाकुओ का  बरचस्व ज्यादा था तक इस गॉव मे डकैतों ने आकर हर घर से जेवर कीमती चीजे लूट कर गॉव से निकल रहे थे तो उन्हें बाहर का रास्ता ही दिखाई नही दे आँखों की रोशनी चली जाए और जब गॉव की तरफ आये तो रोशनी  आजाए  बहुत भटकते रहे पर गॉव से बाहर निकल नही पाए। 

आखिर मे उनका सामना ओछेलाल बाबा जी से हुआ उन्होंने कहा की आप यहाँ  से लूटकर बाहर नही ले जा सकते है इससे अच्छा आप सब यही छोड़ दो और फिर यहा कभी मुड़कर मत देखना और ऐसा ही हुआ डकैत सब वही छोड़कर भाग गये थे और यहा हिंदू मुस्लिम बौद्ध जैन सब धर्मों के लोगों का प्रेम देखने को मिलता है। 

यहाँ के प्रथम पुजारी श्री ओछे लाल बाबा जी हुए थे जिन पर पहली बार सवारी आई थी मान्यता है कि यहाँ आकर माथा टेकने से जीवन मे आ रही सभी समस्याओं एवं बाधाओ से मुक्ति मिलती है नया मार्ग दिखता है यहाँ ध्वजा नारियल चढ़ाने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती है।  

मान्यता है कि Shri Pratapeshwar Dham में  दर्शन मात्र से -भूत , प्रेत, जिन्न, खब्बीस, मसान, जैसी समस्त बाधाओ से मुक्ति मिलती है यहाँ जिन परिवार मे बच्चे न होते हो या वंश न चल रहा हो तो यहाँ उसकी दवा भी दी जाती है और जो व्यक्ति पागल हो उसे यहाँ दर्शन कराने मात्र से ठीक हो जाते है, सर्प ने काट लिया हो तो प्रतापेश्वर महाराज के नाम से बंध लगाने से सर्प का जहर चड़ता नही है उसके बाद व्यक्ति को यहाँ लाया जाता है मनु महाराज के द्वारा झाड़ा करने से व्यक्ति विष मुक्त हो जाता है यहाँ के पीठाधीश्वर श्री मनु महाराज जी है।   

 बागाज माता मंदिर 

Bundeli Bhasha Sahitya Aur Sanskriti बुन्देली भाषा, साहित्य और संस्कृति

Bundeli Bhasha Sahitya Aur Sanskriti आज भी अपनी प्राचीनता को सँजोये हुए है । बुंदेलखंड की अनोखी बुन्देली भाषा का बुन्देली संस्कृति और साहित्य की प्रसिद्धि के कारण प्राचीन काल से ही गौरवशाली इतिहास रहा है। बुंदेली भाषाई और साहित्य के दृष्टिकोण से प्राचीन एवं अति समृद्ध भाषा है। 10वीं-11वीं सदी से प्रचलित बुन्देली भाषा चंदेल साम्राज्य से लेकर बुंदेला राज तक फलती-फूलती रही है।

जगनिक, तुलसीदास, केशवदास, ईसुरी, अवधेश, डॉ० रामनारायण शर्मा, डॉ० बहादुर सिंह परमार, डॉ० शरद सिंह और सतेंद सिंघ किसान इत्यादि उल्लेखनीय बुन्देली साहित्यकार हैं। वाल्मीकि रामायण में इस बुंदेलखंड प्रदेश के व्यापार, रहन-सहन, खान- पान, शिल्प कलाओं आदि का वर्णन मिलता है।

बुंदेलखंड महुआ, मेवा, बेर, मिठाई के लिए प्रसिद्ध है। बुन्देलखंड में सुबह के भोजन को ‘कलेऊ’, दोपहर के भोजन को ‘दुपाई’ और रात के भोजन को ‘बियारी’ कहा जाता है। बुंदेली वेशभूषा एवं परिधान साधारण हैं। डॉ० श्रीवास्तव जी ने लिखा है कि यहाँ का पहनावा साधारण है। बड़े- बूढ़े आदि बाहों वाली बंडी-फतुही पहनते हैं, कंधे पर पिछोरा, सिर पर अंगौछा।

राज दरबार में जाने की पोशाक-अंगरखा मिर्जई, पांव में सराई और सर पर पगड़ी धारण करने का रिवाज था। सामान्य जन कंधे पर गमछा (तौलिया) डालते हैं। स्त्रियों द्वारा सामान्यत: धोती (साड़ी), पोलका का ही प्रयोग किया जाता है। अब साया (पेटिकोट) और चोली (अंगिया) का भी प्रचलन है। विशेष अवसरों पर स्त्रियाँ लहंगा, चुनरिया, घाघरा और पिछौरा धारण करती हैं। बुन्देलखंड में प्रायः स्त्रियाँ सोने एवं चांदी के आभूषण धारण करती हैं। अतः बुन्देली भाषा, साहित्य और संस्कृति विश्व में अपनी अनोखी पहचान रखते हैं। 

बीज शब्द
बुन्देली भाषा, बुन्देली संस्कृति, बुन्देली साहित्य, रहन-सहन, खान-पान, वेशभूषा, परिधान, बुन्देलखण्ड।

मुख्य प्रतिपाद्य / प्रस्तावना 
बुन्देलखण्ड भारतवर्ष का हृदय स्थल है। बुन्देलखण्ड की मुख्य भाषा बुन्देली है, जो अपने आस-पास के अन्य राज्यों की भाषाओं से प्रभावित होकर बुन्देलखण्ड के चारों ओर ऐसे मिश्रित रूप भी तैयार करती है, जिनमें बुन्देली और अन्य प्रदेशीय संस्कृतियों का स्पष्ट प्रभाव दिखता है। लगभग चौदहवीं सदी ई० में इस भू-भाग का नाम ‘बुन्देलखंड’ पड़ा।

बुन्देली भाषा अखंड बुंदेलखंड में बोली जाने वाली भाषा है। इसे ‘बुंदेलखंडी’ नाम से भी जाना जाता है। बुन्देली भाषा की आदि जननी संस्कृत है परंतु इसकी उत्पत्ति और विकास अपभ्रंश भाषा से हुआ है। बुन्देली भाषा के प्रयोग और इसके साहित्य के साक्ष्य प्राचीन काल से ही मिलते हैं। 11वीं-12वीं शताब्दी में चंदेल साम्राज्य के अन्तर्गत बुंदेली विकसित होती रही है। बुन्देलखण्ड के इतिहास में यह स्पष्ट है कि यहाँ पर स्वतन्त्रता के निमित्त लगातार संघर्ष होते रहे हैं। वीरों की यह भूमि अपने स्वाभिमान और समृद्धि के लिए प्रसिद्ध है। 

शोध पत्र / शोध प्रविधि 
बुन्देली भाषा और साहित्य 
बुन्देली भाषा का विकास अपभ्रंश से हुआ है और ये बुन्देलखंड की भाषा है। एक मत के अनुसार – बुन्देलाओं की भाषा को ‘बुन्देली’ माना जाता है। बुन्देलखण्ड अपनी ऐतिहासिक-साहित्यिक परम्पराओं के लिए दीर्घकाल से प्रसिद्ध रहा है।

‘बुन्देला’ शब्द की व्युत्पत्ति के संबंध में विभिन्न मत प्रचलित है। प्रथम मत के अनुसार – ‘बघेलखंड’ के सादृश्य पर ‘विंध्येलखंड’ नाम पड़ा जो कि कालांतर में ‘बुन्देलखण्ड’ बन गया। ‘विंध्य’ शब्द का अपभ्रष्ट रूप ही ‘बुन्देला’ है।

द्वितीय मत के अनुसार –  विन्ध्यवासिनी देवी से  संबंधित प्रचलित जनश्रुति के अनुसार, बुंदेलखंड के आदि पुरुष हेमकरण ने अपने राज्य के विस्तार के लिए देवी को रक्त की बूंदें अर्पित कीं। बूंद अर्पण करने के कारण हेमकरण और उसके वंशज ‘बुंदेला’ कहलाए।

बुन्देली विद्वानों की रचनाओं में बुन्देली लोकोक्तियों का भी पर्याप्त प्रयोग मिलता है जैसे –
बिना तत्व ज्ञान प्राणी भ्रमथ अनन्य भने ,                  
धोबी कैसे कुत्ता जैसे घर के न घाट के।

बुंदेली जनजीवन का वास्तविक परिचय वहां की संस्कृति और साहित्य से मिलता है। संस्कृति से संबंधित विभिन्न उपकरणों में दर्शन, धर्म, नीति, साहित्य, वेशभूषा, संस्कार, रूढ़ियाँ और जन विश्वास सम्मिलित होते हैं। बुंदेलखंड के सामाजिक जीवन में शिव, कृष्ण, राम, शक्ति आदि की विशिष्ट मान्यता रही है। इनके  अतिरिक्त आल्हा, हरदौल, दूल्हा देव आदि महान  चरित्र भी देवों के रूप में पूजे जाते हैं। 

बुंदेलखंड में बुंदेली भाषा को लगभग 400 वर्षों तक लगातार राजभाषा बने रहने का सौभाग्य प्राप्त रहा, ऐसा तत्कालीन राजाओं द्वारा किए पत्र-व्यवहार, ताम्रपत्र और सनदों से स्पष्ट होता है। डॉ कृष्ण लाल हंस ने बुंदेली के विकास को तीन रूपों में प्रस्तुत किया है –  काव्य भाषा के रूप में, राजभाषा के रूप में और लोक भाषा के रूप में। 

बुंदेलखंड की लोक संस्कृति के अध्येता डॉ० नर्मदा प्रसाद गुप्त भी सांस्कृतिक भाषाई एवं एवं भौगोलिक दृष्टि से सीमाएं मानते हैं। उत्तर प्रदेश शासन द्वारा बुंदेलखंड विकास निधि के प्रयोजन से 7 जिले – झाँसी, ललितपुर, जालौन, हमीरपुर, महोबा, बांदा तथा चित्रकूट इसमें सम्मिलित किए गए हैं। मध्य प्रदेश शासन ने बुंदेलखंड विकास प्राधिकरण के लिए पन्ना, छतरपुर ,टीकमगढ़ ,दतिया, सागर तथा दमोह को ‘बुंदेलखंड’ माना है। 

बुंदेली का सर्वाधिक विकास लोकभाषा के रूप में हुआ है मानव जीवन से संबंधित कोई ऐसा विषय नहीं जिससे संबंधित गीत बुंदेलखंड में प्रचलित न हो लोक गाथा में प्राय: वीर श्रृंगार और शांत रस प्रधान होता है। बुंदेली का विकास लोकोक्तियों, पहेलियों और मुहावरों के माध्यम से हुआ है जैसे –

लोकोक्ति 
नीम न मीठी होए खाओ गुड़ घी से।
जी को जौंन सुभाव जाए न जी से।।

पहेली
ऊंट मलंग को मका जाए हाकान हारो वालों को।              
बीनन हारी बीन कपास एक ही मोरी एक ही सास।

कहावत 
दूर जमाई फूल बिरोबर, गांव जमाई आदौ।
घर जमाई कुवर की नाई, मन आए सो लादौ।।

संस्कृति और विचारों के आदान-प्रदान से व्यक्ति समाज और क्षेत्र की पहचान होती है। देश, प्रदेश, शहर, गांव, मोहल्ले आदिकाल से ही विकसित होते आए हैं। आज भौतिकवादी युग में भी नए प्रतिमानों के साथ विकसित सभी भाषाएं अपनी हैं। पुरानी कहावत है कि

कोस कोस पे पानी बदले, चार कोस पे बानी।। 

बुन्देली भाषा में साहित्य सृजन प्रचुर मात्रा में हुआ है। 10वीं-11वीं सदी से प्रचलित बुन्देली भाषा चंदेल साम्राज्य से लेकर बुंदेला राज तक फलती-फूलती रही है। बुन्देली में साहित्य और लोक साहित्य सृजन की समृद्ध परंपरा रही है।

12वीं शताब्दी में जनकवि जगनिक द्वारा रचित ‘आल्हा खण्ड’ (परमाल रासो) बुन्देली का आदिकाव्य है। आज भी अखण्ड बुन्देलखण्ड में ‘आल्हा गायन’ का प्रचलन है। जगनिक पहले बुन्देली साहित्यकार हैं। ‘जगनिक’ के बाद ‘तुलसीदास’ ने रामचरित मानस, कवितावली, ‘केशवदास’ ने रामचंद्रिका, कविप्रिया, रसिकप्रिया, ‘ईसुरी’ ने ईसुरी की फागें, ‘अवधेश’ ने बुन्देल भारती, ‘डॉ रामनारायण शर्मा’ ने बुन्देली भाषा साहित्य का इतिहास, पेज तीन,  ‘डॉ बहादुर सिंह परमार’ ने बुन्देलखंड की साहित्यिक धरोहर, बुन्देली बसंत, ‘डॉ शरद सिंह’ ने बतकाव बिन्ना की और ‘सतेंद सिंघ किसान’ (मूलनाम – किसान गिरजाशंकर कुशवाहा ‘कुशराज झाँसी’) ने बुंदेलखंडी युबा की डायरी का सृजन कर बुन्देली साहित्य की श्रीवृद्धि की है। 

बुन्देली संस्कृति
खान-पान
बुन्देली संस्कृति की अनोखी भोजन व्यवस्था ‘पंगत’ है। बुंदेलखंड की पंगत के कारण भी हम बुन्देली संस्कृति पर गर्व करते हैं। पंगत यहॉं के खान-पान की अनोखी पहचान बनाती है। बुंदेलखंड में पंगत की प्रथा अनादिकाल से आज तक जारी है। पंगत की प्रथा बुंदेलखंडी समाज की देवीय भोजन व्यवस्था भी है। हमारे पूर्वजों द्वारा बनाई हुई व्यवस्था को परंपरागत स्वरूप देते हुए सबसे पहले जिस चूल्हे पर पंगत का भोजन तैयार होता है। उसकी पूजा-अर्चना होती है और जो भी पहले भोजन बनता है उसे अग्नि को समर्पित किया जाता है। 

बुंदेलखंड और बुंदेली संस्कृति दुनिया में अपनी अनोखी पहचान और अस्तित्व बनाए हुए हैं बुंदेली संस्कृति भारतीय संस्कृति की विशिष्ट शाखा के रूप में पल्लवित पुष्पित हुई है बुंदेली संस्कृति अपने अनोखे खान-पान, रहन-सहन, बोल-चाल, लेखन-पाठन, खेती-बाड़ी और पर्व- त्यौहार आदि के कारण विशेष स्थान बनाए हुए अनवरत चली आ रही है।

बुंदेलखंड का ग्रामीण क्षेत्र अविकसित होने के कारण निर्धन रहा है। महुआ तथा बेर यहां की गरीब बहुसंख्यक जनता का प्रिय भोजन है। कहावत है –  महुआ भलो राम को प्यारो।  गेहूं पिसी दगा सब दे गए महुअन देस हमारो।।

बुन्देलखण्ड के ग्रामीण लोग सत्तू प्रेम से खाते हैं, उसमें महंगे मसाले बांछित नहीं होते हैं नमक या गुण डाला और मजा आ गया। ‘बजीर’ नामक लोक कवि ने लिखा है – सतुआ लगे लुचाई सो प्यारो कलाकंद को कलाकंद को सारो।।

संपन्न घरों में बासी ‘लूचई’ तथा ‘अमिया को अथानों’ (पूडी/आम का अचार) प्रिय नाश्ता (कलेऊ) है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के चिरगांव निवास स्थान पर सभी आगंतुकों को यही नाश्ता सुलभ रहता था। प्रिय जनों तथा मेहमानों के लिए ताती जलेबी, लडूआ उत्कृष्ट नाश्ता माना जाता है।

त्योहारों पर अरहर की दाल बनाने का निषेध है,उसे हेय दृष्टि से देखा जाता है। पूनैं-अमावस पर धुली दालें तथा सिंबईयां बनाने की परंपरा है। अन्य बुंदेली व्यंजनों में माडे, फरा, लपसी, थोपा, पछियावर (गोरस), आवरिया, हिंगोरा, डुमरी लटा, मुरका, तेलु, मुसेला, गकरिया और भाजी का भुर्रा ऐसे नाम है, जो अन्यत्र दुर्लभ हैं। सामान्य अतिथियों के भोजन में सिंवईयां की खीर (चिरौंजी किसमिस गरी पड़ी हुई) बनाई जाती है।

बुन्देलखण्ड के ग्रामीण अंचलों में पिकनिक मनाने की परंपरा है किंतु उनका यह अंग्रेजी नाम प्रचलित नहीं है। जब महिलाएं ‘पिकनिक’ मनाने जाती है तो उसे ‘गकरिया खाने जाना’ कहते हैं। जब पुरुष पिकनिक पर जाते हैं तो उसे ‘गक्कड़ भोज’ अथवा ‘टिक्कड़ भोज’ कहते हैं। व्यंजन लगभग वही होते हैं। इसके साथ टमाटर, धनिया मिर्च की कुचली हुई मोटी-मोटी चटनी भी बनाते हैं।

वेश-भूषा 
किसी भी अंचल की लोक – संस्कृति को समझने के लिए वहां के नर-नारियों की वेशभूषा तथा आभूषणों की जानकारी बहुत जरूरी है। बुन्देली वेशभूषा में महिलाओं में ‘बाढ़’ पहनने का प्रचलन रहा है। यह विशेष प्रकार का ‘घाघरा’ होता है। समृद्ध परिवारों में इस पर चांदी या सोने की जरी की कढ़ाई मिलती है।

कुर्मी बहुल क्षेत्र में अभी भी बढ़-चोली, चुनरिया फैंट हुई लंबी आस्तीन वाले ब्लाउज पहनने की परंपरा है। यह नक्काशीदार भी होते हैं। श्रमिक महिलाएं / किसानिन और मजदूरिनें कांचवाली धोती पहनती है।

पुरुष सफा, पगड़ी, अंगोछा, बंडी, मिर्जई, फतुई,  कमीज, कुर्ता या धोती पहनते हैं। महिलाओं के लोक परिधान प्रायः इस ढंग से पहने जाते हैं कि उनके अधिकांश आभूषण दिखाई देते रहें। कुंवारी लड़कियां ‘कंडेला’ डालती हैं और विवाहित स्त्रियाँ ‘आंचल’ डालती हैं।

इस अंचल में आभूषण के प्रति प्रेम महिलाओं में अधिक है। वजनी आभूषण पहनने का रिवाज है। पैरों में ‘पैजना’ दो-तीन किलो वजन तक के होते हैं। गले की ‘सुतिया’ डेढ़-दो किलो तक वजन की होती है। समृद्ध परिवारों को छोड़कर  जिनमे स्वर्ण – आभूषणों का प्रचलन है। चांदी (विशेषकर रूप) के आभूषण अभी भी प्रचलित है। इन आभूषणों की संख्या सैकडों में है। कहीं-कहीं प्रचलन कुछ काम होता जा रहा है। 

निष्कर्ष 
निष्कर्षत: हम यह कह सकते हैं कि बुंदेली भाषा, साहित्य और संस्कृति का अपना एक अलग ही महत्व है। बुन्देली भाषा में लिखा गया साहित्य आज भी अपना महत्त्वपूर्ण स्थान बनाए हुए है। बुंदेली भाषा प्राचीन काल से अब तक नए-नए कीर्तिमान स्थापित करती हुई आ रही है और आगे भी करती रहेगी। हमारे बुंदेलखंड के प्रसिद्ध साहित्यकार श्री हरगोविंद कुशवाहा जी, डॉ० रवींद्र शुक्ला जी, डॉ० पवन तूफान जी, प्रोफेसर पुनीत बिसारिया जी, सांसद अनुराग शर्मा जी का बुंदेली भाषा, साहित्य और संस्कृति के प्रचार-प्रसार और सरंक्षण में विशेष योगदान रहा है।

लोक जीवन में राम 

संदर्भ 
(1) मिश्रा, डॉ० रंजना, सन 2016 ई०, बुन्देलखण्ड : सांस्कृतिक वैभव, दिल्ली, अनुज्ञा बुक्स, पृष्ठ-50.

(2) मिश्रा, डॉ० रंजना, सन 2016 ई०, बुन्देलखण्ड : सांस्कृतिक वैभव, दिल्ली, अनुज्ञा बुक्स, पृष्ठ-25.

(3) मिश्रा, डॉ० रंजना, सन 2016 ई०, बुन्देलखण्ड : सांस्कृतिक वैभव, दिल्ली, अनुज्ञा बुक्स, पृष्ठ-25.

(4) ‘कुमुद’, अयोध्या प्रसाद गुप्त, सन 2021ई०, बुंदेलखंड की लोक संस्कृति और साहित्य, नई दिल्ली, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत, पृष्ठ-5.

(5) मिश्रा, डॉ० रंजना, सन 2016 ई०, बुन्देलखण्ड : सांस्कृतिक वैभव, दिल्ली, अनुज्ञा बुक्स, पृष्ठ-31-32.

(6) ‘असर’, पन्ना लाल, सन 2015ई०, बुन्देली रसरंग, लखनऊ, भारत बुक सेंटर, पृष्ठ-xiv.

(7) शर्मा, डॉ० रामनारायण, सन 2001ई०, बुन्देली भाषा साहित्य का इतिहास, झाँसी, बुन्देली साहित्य समिति झाँसी

(8) झाँसी, कुशराज, 14 दिसंबर 2022, बुंदेलखंड की पंगत : अनोखी भोजन व्यवस्था, बुन्देली झलक, https://bundeliijhalak.com/bundelkhand-ki-pangat/

(9) ‘कुमुद’, अयोध्या प्रसाद गुप्त, सन 2021ई०, बुंदेलखंड की लोक संस्कृति और साहित्य, नई दिल्ली, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत, पृष्ठ-115.

(10) ‘कुमुद’, अयोध्या प्रसाद गुप्त, सन 2021ई०, बुंदेलखंड की लोक संस्कृति और साहित्य, नई दिल्ली, राष्ट्रीय पुस्तक न्यास, भारत, पृष्ठ-120.

©️ प्रीतिका बुधौलिया
(परास्नातक छात्रा – हिन्दी विभाग, बुन्देलखण्ड महाविद्यालय झाँसी, बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय झाँसी / इतिहासकार, सीसीआरटी, संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार की योगदानकत्री)
मो० – 8576052744
ईमेल – pritika079@gmail.com

©️ कल्पना नरबरिया
(परास्नातक छात्रा – हिन्दी विभाग, बुन्देलखण्ड महाविद्यालय झाँसी, बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय झाँसी)
मो० – 9565173840
ईमेल – Kalpanasingh1983.gmail.in

Bundeli Bhasha Aur Sahitya Ka Vikas बुन्देली भाषा और साहित्य का विकास एवं संरक्षण

बुन्देली भाषा मुख्य रूप से अखंड बुंदेलखंड में बोली जाने वाली भाषा है। इसे बुन्देलखंडी भाषा भी कहा जाता है। इसकी लगभग 25 बोलियाँ हैं। बुन्देली भाषा के प्रयोग और इसके साहित्य के साक्ष्य पुरातन काल से मिलते हैं। 12वीं सदी, विक्रमी संवत 1230 में कवि जगनिक द्वारा रचित आल्हा चरित‘ (परमाल रासो) को बुन्देली का आदिकाव्य और जगनिक को बुंदेली का आदिकवि माना जाता है। Bundeli Bhasha Aur Sahitya Ka Vikas evam Sanrakshan बुंदेलखंड की दिशा और दशा को सुसंस्कृत बनाएगा । 

बुन्देली भाषा चार सौ सालों तक राजभाषा रही। इसमें पद्य और गद्य साहित्य की रचना चंदेलकाल से आजतक होती आ रही है। बुंदेली साहित्य और लोकसाहित्य साहित्य की दुनिया में प्रतिष्ठित है। जनकवि जगनिक, तुलसीदास, आचार्य केशवदास, महाकवि ईसुरी, गंगाधर व्यास, आचार्य चतुर्भुज ‘चतुरेश’, मदनेश,  अवधकिशोर श्रीवास्तव ‘अवधेश’, रामचरण हयारण ‘मित्र’, घासीराम व्यास, कन्हैयालाल ‘कलश’, बनारसीदास चतुर्वेदी, भैयालाल व्यास ‘विंध्यकोकिल’, डॉ० नर्मदाप्रसाद गुप्त, डॉ० रामनारायण शर्मा, डॉ० बहादुर सिंह परमार, डॉ० बलभद्र तिवारी, डॉ० शरद सिंह, दुर्गेश दीक्षित, गंगाप्रसाद गुप्त ‘बरसैंया’, डॉ० अवध किशोर जड़िया, डॉ० राघवेंद्र उदैनियाँ ‘सनेही’, महेश कटारे ‘सुगम, सतेंद सिंघ किसान ‘कुसराज’ आदि प्रमुख बुन्देली साहित्यकार और भाषासेवी हैं।

बुन्देली भाषा और साहित्य के विकास एवं संरक्षण में साहित्यकारों, चंदेल राजाओं, बुन्देला राजाओं, भारत सरकार, उत्तर प्रदेश सरकार और मध्य प्रदेश सरकार के साथ ही बुन्देली वार्ता शोध संस्थान गुरसरांय झाँसी, बुन्देली विकास संस्थान बसारी छतरपुर, बुन्देली पीठ सागर विश्वविद्यालय, बुन्देलखंड साहित्य परिषद छतरपुर, बुन्देली भारती परिषद पृथ्वीपुर, बुन्देली झलक आदि संस्थाओं और मधुकर, बुन्देली वार्ता, मामुलिया, चौमासा, ईसुरी, बुन्देली बसंत, अथाई की बातें, खबर लहरिया, बुन्देली बौछार आदि पत्र-पत्रिकाओं का उल्लेखनीय योगदान है।

बीज शब्द
बुन्देली भाषा, बुन्देली साहित्य, बुन्देलखंडी, बुन्देलखण्ड, अखंड बुंदेलखंड, भाषा, साहित्य, विकास, संरक्षण।

मुख्य प्रतिपाद्य / प्रस्तावना
बुन्देली भाषा की उत्पत्ति और विकास अपभ्रंश से हुआ है, जिसकी आदिजननी भाषा संस्कृत है। बुन्देली भाषा और साहित्य विश्व पटल पर अपनी अनोखी पहचान रखता है क्योंकि बुन्देली भाषा और साहित्य के साक्ष्य विक्रमी 10वीं सदी से मिलते हैं। तभी से बुन्देली भाषा का प्रयोग विविध कार्य-व्यवहारों और साहित्य सृजन में होता आ रहा है। 12वीं सदी में रचा गया बुन्देली महाकाव्य ‘आल्हा’ सदियों से लोकगीतों में जनमानस की पहली पसंद बना हुआ है।

बुन्देली भाषा में कविता, महाकाव्य, कहानी, नाटक, निबंध और लोकगीत आदि का प्रचुर मात्रा में सृजन हुआ है और सूचना क्रांति से तारतम्य बनाते हुए सृजन जारी भी है। 10वीं सदी से लेकर आज 21वीं सदी तक आते-आते बुन्देली भाषा और साहित्य में अनेक बदलाओ हुए हैं। बदलाओ के चलते ही चार सौ वर्षों तक ‘राजभाषा’ के पद को सुशोभित करने वाली ‘बुन्देली भाषा’ अपने विकास के नए द्वार खोलने के लिए संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल होने के लिए सरकार और जनता का ध्यान आकर्षित कर रही है।

शोधपत्र / शोध-प्रविधि
बुन्देली भाषा
बुन्देली भाषा या बुन्देलखंडी भाषा अखंड बुन्देलखंड की भाषा है। इसका विकास अपभ्रंश से हुआ है। बुन्देली भाषा और साहित्य के विकास एवं संरक्षण का इतिहास बुन्देलखंड के इतिहास से जुड़ा हुआ है। अखंड बुन्देलखंड का अस्तित्त्व धरती की उत्पत्ति के समय से ही रहा है। इसे गोंडवानालैण्ड के नाम से जाना जाता रहा है। इस क्षेत्र का विस्तार विशाल भू-भाग में है।

पुराण काल में इसे चेदि महाजनपद के नाम से पहचाना जाता था। इस प्रदेश में दस नदियाँ बहने के कारण यह ‘दशार्ण प्रदेश’ भी कहलाया। विंध्य पर्वतमालाओं से घिरा होने के कारण इसे विंध्य भूमि की भी संज्ञा दी गई। कालान्तर में यह विन्ध्येलखण्ड के नाम से विख्यात हुआ। इसी विन्ध्येलखण्ड को आज बुन्देलखण्डके नाम से जाना जाता है। जिसे हम (किसान गिरजाशंकर कुशवाहा ‘कुशराज’) अखंड बुन्देलखंड मानते हैं। यहाँ के निवासी बुन्देलखंडीऔर बुन्देला कहलाए। (1.)

बुन्देली और बुन्देलखण्ड के बारे में भिन्न-भिन्न विद्वानों के भिन्न-भिन्न मत हैं। एक मतानुसार, अग्रलिखित प्रचलित दोहा बुन्देली भाषी क्षेत्र अखंड बुंदेलखंड की सीमा बतलाता है –
इत यमुना उत नर्मदा, इत चंबल उत टौंस।
छत्तसाल सों लरन की, रही न काहू हौंस।।

अखंड बुंदेलखंड की उत्तरी सीमा यमुना नदी और उत्तरी-पश्चिमी सीमा चंबल नदी निर्धारित करती है। इसके दक्षिण में मध्यप्रदेश के जबलपुर और सागर-संभाग तथा दक्षिण-पूर्व में बघेलखण्ड और मिर्जापुर की पहाड़ियाँ स्थित हैं।

बुन्देली और बुन्देलखंड के संबंध में प्रसिद्ध ग्रंथ ‘बुंदेली भाषा साहित्य एवं संस्कृति’ में प्रतिपादित डॉ० कन्हैयालाल ‘कलश’ का मत तर्कसंगत लगता है। उनके अनुसार – ” मुगलकाल की दरबारी भाषा में जैसे जेवर, जेर और पेश अर्थात अकार, इकार और उकार के उच्चारण विलोपन से ‘विंध्येला’ का इकार और उकार में तथा ‘ध्य’ शब्द मात्र ‘दकार’ में परिवर्तित होकर ‘बुन्देला’ शब्द प्रचलित हुआ। अतः इस क्षेत्र के लोग बुन्देला कहलाए और इनकी भाषा ‘बुन्देली भाषा’ कहलाई।

वस्तुतः, विक्रमी 10वीं सदीं विक्रमी में हमें बुन्देली में साहित्य सृजन होने का प्रामाणिक पता लगता है। विक्रमी 11वीं-12वीं सदी में चंदेल शासनकाल में बुन्देली पल्लवित-पुष्पित हुई। ‘मध्यदेश’ पर जब चंदेलों के बाद बुन्देलों का शासन आया, तब उनके नाम पर उनके द्वारा प्रयोग की जाने विशेष भाषा को ‘बुन्देली’ कहा जाने लगा।  ‘सर्वे ऑफ लिंग्विस्टिक‘ में डॉ० जॉर्ज ग्रियर्सन ने ब्रज और बुन्देली भाषा में मौलिक भेद बताकर बुन्देली को एक स्वतंत्र भाषा माना है और इसका नामकरण ‘बुन्देलखंडी’ किया। 

बुन्देलखंड क्षेत्र में बनाफर, सबर, गौंड, रीछ, निषाद, राउत, सौर आदि जातियों का उल्लेख अरण्य सभ्यता यानी वनवासी सभ्यता की जातियाँ के रूप में मिलता है। इनका वर्णन गोस्वामी तुलसीदास विरचित श्रीरामचरित मानस में भी किया गया है। विदुषी ‘लोपामुद्रा’ और महर्षि ‘पतंजलि’ यहाँ निवास करते थे। इन्हीं निवासियों की साहित्यिक भाषा ‘बुन्देली भाषा’ मानी गई। बुन्देलखंड में आज भी बनचारी, बनाफरी और शबरी, सौरयाई बोलियाँ जीवित हैं। जगनिक के परमाल रासो में ‘बनाफर’ शब्द का प्रयोग मिलता है, जिससे बुन्देली की प्राचीनता सिद्ध हो जाती है। 

बुन्देली भाषा-भाषियों की जनसंख्या दस-बारह करोड़ है। बुन्देली भाषा-भाषी प्रदेश ‘अखंड बुन्देलखंड’ में उत्तर प्रदेश के आठ जिले – झाँसी, ललितपुर, जालौन, हमीरपुर, महोबा, बाँदा, चित्रकूट, फतेहपुर और मध्य प्रदेश के चौबीस जिले – टीकमगढ़, निवाड़ी, सागर, पन्ना, छतरपुर, दमोह, जबलपुर, दतिया, शिवपुरी, गुना, अशोकनगर, ग्वालियर, भिंड, मुरैना, श्योपुर, विदिशा, भोपाल, नरसिंहपुर, नर्मदापुरम, रायसेन, सीहोर, छिंदवाड़ा, सिवनी, बालाघाट आदि आते हैं। इन्हीं बत्तीस जिलों को हम मानक बुन्देली भाषा-भाषी क्षेत्र मानते हैं। 

‘बुन्देली भाषा-भाषी क्षेत्र दर्शन’ के अन्तर्गत आलोचक डॉ० राम नारायण शर्मा जनपदीय क्षेत्र विशेष और जाति विशेष में बुन्देली भाषा के नाम का उल्लेख करते हैं, जिन्हें हम बुन्देली की बोलियाँ मानते हैं। उनके अनुसार अग्रलिखित बारह बोलियाँ हैं – शिष्ट हवेली, खटोला, बनाफरी, लुधियातीं, चौरासी, ग्वालियरी, भदावरी, तवरी, सिकरवारी, पवांरी, जबलपुरी, डंगाई। 

बुन्देलखंड में रहने वाले वाली जातियों की अपनी-अपनी बोलियाँ हैं। जातियों के आधार पर बुन्देली के प्रमुख बोलियाँ और उनकी जातियाँ इस प्रकार हैं –  कछियाई (काछी/कुशवाहा), ढिमरयाई (ढीमर/रायकवार), अहिरयाई (अहीर/यादव), धुबियाई (धोबी/रजक), लुधियाई (लोधी/राजपूत), बमनऊ (बामुन/ब्राह्मण/पंडित), किसानी (किसान), बनियाऊ (बनिया/व्यापारी), ठकुराऊ (ठाकुर/बुंदेला), चमरयाऊ (चमार/अहिरवार), गड़रियाई (गड़रिया/पाल), कुमरयाऊ या कुम्हारी (कुम्हार/प्रजापति), कलरऊ (कलार/राय), बेड़िया (बेड़नी/आदिवासी) आदि। 

यद्यपि लुधियातीं और लुधियाई बोली एक ही है इसलिए डॉ० रामनारायण शर्मा द्वारा प्रस्तुत उपर्युक्त बारह (12) बोलियाँ और हमारे द्वारा प्रस्तुत तेरह (13) बोलियाँ मिलाकर बुन्देली भाषा की 25 बोलियाँ मुख्य रूप से प्रचलित हैं। इनके अलावा भी बोलियाँ हैं, जिनका अभी संज्ञान में आना अपेक्षित है।

ओरछा नरेश मधुकर शाह जू देव बुन्देला, बुन्देलखंड नरेश महाराज छत्रसाल बुंदेला और झाँसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई के सरंक्षण में बुन्देली भाषा का विकास शिखर पर पहुँचा। लगभग सन 1531 से 1950ई के बीच लगातार चार सौ सालों बुन्देली राजभाषा के पद पर आसीन रही। ऐसा तत्कालीन राजाओं के शासकीय दस्तावेजों, ताम्रपत्र, सनदों और पत्रों से प्रमाणित होता है। 

आज 21वीं सदी में बुन्देली भाषा का साहित्य, शिक्षा, पत्रकारिता, सिनेमा और राजनीति के माध्यम से व्यापक प्रचार-प्रसार हो रहा है और बुन्देली विश्व पटल पर नए कीर्तिमान स्थापित करने जा रही है। अतः इस प्रकार, बुन्देली भाषा के विकास की विवेचना होती है।

बुन्देली साहित्य
बुन्देली साहित्य अपनी अनोखी विशेषताओं के कारण विश्वविख्यात है। बुन्देली भाषा के प्रयोग और इसके साहित्य के साक्ष्य पुरातन काल से मिलते हैं। 12वीं सदी, विक्रमी संवत 1230 में कवि जगनिक द्वारा रचित ‘आल्हा चरित’ (परमाल रासो) को बुन्देली का आदिकाव्य और जगनिक को बुंदेली का आदिकवि माना जाता है। बुन्देली भाषा चार सौ सालों तक राजभाषा रही।

बुन्देली भाषा में पद्य साहित्य और गद्य साहित्य की रचना चंदेलकाल से आजतक निरंतर होती आ रही है। बुंदेली साहित्य और लोकसाहित्य साहित्य की दुनिया में प्रतिष्ठित है। बुन्देली भाषा के विकास के इतिहास में इसकी विभाषाओं – शबरा और बनचरी के समानांतर साहित्य रचा गया। इस विकास का क्रमवार निरूपण करने हेतु बुन्देली भाषाविदों ने अपने-अपने दृष्टिकोण से चरणबद्ध विभाजन किया।

बुन्देली भाषाविज्ञानी कन्हैयालाल ‘कलश’ ने अपने ग्रंथ ‘बुन्देली भाषा साहित्य एवं संस्कृति’ में बुन्देली साहित्य को अपभ्रंश काल से लेकर आधुनिक काल तक भाषाई दृष्टिकोण से आठ चरणों में विभाजन किया है।

वहीं डॉ० राम नारायण शर्मा ने अपने ग्रन्थ बुन्देली भाषा साहित्य का इतिहास में पूर्ववर्ती भाषा और साहित्य के इतिहास के विभाजन से सामंजस्य रखते हुए और जनता के बीच प्रचलित अलिखित साहित्य, दादी-नानी की कहानियाँ, कहावतें और लोकगीत आदि को दृष्टिगत रखते हुए काल विशेष की साहित्यिक प्रवृत्तियों के आधार पर बुन्देली साहित्य को चार कालों में विभाजित किया है। काल विशेष में साहित्य विशेष और कवि एवं साहित्यकार को प्रमुखता दी गई है।

डॉ० रामनारायण शर्मा के अनुसार चार कालों का विभाजन इस प्रकार है –
1- शौर्य्य एवं गाथा काल (10वीं से 14वीं सदी तक)
2- उपासना और लीलामृत काल (14वीं से 17वीं सदी तक)
3- श्रृंगार काल पूर्वार्द्ध-उत्तरार्द्ध (17वीं से 19वीं सदी तक)

श्रृंगार काल उत्तरार्द्ध
कवित्रय काल – ईसुरी, गंगाधर, ख्यालीराम।
चतुरंगिनी काल और फड़ साहित्य काल
काव्य चतुष्टय काल- चतुरेश नीखरा, आचार्य चतुर्भुज ‘चतुरेश’ ,कुलपहाण के चतुरेश, दतिया के चतुरेश

4- आधुनिक और वार्ताकाल (19वीं सदी से आज तक) (14.)

वहीं डॉ० आरती दुबे की पुस्तक बुन्देली में उल्लिखित काल-विभाजन इस प्रकार है –
1- विक्रमी संवत 10वीं सदी से 14वीं सदी तक का बुंदेली साहित्य – शौर्यकाल एवं गाथाकाल।
2- विक्रमी संवत 14वीं सदी से 17वीं सदी तक का बुंदेली साहित्य – रीतिभक्ति काव्य काल।
3- विक्रमी संवत 17वीं सदी से 19वीं सदी तक का बुंदेली साहित्य – श्रृंगार काव्य एवं सांस्कृतिक उन्मेष काल।
4- विक्रमी संवत 19वीं सदी से आज तक का बुंदेली साहित्य – आधुनिक काव्यकाल एवं गद्य काल। 

हम (किसान गिरजाशंकर कुशवाहा उर्फ सतेंद सिंघ किसान) बुन्देली साहित्य को इस प्रकार चार कालों में विभाजित करना उचित समझते हैं –
पुरातन काल – बीरकिसा काल (विक्रमी 10वीं सदी-14वीं सदी)
मंझला काल – भगती काल (विक्रमी 14वीं सदी-17वीं सदी)
संजला काल – सिंगार काल (विक्रमी 17वीं सदी-19वीं सदी)
अधुनातन काल – गद्य काल ( विक्रमी 19वीं सदी-आज तक)

बुन्देली पद्य / काव्य साहित्य
डॉ० राम नारायण शर्मा के अनुसार बुन्देली साहित्य का पहला काल ‘शौर्य काल एवं गाथा काल’ (10वीं से 14वीं सदी) है। इस काल में मुख्य रूप से कवियों ने आश्रयदाता राजाओं और उनकी सेना के शौर्य की प्रशंसा करने वाली और  वीरता की गाथा सुनाने वाली रचनाएँ ही की हैं। इस काल में गद्य के प्रयोग साहित्य में नाममात्र के देखने को मिलते हैं। इस काल को हम बीरकिसा काल की संज्ञा देते हैं। इस काल का प्रमुख ग्रन्थ आल्हा खंड है। जिसे हम आल्हा चरित कहना ज्यादा उचित समझते हैं क्योंकि इसमें मुख्य रूप से आल्हा-ऊदल की वीरता का बखान है।

बुन्देली साहित्य और लोक साहित्य की सुदीर्घ परंपरा रही है। डॉ० आरती दुबे बुन्देली साहित्य की शुरूआत विक्रमी 10वीं सदी से मानती हैं लेकिन चंदेल राजवंश के आखिरी शासक राजा परमार्दिदेव उर्फ परमाल के शासनकाल के दौरान 12वीं सदी, विक्रमी संवत 1230 (सन 1173 ईस्वी) में कवि जगनिक द्वारा रचित ‘आल्हा चरित’ (परमाल रासो) बुन्देली का आदिकाव्य और जगनिक बुंदेली के आदिकवि हैं। आल्हा सदियों तक अल्हैतों द्वारा गाया जा रहा और विश्व की सबसे लंबी लोकगाथाओं में शुमार हो गया।

श्रीकृष्ण पुस्तकालय चौक, कानपुर से प्रकाशित विख्यात आल्हा गायक अमोल सिंह ने अपनी पुस्तक में बावन लड़ाईयों का वर्णन जनश्रुति के आधार पर किया है जबकि जनजातीय लोक कला एवं बोली विकास अकादमी, मध्यप्रदेश संस्कृति परिषद, मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय, भोपाल से सन 2001 में प्रकाशित ग्रंथ “चंदेलकालीन लोक महाकाव्य  ‘आल्हा’ प्रामाणिक पाठ” में प्रो० नर्मदा प्रसाद गुप्ता ने तेईस लड़ाईयों का उल्लेख किया है।

आल्हा की निम्नलिखित पंक्तियाँ वीर- क्षत्रियों के जीवन को चरितार्थ करती हैं –
बारह बरस लौं कूकर जीवैं, अरु तेरह लौं जियें सियार।
बरस अठारा छत्री जीवैं, आगे जीबन को धिक्कार।।

जनकवि जगनिक खुद युद्ध में लड़ते थे और  अपने नायक का शौर्यवर्द्धन भी करते थे। वीर रस के ऐसे कई प्रसंग लोक प्रचलित आल्हा में मिलते हैं। जैसे – 
चली सिरोही दोऊ तरफ सें अंधाधुंद चली तरवार।
कट कट सीस गिरै धरती पै उठ उठ खंड करै तरवार। 
जगनिक के साथ इस काल के प्रमुख कवियों और उनकी रचनाओं में विष्णुदास (महाभारत, स्वर्गारोहण एवं रामकथा/रामायन), मानिक कवि (बेताल पच्चीसी), थेघनाथ (गीता का पद्यानुवाद), छीहल अग्रवाल (बावनी) आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

आचार्य हरिहर निवास द्विवेदी ने ‘मध्यदेशीय भाषा’ नामक ग्रंथ के परिशिष्ट में विष्णुदास, मानिक कवि और थेघनाथ की काव्य-भाषा को ग्वालियरी-बुन्देली माना है। डॉ० राम नारायण शर्मा के अनुसार बुन्देली साहित्य का दूसरा काल ‘उपासना और लीलामृत काल’ (14वीं से 17वीं सदी) है। इस काल में भक्ति परक काव्य की प्रचुरता में रचना हुई। जिसमें भगवत भक्ति और राज भक्ति प्रमुख है। इसलिए इसे हम ‘भगती काल’ कहते हैं।

इस काल के प्रमुख कवियों और उनकी रचनाओं में बलभद्र मिश्र (शिखनख, बलभद्री व्याकरण, गोवर्धन सतसई), हरिराम व्यास (रागमाला), कृपाराम (हित तरंगिणी), गोविंद स्वामी (बुन्देल वैभव भाग-1), तुलसीदास (रामचरितमानस, विनय पत्रिका), केशवदास (रामचंद्रिका, कविप्रिया, रसिक प्रिया, नखशिख), राय प्रवीन, भूषण (छत्रसाल दशक), महाराजा इंद्रजीत सिंह, गुलाब कवि, बलभद्र कायस्थ, मंडन मिश्र, रतनसेन, मोहनदास मिश्र आदि।

कृपाराम की बुन्देली भाषा की बानगी देखिए –
तौ लौ ठानैई रहे, सून पनौ प्यौ जान।
जौ लौ चित्त ना सुनै, मेरी बांकी तान।। 

केशवदास के इस पद में बुन्देली की स्पष्टत झलक मिलती है –
उल्टौ सूधौ बांचिए, एकहि अर्थ प्रमान।
कहत गतागत ताहि कवि, केशवदास सुजान।। 

राय प्रवीण ने अपनी कविता से हरम के प्यासे मुगल सम्राट अकबर को स्त्री अस्मिता और स्वाभिमान की रक्षा करने हेतु कहा और अकबर को पराजित किया –
विनती राय प्रवीण की, सुनिए साह सुजान।
झूठी पातर भखत हैं, बायस-बारी-स्वान।।  

तुलसीदास जी धर्म-परिवर्तन और धार्मिक अत्याचारों का विरोध करते हुए कहते हैं
जब जब होय धरम की हानि।
बाढ़हि असुर, अधम अभिमानी।
तब-तब प्रभु धर मनुज सरीरा।
हरहिं कृपा निधि सज्जन पीरा।।  

डॉ० राम नारायण शर्मा के अनुसार बुन्देली साहित्य का तीसरा काल ‘श्रृंगार काल पूर्वार्द्ध-उत्तरार्द्ध’ (17वीं से 19वीं सदी) है। इसे डॉ० आरती दुबे ‘श्रृंगार काव्य एवं सांस्कृतिक उन्मेष काल’ की संज्ञा देती हैं। इस काल में श्रृंगार या प्रेम प्रधान काव्य और रीतिपरक रचनाओं की प्रधानता रही इसलिए हम भी इसे ‘सिंगार काल’ ही मानते हैं।

इस काल के प्रमुख कवि और उनकी रचनाओं में बिहारी (बिहारी सतसई), छत्रसाल (कृष्णावतार, राम ध्वजाष्टक, फुटकल कवित्त), अक्षर अनन्य (अनन्य प्रकाश, अनन्य की कविता, ज्ञान पचासा), बख्शी हंसराज (सनेह सागर, फाग तंरगिनी), बोधा, ठाकुर (ठाकुर ठसक), पद्माकर (प्रबोध पचासा, जगत विनोद), ईसुरी ( ईसुरी की फागें ), गंगाधर व्यास (भरथरी चरित, नीति मंजरी), ख्याली राम (ख्यालीराम की फागें) इनके अतिरिक्त गोरेलाल ‘लाल कवि’, खुमान कवि, बन्दीजन कवि, मान कवि, खूबचंद इत्यादि के नाम उल्लेखनीय हैं।

बिहारी का यह दोहा नायिका के रूप – सौन्दर्य की कसौटी पर खरा उतरता है –
लिखन बैठि जाकी सबी, गहि-गहि गरब गरुर।
भये न केते जगत के, चतुर चितेरे क्रूर।।

बख्शी हंसराज ने सनेह सागर में बख्शी बुंदेलखंड के वैवाहिक रीति-रिवाजों को अभिव्यक्ति दी है –  “
पांचन पंच इन्द्रियन जुरकै धीरज खंभ गड़ायौ।
काम कलस आनंद नीर भर चित कौ चौक पुरायौ ।। 

ठाकुर ने हिम्मत बहादुर को एक बार अपने शत्रुओं से सचेत करते हुए लिखा था –
कहबे सुनिबे की कछू न हियाँ,
न कही न सुनी को दुख पाबनो है।
इनकी सबकी मरजी करकै,
अपने जिय को समुझाबनो है।
कहि ठाकुरलाल के देखिबे को,
निज मंत्र यही ठहरावनो है।
इन चौदह हायन में परि के,
समयो यह वीर बरावनो है।

पद्माकर प्रकृति के सौंदर्य का वर्णन करते हुए रचते हैं –
कूलन में केलिन में कुंजन में कछारन में।
बागन में बेलिन में बगरौ बसंत है।।

ईसुरी बुन्देली के महाकवि हैं। ईसुरी की फागों में उनकी प्रेमिका और नायिका ‘रजऊ’ का उल्लेख बहुतायत हुआ है –
सोभा रजउ की कीसें कइए, किये उनारन जइये।
बड़कै चीज इकइसों सौनौ, ईखौ का परखइये।
सबइ सरापा एक तरफ है, जौहरी काँ सैं लइए।
साजी फागें कहीं ईसुरी‘, सुगर सुनइया चइये।।

राम नाम के महत्त्व को समझाते हुए ईसुरी कहते हैं –
जिनके रामचंद रखवारे, को कर सकत दगारे।
बड़े भये प्रह्लाद पक्ष में, हिरनाकुश को मारे।
राना जहर दऔ मीरा खों, प्रीतम प्रान समारे।
मसकी जाय ग्राह की गरदन, गह गजराज निकारे।
ईसुरप्रभु ने लाज बचाई, सिरपै गिरत हमारे।।

ख्यालीराम का श्रृंगार परक एवं नखसिख वर्णन हर किसी को प्रेम की ओर आकर्षित करता है –
बूंदा दओ बेंदी के नीचें, प्रान लेत हैं खींचे।
मानो जलज शुक्र तारागण बसत चन्द्र के नीचें।

डॉ० राम नारायण शर्मा के अनुसार बुन्देली साहित्य का चौथा काल ‘आधुनिक और वार्ताकाल’ (19वीं से आज तक) है। इसे डॉ० आरती दुबे ‘आधुनिक काल – गद्य काल’ की कहती हैं और हम इसे ‘अधुनातन काल – गद्य काल’ मानते हैं। इस काल में गद्य के साथ तत्कालीन देश और समाज की परिस्थितियों, समस्याओं और समाज-कल्याण की भावना को ध्यान में रखकर पद्य का सृजन भी बहुतायत हुआ है।

इस काल के प्रमुख कविओं और उनकी रचनाओं में आचार्य काली कवि (हनुमतपताका), वृषभान कुंवरि (लीलामृत सार), चार चतुरेश कवि क्रमशः चतुरेश नीखरा झाँसी (झाँसी रानी का रायसो), चतुर्भुज शर्मा ‘चतुरेश’ दतिया (हंसी का फौब्बारा), चतुरेश पाराशर कुलपहाड़, आचार्य चतुर्भुज ‘चतुरेश’ भसनेह झाँसी (गौ-अवतार, फुलकल रचनाएँ), मदन मोहन द्विवेदी ‘मदनेश’ (लक्ष्मीबाई रासो), नाथूराम माहौर (दीन का दाबा, गोरी बीबी), मैथिलीशरण गुप्त (भारत भारती, साकेत), रामचरण हयारण ‘मित्र’ (लौलईयाँ, बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य), घासीराम व्यास (वीर ज्योति), वियोगी हरि (मेरी हिमाकत, पगली, वीर हरदौल), भगवान सिंह गौड़ (अथाई की बातें), कन्हैयालाल ‘कलश’ (दीपशिखा, बुन्देली आने अटके, बुन्देली भाषा का व्याकरण, बुन्देली भाषा साहित्य और संस्कृति, चतुरंगिनी), भैयालाल व्यास ‘विंध्यकोकिल’ (विजयादसमी, साँझ सकारे), कृष्णानंद व्यास ‘बेआस’ (लाला हरदौल, सांस्कारिक बुन्देली गीत, पुजयारन के पाप), संतोष सिंह बुन्देला (गाँव की संध्या), अवध किशोर श्रीवास्तव ‘अवधेश’ (बुन्देल भारती, श्रमणा, बुन्देली पंचतंत्र), नर्मदा प्रसाद गुप्त (संपादन- मामुलिया, लोक महाकाव्य आल्हा, ईसुरी की प्रामाणिक फागें, बुन्देलखंड का साहित्यिक इतिहास, बुंदेलखंड लोक संस्कृति का इतिहास), गंगा प्रसाद ‘बरसैंया’ (बुन्देलखंड के अज्ञात कवि), दुर्गेश दीक्षित (गमईयंन के गाँधी, सगुन की हरईया), लोकेंद्र सिंह नागर (ईसुरी की फागों का संपादन), राघवेंद्र उदैनियाँ ‘सनेही’ (बेर-मकुईंयाँ), अवध किशोर जड़िया (वंदनीय बुन्देलखंड, कारे कन्हाई के कान लगी है), कैलाश मडबैया (जय वीर बुन्देले ज्वानन की), महेश कटारे सुगम (गाँव के गेंवड़े, अब जीवै को एकई चारौ), रमेश कुमार पुरोहित (आदमी से सावधान), प्रताप नारायण दुबे, राना लिधौरी (उकताने),सतेंद सिंघ किसान (किसान की आबाज), अभिषेक बबेले (वीरगति) आदि के नाम उल्लेखनीय हैं।

‘गौ’ भारतीय संस्कृति की द्योतक है। आचार्य चतुर्भुज ‘चतुरेश’ गौ-रक्षा हेतु चिंतित हैं-
साँचउँ गैया के बिना, जीवन जियौ न जाय।
हे भारत के भाईयों गैया लेहु बचाय।।

मदन मोहन द्विवेदी ‘मदनेश’ झाँसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई पर दोहा रचते हैं.       बाई नै दीनों हुकुम को यह काकौ आय।
कहौ वेग लै जाय गज, ऊधम रयौ मचाय।।

नाथूराम माहौर की यह कविता मातृभूमि और बुन्देलखंड प्रेम को दर्शाती है –

नोनों खंड बुंदेल हमारौ, नोऊँ खंड को न्यारौं
बालमीक तुलसी केसब भए, जई में सुकवि हजारौं
आला-ऊदल, मधुकर चंपत, बैरिन को मद झारौ
वीरसिंह देव छत्ता भयो, रन में कभउँ न हारौ
बाई लक्ष्मी रानी जई में धारौ नगन दुधारौ
दीनी सूर सिरोमनि जई में भए अनगिनत विचारौ।।

कन्हैयालाल ‘कलश’ इस गीत में बुंदेली लोकजीवन की दिनचर्या का सुंदर चित्रण किया है-

सूरज ऊरौ तारन तार, धरती करन लगी सिंगार।
मन्दिर की बज उठी झालरें
खुले गाँव के द्वार।
सारन में बज उठीं दुहनियां,
मुरली स्वर उन्हार।
हिमगिरि कैसों कजरी कौंछर,
स्त्रवत दूध की धार।

भैयालाल व्यास ‘विंध्यकोकिल’ बुंदेली-बसंत का चित्रण करते हुए रचते हैं –
गैंदा फूल रये बागन में आ गऔ बसंत।
गैंदा फूल रये रापन में गा रऔ बसंत।।

कृष्णानंद व्यास ‘बेआस’ भ्रष्टाचार का खुलासा करते हुए लिखते हैं –
रिसवत सबई जगां भई चालू,
का तरवा का तांलू।
बिन पइसा के कोऊ न चीनें,
का मामू का खालू।।

संतोष सिंह बुन्देला की ‘हमारे रमटैरा की तान’ कविता बहुत लोकप्रिय हुई। प्रस्तुत हैं उसके अंश –
हमारे रमटैरा की तान, समझ लौ तीरथ कौ प्रस्थान,
जात है बूढ़े बालै ज्वान, जहाँ पै लाल ध्वजा फहराय।
नग नग दैह फरक बै भइया, जौ दीवाली गायें।।

नर्मदा प्रसाद गुप्त बुंदेली भाषा का बखान करते हुए रचते हैं –

बोलिन में प्यारी बुंदेली, सबसे रई अलबेली।
जनम लओ बुंदेलखंड में, चंदेलन संग खेली।
प्राकृत माता की जा तनया, ब्रजी की आय सहेली।
मउआसी मीठी मदमाती, मिसरी कैसी ढेली।
ठुमकत ठुमकत ठसकीली, दरपीली गरबीली,
सेन चिरैया जा प्रसादकी अपनी घाँई अकेली।।

दुर्गेश दीक्षित अपनी कविता ‘प्यारे बापू काँ गये’ में लिखते हैं –
अंग्रेजन के मारें सवरे, उकरादै हो गये ते।
मनकौ धन कर लओ तो उन्नें, यैंन धराते लये ते।।

राघवेंद्र उदैनियाँ ‘सनेही’ अपनी कविता चलीं बीनबे बेर-मकुइँयाँ बुन्देली लोकजीवन का मनोहारी चित्रण करते हैं –
रती गौमती, पारबती, औ रामकली, रमुकुइयाँ,
लयें गुटउआ चलीं बीनबे हिलमिल बेर मकुइँयाँ।
परीं प्यार में कथरी ओड़ें, बाट घा में हेरें,
सोसें बेर-मकुइँयाँ बींनन जानें हमें सबेरें,
निरख उरइयाँ उठीं सपाटें झट्टइं धोलइँ गुइयाँ।
रती गौमती, पारबती, औ रामकली, रमकुइयाँ,
लयें गुटउआ चलीं बीनबे हिलमिल बेर-मकुइँयाँ ।।

महेश कटारे ‘सुगम’ अपनी गजल में लिखते हैं – 

मान्स सबई बेघर हो जें तौ
गाँव-गाँव ऊजर हो जें तौ
सोचौ तौ जब भेंस बराबर
करिया सब अक्षर हो जें तौ
का हुइयै जब भले आदमी
सत्ता सें बाहर हो जें तौ
सबरौ खून बेई पी जें हैं
नेता सब मच्छर हो जें तौ…।।  

सतेंद सिंघ किसान (कुशराज बदलाओकारी) ‘किसान विमर्श’ की अपनी कविता ‘किसान की आबाज’ में किसान-सुधार की बात करते हैं –
तुम औरें मारत रए भैंकर मार
और मार रए अबै भी
धीरें – धीरें सें
धरम, जात, करजा और कुरीतयंन मेँ बाँधकें
अन्धविश्वास, जुमले और बेअर्थ कानून बनाकें
पढ़ाई-लिखाई सें बंचित करकें
लूटत रए हमें
पर
अब हम जग गए हैं
अपन करम की कीमत पैचान गए हैं
अबसें हम अपन फसल कै दाम खुद तै करहैंगे
अपन मैनत कौ पूरो फल चखहैंगे।।  

अतः इस प्रकार पुरातन काल से अधुनातन काल तक के बुन्देली काव्य – पद्य साहित्य की विवेचना होती है।

बुन्देली गद्य साहित्य 
बुन्देली गद्य की शुरुआत 16-17वीं सदी से मानी जाती है। बुन्देला शासन काल जब बुन्देली राजभाषा थी अभी से सरकारी पत्रों, शिलालेखों आदि में बुन्देली गद्य का प्रयोग होता रहा है। अक्षर अनन्य का ‘अष्टांग योग’ बुन्देली गद्य साहित्य का शुरुआती ग्रंथ है।

सन 1701 में लिखी गई ‘बारह राशि नव भरन’  पूर्ण रूप से बुंदेली गद्य रचना है। 1726 में लिखित मीनराय प्रधान के ग्रंथ ‘हरतालिका की कथा’, 1764 में भास्कर रामचंद्र भालेराव के लोकवार्ता संग्रह ‘चकवा की परंपरा’ के साथ ही अष्टमाम मानसी पूजा और नासिकेतोपाख्यान, स्वप्न परीक्षा (1793), रामश्वमेघ (1705), भारतवार्तिक (1864), कवि पद्माकर कृत हितोपदेश का अनुवाद – राजनीति की वचनिका (1822-23), व्यंग्यार्थं कौमुदी (1825), श्रीम‌द्भागवत महापुरान (1862) में बुन्देली गद्य का ऐतिहासिक विकास देखा जा सकता है। (20.)

19वीं सदी में ओरछा महाराज ने पंडित बनारसीदास चतुर्वेदी और यशपाल जैन जैसे विद्वानों से ‘मधुकर’ और ‘लोकवार्ता’ जैसी पत्रिकाएँ प्रकाशित कराके बुंदेली गद्य के विकास में युगांतकारी योगदान दिया।

अधुनातन काल – गद्य काल (19वीं सदी से आज तक) में कहानी/किसा, उपन्यास, निबंध/आलेख, नाटक, एकांकी, पत्र, डायरी, आलोचना, सिनेमा आदि गद्य विधाओं के बुन्देली साहित्यकार और उनकी रचनाएँ इस प्रकार हैं –

बुन्देली में लोक कहानियों के प्रचलन और उनके संकलन-संपादन के साथ ही बुन्देली में कहानी / किसा लेखन बहुतायत से हुआ है। कहानी / किसा में इन कहानीकारों और उनकी कहानियों का उल्लेखनीय योगदान है – शिवसहाय चतुर्वेदी (गौने की विदा, ई हात दे ऊ हात ले), हरगोविंद गुप्त, गोविंद मिश्र (फांस), भगवान सिंह गौड़ (अथाई की बातें), डॉ० राम नारायण शर्मा (चिरुआ, ), डॉ० रामशंकर भारती (रमरतिया, गुलाबो, पंचनदे कौ मेला), सतेन्द सिंघ किसान (रीना, पिरकिती) इत्यादि। 

बुन्देली में उपन्यास लेखन प्रायः कम ही हुआ है। सन 2008 में प्रकाशित डॉ० राम नारायण शर्मा द्वारा लिखित ‘जय राष्ट्र’ को बुन्देली का पहला उपन्यास माना जाता है। जबकि बुन्देलखंड क्षेत्र के प्रतिष्ठित हिन्दी उपन्यासकारों जैसे- वृन्दावनलाल वर्मा, मैत्रेयी पुष्पा इत्यादि ने अपने उपन्यासों के संवादों में बुन्देली भाषा का प्रयोग बहुतायत से किया है।

बुन्देली में निबंध / आलेख लेखन पर्याप्त मात्रा में हुआ है। निबंध में कन्हैया लाल ‘कलश’ (बुंदेली बोली कौ उगरौ और उन्सार), आसंका गीता की (अक्षर अनन्य), बुंदेली भासा की चिंहार (गंगाराम शास्त्री), पं० बनारसी दास चतुर्वेदी और कुंडेश्वर (दुर्गेश दीक्षित), डॉ० राम नारायण शर्मा (पेज तीन), आचर्य बहादुर सिंह परमार (निहारौ नोंनों बुन्देलखण्ड ), डॉ० शरद सिंह (बतकाव बिन्ना की), सुरेंद्र अग्निहोत्री (त्योहारन कौ मेला), सतेंद सिंघ किसान (राम बिराजे) आदि उल्लेखनीय हैं।

बुन्देली नाटक में पद्मनाथ तैलंग (गाँव गॉंव है और सहर सहर), बलभद्र तिवारी (आल्हा-ऊदल), डॉ० महेन्द्र वर्मा (सारंधा), श्याम मनोहर जोशी, अवध किशोर श्रीवास्तव ‘अवधेश’ (मूसर की करामत और दसरये कौ मेला, नाटिका-वाटिका) और बुन्देली एकांकी में भगवत नारायण शर्मा (भारत की बेटी) इत्यादि उल्लेखनीय हैं।

बुन्देली आलोचना में कन्हैयालाल ‘कलश’, डॉ० नर्मदाप्रसाद गुप्त, डॉ० रामनायरण शर्मा, डॉ० आरती दुबे, प्रो० बहादुर सिंह परमार, डॉ० शरद सिंह इत्यादि का नाम उल्लेखनीय है।

बुन्देली डायरी लेखन में डॉ० राम नारायण शर्मा और गिरजासंकर कुसबाहा ‘कुसराज झाँसी’ (बुंदेलखंडी युबा की डायरी) का नाम उल्लेखनीय है। (22.)

बुन्देली सिनेमा-फिल्म के क्षेत्र में अभिनेता राजा बुंदेला, राम बुंदेला, सुष्मिता मुखर्जी (किसने भरमाया मेरे लाखन को), आशुतोष राणा, देवदत्त बुधौलिया (ढलकोला), आरिफ शहड़ोली (गुठली लड्डू), जित्तू खरे बादल (किसान का कर्ज), हरिया भैया (जीजा आओ रे), किशन कुशवाहा उर्फ कक्कू भैया (शकिया बालम), मिस प्रिया बुन्देलखंडी ( एसडीएम पत्नी) इत्यादि का नाम उल्लेखनीय है।

बुन्देली भाषा और साहित्य का सरंक्षण
बुन्देली भाषा और साहित्य के विकास एवं संरक्षण में साहित्यकारों, चंदेल राजाओं, बुन्देला राजाओं, भारत सरकार, उत्तर प्रदेश सरकार और मध्य प्रदेश सरकार के साथ ही बुन्देली वार्ता शोध संस्थान गुरसरांय झाँसी, बुन्देली विकास संस्थान बसारी छतरपुर, बुन्देली पीठ सागर विश्वविद्यालय सागर, हिन्दी विभाग बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय झाँसी, हिन्दी विभाग महाराजा छत्रसाल बुन्देलखण्ड विश्वविद्यालय छतरपुर, बुन्देलखंड साहित्य परिषद छतरपुर, बुन्देली भारती परिषद पृथ्वीपुर, बुन्देलखंड साहित्य उन्नयन समिति झाँसी (अध्यक्ष – आचार्य पुनीत बिसारिया), बुन्देली झलक (संस्थापक – गौरीशंकर रंजन), अखंड बुंदेलखंड महाँपंचयात झाँसी आदि संस्थाओं एवं मधुकर, बुन्देली वार्ता, मामुलिया, चौमासा, ईसुरी, बुन्देली बसंत, अथाई की बातें, खबर लहरिया, बुन्देली बौछार आदि पत्र – पत्रिकाओं के साथ ही बुन्देलखंड के जीवंत विश्वकोश हरगोविंद कुशवाहा, राजा बुन्देला (खजुराहो फिल्म महोत्सव, ओरछा साहित्य महोत्सव), आचार्य बहादुर सिंह परमार (बुन्देली उत्सव बसारी, संपादन – बुन्देलखंड की छन्दबद्ध काव्य परंपरा, बुन्देलखंड की साहित्यिक धरोहर, बुन्देली लोक साहित्य, बुन्देली व्यंजन,  छतरपुर जिले की लोक कथाएँ, होरी : बुन्देली में होली गीत, ‘बुन्देली बसंत’ पत्रिका, मिठौआ है ई कुआँ को नीर – संतोष सिंह बुन्देला, ‘अथाई की बातें’ तिमाही पत्रिका), आचार्य पुनीत बिसारिया (बुन्देलखंड लिटरेचर फेस्टिवल-2020, संपादन – बुन्देली महिमा, बुन्देली काव्य धारा, बुन्देली के भूले-बिसरे गीत), पन्नालाल असर (संपादन – बुन्देली रसरंग, बुन्देली के भूले-बिसरे गीत), सांसद अनुराग शर्मा (संस्थापक – बुन्देलखंड विरासत संस्थान, बुन्देलखंड विश्वविद्यालय, झाँसी) इत्यादि बुन्देली सेवियों का उल्लेखनीय योगदान है। (23.)

19 नवंबर 2021 को राष्ट्र रक्षा समर्पण पर्व के अवसर पर झाँसी में माननीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा बुन्देली भाषा में भाषण देना और राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के तहत क्षेत्रीय भाषाओं में निहित बुन्देली भाषा की शिक्षा और बुन्देली माध्यम में शिक्षा के विशेष प्रावधान होना बुन्देली भाषा के विकास और संरक्षण को नए आयाम प्रदान करता है।

निष्कर्ष
निष्कर्ष रूप में हम कह हैं कि 10वीं सदी से लेकर आज तक बुन्देली भाषा में पद्य साहित्य और गद्य साहित्य का बहुतायत से सृजन हुआ है। साहित्य ने बुन्देली भाषा के विकास में महनीय योगदान दिया है। बुन्देली साहित्य को काल विशेष की साहित्यिक विशेषताओं के आधार पर चार कालों में विभाजित किया गया।

जगनिक, तुलसी, केशव, कन्हैयालाल ‘कलश’, मदनेश, अवधेश, डॉ० नर्मदा प्रसाद गुप्त, डॉ० रामनारायण शर्मा, हरगोविंद कुशवाहा, राजा बुन्देला, आचार्य बहादुर सिंह परमार, आचार्य पुनीत बिसारिया, सांसद अनुराग शर्मा आदि विद्वानों का बुन्देली भाषा और साहित्य के विकास एवं संरक्षण में उल्लेखनीय योगदान है। आज 21वीं सदी में बुन्देली भाषा नए कीर्तिमान रच रही है।

संदर्भ
1-  शर्मा, डॉ० रामनारायण, सन 2001ई०, बुन्देली भाषा साहित्य का इतिहास, झाँसी, बुन्देली साहित्य समिति झाँसी, पृष्ठ – 1.

2-  वेदव्यास, महर्षि, महाभारत, शांति पर्व, अध्याय-29, श्लोक-12-13.

3- शर्मा, डॉ० रामनारायण, सन 2001ई०, बुन्देली भाषा साहित्य का इतिहास, झाँसी, बुन्देली साहित्य समिति झाँसी, पृष्ठ – 1.

4- मिश्रा, डॉ० रंजना, सन 2016 ई०, बुन्देलखण्ड : सांस्कृतिक वैभव, दिल्ली, अनुज्ञा बुक्स, पृष्ठ-25.

5- दृष्टि पब्लिकेशन्स, संपादक, सन 2019 ई०, मध्य प्रदेश समग्र अवलोकन, दिल्ली, दृष्टि पब्लिकेशन्स, पृष्ठ-148.

6- शर्मा, डॉ० रामनारायण, सन 2001ई०, बुन्देली भाषा साहित्य का इतिहास, झाँसी, बुन्देली साहित्य समिति झाँसी, पृष्ठ-1-3.

7- दुबे, आरती, सन 2017 ई०, बुंदेली, नई दिल्ली, साहित्य अकादेमी, पृष्ठ-9-37.

8- सतेंद सिंघ किसान, किसान गिरजासंकर कुसबाहा, 30 दिसंबर 2023, बुंदेली भासा की बकालत करत हैगी ‘अथाई की बातें’ पत्तिका, झाँसी, कुसराज की आबाज, https://kushraaz.blogspot.com/2023/12/blog-post_30.html?m=1

9- शर्मा, डॉ० रामनारायण, सन 2001ई०, बुन्देली भाषा साहित्य का इतिहास, झाँसी, बुन्देली साहित्य समिति झाँसी, पृष्ठ-1-3.

10- सतेंद सिंघ किसान, किसान गिरजासंकर कुसबाहा, 30 दिसंबर 2023, बुंदेली भासा की बकालत करत हैगी ‘अथाई की बातें’ पत्तिका, झाँसी, कुसराज की आबाज,
https://kushraaz.blogspot.com/2023/12/blog-post_30.html?m=1

11- मिश्रा, डॉ० रंजना, सन 2016 ई०, बुन्देलखण्ड : सांस्कृतिक वैभव, दिल्ली, अनुज्ञा बुक्स, पृष्ठ-25

12- दुबे, आरती, सन 2017 ई०, बुंदेली, नई दिल्ली, साहित्य अकादेमी, पृष्ठ-46

13- शर्मा, डॉ० रामनारायण, सन 2001ई०, बुन्देली भाषा साहित्य का इतिहास, झाँसी, बुन्देली साहित्य समिति झाँसी, पृष्ठ-10.

14- शर्मा, डॉ० रामनारायण, सन 2001ई०, बुन्देली भाषा साहित्य का इतिहास, झाँसी, बुन्देली साहित्य समिति झाँसी, पृष्ठ-10.

15- दुबे, आरती, सन 2017 ई०, बुंदेली, नई दिल्ली, साहित्य अकादेमी, पृष्ठ-44-80.

16- मिश्रा, सोनाली, 10 अक्टूबर 2021, हिन्दू पोस्ट, हरम के प्यासे बादशाह अकबर को कविता से ही पराजित करने वाली सनातनी स्त्री “राय प्रवीण”,

17- शर्मा, डॉ० रामनारायण, सन 2001ई०, बुन्देली भाषा साहित्य का इतिहास, झाँसी, बुन्देली साहित्य समिति झाँसी, पृष्ठ-71-294.

18- कुमार, ललित, महेश कटारे ‘सुगम’, बुन्देली गजलें, मान्स सबई बेघर हो जें तौ, कविता कोश, kavitakosh.org

19- श्रीवास्तव, आशुतोष, 23 दिसम्बर 2023, किसान की आबाज, साहित्य सिनेमा सेतु,

 https://sahityacinemasetu.com/kavita-kisan-ki-aabaj/

20- दुबे, आरती, सन 2017 ई०, बुंदेली, नई दिल्ली, साहित्य अकादेमी, पृष्ठ-81-115.

21- ‘सनेही’, डॉ० राघवेंद्र उदैनियाँ, वर्ष – 15, क्वांर-कार्तिक-अगहन 2080, अक्टूबर-नवंबर-दिसंबर 2023, झाँसी की बुन्देली किसायें – सतेंद्र सिंघ किसान, छतरपुर, अथाई की बातें, बुन्देली तिमाही पत्रिका।

22-  झाँसी, कुशराज, 15 मई 2022, राम महोतसओ 2022 ओरछा, बुंदेलखंडी युबा की डायरी – गिरजासंकर कुसबाहा ‘कुसराज झाँसी’, झाँसी, कुसराज की आबाज,

https://kushraaz.blogspot.com/2022/05/2022.html?m=1

23- जागरण, दैनिक, 15 मार्च 2022, गुमनाम पांडुलिपियों को मिलेगी पहचान, झाँसी।

बुन्देली जन्म संस्कार परिचय 

©️ किसान गिरजाशंकर कुशवाहा ‘कुशराज झाँसी’
(परास्नातक छात्र – हिन्दी विभाग, बुन्देलखण्ड महाविद्यालय, झाँसी / इतिहासकार, सीसीआरटी, संस्कृति मंत्रालय, भारत सरकार के योगदानकर्त्ता)
मो० – 9569911051, 8800171019
ईमेल – kushraazjhansi@gmail.com
पता – 212, नन्नाघर, जरबो गॉंव, बरूआसागर, झाँसी, अखंड बुंदेलखंड, पिनकोड 284201

©️ दीपक नामदेव
(परास्नातक छात्र – हिन्दी विभाग,
बुन्देलखण्ड महाविद्यालय, झाँसी)
मो० – 8840052043
ईमेल – deepaknamdev39589@gmail.com
पता – महारानी लक्ष्मीबाई मेडिकल कॉलेज झाँसी के पास, करगुवांजी, झाँसी, अखण्ड बुन्देलखण्ड, पिनकोड 284128

  Bhuragarh Kila Banda  भूरागढ़ किला बांदा

0

बुंदेलखंड का जनपद बांदा। जहां पर स्वतंत्रता संग्राम के लिए समर्पित अनेक क्रांतिकारियों को Bhuragarh Kila Banda में फांसी पर चढ़ा दिया गया था। जहां की माटी ने साहित्य कला संस्कृति और शौर्य के हीरे उत्पन्न किये। दक्षिण के कैथूर पर्वत से निकली स्वच्छ सलिला केन नदी की चट्टानों और सजर की प्रकृति सर्जन के मध्य बांदा के उत्तर की ओर यमुना से संगम करती है। इसी पवित्र नदी के किनारे महर्षि वामदेव से मिलने भगवान श्री राम अपने बनवास काल में आए थे।

जहां वीरांगना दुर्गावती जैसी तेजस्विनी कालिंजर के राजा कीर्ति सिंह की पुत्री जिन्होंने अकबर को दो बार पराजित किया, जिनके शौर्य और बलिदान की गाथा धरती के कण- कण में समाई है। इसी नगरी बांदा में बड़े ही शान से खड़ा भूरागढ़ किला जहां पर स्वतंत्रता संग्राम के लिए समर्पित अनेक क्रांतिकारियों को फांसी पर चढ़ा दिया गया था।

भूरागढ़ का इतिहास बलिदान की गाथा बड़ी शान से दुहराता रहेगा। महाराजा छत्रसाल के वंशज दुर्गा के अनन्य उपासक महाराज गुमान सिंह द्वारा भूरे रंग के खूबसूरत पत्थरों से निर्मित के किला भूरागढ़ किला आज भी क्रांतिकारियों के बलिदान का गवाह है। मेरठ में क्रांति आरंभ होने के बाद यह क्रांति अन्य रियासतों ने भी फैल गई।

बांदा में 14 जून 1857 को ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन का प्रारंभ हुआ। इसका नेतृत्व नवाब अली बहादुर द्वितीय ने किया। इसी समय क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों द्वारा किए जा रहे जुल्म के विरुद्ध लड़ते हुए ज्वाइंट मजिस्ट्रेट काकरोल की हत्या कर दी। तदुपरांत 16 अप्रैल 1858 को अंग्रेज अफसर हिटलर का आगमन बांदा हुआ। उसी समय युद्ध में क्रांतिकारियों से आमना-सामना हुआ। कहा जाता है कि इस जंग में लगभग 3000 से अधिक क्रांतिकारी शहीद हुए जिसमें कुछ के नाम आज भी शिलालेख में मौजूद हैं।

 जो क्रांतिकारी शहीद हुए उनके नाम है नवाब अली, अकबर बेग, फरियाज मोहम्मद,छत्तर खान, बेग उर्फ बुद्ध, इदरीश मोहम्मद,अली मोहम्मद, अली रहमत,पैगाम अली,काले खां,इस्माइल खां,अली अय्याम,शेख जुम्मन, विलायत हुसैन, गुलाम हैदर खान,शहीद हुए। वहीं इमदाद अली हनुमंतराव फत्ते,बाबूराव गोरे, डिप्टी कलेक्टर फतेहपुर हिकमत उल्ला खां,तहसीलदार उस्मान खान,माल विभाग अधिकारी मिर्जापुर इमदाद अली बेग आदि भी मारे गए। सुगरा स्टेट के राव महिमत सिंह के साथ 80 सिपाहियों को भी इसी भूरागढ़ दुर्ग में फांसी दी गई।

बताते हैं कि 1857 की क्रांति में बांदा का पूरा भूरागढ़ किला क्रांतिकारियों का गढ़ बन गया था। रानी लक्ष्मीबाई ने मदद हेतु अली बहादुर को राखी के साथ चिट्ठी भेजी थी।यहीं पर नवाब की सेना के सिपाही झांसी जाने के लिए इकट्ठा हुए थे। यहां से तीन दिन के अंदर रानी की मदद को झांसी पहुंच गए। यह किला आज भी क्रांतिकारियों की फांसी का मुख्य गवाह है।

भूरागढ़ दुर्ग स्मारक शिला पर आज भी बलदानी वीरों के नाम अंकित है। कहते हैं कि नजदीक गांव की रहने वाले नटों ने आजादी की लड़ाई में भाग लिया, जिसमें वह भी बलिदान हुए। नदी तट पर मकर संक्रांति में भव्य मेले का आयोजन होता है। स्वतंत्रता संग्राम के क्रांतिकारियों की स्मृति के रूप में यह मेला शहीदों के मेले के नाम से प्रसिद्ध हो गया।

केन नदी के तट पर मकर संक्रांति का मेला आज भी बड़े सौहार्द और उल्लास के साथ मनाया जाता है। लोग पवित्र केन नदी में स्नान कर नाव पर भ्रमण करते हैं। नाव में बैठकर भूरागढ़ किले की अदभुत कला को देखते हुए  क्रान्तिकारियों को नमन कर श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं। तट पर ही नटों के मुखिया की मजार है जिसने स्वतंत्रता संग्राम में अपने कुनबे के साथ भाग लिया था अपने जादू और करतबों से सेनानियों की मदद करता था।

क्रांतिकारियों की बलिदान भूमि पर सरकार द्वारा शहीद स्मारक बनाया गया। नगर के चारों मार्गों में सुशोभित वामदेवेश्वर द्वार,वीरांगना दुर्गावती द्वार, महाराज गुमान सिंह द्वार,नटबली शहीद द्वार,शहीदों की वीर गाथा को दोहरा रहा है। भूरागढ़ किला अपने शहीदों की याद में खड़ा हुआ शहीदों को नमन करता रहेगा और हम उनके जीवन से प्रेरणा लेते रहेंगे।     

आलेख
सुश्री मीरा रविकुल (प्र०अ०)
प्राथमिक विद्यालय कतरावल
बड़ोखर खुर्द बांदा (यू०पी०)

चन्देलकाल में राम 

Dhumavati Devi माँ धूमावती देवी 

माँ धूमावती देवी के दश महाविद्या स्वरूपो में से एक है । धूम्र का अर्थ होता है धुँआ, धूमावती का अर्थ है जो सब कुछ धूम्र में परिवर्तित कर देने वाली । Dhumavati Devi का वो स्वरूप है जो प्रलयकाल में सम्पूर्ण सृष्टि को खुद में समाहित कर लेती है , और सृष्टि की अनुपस्थिति में शेष सिर्फ धुँआ ही बच जाता है ।

निर्भेद संसार को अभेद कर देने वाला भगवती का यह स्वरूप स्वयं शिव को भी खुद में विलीन कर देता है । देवी धूमावती का स्वरूप एक वृद्ध विधवा के जैसा है , क्योंकि वह एक लंबी अवधि से चली आ रही वृद्ध सृष्टि का अंत कर रही है इसलिये वह वृद्ध है , और सृष्टि के साथ संपूर्ण चेतना का भी जो स्वयं में विलय कर ले और जब चेतना ही नही तो शिव भी भगवती के निष्क्रिय रूप में समाहित हो गए इसलिय शिव की भेद रूपी अनुपस्थिति में वह विधवा कहलाई ।

माँ धूमावती देवी का वाहन कौआ है , जो भी मृत्यु और क्षय का प्रतीक है । देवी धूमावती की उपासना करने वाले को अष्ट दरिद्रो से रक्षा प्राप्त होती है , देवी का यह रूप उग्र है पर सदैव शुभ आशीर्वाद देने वाला है । देवी अपने साधकों को परम ज्ञान और जन्म मृत्यु के कालचक्र से मुक्ति देने वाली है ।

धूमावती गूढ़ रहस्यम !
देवी की पूजा में सावधानियां व निषेध
माँ धूमावती दस महाविद्याओं में सातवीं महाविद्या हैं। बगलामुखी की अंगविद्या हैं इसीलिए माँ बगलामुखी से साधना की आज्ञा लेनी चाहिए और प्रार्थना करना चाहिए की माँ साधना पूरी कराये ।  ज्ञान के आभाव में या कौतुहल से किताब , इन्टरनेट से पढ़कर प्रयोग करने से विपत्ति में भी फसते देखे गये हैं . बगलामुखी साधना करने के पश्चात ही धूमावती साधना विशेष करने की योग्यता मिलती है ।

इसीलिए विशेष परिस्थिति में गुरु से प्रक्रिया जानकार ही शुरू करना चाहिए ।  गुरु जानते हैं की शिष्य की योग्यता क्या है ।  धूमावती साधना सबके बस की नहीं  इनके काम करने का ढंग बिलकुल अलग है ।  बाकी महाविद्या श्री देती हैं और धूमावती श्री विहीनता अपने सूप में लेकर चली जाती है ।  जीवन से दुर्भाग्य , अज्ञान , दुःख , रोग , कलह , शत्रु विदा होते ही साधक ज्ञान, श्री और रहस्यदर्शी हो जाता है और साधना में उच्चतम शिखर पे पहुच जाता है।

इन्हे अलक्ष्मी या ज्येष्ठालक्ष्मी यानि लक्ष्मी की बड़ी बहन भी कहा जाता है।ज्येष्ठ मास शुक्ल पक्ष अष्टमी को माँ धूमावती जयंती के रूप में मनाया जाता है। मां धूमावती विधवा स्वरूप में पूजी जाती हैं तथा इनका वाहन कौवा है, ये श्वेत वस्त्र धारण कि हुए, खुले केश रुप में होती हैं। धूमावती महाविद्या ही ऐसी शक्ति हैं जो व्यक्ति की दीनहीन अवस्था का कारण हैं। विधवा के आचरण वाली यह महाशक्ति दुःख दारिद्र की स्वामिनी होते हुए भी अपने भक्तों पर कृपा करती हैं।

धूमावती देवी का ध्यान इस प्रकार बताया है 
अत्यन्त लम्बी, मलिनवस्त्रा, रूक्षवर्णा, कान्तिहीन, चंचला, दुष्टा, बिखरे बालों वाली, विधवा, रूखी आखों वाली, शत्रु के लिये उद्वेग कारिणी, लम्बे विरल दांतों वाली, बुभुक्षिता, पसीने से आर्द्र स्तन नीचे लटके हो, सूप युक्ता, हाथ फटकारती हुई, बडी नासिका, कुटिला , भयप्रदा, कृष्णवर्णा, कलहप्रिया, तथा बिना पहिये वाले जिसके रथ पर कौआ बैठा हो ऐसी देवी का मैं ध्यान करता हूँ ।

देवी का मुख्य अस्त्र है सूप जिसमे ये समस्त विश्व को समेट कर महाप्रलय कर देती हैं। दस महाविद्यायों में दारुण विद्या कह कर देवी को पूजा जाता है। शाप देने नष्ट करने व संहार करने की जितनी भी क्षमताएं है वो देवी के कारण ही है। क्रोधमय ऋषियों की मूल शक्ति धूमावती हैं जैसे दुर्वासा, अंगीरा, भृगु, परशुराम आदि।

सृष्टि कलह के देवी होने के कारण इनको कलहप्रिय भी कहा जाता है , चातुर्मास ही देवी का प्रमुख समय होता है जब इनको प्रसन्न किया जाता है। देश के कई भागों में नर्क चतुर्दशी पर घर से कूड़ा करकट साफ कर उसे घर से बाहर कर अलक्ष्मी से प्रार्थना की जाती है की आप हमारे सारे दारिद्र्य लेकर विदा होइए। ज्योतिष शास्त्रानुसार मां धूमावती का संबंध केतु ग्रह तथा इनका नक्षत्र ज्येष्ठा है। इस कारण इन्हें ज्येष्ठा भी कहा जाता है।

ज्योतिष शस्त्र अनुसार अगर किसी व्यक्ति की कुण्डली में केतु ग्रह श्रेष्ठ जगह पर कार्यरत हो अथवा केतु ग्रह से सहयता मिल रही ही तो व्यक्ति के जीवन में दुख दारिद्रय और दुर्भाग्य से छुटकारा मिलता है। केतु ग्रह की प्रबलता से व्यक्ति सभी प्रकार के कर्जों से मुक्ति पाता है और उसके जीवन में धन, सुख और ऐश्वर्य की वृद्धि होती है।

देवी का प्राकट्य
पहली कहानी तो यह है कि जब सती ने पिता के यज्ञ में स्वेच्छा से स्वयं को जला कर भस्म कर दिया तो उनके जलते हुए शरीर से जो धुआँ निकला, उससे धूमावती का जन्म हुआ. इसीलिए वे हमेशा उदास रहती हैं. यानी धूमावती धुएँ के रूप में सती का भौतिक स्वरूप है. सती का जो कुछ बचा रहा- उदास धुआँ।

दूसरी कहानी यह है कि एक बार सती शिव के साथ हिमालय में विचरण कर रही थी. तभी उन्हें ज़ोरों की भूख लगी. उन्होने शिव से कहा-” मुझे भूख लगी है. मेरे लिए भोजन का प्रबंध करें.” शिव ने कहा-” अभी कोई प्रबंध नहीं हो सकता.” तब सती ने कहा-” ठीक है, मैं तुम्हें ही खा जाती हूँ। ” और वे शिव को ही निगल गयीं। शिव, जो इस जगत के सर्जक हैं, परिपालक हैं।

फिर शिव ने उनसे अनुरोध किया कि मुझे बाहर निकालो, तो उन्होंने उगल कर उन्हें बाहर निकाल दिया।  निकालने के बाद शिव ने उन्हें शाप दिया कि ‘अभी से तुम विधवा रूप में रहोगी।

तभी से वे विधवा हैं-अभिशप्त और परित्यक्त, भूख लगना और पति को निगल जाना सांकेतिक है।  यह इंसान की कामनाओं का प्रतीक है जो कभी ख़त्म नही होती और इसलिए वह हमेशा असंतुष्ट रहता है।  माँ धूमावती उन कामनाओं को खा जाने यानी नष्ट करने की ओर इशारा करती हैं।

किंवदंती
कुछ लोगों का मानना है की गृहस्थ लोगों को देवी की साधना नही करनी चाहिए। वहीँ कुछ का ऐसा मानना है की यदि इनकी साधना करनी भी हो घर से दूर एकांत स्थान में अथवा एकाँकी रूप से करनी चाहिए। पर ऐसी कोई बात नहीं घर पे भी अनुष्ठान कर सकते हैं । हमारे संपर्क में ऐसे साधक हैं जो घर पे साधना रत हैं और सब अच्छा है ।

विशेष ध्यान देने की बात ये है की इन महाविद्या का स्थायी आह्वाहन नहीं होता अर्थात इन्हे लम्बे समय तक घर में स्थापित या विराजमान होने की कामना नहीं करनी चाहिए क्यूंकि ये दुःख क्लेश और दरिद्रता की देवी हैं । जप शुरू करने से पहले आवाहन करें और ख़त्म होने पे विसर्जन कर दें ।
पर ऐसे भी साधक हैं जिन्होंने इनको घर में स्थापित किया हुआ है और रोग, शोक, विघ्न, बाधा कोसों दूर हैं  फिर क्या कहा जाए – लोगों ने व्यर्थ ही भ्रम फैलाया हुआ है इनके बारे में ताकि पंडित पुरोहितों की जी हुजूरी करते रहें ।  इसीलिए शक्ति की साधना में कहा जाए तो जाकी रही भावना जैसी , प्रभु मूरत तिन देखि तैसी।

इनकी पूजा के समय ऐसी भावना करनी चाहिए की देवी प्रसन्न होकर मेरे समस्त दुःख, रोग , दरिद्रता ,कष्ट ,विघ्न ,बढ़ाये, क्लेशादी को अपने सूप में समेत कर मेरे घर से विदा हो रही हैं और हमें धन , लक्ष्मी , सुख एवं शांति का आशीर्वाद दे रही हैं ।

कौवे के पंखो का इनकी साधना में प्रयोग होता है ।  इनका यंत्र का निर्माण पान के पत्ते या  कौवे के पंख पे हनुमान जी को चढ़ने वाले सिन्दूर से त्रिशूल बनाकर किया जाता है . एक डब्बे में कौवे के पंख को स्थापित करें ।  आवाहन करके पंचोपचार पूजन करें फिर पूजा समाप्त होने पर  माँ का विसर्जन करके आगे के साधना प्रयोग के लिए डब्बे को सुरक्षित रख दें।

हवन में भी कौवे का पंख प्रयोग होता है, ध्यान रखे इसके लिए कौवे को मारे नहीं बल्कि निचे गिरा हुआ पंख का ही प्रयोग करें ।  पंचमकार से भी इनकी साधना होती है पर जो सामान्य साधकों के लिए नहीं है वो यहाँ नहीं बताया जायेगा।  

निरंतर इनकी स्तुति करने वाला कभी धन विहीन नहीं होता व उसे दुःख छूते भी नहीं , बड़ी से बड़ी शक्ति भी इनके सामने नहीं टिक पाती इनका तेज सर्वोच्च कहा जाता है। श्वेतरूप व धूम्र अर्थात धुंआ इनको प्रिय है पृथ्वी के आकाश में स्थित बादलों में इनका निवास होता है। देवी की स्तुति से देवी की अमोघ कृपा प्राप्त होती है

स्तुति
विवर्णा चंचला कृष्णा दीर्घा च मलिनाम्बरा,
विमुक्त कुंतला रूक्षा विधवा विरलद्विजा,
काकध्वजरथारूढा विलम्बित पयोधरा,
सूर्पहस्तातिरुक्षाक्षी धृतहस्ता वरान्विता,
प्रवृद्वघोणा तु भृशं कुटिला कुटिलेक्षणा,
क्षुत्पिपासार्दिता नित्यं भयदा काल्हास्पदा । 
॥ सौभाग्यदात्री धूमावती कवचम् ॥

धूमावती मुखं पातु धूं धूं स्वाहास्वरूपिणी ।
ललाटे विजया पातु मालिनी नित्यसुन्दरी ॥१॥

कल्याणी ह्रदयपातु हसरीं नाभि देशके ।
सर्वांग पातु देवेशी निष्कला भगमालिना ॥२॥

सुपुण्यं कवचं दिव्यं यः पठेदभक्ति संयुतः ।
सौभाग्यमतुलं प्राप्य जाते देविपुरं ययौ ॥३॥

॥ श्री सौभाग्यधूमावतीकल्पोक्त धूमावतीकवचम् ॥
॥ धूमावती कवचम् ॥

श्रीपार्वत्युवाच
धूमावत्यर्चनं शम्भो श्रुतम् विस्तरतो मया ।
कवचं श्रोतुमिच्छामि तस्या देव वदस्व मे ॥१॥

श्रीभैरव उवाच
शृणु देवि परङ्गुह्यन्न प्रकाश्यङ्कलौ युगे ।
कवचं श्रीधूमावत्या: शत्रुनिग्रहकारकम् ॥२॥

ब्रह्माद्या देवि सततम् यद्वशादरिघातिनः ।
योगिनोऽभवञ्छत्रुघ्ना यस्या ध्यानप्रभावतः ॥३॥

ॐ अस्य श्री धूमावती कवचस्य पिप्पलाद ऋषिः निवृत छन्दः ,श्री धूमावती देवता, धूं बीजं ,स्वाहा शक्तिः ,धूमावती कीलकं , शत्रुहनने पाठे विनियोगः ॥

ॐ धूं बीजं मे शिरः पातु धूं ललाटं सदाऽवतु ।
धूमा नेत्रयुग्मं पातु वती कर्णौ सदाऽवतु ॥१॥

दीर्ग्घा तुउदरमध्ये तु नाभिं में मलिनाम्बरा ।
शूर्पहस्ता पातु गुह्यं रूक्षा रक्षतु जानुनी ॥२॥

मुखं में पातु भीमाख्या स्वाहा रक्षतु नासिकाम् ।
सर्वा विद्याऽवतु कण्ठम् विवर्णा बाहुयुग्मकम् ॥३॥

चञ्चला हृदयम्पातु दुष्टा पार्श्वं सदाऽवतु ।
धूमहस्ता सदा पातु पादौ पातु भयावहा ॥४॥

प्रवृद्धरोमा तु भृशं कुटिला कुटिलेक्षणा ।
क्षुत्पिपासार्द्दिता देवी भयदा कलहप्रिया ॥५॥

सर्वाङ्गम्पातु मे देवी सर्वशत्रुविनाशिनी ।
इति ते कवचम्पुण्यङ्कथितम्भुवि दुर्लभम् ॥६॥

न प्रकाश्यन्न प्रकाश्यन्न प्रकाश्यङ्कलौ युगे ।
पठनीयम्महादेवि त्रिसन्ध्यन्ध्यानतत्परैः ।।७॥

दुष्टाभिचारो देवेशि तद्गात्रन्नैव संस्पृशेत् । ७.१।

॥ इति भैरवीभैरवसम्वादे धूमावतीतन्त्रे धूमावतीकवचं सम्पूर्णम् ॥

धूमावती अष्टक स्तोत्रं
॥ अथ स्तोत्रं ॥
प्रातर्या स्यात्कुमारी कुसुमकलिकया जापमाला जपन्ती
मध्याह्ने प्रौढरूपा विकसितवदना चारुनेत्रा निशायाम् । 

सन्ध्यायां वृद्धरूपा गलितकुचयुगा मुण्डमालां
वहन्ती सा देवी देवदेवी त्रिभुवनजननी कालिका पातु युष्मान् || १ ||

बद्ध्वा खट्वाङ्गकोटौ कपिलवरजटामण्डलम्पद्मयोनेः
कृत्वा दैत्योत्तमाङ्गैस्स्रजमुरसि शिर शेखरन्तार्क्ष्यपक्षैः । 

पूर्णं रक्तै्सुराणां यममहिषमहाशृङ्गमादाय पाणौ
पायाद्वो वन्द्यमानप्रलयमुदितया भैरवः कालरात्र्याम् || २ ||

चर्वन्तीमस्थिखण्डम्प्रकटकटकटाशब्दशङ्घातम्-
उग्रङ्कुर्वाणा प्रेतमध्ये कहहकहकहाहास्यमुग्रङ्कृशाङ्गी । 

नित्यन्नित्यप्रसक्ता डमरुडिमडिमां स्फारयन्ती मुखाब्जम्-
पायान्नश्चण्डिकेयं झझमझमझमा जल्पमाना भ्रमन्ती || ३ ||

टण्टण्टण्टण्टटण्टाप्रकरटमटमानाटघण्टां वहन्ती
स्फेंस्फेंस्फेंस्कारकाराटकटकितहसा नादसङ्घट्टभीमा |

लोलम्मुण्डाग्रमाला ललहलहलहालोललोलाग्रवाचञ्चर्वन्ती
चण्डमुण्डं मटमटमटिते चर्वयन्ती पुनातु || ४ ||

वामे कर्णे मृगाङ्कप्रलयपरिगतन्दक्षिणे सूर्यबिम्बङ्कण्ठे
नक्षत्रहारंव्वरविकटजटाजूटके मुण्डमालाम् |

स्कन्धे कृत्वोरगेन्द्रध्वजनिकरयुतम्ब्रह्मकङ्कालभारं
संहारे धारयन्ती मम हरतु भयम्भद्रदा भद्रकाली || ५ ||

तैलाभ्यक्तैकवेणी त्रपुमयविलसत्कर्णिकाक्रान्तकर्णा
लौहेनैकेन कृत्वा चरणनलिनकामात्मनः पादशोभाम् |

दिग्वासा रासभेन ग्रसति जगदिदंय्या यवाकर्णपूरा
वर्षिण्यातिप्रबद्धा ध्वजविततभुजा सासि देवि त्वमेव || ६ ||

सङ्ग्रामे हेतिकृत्वैस्सरुधिरदशनैर्यद्भटानां
शिरोभिर्मालामावद्ध्य मूर्ध्नि ध्वजविततभुजा त्वं श्मशाने प्रविष्टा |

दृष्टा भूतप्रभूतैः पृथुतरजघना वद्धनागेन्द्रकाञ्ची
शूलग्रव्यग्रहस्ता मधुरुधिरसदा ताम्रनेत्रा निशायाम् || ७ ||

दंष्ट्रा रौद्रे मुखेऽस्मिंस्तव विशति जगद्देवि सर्वं क्षणार्द्धात्
संसारस्यान्तकाले नररुधिरवशा सम्प्लवे भूमधूम्रे |

काली कापालिकी साशवशयनतरा योगिनी योगमुद्रा रक्तारुद्धिः
सभास्था भरणभयहरा त्वं शिवा चण्डघण्टा || ८ ||

धूमावत्यष्टकम्पुण्यं सर्वापद्विनिवारकम् |
यः पठेत्साधको भक्त्या सिद्धिं व्विन्दन्ति वाञ्छिताम् || ९ ||

महापदि महाघोरे महारोगे महारणे |
शत्रूच्चाटे मारणादौ जन्तूनाम्मोहने तथा || १० ||

पठेत्स्तोत्रमिदन्देवि सर्वत्र सिद्धिभाग्भवेत् |
देवदानवगन्धर्वा यक्षराक्षसपन्नगाः || ११ ||

सिंहव्याघ्रादिकास्सर्वे स्तोत्रस्मरणमात्रतः |
दूराद्दूरतरं य्यान्ति किम्पुनर्मानुषादयः || १२ ||

स्तोत्रेणानेन देवेशि किन्न सिद्ध्यति भूतले |
सर्वशान्तिर्ब्भवेद्देवि ह्यन्ते निर्वाणतां व्व्रजेत् || १३ ||

।। इत्यूर्द्ध्वाम्नाये धूमावतीअष्टक स्तोत्रं समाप्तम् ।।

देवी की कृपा से साधक धर्म अर्थ काम और मोक्ष प्राप्त कर लेता है। ऐसा मानना है की कुण्डलिनी चक्र के मूल में स्थित कूर्म में इनकी शक्ति विद्यमान होती है। देवी साधक के पास बड़े से बड़ी बाधाओं से लड़ने और उनको जीत लेने की क्षमता आ जाती है। महाविद्या धूमावती के मन्त्रों से बड़े से बड़े दुखों का नाश होता है।

देवी माँ का महामंत्र है-
धूं धूं धूमावती ठ: ठ:

इस मंत्र से काम्य प्रयोग भी संपन्न किये जाते हैं व देवी को पुष्प अत्यंत प्रिय हैं इसलिए केवल पुष्पों के होम से ही देवी कृपा कर देती है,आप भी मनोकामना के लिए यज्ञ कर सकते हैं,जैसे-

1- राई में सेंधा नमक मिला कर होम करने से बड़े से बड़ा शत्रु भी समूल रूप से नष्ट हो जाता है

2- नीम की पत्तियों सहित घी का होम करने से लम्बे समस से चला आ रहा ऋण नष्ट होता है

3- जटामांसी और कालीमिर्च से होम करने पर काल्सर्पादी दोष नष्ट होते हैं व क्रूर ग्रह भी नष्ट होते हैं

4- रक्तचंदन घिस कर शहद में मिला लेँ व जौ से मिश्रित कर होम करें तो दुर्भाग्यशाली मनुष्य का भाग्य भी चमक उठता है

5- गुड व गाने से होम करने पर गरीबी सदा के लिए दूर होती है

6 – केवल काली मिर्च से होम करने पर कारागार में फसा व्यक्ति मुक्त हो जाता है

7 – मीठी रोटी व घी से होम करने पर बड़े से बड़ा संकट व बड़े से बड़ा रोग अति शीग्र नष्ट होता है।

धूमावती गायत्री मंत्र
“ओम धूमावत्यै विद्महे संहारिण्यै धीमहि तन्नो धूमा प्रचोदयात।”

वाराही विद्या में इन्हे धूम्रवाराही कहा गया है जो शत्रुओं के मारन और उच्चाटन में प्रयोग की जाती है।

धूमावती के साबर मन्त्र
ॐ पाताल निरंजन निराकार,
आकाश मण्डल धुन्धुकार,
आकाश दिशा से कौन आई,
कौन रथ कौन असवार,
आकाश दिशा से धूमावन्ती आई ,
काक ध्वजा का रथ असवार ,
थरै धरत्री थरै आकाश,
विधवा रुप लम्बे हाथ,
लम्बी नाक कुटिल नेत्र दुष्टा स्वभाव,
डमरु बाजे भद्रकाली,
क्लेश कलह कालरात्रि ,
डंका डंकनी काल किट किटा हास्य करी ,
जीव रक्षन्ते जीव भक्षन्ते
जाया जीया आकाश तेरा होये ,
धूमावन्तीपुरी में वास,
न होती देवी न देव ,
तहा न होती पूजा न पाती
तहा न होती जात न जाती ,
तब आये श्रीशम्भुजती गुरु गोरखनाथ ,
आप भयी अतीत
ॐ धूं धूं धूमावती फट स्वाहा ।

विशेष पूजा सामग्रियां
पूजा में जिन सामग्रियों के प्रयोग से देवी की विशेष कृपा मिलाती है सफेद रंग के फूल, आक के फूल, सफेद वस्त्र व पुष्पमालाएं , केसर, अक्षत, घी, सफेद तिल, धतूरा, आक, जौ, सुपारी व नारियल , मेवा व सूखे फल प्रसाद रूप में अर्पित करें। सूप की आकृति पूजा स्थान पर रखें, दूर्वा, गंगाजल, शहद, कपूर, चन्दन चढ़ाएं, संभव हो तो मिटटी के पात्रों का ही पूजन में प्रयोग करें।

देवी की पूजा में सावधानियां व निषेध
बिना गुरु दीक्षा के इनकी साधना कदापि न करें। थोड़ी सी भी चूक होने पर विपरीत फल प्राप्त होगा और पारिवारिक कलह दरिद्र का शिकार होंगे।

धर्म और संस्कृति 

Nirjala Ekadashi निर्जला एकादशी

एकादशी व्रत हिन्दुओ में सबसे अधिक प्रचलित व्रत माना जाता है। वर्ष में चौबीस एकादशियाँ आती हैं, किन्तु इन सब एकादशियों में ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी सबसे बढ़कर फल देने वाली समझी जाती है क्योंकि इस एक एकादशी का व्रत रखने से वर्ष भर की एकादशियों के व्रत का फल प्राप्त होता है। निर्जला Nirjala Ekadashi एकादशी का व्रत अत्यन्त संयम साध्य है। इस युग में यह व्रत सम्पूर्ण सुख भोग और अन्त में मोक्ष दायक कहा गया है। कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष दोनों पक्षों की एकादशी में अन्न खाना वर्जित है।

निर्जला एकादशी का महत्त्व
ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि को निर्जला एकादशी का व्रत किया जाता है। निर्जला यानि यह व्रत बिना जल ग्रहण किए और उपवास रखकर किया जाता है। इसलिए यह व्रत कठिन तप और साधना के समान महत्त्व रखता है। हिन्दू पंचाग अनुसार वृषभ और मिथुन संक्रांति के बीच शुक्ल पक्ष की एकादशी निर्जला एकादशी कहलाती है।

इस व्रत को भीमसेन एकादशी या पांडव एकादशी के नाम से भी जाना जाता है। पौराणिक मान्यता है कि भोजन संयम न रखने वाले पाँच पाण्डवों में एक भीमसेन ने इस व्रत का पालन कर सुफल पाए थे। इसलिए इसका नाम भीमसेनी एकादशी भी हुआ।

हिन्दू धर्म में एकादशी व्रत का मात्र धार्मिक महत्त्व ही नहीं है, इसका मानसिक एवं शारीरिक स्वास्थ्य के नज़रिए से भी बहुत महत्त्व है। एकादशी का व्रत भगवान विष्णु की आराधना को समर्पित होता है। इस दिन जल कलश, गौ का दान बहुत पुण्य देने वाला माना गया है। यह व्रत मन को संयम सिखाता है और शरीर को नई ऊर्जा देता है। यह व्रत पुरुष और महिलाओं दोनों द्वारा किया जा सकता है।

वर्ष में अधिकमास की दो एकादशियों सहित 26 एकादशी व्रत का विधान है। जहाँ साल भर की अन्य 25 एकादशी व्रत में आहार संयम का महत्त्व है। वहीं निर्जला एकादशी के दिन आहार के साथ ही जल का संयम भी जरुरी है। इस व्रत में जल ग्रहण नहीं किया जाता है यानि निर्जल रहकर व्रत का पालन किया जाता है।

ऐसी धार्मिक मान्यता है कि कोई भी व्यक्ति मात्र निर्जला एकादशी का व्रत करने से साल भर की पच्चीस एकादशी का फल पा सकता है। यहाँ तक कि अन्य एकादशी के व्रत भंग होने के दोष भी निर्जला एकादशी के व्रत से दूर हो जाते हैं। कुछ व्रती इस दिन एक भुक्त व्रत भी रखते हैं यानि सांय दान-दर्शन के बाद फलाहार और दूध का सेवन करते हैं।

 

निर्जला एकादशी पूजा विधि
इस व्रत में एकादशी तिथि के सूर्योदय से अगले दिन द्वादशी तिथि के सूर्योदय तक जल और भोजन का त्याग किया जाता है। इसके बाद दान, पुण्य आदि कर इस व्रत का विधान पूर्ण होता है। धार्मिक महत्त्व की दृष्टि से इस व्रत का फल लंबी उम्र, स्वास्थ्य देने के साथ-साथ सभी पापों का नाश करने वाला माना गया है।

एकादशी के दिन सर्वप्रथम भगवान विष्णु की विधिपूर्वक पूजा करें। पश्चात् ‘ॐ नमो भगवते वासुदेवाय मंत्र का जाप करे। इस दिन व्रत करने वालों को चाहिए कि वह जल से कलश भरे व सफ़ेद वस्त्र को उस पर ढककर रखें और उस पर चीनी तथा दक्षिणा रखकर ब्राह्मण को दान दें। तदोपरान्त नियमानुसार नारायण कवच का पाठ करें। पाठ के बाद भगवान नारायण की आरती करें।

विधि – उत्तर दिशा में मुख करके बैठ जाएं। तत्पश्चात 3 बार आचमन करके आसन एवं देह की शुद्धि करके ॐ ॐ नमः पादयोः। ॐ नं नमो जान्वोः। ॐ मों नमः ऊर्वो:। ॐ नां नमः उदरे। ॐ रां नमो हृदि। ॐ यं नमो उरसि। ॐ णां नमो मुखे। ॐ यं नमः शिरसि।

ॐ ॐ नमो दक्षिणतर्जन्यां, ॐ नं नमो दक्षिणमध्यमायां ,ॐ मों नमो दक्षिणानामिकायां, ॐ भं नमो दक्षिणकनिष्ठिकायाम् ॐ गं नमो वामकनिष्ठिकायाम्, ॐ वं नमो वामानामिकायाम्, ॐ तें नमो वाममध्मायाम्, ॐ वां नमो वामतर्जन्याम्, ॐ सुं नमः दक्षिणांगुष्ठोर्ध्वपर्वणि, ॐ दें नमो दक्षिणांगुष्ठाधःपर्वणि, ॐ वां नमो वामान्गुष्ठोर्ध्वपर्वणि, ॐ यं नमो वामान्गुष्ठाधः पर्वणि । 

इन मंत्रो से तत्तदंगों में न्यास करके निम्नलिखित मन्त्र से दिग्बन्धन करें –

ॐ मः अस्त्राय फट् प्राच्याम् ,ॐ मः अस्त्राय फट् आग्नेय्याम्,ॐ मः अस्त्राय फट् दक्षिणस्याम्,ॐ मः अस्त्राय फट् नैर्ऋत्याम्,ॐ मः अस्त्राय फट् प्र्तीच्याम्,ॐ मः अस्त्राय फट् वायव्याम्, ॐ मः अस्त्राय फट् कौबेर्याम्,ॐ मः अस्त्राय फट् ईशान्याम्, ॐ मः अस्त्राय फट् ऊर्ध्वायाम्,ॐ मः अस्त्राय फट् अधरायाम्, इसके बाद पाठ आरंभ करें

निर्जला एकादशी के दान
इस एकादशी का व्रत करके यथा सामर्थ्य अन्न, जल, वस्त्र, आसन, जूता, छतरी, पंखी तथा फलादि का दान करना चाहिए। इस दिन विधिपूर्वक जल कलश का दान करने वालों को वर्ष भर की एकादशियों का फल प्राप्त होता है। इस एकादशी का व्रत करने से अन्य तेईस एकादशियों पर अन्न खाने का दोष छूट जाएगा तथा सम्पूर्ण एकादशियों के पुण्य का लाभ भी मिलेगा। इस प्रकार जो इस पवित्र एकादशी का व्रत करता है, वह समस्त पापों से मुक्त होकर अविनाशी पद प्राप्त करता है। भक्ति भाव से कथा श्रवण करते हुए भगवान का कीर्तन करना चाहिए।

निर्जला एकादशी व्रत की कथा
निर्जला एकादशी व्रत का पौराणिक महत्त्व और आख्यान भी कम रोचक नहीं है। जब सर्वज्ञ वेदव्यास ने पांडवों को चारों पुरुषार्थ- धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष देने वाले एकादशी व्रत का संकल्प कराया था।

युधिष्ठिर ने कहा- जनार्दन! ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष में जो एकादशी पड़ती हो, कृपया उसका वर्णन कीजिये। भगवान श्रीकृष्ण ने कहा हे राजन् ! इसका वर्णन परम धर्मात्मा सत्यवती नन्दन व्यासजी करेंगे, क्योंकि ये सम्पूर्ण शास्त्रों के तत्त्वज्ञ और वेद वेदांगों के पारंगत विद्वान हैं।

तब वेदव्यासजी कहने लगे- कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष दोनों पक्षों की एकादशी में अन्न खाना वर्जित है। द्वादशी के दिन स्नान करके पवित्र हो और फूलों से भगवान केशव की पूजा करे। फिर नित्य कर्म समाप्त होने के पश्चात् पहले ब्राह्मणों को भोजन देकर अन्त में स्वयं भोजन करे।

यह सुनकर भीमसेन बोले- परम बुद्धिमान पितामह! मेरी उत्तम बात सुनिये। राजा युधिष्ठिर, माता कुन्ती, द्रौपदी, अर्जुन, नकुल और सहदेव, ये एकादशी को कभी भोजन नहीं करते तथा मुझसे भी हमेशा यही कहते हैं कि भीमसेन एकादशी को तुम भी न खाया करो परन्तु मैं उन लोगों से यही कहता हूँ कि मुझसे भूख नहीं सही जायेगी।

भीमसेन की बात सुनकर व्यासजी ने कहा- यदि तुम नरक को दूषित समझते हो और तुम्हें स्वर्गलोक की प्राप्ति अभीष्ट है और तो दोनों पक्षों की एकादशियों के दिन भोजन नहीं करना। भीमसेन बोले महाबुद्धिमान पितामह! मैं आपके सामने सच कहता हूँ। मुझसे एक बार भोजन करके भी व्रत नहीं किया जा सकता, तो फिर उपवास करके मैं कैसे रह सकता हूँ।

मेरे उदर में वृक नामक अग्नि सदा प्रज्वलित रहती है, अत: जब मैं बहुत अधिक खाता हूँ, तभी यह शांत होती है। इसलिए महामुनि ! मैं पूरे वर्षभर में केवल एक ही उपवास कर सकता हूँ। जिससे स्वर्ग की प्राप्ति सुलभ हो तथा जिसके करने से मैं कल्याण का भागी हो सकूँ, ऐसा कोई एक व्रत निश्चय करके बताइये। मैं उसका यथोचित रूप से पालन करुँगा।

व्यासजी ने कहा- भीम! ज्येष्ठ मास में सूर्य वृष राशि पर हो या मिथुन राशि पर, शुक्लपक्ष में जो एकादशी हो, उसका यत्नपूर्वक निर्जल व्रत करो। केवल कुल्ला या आचमन करने के लिए मुख में जल डाल सकते हो, उसको छोड़कर किसी प्रकार का जल विद्वान पुरुष मुख में न डाले, अन्यथा व्रत भंग हो जाता है।

एकादशी को सूर्योदय से लेकर दूसरे दिन के सूर्योदय तक मनुष्य जल का त्याग करे तो यह व्रत पूर्ण होता है। तदनन्तर द्वादशी को प्रभातकाल में स्नान करके ब्राह्मणों को विधिपूर्वक जल और सुवर्ण का दान करे। इस प्रकार सब कार्य पूरा करके जितेन्द्रिय पुरुष ब्राह्मणों के साथ भोजन करे।

वर्षभर में जितनी एकादशियाँ होती हैं, उन सबका फल निर्जला एकादशी के सेवन से मनुष्य प्राप्त कर लेता है, इसमें तनिक भी सन्देह नहीं है। शंख, चक्र और गदा धारण करनेवाले भगवान केशव ने मुझसे कहा था कि ‘यदि मानव सबको छोड़कर एकमात्र मेरी शरण में आ जाय और एकादशी को निराहार रहे तो वह सब पापों से छूट जाता है।

एकादशी व्रत करने वाले पुरुष के पास विशालकाय, विकराल आकृति और काले रंगवाले दण्ड पाशधारी भयंकर यमदूत नहीं जाते। अंतकाल में पीताम्बरधारी, सौम्य स्वभाव वाले, हाथ में सुदर्शन धारण करने वाले और मन के समान वेगशाली विष्णुदूत आख़िर इस वैष्णव पुरुष को भगवान विष्णु के धाम में ले जाते हैं। अत: निर्जला एकादशी को पूर्ण यत्न करके उपवास और श्रीहरि का पूजन करो।

स्त्री हो या पुरुष, यदि उसने मेरु पर्वत के बराबर भी महान पाप किया हो तो वह सब इस एकादशी व्रत के प्रभाव से भस्म हो जाता है। जो मनुष्य उस दिन जल के नियम का पालन करता है, वह पुण्य का भागी होता है। उसे एक-एक प्रहर में कोटि-कोटि स्वर्णमुद्रा दान करने का फल प्राप्त होता सुना गया है।

मनुष्य निर्जला एकादशी के दिन स्नान, दान, जप, होम आदि जो कुछ भी करता है, वह सब अक्षय होता है, यह भगवान श्रीकृष्ण का कथन है। निर्जला एकादशी को विधिपूर्वक उत्तम रीति से उपवास करके मानव वैष्णवपद को प्राप्त कर लेता है। जो मनुष्य एकादशी के दिन अन्न खाता है, वह पाप का भोजन करता है। इस लोक में वह चाण्डाल के समान है और मरने पर दुर्गति को प्राप्त होता है।

जो ज्येष्ठ के शुक्लपक्ष में एकादशी को उपवास करके दान करेंगे, वे परम पद को प्राप्त होंगे। जिन्होंने एकादशी को उपवास किया है, वे ब्रह्महत्यारे, शराबी, चोर तथा गुरुद्रोही होने पर भी सब पातकों से मुक्त हो जाते हैं।

कुन्तीनन्दन! निर्जला एकादशी के दिन श्रद्धालु स्त्री पुरुषों के लिए जो विशेष दान और कर्त्तव्य विहित हैं, उन्हें सुनो- उस दिन जल में शयन करने वाले भगवान विष्णु का पूजन और जलमयी धेनु का दान करना चाहिए अथवा प्रत्यक्ष धेनु या घृतमयी धेनु का दान उचित है। पर्याप्त दक्षिणा और भाँति-भाँति के मिष्ठानों द्वारा यत्नपूर्वक ब्राह्मणों को सन्तुष्ट करना चाहिए। ऐसा करने से ब्राह्मण अवश्य संतुष्ट होते हैं और उनके संतुष्ट होने पर श्रीहरि मोक्ष प्रदान करते हैं।

निर्जला एकादशी के दिन अन्न, वस्त्र, गौ, जल, शैय्या, सुन्दर आसन, कमण्डलु तथा छाता दान करने चाहिए। जो श्रेष्ठ तथा सुपात्र ब्राह्मण को जूता दान करता है, वह सोने के विमान पर बैठकर स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है। जो इस एकादशी की महिमा को भक्तिपूर्वक सुनता अथवा उसका वर्णन करता है, वह स्वर्गलोक में जाता है।

चतुर्दशीयुक्त अमावस्या को सूर्यग्रहण के समय श्राद्ध करके मनुष्य जिस फल को प्राप्त करता है, वही फल इसके श्रवण से भी प्राप्त होता है। पहले दन्तधावन करके यह नियम लेना चाहिए कि “मैं भगवान केशव की प्रसन्नता के लिए एकादशी को निराहार रहकर आचमन के सिवा दूसरे जल का भी त्याग करुँगा।” द्वादशी को देवेश्वर भगवान विष्णु का पूजन करना चाहिए। गन्ध, धूप, पुष्प और सुन्दर वस्त्र से विधिपूर्वक पूजन करके जल के घड़े के दान का संकल्प करते हुए निम्नांकित मंत्र का उच्चारण करे।

संसारसागर से तारने वाले हे देव ह्रषीकेश! इस जल के घड़े का दान करने से आप मुझे परम गति की प्राप्ति कराइये।

भीमसेन! ज्येष्ठ मास में शुक्लपक्ष की जो शुभ एकादशी होती है, उसका निर्जल व्रत करना चाहिए। उस दिन श्रेष्ठ ब्राह्मणों को शक्कर के साथ जल के घड़े दान करने चाहिए। ऐसा करने से मनुष्य भगवान विष्णु के समीप पहुँचकर आनन्द का अनुभव करता है। तत्पश्चात् द्वादशी को ब्राह्मण भोजन कराने के बाद स्वयं भोजन करे।

जो इस प्रकार पूर्ण रूप से पापनाशिनी एकादशी का व्रत करता है, वह सब पापों से मुक्त हो आनंदमय पद को प्राप्त होता है। यह सुनकर भीमसेन ने भी इस शुभ एकादशी का व्रत आरम्भ कर दिया। तबसे यह लोक में ‘पाण्डव द्वादशी’ के नाम से विख्यात हुई।

धर्म और संस्कृति 

Lok Jivan Men Ram लोक जीवन में राम

बुंदेली के रामपरक लोकगीत लोकजीवन का प्रमुख अंग है यहाँ जनमानस के  Lok Jivan Men Ram रचे -बसे हैं जिसमें मानवीय संबंधों के ही नहीं पशुपक्षियों और प्रकृति के परिवेश से जुड़े जागतिक संबंधों के विविध रेखांकन देखे जाते है। उसमें बुंदेलखण्ड के भोजन-पेय, बस्त्राभरण, श्रृंगार-प्रसाधन, संस्कार, आचरण, लोकविश्वास, लोकमूल्य आदि लोकसंस्कृति के सभी चिन्ह अंकित हुए हैं।

लेकिन विशेषता यह है कि उन सबमें पारिवारिक आदर्शों के रंग अधिक चटख हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि रामपरक लोकगीतों के द्वारा मध्ययुग की विश्रृंखलित समाज में पारिवारिक एकता की जागृति का मंत्र दिया गया है। मायके और सासरे दोनों की चिन्ता है-
राजा जनक से बाबुल दइयो, रानी सुनैना सी माया दइयो
लछमीचन्द से भइया दइयो, सुभद्रा सी भौजाई दइयो

ऋद्धि सिद्धि सी बैनें दइयो, बालमुकुन्द भतीजे दइयो
इतनौ कुटुम मायके को दइयो, फिर कछू ससुरे को सुनियो

राजा दसरथ से ससुरा दइयो, रानी कौसिल्या सी सासो दइयो
भरत सत्रुघन से देवरा दइयो, देवरानी जिठानी झगड़बे खाँ दइयो
पाँच पुत्र की माता करियो, कन्या एक धरम खाँ दइयो…..

मध्ययुग में विदेशी संस्कृति के आक्रमण के खिलाफ लोकसंस्कृति का यह रक्षा-आंदोलन अनिवार्य था। इसीलिए माता-पिता के साथ सास-ससुर को गरिमा दी गयी थी-
’सास हमारी गंगा जो जमुना, ससुर हैं तीरथ पिराग‘।

इसी वजह से राम-सीता के संस्कारों में हर नर-नारी को ढालने की कोशिश की गयी थी। लोकसंस्कारों की पवित्रता पर जोर देना भी इसी योजना का अंग था- ’मड़वा भीतर बाबुल गंगा बहत है उतइँ हैं तीरथ पिराग‘। इतना ही नहीं, संस्कारों को एक प्रमुख शक्ति के रूप में मान्यता दी गयी थी-’कोट नबै परबत नबै सिर नबत नबाये, माथौ जनक जू कौ तब नबै जब साजन आये‘ अर्थात् समधी बड़े-बड़े किलों, पर्वतों और अन्य जबर शक्तियों की अपेक्षा अधिक शक्तिशाली हैं।

लोकजीवन के यथार्थ चित्र भी रामपरक गीतों में मिलते हैं। संस्कारपरक गीतों में विविध संस्कारों के उत्सवपरक गीतों में रामनवमी, अकती, होली आदि के और तथा घटनापरक गीतों में जीवन की वास्तविकता के अनेक रूप बिम्बित हुए है। राम और सीतादि के प्रतीकों से शिकार, खेती आदि करने की झलक भी दिखाई देती है। 
काये खाँ बाँधी लछमन धनइयाँ,
काये खाँ पाँचैं बान?
मिरगा बारी ऐसें चुनें,
जैसें अनाथ को खेत।
काये खाँ निरखी भौजी धनइयाँ,
काये खाँ पाँचऊ बान?
परों मिरगा खाँ मारन चलों,
मोये जसरथ की आन।

इनमें सीता लक्ष्मण को व्यंग्य करती हैं कि उन्होंने धनुष-बाण क्यों बाँध रखे हैं जबकि मृग खेत ऐसे चर रहे हैं जैसे वह अनाथ (बिना स्वामी) का हो। इस पर लक्ष्मण उत्तर देते हैं कि भौजी धनुष-वाण क्यों देखती हो और अपने पिता की आन रखकर प्रतिज्ञा करते हैं कि वे परसों मृग का शिकार करेंगे। इसी प्रकार राम, सीतादि को माध्यम बनाकर लोकजीवन के चित्र लिखे गये हैं।

 रामपरक गीतों का शिल्प
शिल्प की दृष्टि से रामपरक गीतों में कोई खास विशेषता नहीं है। वे सरल, सहज, प्रकृत और स्वच्छंद आदिवासी बालकों की तरह खेलते-कूदते विचरण करते रहते हैं। उन्हें न तो सँवरने की चिन्ता है और न प्रदर्शन की रूचि। अपनी ही लय में हिलते-डुलते और बतयाते वे सबकुछ स्वयं कह देते हैं। इतना अवश्य है कि नये नये उपमान जैसे मोरपंख उन्हें मिल जाते हैं, तो वे अपने सिरों में खोंसकर एक नयी धज बना लेते हैं। राम अपनी माता के पूछने पर कहते हैं-

हँस हँस पूछें माय कौसिल्या, बेटा, कैसी बनी ससुरार।
सासो हमारी गंगा जो जमुना, ससुर हैं तीरथ पिराग।
सासें हमारीं अधिक पियारीं देती हैं दूद बियारीं,
सारे हमारे घुड़ला फिराबैं साराजें तपैं रसोई।
जैसी मढ़ भीतर लिखी पुतरिया वैसी ही बहू तुमार।

उक्त पंक्तियों में गंगा-यमुना, तीर्थराज प्रयाग और मढ़ में लिखी पुतरिया के उपमान साथर्क बन पड़े हैं। भात (चावल) के लिए बेला की कलियाँ, राम के मुख के लिए अरसी का फूल, माँग के लिए गंगा की धार आदि प्रकृति से ग्रहण किये गये हैं जो लोक के जाने-पहचाने और प्रिय हैं।

कहीं-कहीं राम, सीता दशरथ, जनक आदि पात्र उपमान बनकर अपने सम्पूर्ण व्यक्तित्व का बोध कराते हैं और आदर्श का मूर्त रूप खड़ा कर देते हैं जो अपनी नवीनता और मौलिकता में अद्वितीय ठहरता है। इस तरह उपमानों का संयोजन अपने-आप हो जाता है और गीत का सौन्दर्य निखर उठता है।

रामपरक गीतों में अधिकांश वर्णन, विवरण और आख्यान-प्रधान हैं। उनका सौष्ठव कथ्य की शैली पर निर्भर है। प्रश्नोत्तर, संवादात्मक, आत्मकथनात्मक, व्यंग्यात्मक, दृश्यात्मक जैसी शैलियाँ गीतों में सहज रमणीयता भर देती हैं। 

साँची बता देव मोरे लाला लखन जू,, अब की अबन कबै होय मोरे लाल।
जबसें तुम हमरे घर आये, हमनें कामदन्द बिसराये, तुमसें नेहा खीब लगाये,
नैना तुमारे रतनारे लखन जू, अब की अबन कबै होय मोरे लाल।
जो न होबै धनुस कौ टोरबो, कठिन कंकन गाँठ छोरबो।
तुमनें जनकपुरी पग धारे, तुमनें छत्रिन के मद मारे,
तुमसें परसराम लड़ हारे, सो तुम पर गये फंद हमारे,
इतै चलहै न नैना मरोरबो, कठिन कंकन गाँठ छोरबो।

दोनों अंशों में जनकपुरी की ललनाएँ लक्ष्मण और राम से संवाद की शैली में कहती हैं, परन्तु पहले में उत्कण्ठामयी जिज्ञासा है तो दूसरे में विनोदमयी चुनौती। दोनों की कथनभंगियाँ अलग-अलग हैं, इसीलिए दोनों की लोकप्रियता के आधार भी वही भिन्न भंगिमाएँ हैं। विनोद की मनुहारों में छिपी प्रेमभरी ललक ही दोनों गीतों की मधुरिमा की कुंजी है।

पुनरावृत्ति की कथन-भंगी कहीं-कहीं ऐसी महसूस होती है कि उसे बार-बार भावना देकर प्रभावशाली बनाया जा रहा हो। उदाहरण के लिए निम्न गीत देखें-
भर आये दोई नैन, हमनें राम ना देखे।
देखे ताल बिच देखे ताल बिच देखे, धोबिन तोरी ओट हमनें राम ना देखे।
देखे बाग बिच देखे बाग बिच देखे, मालिन तोरी ओट हमनें राम ना देखे।
देखे भौन बिच देखे भौन बिच देखे, रनियाँ तोरी ओट हमनें राम ना देखे।
देखे कुंजन बिच देखे कुंजन बिच देखे, सखियाँ तोरी ओट हमनें राम ना देखे।
भर आये दोई नैन, हमनें राम न देखे।।

किसी विशेष रस की भावना जब बार-बार दी जाती है, तब ओषधि की शक्ति बढ़ जाती है। उक्त गीत में देखने की क्रिया बार-बार होती है और बार-बार दोनों नेत्र भर-भर आते हैं क्योंकि दर्शन की तृप्ति नहीं हो पाती। इस तरह राम के दर्शन की अतृप्ति का संकेत किया गया है।

इन उदाहरणों से रामपरक लोकगीतों के शिल्प का आभास हो जाता है। लोककाव्य का अपना काव्यशास्त्र होता है और उसमें शिल्प-सौष्ठव के अपने आधार होते हैं। उन्हीं में से कुछ प्रतिमान लेकर परीक्षण किया गया है जिससे हम इस निर्णय पर पहुँचे हैं कि रामपरक लोकगीत शिल्प की दृष्टि से उतने महत्व के नहीं हैं जितने कि विषयवस्तु की दृष्टि से।

बुंदेलखंड का रहस 

Ramparak Lok Kavya रामपरक लोक काव्य

Ramparak Lok Kavya लोक की आत्मा में रचा बसा है राम और कृष्ण भारतीय संस्कृति के कोश हैं। दोनों के ताने-बाने इस संस्कृति के ध्वज को फहराने में सफल रहे हैं। चाहे इस देश की आस्था का प्रश्न हो चाहे चिन्ता का, सिद्धान्त का चुनाव हो या आचरण का और मूल्य की समस्या हो या अस्मिता की, सब में राम-कृष्ण की भागीदारी रही है।

महत्व की बात यह है कि यह भागीदारी परम्परागत होते हुए भी हर युग के जीवन की प्रगति से जुड़ी रही है। राम या कृष्ण संस्कृति में कोई विरोध नहीं है। असल में, वे एक दूसरे की पूरक हैं। विचित्र तो यह है कि जहाँ जिसकी जरूरत है, वहाँ वह पहुँच जाती है। बिना किसी आग्रह या शर्त के। जाति, सम्प्रदाय, वर्ग और धर्म किसी की भी चिन्ता न करते हुए।

रामसंस्कृति: पृष्ठभूमि और प्रेरणा

बुंदेलखण्ड का अंचल रामसंस्कृति की दृष्टि से इसलिए विशेष है कि उसका प्रमुख केन्द्र चित्रकूट यहाँ का पवित्र तीर्थ है। वाल्मीकि रामायण के अनुसार राम बनवास की अवधि में पहले यहीं ठहरे थे। राम और भरत का मिलन यहीं हुआ था, जिसने भ्रातृप्रेम और त्याग के लोकमूल्यों की प्रतिष्ठा की थी। अभि, शरभंग आदि ऋषियों के आश्रम यहीं थे, जिनसे आश्रमी संस्कृति फली -फूली थी।

इस अंचल के निवासी पुलिन्द, निषाद, शबर, रामठ, दाँगी आदि थे, जिनकी अटवी या वन्य संस्कृति अपने मूल्य, संस्कार और आचरण के कारण आर्य संस्कृति से भिन्न थी। राक्षस उसे नष्ट करने के लिए आक्रमण करते थे, इस कारण वन्य जातियों ने राम जैसे वीर का स्वागत करना अपने हित में जरूरी समझा था। इसी ऐतिहासिक घटना से रामसंस्कृति का बीज इस धरती की धरोहर बना था, जो धीरे-धीरे अंकुरित, पल्लवित और पुष्पित हुआ।

मूर्तिकला का सबसे पुराना प्रमाण नचना (जिला पन्ना) में प्राप्त राम-सुग्रीव मित्रता, बन में वानर और राम-संबंधी घटनाओं के कलात्मक फलक हैं, जो पाँचवीं शती में निर्मित किये गए थे। इनसे प्रतीत होता है कि नचना में राम मंदिर था। देवगढ़ (जिला ललितपुर) के विष्णु मंदिर (छठवीं शती) में रामायणी दृश्यों का अंकन इतिहासप्रसिद्ध है। ये दोनों उदाहरणों से सिद्ध है कि भारतीय मूर्तिकला में रामचरित का उत्कीर्णन सबसे पहले इसी अंचल में हुआ था।

तीसरी-चैथी शती से लेकर बारहवीं शती तक पुराणों की रचना हुई थी, जिनमें से अधिकांश यहाँ के आश्रमों में लिखे गये थे। पुराणों में कथाओं के माध्यम से इतिहास, दर्शन, धर्म और नीति की अभिव्यक्ति आम आदमी के लिए सिद्ध हुई। उनकी दूसरी विशेषता एक समन्वयकारी देवत्व की प्रतिष्ठा थी, जिसने बहुदेववाद में फैली श्रेष्ठता की लड़ाई को हमेशा के लिए खत्म कर दिया।

पुराणों की महत्वपूर्ण उपलब्धि यह भी है कि उन्होंने लोकाचरण को धर्म के सूत्रों से बाँधकर समाज में एकता और दृढ़ता स्थापित कर दी। चैथी विशेषता यह थी कि पुराणों में रामकथा, रामचरित्र और उनकी  महानता  को उचित महत्व मिला, जिससे रामसंस्कृति धर्माचरण में सम्मिलित हो गयी और उसकी पहुँच जन-जन तक फैल गयी।

महाकवि बाणभट्ट कृत “कादम्बरी” में रामकथा के महत्व का साक्ष्य मिलता है। कवि लिखते है कि राम को प्रसन्न करने के लिए जाबालि आश्रम में रामायण का पाठ होता था। महाकवि भवभूति के प्रसिद्ध नाटकों- “उत्तररामचरित” और “महावीरचरित” में रामकथा-संबंधी कथानक ही हैं और दोनों का मंचन कालपी के सूर्यमंदिर में यात्रा या मेले के अवसरों पर हुआ था। स्पष्ट है कि सातवीं-आठवीं शती में रामकथा की लोकप्रियता काफी बढ़ गयी थी।

चंदेल-युग में चंदेल नरेशों ने राम के “पुरूषोत्तम” को आदर्श मानकर उसे अपने शरीर में अंतर्भूत होना उत्तम समझा था। वे व्यक्तित्व की महानता के लिए अनिवार्य गुणों की खोज राम में किया करते थे। जहाँ तक भक्ति का प्रश्न है, राम की स्तुति विष्णु का एक नाम समझकर की गयी थी।

खजुराहो के मंदिरों में राम का अंकन दशावतार फलकों में हुआ है। कालंजर दुर्ग में सीता-शय्या नामक स्थान पत्थर काटकर बनाया गया है। इस युग में राम-सीता से अधिक उनके भक्त हनुमान सम्मानित हुए हैं। चंदेल सिक्कों में हनुमान या छत्रधारी हनुमान की मूर्ति मिलती है। खजुराहो में हनुमान जी की एक बड़ी मूर्ति के पादलेख से वह 922 ई. की ठहरती है और उससे पता चलता है कि हनुमान जी की पूजा यहाँ प्रचलित थी।

तोमर-युग में हिन्दी का पहला रामपरक प्रबन्ध रचा गया था। वैसे तो चंद बरदाई कृत पृथ्वीराज रासो में रामावतार का वर्णन 38 छंदों में किया गया है, लेकिन विष्णुदास कृत “रामायन कथा” एक स्वतंत्र रामकाव्य है, जो 1442 ई. में लिखा गया था। महाकवि विष्णुदास कुँतवार (ग्वालियर) के निवासी थे और राजा डूँगरेन्द्रसिंह तोमर के आश्रित। नाथ सम्प्रदाय में दीक्षित होते हुए भी उन्होंने वैष्णव अवतार की वंदना की है-

स्वामी भुक्ति मुक्ति दातारू। प्रनऊँ रामदेव औतारू।।  वे कुंभकर्ण के मुख से कहलाते हैं- तुम नाहीं जानत या भेव, रामचन्द्र नारायन देव।।

राम को नारायण की मान्यता देने का अर्थ यही है कि कवि राम के महत्व को पूरी तरह स्वीकारता है। असल में, रामकथा सुनने से रण में पराजय नहीं होती-
मन थिर बुद्धि सुनै जो कोइ, रन रावर महँ हार न होइ। इसीलिए विजातीय संस्कृति से संघर्ष करने के लिए राम को आदर्श माना गया था। नारियों को अपहरण और वैधव्य का सामना करना पड़ता था, इस कारण उनका आदर्श सीता का सतीत्व और पातिव्रत्य हुआ- ’अति सरूप सीता सम सती‘।

भक्ति-आन्दोलन की लहर गुजरात से चलकर सीधे बुंदेलखण्ड में प्रविष्ट हुई थी। दूसरे, रामानन्द की भक्ति का केन्द्र काशी बुंदेलखण्ड के निकट था और काशी से ही बुंदेले इस जनपद में आये थे।

उत्तर भारत में मुसलमानों की हिन्दूविरोधी नीति का आतंक था, जबकि इस प्रदेश में तोमर और बुंदेलों के स्वतंत्र हिन्दू राज्य स्थापित थे। अयोध्या के विनष्ट होने पर रामभक्तों के लिए चित्रकूट ही प्रमुख तीर्थ बचा था, जो बाहरी आक्रमणों से सुरक्षित था। चित्रकूट की चेतना से प्रेरणा पाकर ही तुलसी ने ’रामचरित मानस‘ और अन्य ग्रंथों की रचना की थी।

दूसरा केन्द्र बना ओरछा जहाँ के नरेश मधुकरसाहि बुंदेला (1554-92 ई.) की पटरानी गणेशकुँवरि अयोध्या से राजा राम लाई थीं। बुंदेलों ने अपना राज्य उन्हीं के सुपुर्द कर दिया था, जिससे राज्य के सभी कागजों पर राम-राज्य की मोहर लगने लगी थी।

रामभक्ति का उत्कर्ष तुलसी की रामचरित मानस की देन है। मानस ने ही रामसंस्कृति की पुनर्रचना की थी और उसे ऐसी विराट मूर्ति के रूप में ढाला था, जो भारतीय संस्कृति की प्रतिमूर्ति बन सके। इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि तुलसी की भक्ति और काव्य चित्रकूट के सम्पूर्ण परिवेश का सुफल है।

विनयपत्रिका में काशी के बाद चित्रकूट की वन्दना की गयी है, परन्तु काशी परमपद प्राप्ति के लिए शिवपुरी हैं, जबकि चित्रकूट रामपद चहिय प्रेम के लिए रामपुरी। अब चित चेत चित्रकूटहि चल नामक पद में कवि की अंतश्चेतना मानो सबकुछ छोड़ चित्रकूट से लिपटने लगती है।

तुलसी द्वारा चुनी हुई आदर्श रामसंस्कृति की आयोजना में बुंदेलखण्ड की लोकसंस्कृति का योगदान रहा है। इस ऋण के बावजूद तुलसी का प्रदेय यह है कि उनकी मानस ने भक्ति के मूल्य को जीवन का सब-कुछ बना दिया। राम की उपासना ने समाज को नया आदर्श दिया। आदर्श व्यक्ति, परिवार, समाज और राज्य के लिए मर्यादा, त्याग, संयम, शील, कर्म, शक्ति और धर्म का जो स्वरूप जरूरी था, वह सब मानस ने कथा के घोल में मिलाकर इस तरह बाँटा कि जन-जन में बहुत गहरे पैठ गया ।

इस जनपद के हर वर्ग ने लाभ उठाया। लोक ने संघर्ष और संयम के संस्कार रामोपासना से लिये और एक बार सारी लोकसंस्कृति राममय हो गयी। लोककवि ललकार उठा-
कोट नबै परबत नबै सिर नबत नबाये,
माथौ जनकजू कौ तब नबै जब साजन आये।

पहली पंक्ति में मध्ययुगीन राजनीति की झलक है। बड़े-बड़े किले, पर्वत और सिर शक्तिसमपन्न के सामने झुक जाते हैं, लेकिन लड़की के पिता का माथा तभी झुकता है, जब उसके समधी आते हैं। पिता का स्वाभिमान कितना ऊँचा है, पर यह आंतरिक ऊर्जा तभी आ सकी जब वह सीता का पिता जनक बना।

मध्ययुग में चम्पतराय (1587-1661 ई.) और छत्रसाल (1649-1731 ई.) बुंदेला का बुंदेलखण्ड की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष 1640 ई. से 1700 ई. तक लगभग 60 वर्ष निरंतर जारी रहना राष्ट्रीय चेतना के जागरण की अनोखी मिसाल हे। छत्रसाल ने तो विजयी होकर इस जनपद को सुव्यवस्थित किया था और उसे एक सबल सांस्कृतिक इकाई बनाया था।

संघर्ष की यह ऊर्जा और व्यवस्था के ये संस्कार उन्हें रामसंस्कृति से मिले थे। छत्रसाल ने एक छंद में लिखा था- अमित भरोसो मोय राम रघुरैया को। वे हनुमान जी से म्लेच्छों को नष्ट करने की प्रार्थना करते हैं। इस रूप में उनकी भक्ति राष्ट्रीय हो जाती है। अराष्ट्रीय तत्वों के लिए कवि ने ’असुर‘ का प्रयोग किया है। उसे यह मतलब नहीं कि असुर हिन्दू है या मुसलमान। चाहे जिस जाति या धर्म का हो, जो अराष्ट्रीय है, वह असुर है। इस प्रकार भक्तिकाल के असुर को धैर्य के खेमे से निकाल कर उसे सामाजिक और राष्ट्रीय संदर्भ प्रदान करना छत्रसाल का काम था।

योगमार्गी तपसी रामभक्तों की एक शाखा राठ (जिला हमीरपुर) के बड़ा मंदिर से संबद्ध है। महंत ब्रजवल्लभ दास के अनुसार उस स्थान की स्थापना 1575 ई. के लगभग हुई थी। महंत भीषमदास (1650 ई.), प्रीतमदास (1750ई.) और चेतनदास (1775 ई.) की बानियाँ मंदिर में उपलब्ध हैं। इन बानियों के अनुसार योगमार्ग के द्वारा रामभक्ति की प्राप्ति संभव है। छतरपुर में जानराय टौरिया का मंदिर है, जिसमें भगवान राम की आजानबाहु मूर्ति प्रतिष्ठित है। उसकी स्थापना 1603 ई. में हुई थी, तब छतरपुर एक जंगल था।

जनश्रुति है कि इस अंचल के बनों में कई ऐसे केन्द्र थे, जिनमें रामभक्त तपसी योग-साधना करते थे और मौका पड़ने पर आक्रमणकारियों के खिलाफ युद्ध भी करते थे। हर केन्द्र में एक अखाड़ा भी होता था, जो संदेश मिलते ही सक्रिय हो जाता था। इस प्रकार योगमार्गी रामभक्त तपसियों का यह अभियान एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक महत्व रखता है।

1783 ई. में गठेवरा का युद्ध हुआ जिसे बुंदेलखण्ड का महाभारत कहा जाता है। फल यह हुआ कि इस जनपद की ऊर्जा आपसी संघर्ष में डूब गयी, मूल्यों का हृास हो गया और संस्कृति रात के अंधेरों में घिरकर सिमट गयी। ऐसे संकट के समय राम और विशेष रूप में हनुमान की भक्ति उपयोगी सिद्ध हुई, पर वह वीर रस के कवि खनगाँय (जिला छतरपुर) निवासी खुमान “मान” कवि (1779-1821 ई.) के लक्ष्मण शतक, रामरासो, हनुमत पचीसी आदि ग्रंथों में मिलती है।

1857 ई. में आजादी की पहली लड़ाई इस जनपद के इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ है। उसमें एक चमत्कारी घटना यह थी कि अंग्रेजों के विरूद्ध हिन्दू और मुसलमान एक हो गये थे। दोनों की एकता किसी अचानकता का परिणाम नहीं थी, वरन् एक सतत् उद्योग का सुफल थी। सन्तों ने हिन्दू-मुसलमान के समन्वय के लिए ’राम‘ को गया था। साकार राम निराकार होकर और भी असरदार हो जाते हैं।

19 वीं शती के प्रारम्भिक चरण के विख्यात मुसलमान सन्त एनसाईं (ऐनानन्द ’ऐन‘) भले ही इस अंचल के हों, पर उन्होंने राम के “सत्त” को जग की “खुसबोई” (सुगंध) माना था। सन्तों की तरह यहाँ के हरबोलों ने बीस-पच्चीस वर्षों तक गाँव-गाँव और घर-घर जाकर क्रान्ति के लिए जन-जन को जगाया था। ओज और ऊर्जा से भरा आख्यानक काव्य गा-गाकर। उस काव्य के नायक अतीत के वीर चरित थे- पौराणिक, ऐतिहासिक और आंचलिक।

पौराणिक आख्यानों में राम का मिथक ही सबसे अधिक महत्वपूर्ण था। सैर और लावनी में नयी शक्ति भर गयी थी-
काऊ नें सैर भाषे, काऊ ने लाउनी। अबके हल्ला में फुँकी जात छाउनी।।
इसीलिए सैर और लाउनी में धनुष-यज्ञ, अंगदवाद, सीताहरण और युद्ध-प्रसंग लिखे गये, जो चुनौती, दृढ़ संकल्प, भारतमाता की दासता और जुझारूपन के प्रतीक लोकचेतना के अंग बन गये थे।

अंग्रेजों से सनदें पाकर बुंदेलखण्ड की रियासतें अपने वैभव-विलास में डूबने लगी थीं, क्योंकि उनकी रक्षा का भार अंग्रेजों पर था। राजा-रानी और उनके सामन्तों की मानसिकता एक तरफ भौतिक सुखों की तरंगायित उमंगों से उद्धेलित थी, तो दूसरी तरफ आध्यात्मिक साधना की कठोर भूमि से विचलित।

इस द्विविध स्थिति में रामरसिक भक्ति की धारा ने एक नयी दिशा प्रदान की, जिसके परिणामस्वरूप हर राज्य में भक्ति का एक नया ज्वार उठा। पन्ना, अजयगढ़, छतरपुर, बिजावर, चरखारी, टीकमगढ़, समथर, दतिया आदि रियासतों में रसिक भक्तों का सम्मान ही नहीं बढ़ा था, वरन् रामसखे, प्रेमसखी और कृपानिवास के प्रभाव से रानियाँ-महारानियाँ दीक्षित हो गयीं। इस रामरसिक भक्त रानियों ने जगह-जगह मंदिर बनवाये और भक्ति-उपासना के केन्द्र स्थापित किये।

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

बुंदेलखंड का स्वांग 

Chandel Kal Men Ram चंदेल काल मे राम

चंदेल अभिलेखों और सिक्कों पर राम और हनुमान को महत्व दिये जाने का अर्थ है कि चंदेलनरेश रामकथा से भली भाँति परिचित थे। 1442 ई. में कविवर विष्णुदास द्वारा रामायन कथा जैसा प्रबंध लिखे जाने से भी स्पष्ट है कि Chandel Kal Men Ram की कथा का प्रचलन लोक में था।

इसी समय जैन कवि रइधू ने पद्मपुराण की रचना की थी। जैन रामकथा की दो परम्पराएँ रही हैं। एक बाल्मीकी रामायण का अनुगमन करती है, तो दूसरी उससे भिन्न है। दो ग्रंथ अधिक महत्व के रहे हैं- एक स्वयंभू का ’पउम चरिउ‘ और दूसरा पुष्पदन्त का ’महापुराण‘। दूसरी परम्परा और ’महापुराण‘ में भी सीता को रावण और मंदोदरी की कन्या माना गया है। ‘महापुराण‘ दसवीं शती की रचना है। विचित्र बात यह है कि बुंदेली के दिवारी लोकगीतों में भी महापुराण की इस मान्यता को स्वीकार किया गया है। 
लंका कइये मायको और मंदोदरी मायँ रे,
रावण कइये पिता हमाये कौना देउँ सराप रे।
कैसें कइये मायको और मंदोदरी मायँ रे,
कैसें रावन पिता तुमाये इत्ती देउ बताय रे।

सामाजिक समरसता और एकता के लिए संस्कारपरक गीतों की रचना में प्रवृत्त हो गये थे। भक्ति-आंदोलन का उत्तर भारत में नेतृत्व करने वाले रामानंद जी ने जाति या वर्ग-गत भेदभाव को बहिष्कृत कर सभी को रामभक्ति का पाठ 14 वीं शती में ही पढ़ाया था। वस्तुतः तुर्कों के आक्रमणों, धर्मपरिवर्तन और कट्टरता के कारण आम आदमी का जीवन अस्थिर, निराश और भयाक्रान्त हो गया था, जिसकी वजह से उसे ऐसे आश्रय की तलाश थी, जो उसे स्थिर आस्था, आदर्श और सुरक्षा दे सके।

रामचरित में सब कुछ था- रामराज्य, पारिवारिक एकता, मर्यादा, चरित्र की दृढ़ता, संघर्ष की ऊर्जा आदि, इसीलिए उसका प्रचार-प्रसार जल्दी और व्यापक रूप में हुआ। इस अंचल का सांस्कृतिक केन्द्र गोपगिरि (ग्वालियर) था। तोमरों का राज्य 1402 ई. से शुरू हुआ था, पर उसका स्थायित्व और सांस्कृतिक वैभव 1424 ई. से मानना उचित है। उस समय नाथ संतों और जैन मुनियों  का प्रभाव अधिक था, वैष्णव भक्ति का बहुत कम।

रामायन कथा के रचयिता विष्णुदास नाथ मत के थे, परन्तु उन्होंने तत्कालीन परिस्थितियों को देखकर राम-कथा और महाभारत-कथा को चुना था। महाभारत-कथा में (रचना-काल 1435 ई.) कवि कहता है-
मलेच्छ  बंस बढ़ रह्यो अपारा। कैसें रहै धरम कौ सारा।।
कैसो कलि कैसो आचार। कैसो चलन चल्यो संसार।।

ये दो प्रमुख समस्याएँ कवि के सामने थीं, जिनके उपचार के लिये उसने महाभारत और रामायन-कथा लिखी। निश्चित है कि आचार और चलन के संस्कार के लिए राम का जीवन आदर्श था। इसी प्रकार लोककवियों ने भी सोचा था कि संस्कारों और आचरण की सुरक्षा तभी हो सकती है, जब वे ’राम‘ से जोड़ दिये जायँ। इस प्रकार संस्कारपरक लोकगीतों के लिए रामकथा का माध्यम अपनाया गया। देसी संगीत की नयी धारा भी 15 वीं शती में प्रवाहित हुई, जिसने काव्य को संगीत के माधुर्य से भर देने का एक आंदोलन ही प्रारम्भ कर दिया था। कुछ लोकगीत प्रचलन में पहले से आ गये थे, जिन्होंने पदकाव्य को जन्म दिया था।

जनमें राम सलोना अबध में, जनमे राम सलोना।
रानी कोंसिल्या के लाल भये हैं, राजा जसरथ के छोना।
रघुराज बना बन आबै री।
नबल किसोर लाल जसरथ को सबई के मन भाबै री।
अनब्याही सब ब्याही सबको चित्त चुराबै री।

1517 ई. के लगभग ग्वालियर के तोमरों का पतन हो गया था, पर भक्ति-आंदोलन ने एक आन्तरिक ऊर्जा उद्वेलित कर दी थी। 1528 ई. में राम-जन्मभूमि का मंदिर ध्वस्त किये जाने के बाद अयोध्या के रामभक्त चित्रकूट चले गये थे, जिससे रामभक्ति का केन्द्र चित्रकूट हो गया था।

1531 ई. में बुंदेलों ने ओरछा को बसाकर राजधानी बनाया और 1539 ई. ओरछे का किला बनकर तैयार हुआ। 1554 ई. में ओरछा की गद्दी पर मधुकर शाह बैठे, जो बहुत धार्मिक थे। इस तरह रामभक्ति का परिवेश तैयार हो चुका था। तुलसी ने लोकगीतों को परखकर रामलला नहछू लिखा था।

उनका मन समाज में अच्छे लोकगीतों का प्रचलन कर एक सांस्कृतिक सम्पूर्ति करना चाहता था। रामकथा को केन्द्र में रखकर उन्होंने और भी लोकगीत रचे थे, पर उनमें केवल रामलला नहछू ही सुरक्षित रह सका। नहछू सोहर गीत में लिखा गया है।

बुंदेलखण्ड में सोहर गीत प्रमुखतः जन्म-समय और सहजतः भौंलोटनी, दसटौन, मुण्डन, अन्नप्राशन, उपनयन (बड़ा मुण्डन) आदि के समय गाये जाते हैं। उपनयन (बड़ा मुण्डन= बड़ो मूड़नो) के लिए तुलसी ने सोहर लिखा था।

इस सोहर ने राम, कौशिल्या, दशरथ, नाउन आदि सभी पात्र लोक के पुत्र, माता, पिता, नाउन आदि लोकपात्र ही हैं, जो लोकव्यवहार के अनुरूप कार्य करते हैं। पुत्र, माता और पिता के स्थान पर राम, कौशिल्या और दशरथ का प्रयोग लोकगीत में ही नहीं, लोकसंस्कृति में भी एक मर्यादा और एक नया संस्कार स्थापित कर देता है, जिससे सांस्कृतिक कृत्यों और उत्सवों में एक नया आन्दोलन खड़ा हो सका।

एक ओर  है तुलसी की रामचरित मानस की रचना और दूसरी ओर  है महारानी गणेशकुँवरि का अयोध्या से राम को ओरछा लाकर उन्हीं को राज्य का शासन सौंपना। चित्रकूट तो नींव था, आत्मतत्व था। रामचरित मानस के बाद रामकथा का प्रसार और रामभक्ति की जाग्रति ने लोकगीतों की रचना को इतनी प्रेरणा दी कि उनके जगत का कोना-कोना राममय हो गया।

इस कालखण्ड में संस्कारपरक, भक्तिपरक, उत्सवपरक और कथापरक गीत रचे गये। इन रामपरक गीतों में संस्कारपरक प्रधान थे। तुलसी ने रामचरित मानस में बुंदेलखण्ड की ज्यौंनार के समय स्त्रियों द्वारा गायी जाने वाली गारियों की एक रीति का स्पष्ट उल्लेख किया है-

पंच कौर कर जेंबन लागे। गारि-गान सुनि अति अनुरागे।
जेंवत देयँ मधुर धुनि गारी। लै लै नाम पुरुष अरू नारी।

पुरुष और स्त्री का नाम लेकर गारी गाना और उसे सुनकर समधी, संबंधियों और बरातियों का प्रेम से विभोर होकर भोजन करना विवाह-संस्कार का एक अंग है। आचार्य केशव ने तो रामचंद्रिका में एक गारी ही रच दी है, जिसमें राम के पिता दशरथ को विप्रों द्वारा त्यागी पृथ्वी को अपनी पत्नी बनाना कहा गया है। विप्र भूदेव (पृथ्वी के देव) हैं और दशरथ भूपति (पृथ्वी के पति) हैं। दोनों शब्दों की व्यंजना से गारी की रचना हो गयी है। लेकिन लोकगीत की सहजता ही कुछ अधिक तीखी है… 
हमनें सुनी अबध की नारीं दूर रयें पुरसन सें।
खीर खाय सुत पैदा करतीं लाला बड़े जतन सें।

जनकपुर में राम की साली और सरहज उनसे हँसी करती हैं कि अयोध्या की स्त्रियाँ खीर खाकर पुत्र पैदा कर लेती हैं। रामचरित मानस में “चरू” और अध्यात्म रामायण में “पायस” (खीर) दिया गया है, जिसके ग्रहण करने से रानियों को पुत्र हुए थे। इस आधार पर लोकगीत की पंक्तियाँ लिखी गयी हैं, फिर भी ’हमनें सुनी‘ और ’बड़े जतन से‘ में कितनी सहजता, किन्तु कितनी व्यंजना है।

राम भक्ति के उत्कर्ष का एक चरण चम्पतराय और छत्रसाल बुंदेला का स्वतंत्रता-संग्राम था, जिसमें भक्ति वीररसात्मक हो गयी थी। आजादी के संघर्ष में लोकगीतों के राम ने जो सहारा दिया था, उसे भी भुलाया नहीं जा सकता । रामपरक लोकगीतों में धनुष की टंकार का महत्व हैं। राम के एकनिष्ठ दास पवनपुत्र हैं।

अगर वे रक्षक हैं, तो राम को कष्ट देना उचित नहीं है। यही कारण है कि हनुमान को केन्द्र में रखकर वीररसपरक गीत काफी लिखे गये थे। योगमार्गी तपसी रामभक्तों से प्रेरणा लेकर भी ओजमय गीत रचे गये थे, जिनमें राम को ब्रह्म की तरह मान कर जगत के माया-जाल से तिलांजलि देते हुए सिर देने को महत्व दिया गया था।

भक्ति गीतों में भजन, रमटेरा और गारियाँ प्रमुख थे। गारियों में मध्ययुग के आदमी की मानसिकता को रामभक्ति के माध्यम से व्यक्त किया गया है। उत्सवपरक गीत उन उत्सवों के क्रियाकलापों से भरे हुए हैं। अकती का वट-पूजन, होली का रंग-विनोद और रामनवमी का जन्मोत्सव इन गीतों की विषयवस्तु रहा है। झूला गीतों में भी राम, सीता और लक्ष्मण के विषय भरे हुए हैं।

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

बुंदेलखंड के लोक गीत 

 

Dharma Aur Sanskriti धर्म और संस्कृति

धर्म और संस्कृति दोनों ही महत्वपूर्ण और गहरे विषय हैं जो मानव समाज में समृद्धि और सामाजिक समरसता को संरक्षित रखने में मदद करते हैं। Dharma Aur Sanskriti मिलकर ही परंपराओं का निर्माण कर उन्हे संचालित करते हैं और समाज को सही दिशा में ले जाते हैं ।

1 धर्म: धर्म एक व्यापक अर्थ है जो व्यक्ति या समुदाय की आध्यात्मिक, नैतिक, और सामाजिक मान्यताओं और नियमों का समूह है। यह लोगों के जीवन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है और उन्हें उनके कर्तव्यों और जीवन के उद्देश्यों की दिशा में निर्देशित करता है। धर्म विभिन्न संस्कृतियों और समुदायों में भिन्न-भिन्न रूपों में प्रकट हो सकता है।

2 संस्कृति: संस्कृति एक समृद्ध शब्द है जो एक समुदाय या समाज के विशेष रूप, शैली, विचारधारा, और विचारों को संकलित करता है। यह समाज, भाषा, कला, साहित्य, विज्ञान, धार्मिक आदर्श, राजनीतिक प्रथाओं, और अन्य सामाजिक गतिविधियों का एक समृद्ध और संपूर्ण व्यापक परिचय प्रदान करता है।

धर्म और संस्कृति दोनों ही मानव समाज के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं और उनके माध्यम से मानवता ने अपनी आत्मविश्वास, सामाजिक संबंध, और अपने आप को समझा है।

आदर्श और मूल्यों का संरक्षण: धर्म अक्सर व्यक्तिगत और सामाजिक मूल्यों का परिचायक होता है जो संस्कृति के अंतर्गत बने रहने के लिए महत्वपूर्ण होते हैं।

सामूहिक अनुष्ठान और सम्प्रदायों का विकास: धर्म समुदायों को एक साथ लाने और संगठित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जो संस्कृति के रूप में व्यक्त होता है।

सामाजिक और आध्यात्मिक समरसता: धर्म संस्कृति के अंतर्गत समाज में समरसता और सामंजस्य को बनाए रखने में मदद करता है।

व्यक्ति के अध्यात्मिक विकास का समर्थन: धर्म व्यक्ति के अंतर्यात्मा के विकास और संस्कृति में सम्मिलित होने में मदद करता है।

इस प्रकार, धर्म और संस्कृति दोनों ही एक दूसरे को पूरक होते हैं और मानव समाज के विकास में गहरा योगदान देते हैं। धर्म और संस्कृति समाज में विभिन्न प्रकार के प्रभाव डालते हैं, जो मानव समाज के संरचना, विचारधारा, और संघर्ष को प्रभावित करते हैं। यहाँ कुछ मुख्य प्रभावों की व्याख्या है:

सामाजिक संरचना: धर्म और संस्कृति सामाजिक संरचना को प्रभावित करते हैं। उनके अंतर्गत व्यक्ति और समुदायों की भूमिकाओं, कर्तव्यों, और संघर्षों का परिचय होता है।

नैतिक मूल्यों का संरक्षण: धर्म संस्कृति में नैतिक मूल्यों को प्रमोट करता है और उन्हें बनाए रखने में मदद करता है। यह सामाजिक न्याय, समाजिक समरसता, और उच्चतम आदर्शों की प्रोत्साहना करता है।

संघर्ष और समन्वय: धर्म और संस्कृति समाज में संघर्ष और समन्वय को प्रभावित कर सकते हैं। वे समुदायों के बीच सामंजस्य और एकता को बढ़ावा देते हैं, लेकिन वे भी आत्मिकता और असहमति के कारण संघर्ष पैदा कर सकते हैं।

व्यक्तिगत और सामाजिक विकास: धर्म और संस्कृति व्यक्ति के व्यक्तिगत और सामाजिक विकास को प्रभावित करते हैं, जैसे कि उनकी शिक्षा, संबंध, और जीवनशैली।

राजनीतिक प्रभाव: धर्म और संस्कृति राजनीतिक और सामाजिक जीवन को भी प्रभावित करते हैं। वे राजनीतिक धारणाओं, संरचनाओं, और व्यवस्थाओं को प्रभावित कर सकते हैं। इस प्रकार, धर्म और संस्कृति समाज में गहरा प्रभाव डालते हैं और मानव समाज के विभिन्न पहलुओं को प्रभावित करते हैं।

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

बुंदेलखंड का रहस 

error: Content is protected !!