Malwa Ki Lok Kalaye मालवा की लोक कलाएं

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By admin

मालवा  मध्य प्रदेश का हृदय स्थल है।  मालवा यहां पर सांस्कृतिक साहित्यिक सामाजिक तथा प्राकृतिक अनुकूल वातावरण के साथ ही लोक संगीत एवं लोक कला भी समृद्ध है मालवा की लोकप्रिय लोक कला है “संजा” संपूर्ण रुप से लोक कला एवं लोक गीतों से परिपूर्ण है।  Malwa Ki Lok Kalaye एवं लोक गीतों के उत्सव पर जन आनंद अनुभूति होता है मालवा में  लोक कला, लोक कथा एवं लोकगीत उसी तरह स्थित हैं जिस तरह मानव शरीर में ह्रदय। 

मालवी लोकगीत
पुंसवन, जन्म, मुंडन, जनेऊ, सगाई-विवाह के अवसर पर पारम्परिक लोकगीत तथा पर्व-त्योहार, ऋतु, अनुष्ठान संबंधी गीतों के गाने की परंपरा समूचे मालवांचल में मिलती है। मालवी लोकगायन में बोली की मिठास के साथ वहाँ की प्रकृति और संस्कृति की समृद्धि और सौन्दर्य के मूल स्वर सहज

रूप से सुनाई देते हैं।

Bharthari भरथरी गायन
मालवा में नाथ सम्प्रदाय के लोग चिंकारा पर भरथरी कथा गायन करते हैं। चिंकारा, नारियल की नट्टी, बाँस और घोड़े के बालों से निर्मित पारम्परिक वाद्य है। चिंकारा बालों से बने धनुष से बजाया जाता है जिसमें से रूँ-रूँ की मधुर ध्वनि निकलती है। भरथरी, गोपीचंद कथा, गोरखवाणी, कबीर, मीरा आदि के भजन गाते हुए नाथ-पंथी लोग भोर में मालवा के गाँवों में आज भी मिल सकते हैं। कुछ नाथ पंथी अखाड़ों में सितार-तबले की संगत में बैठकर भरथरी गोपीचंद भजनादि गाने की परंपरा है।

Nirguni निरगुणी भजन गायन
मालवा की निरगुणी लोकपद गायन-परंपरा बहुत पुरानी है। निरगुणिया भजनों में कबीर के अध्यात्म की छाप होती है। जिसमें नश्वर शरीर और अमर आत्मा तथा परमात्मा संबंधी तत्वों की सरल प्रतीकों में विवेचना होती है। निरगुणिया भजनों में इकतारा और मंजीरे के स्वरों के साथ मालवा की
लोकधुनों और मालवी बोली का माधुर्य देखा जा सकता है।

Sanja संजा गीत
संजा गीत मूलतः मालवा की पारम्परिक गायन-पद्धति है, इसमें किसी प्रकार का सह वाद्य नहीं होता। पितृपक्ष में किशोरियाँ संजा-पर्व मनाती हैं, गोबर और फूल पत्तियों से संजा की सुन्दर आकृतियाँ बनाती हैं, शाम को उनकी पूजा आरती करती हैं तथा संजागीत गाती हैं।

Heed हीड़ गायन
श्रावण के महीने में मालवा में हीड़ गायन की प्रथा है। इधर बाग-बगीचों में झूले पड़ते हैं, उधर गाँवों में हीड़ गायन की प्रतिस्पर्धा शुरू होती हैं। हीड़ गायन मूलतः अहीरों के अवदानपरक लोक आख्यान है, जिसमें कृषि-संस्कृति की आन्तरिक परतों का सूक्ष्म वर्णन मिलता है।

पर्व-त्योहार संबंधी गायन
होली पर फाग, दिवाली पर देवारी, जन्माष्टमी पर कृष्णलीला गीत, नवरात्रि में देवी गीत गाने की परंपरा समूचे मालवा में है।

Barsati Barta बरसाती बारता
बरसाती बारता ऋतु-कथा-गीत है। बरसाती बारता का कथन और गायन बरसात के समय में किया जाता है, इसलिए इसका नाम बरसाती बारता पड़ा। मालवा के गाँवों में घरों में बैठकर बरसाती बारता कही और गाई जाती है।

मालवा के लोक नृत्य
Matki मटकी नृत्य
मालवा में मटकी नृत्य का अपना पारम्परिक रंग है। विभिन्न अवसरों, विशेषकर सगाई-विवाह पर, मालवा के गाँवों की महिलाएँ मटकी नृत्य करती हैं। एक ढोल या ढोलक की एक खास लय जो मटकी के नाम से जानी जाती है, उसकी थाप पर महिलाएँ नृत्य करती हैं। मटकी ताल के कारण इस नृत्य का नाम मटकी नृत्य पड़ा।

महिलाएँ परम्परागत वेशभूषा में चेहरे पर घूघट डाले नृत्य करती हैं। नाचने वाली पहले गीत की कडी उठाती है, फिर आसपास की महिलाएँ समूह में इस कड़ी को दोहराती-तिहराती हैं। नृत्य में हाथ और पैरों का संचालन होता है। नृत्य के केन्द्र में ढोल होता है। मटकी ताल इस नृत्य की मुख्य ताल है। ढोल किमची और डंडों से बजाया जाता है।

Aada-Khada आड़ा-खड़ा रजवाड़ी नाच
आड़ा-खड़ा रजवाड़ी नृत्य की परंपरा किसी भी अवसर पर समूचे मालवा में देखी जा सकती है, परंतु विवाह में तो मण्डप के नीचे आड़ा-खड़ा और रजवाड़ी नृत्य अवश्य किया जाता है। ढोल की पारम्परिक कहेरवा-दादरा आदि चालों पर आड़ा-खड़ा रजवाड़ी नाच किया जाता है।

मालवा का लोकनाट्य 
Mach माच
भारतीय लोकनाट्य-शैलियों में माच Mach एक लोकप्रिय लोक-नाट्य परंपरा है। मालवा में लोक-मंच के रूप में माच लगभग दो-सौ वर्षों से लोकानुरंजन का सबल माध्यम बना हुआ है। माच मालवी-लोक का बेजोड़ रंगकर्म है। ‘माच’ संस्कृत के मंच से बना है। कुछ लोगों का कहना है कि माच राजस्थान के ख्याल, कलगीतुर्रा की मालवी संतान है, लेकिन इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि माच के विकसित रूप ने मौलिक आत्मीयता उज्जैन की लोक बस्तियों में प्राप्त की।

उज्जैन माच की उत्सभूमि है। माच के प्रवर्तक, गुरु या उस्ताद कहलाते हैं। उस्तादों के अपने-अपने अखाड़े होते हैं। माच को प्रतिष्ठा दिलाने वाले गुरुओं में सर्वश्री गोपाल जी, बालमुकुन्द जी, राधाकिशन जी, कालूराम जी और भेरूलाल जी का बुनियादी और उल्लेखनीय योगदान है। राधाकिशन जी अखाड़े के श्री सिद्धेश्वर सेन तथा कालूराम जी के पोते श्री ओमप्रकाश शर्मा माच को वर्तमान स्वरूप प्रदान करने तथा आधुनिक रंगमंच पर माच को जोड़ने में परंपरागत व मौलिक स्थान रखते हैं।

मालवा की लोक-चित्रकला
मालवा में दो तरह की लोकचित्र परंपरा है। एक वह परंपरा जो पर्व-त्योहारों पर घर की महिलाएँ व्रतअनुष्ठान के साथ दीवारों पर गेरू, खड़िया, चावल के आटे को घोलकर बनाती हैं। दूसरी व्यावसायिक रूप से विकसित लोक-चित्रकला। व्यावसायिक चित्रकला का आधार सामाजिक सौन्दर्य-बोध है, जो घर की बाहरी भित्तियों अथवा मंदिर के अहातों में बनाई जाती है। पर्व त्योहारों पर भित्तिचित्र एवं भूमि-अलंकरण किया जाता है।

पारम्परिक चित्रकला में हरियाली अमावस्या पर दिवासा, नागपंचमी को नाग चित्र, श्रावणी पर सरवण चित्र, जन्माष्टमी पर कृष्ण जन्म के भित्री चित्र, श्राद्ध पक्ष में संजा, नवरात्रि में नरवत आदि भित्ति कला के श्रेष्ठ उदाहरण हैं।

इसमें संजा, मालवा की किशोरियों का पर्व है, जो पूरे श्राद्ध पक्ष में मनाया जाता है, इसमें किशोरियाँ प्रतिदिन गोबर, फूलपत्ती अथवा चमकीली पन्नियों से सोलहों दिनों संजा की अलगअलग आकृतियाँ बनाती हैं । अंतिम दिन सुन्दर किल्ला कोट बनाया जाता है। लड़कियाँ प्रतिदिन सांझ में संजा की आरती उतारकर समूह में गीत गाती हैं। भूमि-अलंकरण में मालवा में मांहणा मांडने की प्रथा बहुत पुरानी है। विशेषकर दिवाली पर तो घर आँगन में मांडनों की बहार देखी जा सकती है।

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