Kamal Ka Patta  कमल का पत्ता

Photo of author

By admin

बरकत अली का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया, ‘एक तो मेहतर की बेटी से शादी ऊपर से मुसलमान से हिन्दू। तौबा! तौबा!’ यह खबर जंगल में आग की तरह फैल गई। कई फिरकापरस्तों ने दिलदार को समझाया-बुझाया, डराया-धमकाया पर वो तो ठहरा Kamal Ka Patta  जिस तरह  कमल के पत्ते पर पानी नही ठरता ।

पहले उसका नाम दिलदार खां हुआ करता था। अपनी प्रेमिका के कारण उसे अपने नाम के आगे से खां हटवाना पड़ा। खां हटते ही उसे अपने घर-परिवार, मजहब यहाँ तक कि गाँव से भी हटना पड़ा। कट्टर मजहबी उसे फूटी आँख भी नहीं देखना चाहते थे। उसको जान से मार देने के लिए मारिया भी लगवाये गए, सौभाग्य से वह बच गया।

कहानी वर्षों पहले शुरू होती है, बल्कि देश की बुजुर्ग महिला प्रधानमंत्री की उन्हीं के अंगरक्षकों द्वारा हत्या कर देने के बाद उपजी हिंसक घटनाओं के बाद के दिनों की है। वर्षांत के अंतिम दिन चल रहे थे, इस वर्ष ठंड भी अपनी चरमसीमा लाँघ रही थी ।

उत्तर प्रदेश में जनपद सीतापुर के हरगाँव का निवासी महफूज ताँगे वाले की नवीं व अंतिम संतान का नाम दिलदार रखा गया था। दिलदार किशोरावस्था पार कर सुंदर सजीला नवयुवक हो चुका था। मूँछों के बाल घने हो चले थे। गोरे चेहरे पर दाढ़ी कम थी, पर जितनी भी थी, उसके बाल अब कड़े हो चुके थे। वह कोई बाइस वर्ष का गोरा-चिट्टा, मझोला कद, भूरे बालों वाला, सम्मोहित करतीं उसकी आँखें किसी को भी अपनी ओर लुभा लेने के लिए पर्याप्त थीं।

दिलदार के बूढ़े अब्बा अपनी इस अंतिम संतान को अपनी तरह ताँगा चलाने में पारंगत कर, उसे दो जून की रोटी कमाने में लगाना चाहते थे, परंतु दिलदार का काम में मन कतई नहीं लगता था। ताँगा हाँकना तो उसके लिए पहाड़ चढ़ने से भी दूभर था, उसे बचपन से ही शेरो-शायरी करने, नाटक-नौटंकी व फिल्में देखने का शौक था। फिल्में देखने का तो उसे इस कदर भूत सवार रहता कि कुछ पूछिये मत। मुशायरा, कवि सम्मेलन सुनने या नाटक, नौटंकी और फिल्म देखने के लिए वह अपनी तरह के यार-दोस्तों के साथ मीलों पैदल चलकर भी सीतापुर जाने को तैयार रहता था। गाँव के आवारा लड़कों से उसकी गाढ़ी छनती थी।

आठवीं दर्जा तक वह कैसे पढ़ गया? इस बात पर उसे स्वयं पर आश्चर्य होता था। वह अपने अब्बा और बड़े भाइयों की मार खा-खा कर ढीठ हो चुका था। उसे केवल अपने सबसे बड़े भाई सत्तार भाईजान का खौफ रहता था, जो सीतापुर में अपने बीबी-बच्चों के साथ रहकर वहाँ रिक्शा चलाते थे, वे उसे भी अपनी तरह सीतापुर में रिक्शा चलाने के लिए अक्सर दबाव बनाया करते थे।

रिक्शा या ताँगा चलाना दिलदार के सपनों में कहीं नहीं था। उसके मन-मस्तिष्क में हमेशा फिल्मों के सीन, उसके डायलॉग गूँजते रहते थे। वह अपने पसंदीदा हीरो अनिल कपूर की तरह स्वयं को सजाता-सँवारता रहता और अपनी ही मस्ती में डूबा कल्पनाओं में गोते लगाते रहता था। अब्बा और बड़े भाई के लाख चाहने पर भी वह उनके धंधे से दूर रहना चाहता था। इसी बात को लेकर अक्सर उसकी मार-कुटाई होती रहती थी, पर दिलदार तो जैसे कमल का पत्ता था, जिस पर चाहे जितना पानी उड़ेलो ठहरता ही नहीं था।

गाँव के दोस्तों संग वर्ष के अंतिम दिन अर्थात आंग्ल वर्ष, 1985 की पूर्व संध्या पर सीतापुर चलकर अनिल कपूर व श्रीदेवी की फिल्म ‘मिस्टर इंडिया’ देखने की योजना बनी। आनन-फानन में तय योजनानुसार दिलदार अपने दोस्तों के साथ पैदल, फिर ट्रक वाले को औना-पौना किराया दे  आ गया सीतापुर। वे सब नाइट शो में ‘मिस्टर इंडिया’ देख जब सिनेमाघर से बाहर निकले, तब ठंड से सभी की हालत खस्ता हो गई। देर रात कोई सवारी या ट्रेन भी नहीं थी, जो हरगाँव को जाए। विचार बना पैदल चलो। शरीर में गर्मी बनेगी, ठंड से बचेंगे और देर-सबेर घर पहुँच ही जायेंगे।

सीतापुर के बाहर पुलिस की गश्ती जीप मिली। कोहरे की ठंड में पूछताछ शुरू हुई। तलाशी हुई कुछ चिल्हर पैसे, सिनेमाघर के फटे टिकिट, बीड़ी माचिस के सिवा कुछ न मिला। बौखलाया दरोगा चिल्लाया, ‘‘डाल लो सालों को जीप में, डकैती की योजना बनाते धरे गए, नहीं तो एनकाउंटर कर दो। साले बीड़ी पीकर मिस्टर इंडिया बनेंगे..’’

वे सबके सब घबड़ा गए। कहाँ वे सब अनिल कपूर बने श्रीदेवी के ख्वाब में डूब उतरा रहे थे? कहाँ यहाँ पुलिस की गिरफ्त में ‘मोगेम्बो खुश हुआ’ की स्टाइल में दरोगा के रहमोकरम में पड़ गए। रात के अँधेरे में दिन का उजाला नजर आने लगा उठक-बैठक लगवाई गई। सभी को मुर्गा बनाते दारोगा ने हुक्म जारी किया, ‘‘आते हैं लौटकर, ऐसे ही मुर्गा बने मिलना, सब के सब। नहीं मिले तो….’’ सब के सब घण्टे भर से ऊपर बने रहे मुर्गा। टाँगे दुखने लगीं थीं। कोई वापस नहीं आया। आपस में मुर्गों में सलाह हुई और जो भागे तो हरगाँव आकर ही दम ली।

भोर का उजास हो चला था। दिलदार के अब्बा घर के चबूतरे पर बैठे दातून कर रहे थे। रात भर गायब रहने वाले बेटे की मनहूस सूरत देख आग बबूला हो उठे। आव देखा न ताव ताँगे से हंटर खींच पिल पड़े दिलदार पर। थकाहारा दिलदार वैसे भी थक कर चूर हो चुका था। अब्बा की मार से बेहाल और बेदम हो गया। पिटाई से इस बार उसे बचाने भी कोई नहीं आया। सब उसकी आदतों से हलकान थे, ‘वह इसी सजा का पात्र है’ यह मानकर सभी अपने-अपने बिस्तरों में दुबके पड़े रहे। एक अम्मी थी, जिसके कलेजे पर हंटर के वार हो रहे थे। बेबस अम्मी को दिलदार के अन्य भाइयों ने अब्बा की मार से दिलदार को पिटने से बचाने के लिए जाने नहीं दिया।

दिलदार ने आज के पहले इतनी मार कभी नहीं खाई थी, सो बदहजमी हो गई, जब उसे अपनी सुध आई, तब उसने देखा उसकी गोरी चमड़ी पर हंटर के कई निशान उभर आए हैं। अम्मी हल्दी चूना लगाने के बाद रेत की पोटली से जख्मों की सिकाई कर रही हैं। उसके अब्बा उसे मार-मार कर हार-थक गए थे और बड़बड़ाते हुए सुबह की ट्रेन की सवारियों के लिये रेलवे स्टेशन के लिए निकल चुके थे।

सारे दिन दिलदार की सूजी देह उसकी अम्मी सेंकती रहीं और खुद रो-रो कर दिलदार को कोसती रहीं। हल्दी चूना से चितकबरी हो चुकी देह जगह-जगह से दुःख रही थी। रात जब सब सो गए तब दिलदार ने अपने अब्बा के कुर्ते की जेब टटोली और उसमें रखे नब्बे रुपए निकाल लिए, फिर बिना एक पल गँवाए वह घर से बाहर निकल आया।

हरगाँव रेलवे स्टेशन से दिलदार ने सीधा झाँसी का टिकट कटवाया। लखनऊ पहुंचकर झाँसी के लिए ट्रेन बदली और अपनी बड़ी बहन रजिया आपा के सरकारी क्वार्टर में जा पहुँचा। रो-गाकर उसने सारा वाकया झूठी-सच्ची कहानी गढ़कर अपनी रजिया आपा को सुनाई। अब्बा द्वारा की जाने वाली निर्मम पिटाई की गवाह रही रजिया अपने रोते हुए छोटे भाई की बातों से पसीज गई। दिलदार का जीजा बरकत अली झाँसी कमिश्नरी में चपरासी था। साले की हालत और बीबी का आग्रह बरकत ठुकरा न सका और दिलदार की नौकरी या धंधे-पानी की जुगाड़ में लग गया।

दिलदार कुछ दिन तो ठीक-ठाक रहा, पर जल्दी ही उसने अपनी हरकतों से अपनी बहन व जीजा की नाक में दम करना प्रारंभ कर दिया। वह फिल्मों का शौकीन था ही झाँसी जैसे शहर में जहाँ कई टॉकीजें थीं और आए दिन किसी न किसी टॉकीज में दिलदार के पसंदीदा हीरो-हीरोइन अनिल कपूर या श्रीदेवी की फिल्म लग जाती थी। बाजार हाट की सौदा हो या घर की सब्जी खरीदने से लेकर गेहूँ पिसाने में दिलदार अपनी फिल्म देखने भर की जुगाड़ कर लेता था।

दिलदार के जीजा को जो सरकारी क्वार्टर मिला था, वहाँ बने सामूहिक शौचालय की सफाई करने बुजुर्ग जम्मू मेहतर आता था। वह भी पुराना फिल्मी रसिया और शेरो शायरी का शौकीन था। दिलदार की उसके साथ गाढ़ी छनने लगी थी। मेलजोल के चलते एक दो बार वह उसके घर जाकर थोड़ी बहुत दारू भी चख आया था। जम्मू के घर में दो बीवियों के स्वर्गवास के बाद ब्याह कर आई तीसरी बीबी और दूसरी बीबी से पैदा हुई इकलौती संतान के रूप में शन्नो रहती थी।

वैसे तो शन्नो अभी उम्र के पन्द्रहवें पायदान पर पहुँची थी, पर उम्र की वास्तविकता से अनभिज्ञ कोई भी उसे उन्नीस-बीस बरस से कम की नहीं आँक सकता था। साँवला रंग, तीखे नैन-नक्श भरापूरा यौवन से गद राया शरीर उसे संपूर्ण स्त्री के रूप में सामने रखता था। बाप के लाड-दुलार ने उसे बिगाड़ रखा था। छोटी उम्र से ही वह प्रेम-इश्क की बातें जानने लगी थी। उसे स्वयं पर बड़ा घमंड रहता था। वह फिल्मी हीरो के सपने सोते-जागते देखा करती थी। धर्मेंद्र से लेकर ऋषि कपूर तक सभी हीरो के रंगीन चित्र उसने सहेज रखे थे।

पढ़ी-लिखी तो वह कुछ खास नहीं थी, हाँ! थोड़ा बहुत लिखना पढ़ना वह जानती थी। माँ की मृत्यु के बाद से उसकी पढ़ाई एक बार छूटी, तो फिर वह दोबारा पढ़ने नहीं जा सकी। फिल्मी हीरोइनों की तरह सजना-सँवरना, फिल्मी पत्रिकाएं पढ़ना और फिल्मी गीत डायरी में लिखना उसके शौक थे। जब उसने पहली बार अपने सपनों के राजकुमार के रूप में दिलदार को देखा तो उसके शरीर में झुरझुरी छूट गई। अपने सपनों का राजकुमार गोरे चिट्टे खूबसूरत दिलदार में खोजते-खोजते वह उसे मन ही मन चाहने लगी। उसे देखते रहने और उससे बात करने के लिए तरसने लगी।

उन्हीं दिनों एक घटना घटी, जिसने न केवल दिलदार और शन्नो को नजदीक ला दिया, बल्कि तीस वर्ष बाद आज इस कथा लेखक को उन दोनों के ऊपर कहानी लिखने पर मजबूर कर दिया। अब आगे सुनिए वह यह था कि शन्नो की सौतेली माँ अर्थात जम्मू की तीसरी पत्नी अपने पति के साथ चल न सकी और मायके के अपने पुराने आशिक के साथ भाग गई। एक रात दारू के नशे में धुत जम्मू को लादे हुए दिलदार उसे उसके घर छोड़ने आया था।

दिलदार ने भी पी रखी थी। दो-तीन पैग जम्मू के साथ उसने भी खींचे थे। उसकी आँखों में खुमारी और टाँगों में मीठा-मीठा कम्पन हो रहा था, फिर भी वह स्वयं को पूरी तरह से नियंत्रित किए हुए था। दरवाजा शन्नो ने खोला। दिलदार को अचानक सामने देख शन्नो की खुशी का ठिकाना न रहा। वह उसी के ख्यालों में डूबी थी। दिलदार से आँखें मिलते ही वह मुस्कुराई। नशे में धुत बाप को दिलदार की मदद से उसने तख्त पर लिटा दिया। दिलदार की उँगलियां उसे छू गईं मानो करंट लगा हो वह सिहर उठी। नशे में बेसुध अपनी तीसरी बीबी को भद्दी-भद्दी गालियाँ देते जम्मू गहरी नींद में सो गया।

दिलदार शन्नो का लापरवाह यौवन देख सन्न रह गया। उसके दिमाग ने काम करना बन्द कर दिया। दारू का नशा कपूर की तरह उड़ गया। यौवन के नशे के सामने दारू के नशे की क्या बिसात! उसे लगा जैसे उसकी तलाश पूरी हो गई है। शन्नो की बड़ी-बड़ी एकटक निहारती आँखों में वह डूब गया। वह अनिल कपूर और उसके सामने उसकी श्रीदेवी। शन्नो की हालत भी बिना पिए नशेड़ी की तरह हो गई। अपलक वह अपने सपनों के फिल्मी हीरो को देखे जा रही थी। दोनों आगे बढ़े और पहली बार में ही सारी सीमाएं पार कर एक दूसरे में जा समाये।

इस पहली अप्रत्याशित मुलाकात ने दिलदार को शन्नो का और शन्नो को दिलदार का दीवाना बना दिया। अब आए दिन दोनों जम्मू की अनुपस्थिति में या उसके नशे में बेसुध हो जाने की स्थिति का लाभ उठाकर दोनों मिलने लगे। दोनों एक दूसरे के इस कदर दीवाने हो गए थे कि अब शेष जिंदगी उनको अलग-अलग रहना मंजूर नहीं था। जाति-धर्म, ऊँच-नीच की सारी दीवारें वे दोनों गिराकर विवाह कर लेना चाहते थे।

जैसा कि प्रचलित है इश्क और मुश्क ज्यादा दिन छुपाए नहीं छुपता वैसे ही दिलदार और शन्नो की प्रेम लीला का जिक्र दिन दूना-रात चौगुना कॉलोनी भर के लोगों की जुबानों पर फैलने लगा। दिलदार के जीजा बरकत अली को अपने साले की इस हरकत से कि वह एक सफाईकर्मी की लड़की के साथ इश्क लड़ा रहा है, बेहद शर्मिंदगी उठानी पड़ रही थी। वहीं जम्मू की जाति बिरादरी में कानाफूसी इस विरोध के साथ तीव्र होने लगी थी कि उनकी बिरादरी की जवान लड़की विधर्मी मुसलमान छोरे के साथ रासलीला रचा रही है।

दोनों के ऊपर प्रतिबंध लगने शुरू हो गए। बरकत अली ने दिलदार को वापस गाँव भेजने की ठान ली, तो जम्मू ने शन्नो के लिए बिरादरी में घर देखना शुरू कर दिया। जीजा बरकत अली से काफी कहासुनी के बाद दिलदार वापस अपने गाँव चला गया। कुछ दिन बाद ही शन्नो की आपात चिट्ठी मिलते ही वह वापस झाँसी आ गया।

जिस दिन दिलदार झाँसी आया। उसी रात शन्नो का विवाह बिरादरी के एक लड़के के साथ संपन्न होने जा रहा था। दिलदार ने अपने आने और मिलने के ठिकाने की सूचना बड़ी मशक्कत के बाद शन्नो तक भिजवाई। दिलदार का संदेशा मिलते ही पल-पल दिलदार की बाट जोह रही शन्नो मंडप से लघुशंका जाने का बहाना कर सीधे झाँसी रेलवे स्टेशन में दिलदार से जा मिली, जो उसी की प्रतीक्षा में व्याकुल हो रहा था। शन्नो के आते साथ ही वे दोनों प्लेटफार्म पर खड़ी ट्रेन पर बैठ गए।

ट्रेन चलने के कुछ देर बाद उन्हें पता चला कि यह ट्रेन लखनऊ की ओर जा रही है। एक स्टेशन से लखनऊ तक के लिए दिलदार ने दो टिकट खरीद लिए। अब उसके पास नाम मात्र के रुपए ही शेष बचे थे। उसके जेहन में आगामी दिनों के खर्चे के लिए चिंता शुरू हो गई। इसका समाधान शन्नो ने यह कहकर किया कि महीने दो महीने भर के खर्चे के लिए उसके पास कुछ रुपए व जेवर हैं। इस बीच दिलदार कोई काम तलाश लेगा।

लखनऊ में कोई जान पहचान तो दिलदार की थी नहीं। शन्नो को लेकर वह अमीनाबाद की मुन्नूलाल धर्मशाला में पहुँचा। पहले के दो-तीन दिन उन्होंने फिल्में देखने, खाने-पीने और बिन ब्याहे सुहागरात मनाने में बिता दिए। तीसरे दिन दिलदार शन्नो को लेकर एक मस्जिद में पहुँच गया। मौलाना ने दिलदार से डेढ़ सौ रुपये लेकर दोनों का निकाह पढ़ा दिया। निकाह के बाद दिलदार ने मौलाना को शन्नो का हिंदू धर्म का होना बताया। मौलाना ने खुश होकर दिलदार से लिए डेढ़ सौ रुपए वापस कर दिए और आगे किसी भी प्रकार की मदद निःसंकोच लेने के लिए कहा।

पति-पत्नी के रूप में रहते हुए एक सप्ताह हो चला था। एक दो माह तक चलने वाली जमा पूँजी पहले हफ्ते ही अधिकतर खर्च हो चुकी थी। इश्क के साथ-साथ पहली बार दोनों को आटे-दाल का भाव मालूम पड़ रहा था। अनजान शहर में काम की तलाश में दोनों दिनभर मारे-मारे फिरते, शाम किसी टॉकीज में फिल्म देखते, सस्ते-मन्दे होटल में खाना खाते और धर्मशाला के अपने कमरे में आकर थके हारे एकाकार हो सो जाते।

फरवरी का महीना बीत रहा था। धीरे-धीरे पैसे कम होते जा रहे थे। फिल्म देखने का अब सवाल ही नहीं उठता था। अनजान लोगों को कौन बिना जमानत काम पर रख लेगा। पहचान के नाम पर उनके पास कुछ न था। नियमानुसार धर्मशाला में सात दिन लगातार नहीं रह सकते थे। हर आठवें दिन की रात वे चारबाग रेलवे स्टेशन में सोते-जागते गुजारते।

इसी चारबाग रेलवे स्टेशन में जम्मू के मामा के लड़के दीपक ने सुबह-सबेरे छोटी लाइन की टिकट खिड़की के पास झाड़ू लगाते शन्नो को सोते देख लिया। शन्नो दीपक को नहीं पहचानती थी। दिलदार से बातचीत कर दीपक ने उससे दोस्ती बनाई। दिलदार को काम की तलाश थी। दीपक ने चारबाग रेलवे स्टेशन के बाहर शर्मा होटल में बैरे का काम उसे अपनी जमानत में दिला दिया।

भरपेट भोजन, पन्द्रह रुपये दिहाड़ी पर दिलदार वहाँ काम पर लग गया। धर्मशाला का पाँच रुपये जमा करने के बाद दस रुपये रोज बच रहे थे, पर इधर धर्मशाला में सारे दिन शन्नो दिलदार की याद में अकेली पड़ी रहती, उधर होटल में हर वक्त दिलदार का मन शन्नो में लगा रहता। जीविकोपार्जन के लिए रुपये चाहिए होते हैं और रुपये पेड़ पर नहीं उगते, काम करना पड़ता है। दिलदार जीवकोपार्जन के लिये काम कर रहा था। काम से लौटकर दिलदार दिहाड़ी शन्नो के हाथ पर रखता, फिर दोनों होटल से मिला भोजन साथ-साथ ग्रहण करते। ढेर सारी बातें करते-करते प्रेम में आकंठ डूब सो जाते।

दिलदार और शन्नो की जिंदगी का यह सिलसिला ज्यादा दिन नहीं चल पाया। दीपक की चिट्ठी मिलते ही जम्मू ने थाने में खबर कर दी और दो सिपाही साथ ले वह छपरा एक्सप्रेस से लखनऊ रात के आठ बजे आ पहुँचा। पूर्व योजना के अनुसार दीपक ने शर्मा होटल से पहले दिलदार को पकड़वाया, फिर मुन्नूलाल धर्मशाला में दिलदार की बाट जोहती शन्नो को बरामद करा दिया। उसी रात पुलिस दोनों को साबरमती एक्सप्रेस से चलकर सुबह सात बजे झाँसी ले आई ।

पुलिस ने शन्नो का 161 का बयान दर्ज कर उसे उसके पिता जम्मू के साथ घर जाने दिया और नाबालिग लड़की को बहला-फुसलाकर भगा ले जाने और उसका लगातार बलात्कार करने के जुर्म में दर्ज एफआईआर के अनुपालन में जो धुनाई दिलदार की हुई उससे अच्छे-अच्छे प्रेमियों के होश फाख्ता हो जाएं पर दिलदार पता नहीं किस मिट्टी का बना हुआ था? उसके मुँह से एक चीख भी नहीं निकली, प्रत्येक मार पर वह अपनी शन्नो को याद करता।

पुलिस की पिटाई के सामने इश्क का भूत तो नहीं उतरा पर दिलदार के जीजा बरकत अली के प्रयास से समझौता जरूर हो गया। शन्नो से दिलदार कोई वास्ता नहीं रखेगा, यह तय हुआ और परस्पर समझौते व शन्नो के दिलदार के मनमाफिक बयान देने से दिलदार को छोड़ दिया गया, पर इन तीन-चार दिनों में जो उसकी दुर्गति हुई थी, वह हफ्तों तक हल्दी मिला दूध पीने के बाद भी जाने वाली नहीं थी। अब यह प्रेमी जोड़ा विरह की अग्नि में रात-दिन जलने लगा। दोनों परस्पर एक दूसरे की याद में वक्त बिताने लगे। तमाम फिल्मी गीत-गजल, शेरो-शायरी गुनगुनाते दोनों एकदूसरे की याद में आँसू बहाने लगे।

दिलदार के ऊपर शन्नो का इश्क सवार था, तो शन्नो के दिलोदिमाग में दिलदार के प्रति चाहत रात-दिन बढ़ रही थी। बूढ़ा जम्मू अपनी इकलौती जवान बेटी का दुःख सहन नहीं कर पा रहा था । बिरादरी में उसकी नाक पहले ही कट चुकी थी। अब उससे कौन ब्याह करेगा? इसी उधेड़बुन में जम्मू ने दारूबाजी बढा दी थी। जम्मू की दारूबाजी का फायदा उठा दिलदार और शन्नो गाहे-बगाहे फिर मिलने लगे।

एक दिन जम्मू ने दोनों को रंगे हाथों पकड़ लिया तब वह अपनी बेटी के रुदन के साथ उठे आर्तनाद को ठुकरा न सका और दिलदार से बोला, ‘‘हम हिंदू हैं, सनातनधर्मी महर्षि वाल्मीकि के वंशज, भगवान राम के उपासक और तुम मुसलमान हो अल्लाह के उपासक। मैं अपनी बेटी तुम विधर्मी को कैसे दे दूँ? बिरादरी में हमारी बेइज्जती हो जाएगी।’’

दिलदार ने बेबाकी से जवाब दिया, ‘‘शन्नो हिंदू ही रहेगी।’’ जम्मू ने कहा, ‘‘नहीं! यह नहीं हो सकता कि वह हिंदू रहे और तुम मुसलमान बात तो वही हुई न! तुम मुसलमान से हिन्दू क्यों नहीं हो जाते।’’ दिलदार ने तत्क्षण कहा, ‘‘मैं अपनी शन्नो के लिये हिंदू बनने को तैयार हूँ।’’

जम्मू को लगा था कि उसका यह पासा सही पड़ेगा, पर दिलदार ने हिंदू बनने के लिए अपनी सहमति दे दी थी। जम्मू पशोपेश में पड़ गया। कुछ पल सोचने के बाद बोला, ‘‘सुनो! हम मेहतर हैं, साफ-सफाई हमारा पुश्तैनी पेशा है। लोगों का मैला साफ करते हैं। क्या तुम हमारी तरह साफ-सफाई कर सकोगे? लोगों का मैला उठा पाओगे?’’ वाह रे प्रेमी दिलदार! उसने बिना वक्त गँवाए आँगन के कोने पर रखी टोकरी और झाड़ू उठा ली, फिर जम्मू से बोला, ‘‘चलो मैं अपनी शन्नो के लिए लोगों का मैला भी साफ करूँगा। मुझे इससे भी कोई गुरेज नहीं है।’’

जम्मू अवाक रह गया। उसने सोचा यह दिलदार का इश्क नहीं उस पर चढ़ा फिल्मी भूत बोल रहा है। जम्मू ने कहा, ‘‘अच्छा देखते हैं। चलो! इसी वक्त मेरे साथ।’’ आश्चर्य! दिलदार झाड़ू और टोकरी लिए जम्मू के पीछे-पीछे चल दिया। सारे दिन जम्मू ने दिलदार से अपना सारा काम कराया। साफ-सफाई से लेकर मैला साफ करने तक। दिलदार इस परीक्षा में खरा उतरा ।

दूसरे ही दिन जम्मू आर्य समाज मंदिर पहुँच गया। शुभ विवाह की तिथि दो दिन बाद ही पड़ रही थी। जम्मू ने दिलदार की बड़ी बहन व जीजा को दिलदार के हिन्दू बनने और विवाह की तारीख की सूचना भिजवा दी। बरकत अली का गुस्सा सातवें आसमान पर पहुँच गया, ‘एक तो मेहतर की बेटी से शादी ऊपर से मुसलमान से हिन्दू। तौबा! तौबा!’ यह खबर जंगल में आग की तरह फैल गई। कई फिरकापरस्तों ने दिलदार को समझाया-बुझाया, डराया-धमकाया पर कमल के पत्ते पर पानी की तरह कुछ न ठहरा ।

     दो दिन बाद प्रेमी जोड़ा आर्य समाज मंदिर में विवाह हेतु  पहुँच गया। सबसे पहले दिलदार को सनातन धर्म की दीक्षा दी गई, फिर उसका वैदिक मंत्रोच्चार के साथ आर्य समाज रीति-ढंग से शन्नो के साथ पाणिग्रहण संस्कार संपन्न हुआ । हरगाँव में दिलदार के अब्बा महफूज तक दामाद बरकत अली ने खबर भिजवा दी थी। सीतापुर से महफूज का बड़ा बेटा सत्तार भी आ चुका था । रोष में महफूज अपने बड़े बेटे से बोला, ‘‘दिलदार ने जो काम किया है वह उनकी कौम के लिए डूब मरने जैसा है, इस जाहिल गँवार लौंडे का क्या किया जाए? इसने तो हमारी नाक कटवा दी है। इसे मोहब्बत करनी थी, तो किसी और बिरादरी की हिंदू लड़की से करता। मेहतरानी से मुँह मारने चला गया ऊपर से हिंदू बन गया। बदजात! मिल जाए, तो हरामजादे को मैं खुद अपने हाथों से मार दूँ।’’

सत्तार ने अपने अब्बा को धीरज धराया। दोनों में गुफ्तगू हुई और महफूज ने अपने बेटे दिलदार के कत्ल करने के लिए सत्तार के द्वारा मारिया से बात करने की सहमति दे दी। सत्तार वापस सीतापुर आ गया। उसने पन्द्रह हजार रुपए में दिलदार के कत्ल की सुपारी दे दी और बतौर पेशगी मारिया को पाँच हजार रुपए दे दिए। दिलदार का भाग्य अच्छा था। झाँसी में आकर मारिया ने दिलदार को कत्ल करने की कोशिश की, पर दूसरे प्रयास में दिलदार पुनः बच गया।

इस बार मारिया उसे मारने के प्रयास में सड़क पर असंतुलित होकर गिर पड़ा तभी उसके ऊपर नगर निगम की कचरा ढोने वाली गाड़ी चढ़ गई। सत्तार को सूचना मिली। वह मन मसोसकर रह गया। उसे मारिया के मारे जाने का कोई अफसोस नहीं हुआ, बल्कि मारिया को दिए गए पेशगी रुपयों के डूब जाने का बेहद रंज हुआ।

महफूज ने अपने पुत्र दिलदार को मरा मान लिया और उससे कोई भी वास्ता न रखने का पूरे परिवार को अपना फैसला सुना दिया। इधर बरकत अली ने भी दिलदार को अपने से दूर कर दिया। दिलदार अपनी ससुराल यानि जम्मू के घर में घर जमाई की तरह रहने लगा। जम्मू ने कमिश्नरी में नाजिर साहब की खुशामद कर दिलदार और शन्नो दोनों को सफाईकर्मी के काम के लिए दिहाड़ी मजदूरी में रखवा दिया। साल बीता एक सुंदर कन्या का जन्म शन्नो और दिलदार के घर में हजार खुशियाँ लेकर आया। शन्नो ने बड़े प्यार से बेटी का नाम श्रीदेवी रखा। श्रीदेवी शन्नो की तरह बड़ी-बड़ी कजरारी आँखें लिए अपने पिता दिलदार के गोरे-चिट्टे रंग पर गई थी।

समय का पंक्षी लगातार उड़ता रहा। श्रीदेवी के बाद पुनः एक और कन्या रत्न ने किलकारी मारी। इधर दिलदार की नौकरी सफाई कर्मी के रूप में पक्की हो गई थी और उधर शन्नो बाइस बरस में दो बच्चों की माँ बन चुकी थी, उसकी भी स्थाई सफाईकर्मी के रूप में नौकरी पक्की हो गई। घर में सुख-समृद्धि बरसने लगी। दोनों कन्याएं स्कूल जाने लगीं। छोटी बेटी का नामकरण जम्मू ने अपनी माँ के नाम पर अपनी इच्छा से सरिता रखा।

समय सदैव गतिमान रहता है, सम-सामयिक स्थिति-परिस्थितियाँ व्यक्ति को कहाँ से कहाँ ले जाती हैं? यह उसके स्वयं के संचित कर्म व प्रारब्ध पर निर्भर करता है  इधर जम्मू अपनी नौकरी से रिटायर होकर घर में ही रात से दारू के नशे में अपने आप में खोया रहता था, तो उधर पैसे की आमद अच्छी होने से दोनों बच्चियों का नाम अच्छे स्कूलों में दर्ज करा दिया गया था। यद्यपि सभी सरकारी क्वार्टर में खुशहाल जिंदगी बिता सकते थे, परंतु जो नियति में पहले से निर्धारित है वह भला कहाँ मिटने वाला है?

हुआ यह कि शन्नो के प्रति दिलदार की चाहत और प्रेम में कोई कमी नहीं आई, पर दिलदार का अपने ससुर के साथ अक्सर दारू पीकर झगड़ा-नाटक करना शन्नो को खलने-सालने लगा था। दोनों में अक्सर दारूबाजी को लेकर झगड़ा बढ़ जाया करता था। शन्नो चाहती थी उसका पति उसके पिता की तरह दारूखोर न बने, बल्कि घर और बच्चियों का ख्याल रखे। आय का एक अच्छा हिस्सा इस दारूबाजी की भेंट चढ़ जाया करता था।

जम्मू अपनी पेंशन अपने ऊपर व बच्चों की पढ़ाई पर व्यय करता था। दिलदार के द्वारा जो कमाया जाता वह दारूबाजी में खर्च हो जाता। अकेले शन्नो की तनख्वाह से पूरे घर के अन्य खर्चे चल रहे थे। दिलदार के द्वारा शन्नो की बात की लगातार अवहेलना करना आगे चलकर उन दोनों के बीच में दरार पैदा करती गई।

कमिश्नरी दफ्तर के बाहर खोखे पर बाल काटने वाले जुगनू को शन्नो अपना दुःख साझा करते-करते दिल दे बैठी। स्त्री जब मन से रिक्त होती है, उसके दुःख को जब कोई बाँटने लगता है, उसके प्रति हमदर्दी दर्शाता है, तब शनैःशनैः वह उसके रिक्त हृदय में पैठ बना लेता है। भोली स्त्री सद्भावना या दुर्भावना का कदाचित ख्याल नहीं रख पाती और विश्वास की डोर में बँधी समर्पित हो जाती है।

एक रात जब शन्नो की दोनों बच्चियाँ सो रही थीं। उसका पति और पिता दारू पी नशे में धुत पड़े थे। ऐसे समय जुगनू शन्नो के घर आ पहुँचा। देर रात दिलदार की आँख खुली, उसे प्यास लगी। उसने पानी पिया और शरीर की प्यास बुझाने की इच्छा जागृत होने पर वह शन्नो के कमरे में पहुँचा। शन्नो को दिलदार के जगने की आहट पहले से मिल चुकी थी। उसने जुगनू को तख्त के नीचे छिपा दिया। दिलदार शन्नो से माफी माँगते हुए, उसे क्षमा कर देने की गुहार करने लगा।

शन्नो जिसे दिलदार से जल्दी छुटकारा चाहिए था। उसने दिलदार को क्षमा करते हुए अपने ऊपर लाद लिया। दिलदार खुश हो गया कि उसकी शन्नो ने उसे उसकी दारूबाजी के लिए माफ कर दिया। शन्नो को लाड-प्यार जताता दिलदार वचन देता रहा कि वह अब कभी दारु को हाथ नहीं लगाएगा। आज उसे शन्नो का सहयोग मिल तो रहा था, पर वह इतनी शीघ्र समर्पित और उत्तेजित हो जाएगी उसने कल्पना नहीं की थी।

शरीर की भूख मिटने के बाद दिलदार वही खर्राटे भरने लगा। नीचे जुगनू से अब रुका नहीं जा रहा था, उसने शन्नो को तख्त के नीचे ही खींच लिया। अतृप्त शन्नो प्रेमी जुगनू का साथ पाकर तृप्त हुई। दिलदार की नींद तख्त के नीचे से आ रहीं चरमोत्कर्ष की सुर लहरियों से उचट गई। उसने देखा बिस्तर पर शन्नो नहीं थी, फिर कहाँ गई शन्नो? दिलदार ने तख्त के नीचे झाँक कर देखा युगल चरम सीमा पार कर अलग हो रहे थे ।

दिलदार सन्न रह गया। सारा ब्रह्माण्ड उसे घूमता नजर आया। दारू का नशा एक झटके में कब का उतर चुका था। वह नींद का बहाना लिए शांत पड़ा रहा। कनखियों से उसने जुगनू को कमरे से बाहर जाते देखा। उसके पीछे शन्नो भी गई जो क्वार्टर का मुख्य द्वार बंद कर वापस आकर दिलदार के बगल में लेट कर गहरी नींद में सो गई। दिलदार की नींद कोसों दूर जा चुकी थी। दिलदार का हृदय बैठा जा रहा था। शन्नो की बेवफाई पर वह खून के आँसू रो रहा था।

उसने शन्नो के शरीर को टटोला, कपड़े हटाए और वह शरीर जिसे उसने अनेक बार अपने प्रेम से सराबोर किया था। उस शरीर पर किसी अन्य के निशान दिलदार को चिढा रहे थे। क्या शरीर की भूख इतनी तीव्र होती है कि व्यक्ति अपने सारे संस्कार ताक पर रख देता है? दिलदार रोए जा रहा था। क्या शन्नो ने उसे दारू पीने का यह दंड दिया है? क्या अब वह उसकी शारीरिक भूख मिटा पाने के लिए पर्याप्त नहीं है?

दिलदार शन्नो के नग्न शरीर पर झुक गया। अन्य बातों से अनभिज्ञ शन्नो दिलदार की हरकतों से तीव्र उत्तेजित हो उसका साथ देने लगी। दिलदार ने चरम पर पहुँचते समय शन्नो के कान में धीरे से कहा, ‘‘क्या मैं तुम्हारे लिए पर्याप्त नहीं हूँ? अगर हूँ तो फिर यह नाई यहाँ क्या कर रहा था?’’ शन्नो सन्नाटे में आ गई। यानि दिलदार को जुगनू की उपस्थिति का पता चल चुका है। वह एकाएक ठंडी हो गई, किंकर्तव्यविमूढ़-सी लाश की तरह पड़ी रही। दिलदार शन्नो की ठंडी पड़ चुकी देह पर अपने पुरुषत्व का लगातार प्रहार करता रहा जब तक कि वह निढाल नहीं हो गया। दिलदार के हटते ही शन्नो बाथरूम में चली गई।

कुछ देर बाद वह लौटी और दिलदार को अपनी बाँहों में भर कर प्यार से बोली, ‘‘तुम मेरे सब कुछ हो पर मैं अब जुगनू के बिना एक पल भी जिंदा नहीं रह पाऊंगी।’’ दिलदार अवाक रह गया। उसने कई तरह के वास्ते दिए, पर शन्नो ने सारे वास्ते ठुकरा दिए। वह दिलदार से पूरी तरह से अलग हो जाना चाहती थी। दिलदार को जब कोई भी उम्मीद की किरण नहीं दिखी तब वह बोला, ‘‘शन्नो तुम्हें जो करना है करो, पर मैं तुम्हें नहीं छोड़ सकता।’’

शन्नो ने दिलदार को अपने अंक में भर लिया। आगे के दिनों में दिलदार के संज्ञान में रहते हुए शन्नो जुगनू संग पूरी स्वतंत्रता के साथ अपने ही क्वार्टर में मिलने लगी। दिलदार दोनों बच्चियों के साथ अलग कमरे में सोता-जागता रहता। जम्मू अपने नशे की आदत के कारण दालान के तख्त पर बने अपने स्थान पर दीन-दुनिया से बेखबर पड़ा रहता। शन्नो बेखौफ अपने नए प्रेमी जुगनू के साथ आए दिन रास लीला रचाती। शन्नो के इस व्यवहार से अंदर तक टूट चुके दिलदार की जम्मू के साथ दारुखोरी अधिक होती चली गई।

कुछ माह बीतने के बाद शन्नो खुलेआम जुगनू के साथ शहर से बाहर भी घूमने जाने लगी। वह उस पर रुपए खर्च करने लगी। दारुखोरी से अपनी ड्यूटी में अक्सर दिलदार अनुपस्थित रहता। शन्नो भी लापरवाही से ड्यूटी कर रही थी, फलस्वरूप दोनों को लगातार कार्यालय से नोटिसें प्राप्त हो रही थीं और उनकी तनख्वाह भी अनुपस्थिति रहने पर काटी जाने लगी थी, जिस कारण परिवार आर्थिक संकट से गुजरने लगा। दारू व संस्कारहीनता के जो भी दुष्परिणाम होने चाहिए वे सब के सब एक साथ प्रकट-अप्रकट सामने आने लगे। दिलदार शन्नो की हर माँग मानता, इसके उलट शन्नो अपनी मनमानी करती और दिलदार को अपने काबू में रखती ।

दारू का नशा दिलदार को दार्शनिक बना देता, ऐसे मौके पर वह शन्नो के प्रति और अधिक भावुक हो अपने अंतर्मन से निकली वाणी को दोहराता फिर अपनी बाईं कलाई पर शन्नो लिखे टेटू को चूमने के बाद कहता, ‘‘मेरी शन्नो तू मेरे दिल में रहती है। मैं तेरा आशिक तू मेरी माशूका। मेरी जान तेरे सारे गुनाह माफ! जा जहाँ जाना हो जा पर लौटकर मेरे पास आ। अय्याशी चाहे जिससे कर पर मोहब्बत .. मोहब्बत तो बस अपने दिलदार से कर।’’

दिलदार के कारुणिक हृदय के उद्गार एक ओर संवेदनशील लोगों को उसके प्रति संवेदित कर झंकृत कर देते, उनके मुँह से अनायास निकल जाता,‘‘वाह रे! प्रेमी वाह रे दिलदार!’’ तो दूसरी ओर कुछ लोग उसका मखौल उड़ाते उसे नामर्द और पराजित पति कहते जो अपनी बीबी को न सम्भाल पाया, आदि। जितने मुँह उतनी बातें इस सबसे दिलदार को कोई फर्क नहीं पड़ता था। कमल के पत्ते पर जल ठहरा ही कब है?

दारू के नशे में मजनूँ बना दिलदार ओशो की तरह समझदारी भरी दार्शनिक बातें करने लगा था। कमिश्नरी की नजारत के नाजिर ने तंग आकर ड्यूटी समय पर दारू में धुत्त दिलदार का मेडिकल टेस्ट करा दिया। रिपोर्ट पॉजिटिव आते ही उस पर विभागीय कार्यवाही प्रारम्भ हो गई। निलम्बित दिलदार की आर्थिक दुश्वारियां बढ़ गईं, पर उसका शन्नो के प्रति पागलपन की हद तक रचा-बसा प्रेम रत्ती भर भी कम नहीं हुआ ।

एक दिन सुनने में आया कि शन्नो अपने प्रेमी जुगुनू खबास के साथ भाग गई। कमिश्नरी के बाहर खोखे में बने जुगनू के बन्द पड़े केश कर्तनालय को नगर निगम के कर्मचारी उठा ले गए। लगातार ड्यूटी से अनुपस्थित रहने के कारण शन्नो की सफाईकर्मी की नौकरी पहले से ही खतरे में थी। अब लगातार की अनुपस्थिति से उसकी नौकरी में संकट बढ़ गया। नाजिर ने दिलदार व उसके बच्चों की हालत पर तरस खाकर दिलदार की बहाली करा दी । उसे लाख समझाया-बुझाया पर दिलदार के पागलपन पर कोई असर नहीं दिखा ।

पाँचवें महीने शन्नो लौट आयी। दिलदार की खुशियों का ठिकाना न रहा। नाजिर व बड़े साहब से मिन्नतें करके किसी तरह दिलदार ने शन्नो को काम पर पुनः रखवा लिया। एक बार फिर जम्मू को लगा उसके घर में खुशहाली लौट आई। जम्मू और दिलदार की दारूखोरी ने यूटर्न लिया। श्रीदेवी व सरिता ढंग से तैयार होकर अपने स्कूल जाने लगी। भले मानस दिलदार की दरियादिली भरी चाहत का नमूना पेश करने लगे तो कुछ लोग उसे ताने देते, ‘‘साले बेगैरत नामर्द, पराये आदमी संग गुलछर्रे उड़ाने वाली बीबी को रख लिया.. पराया थूक चाटने जैसा कृत्य किया है तूने।’’ दिलदार अपनी पतली मूँछों, पतले होठों से मुस्करा देता। मोहब्बत की मिशाल बन चुके इस कमल के पत्ते को कहाँ फर्क पड़ने वाला था?

प्रेम जब अपनी ऊँचाई पा लेता है। चाहत जब मन-प्राण में बस जाती है, तब देह का कोई मायने नहीं रह जाता। देह तो नश्वर है। आत्मा अजर-अमर। दिलदार का प्रेम देह से परे आत्मा से जुड़ा था और शन्नो! वाह री शन्नो! अथाह प्रेम करने वाला पति जिसने उसको पाने के लिये न केवल अपना धर्म छोड़ा बल्कि अपना कर्म भी बदला। लोगों का मैला साफ किया, लोगों की लानत-मलानत झेली वह सब किया, जो केवल एक दिलदार ही कर सकता था ।

शन्नो की फूटी किस्मत कहें या दिलदार का दुर्भाग्य। घर वापसी करने का दिखावा करने आई शन्नो ने पन्द्रह दिन के अंदर बैंक में जमा राशि, अपने जेवर इक्कट्ठे करने में बिताए और सोलहवें दिन वह प्रेमी जुगनू के साथ पुनः फुर्र हो गई । शन्नो की यह हरकत प्रत्येक सुनने वाले को नागवार गुजरी, ‘कलमुँही ने मासूम बच्चियों का मुख भी नहीं तका, तीसरी बार बूढ़े बाप के मुख पर कालिख पोत गई। अच्छे खासे प्रेमी खसम को दगा दे गई। आदि आदि जितने मुँह उतनी बातें फिर शुरू हो गईं।

जम्मू ने दारू छोड़ दी,  ‘दारू ही सारी बुराइयों की जड़ है।’ यह बात उसे बहुत देर से समझ आई। दोनों नातिनों की देखरेख, लिखाई-पढाई पर उसने ध्यान देना शुरू कर दिया  दूसरी ओर दिलदार ने शन्नो की बेवफाई से आहत हो स्वयं को दारू में डूबा लिया, तब भी वह कमल के पत्ते की तरह शन्नो के खिलाफ एक शब्द भी नहीं सुन सकता था। बायीं कलाई पर बने शन्नो के नाम के टेटू को चूमता, फिर नशे की झोंक में जो बकता उसे सुनकर लोग शन्नो को लानत भेजते, वहीं दिलदार को समझाने की कोशिश करते, ‘‘उस दगाबाज को भूल अपनी प्यारी बच्चियों पर ध्यान दे।

दिलदार अपनी गहरी मोहक मुस्कान से समझाने वाले की ओर देखता, शन्नो के नाम को चूमता फिर लड़खड़ाते शब्दों में बोलता, ‘‘आई लव माय शन्नो! शन्नो एक दिन अपने दिलदार के पास वापस आएगी साहब! मेरे सिवा उसका कोई नहीं है साहब! ला दो मेरी शन्नो को! आई लव..’’ दिलदार के आगे के शब्द उसकी रुलाई में धुल जाते। समझाने वाला उस पर तरस खा आगे बढ़ जाता।

निष्ठुर शन्नो अबकी जो गई तो वापस नहीं आई। दिन, महीने और देखते-देखते साल बीत गया। शन्नो की लगी लगाई नौकरी, घर-परिवार सब छूट गया। जम्मू ने अपनी बेटी को मरा मान लिया और एलान कर दिया कि, ‘अबकी अगर वह लौटी तो वह उसे जान से मार देगा।’ दिलदार अपने ससुर को नशे में साँत्वना देता, समझाता, ‘‘शन्नो को मारना मत, वह मेरी बीबी है, मेरी बेटियों की माँ है। आई लव माय शन्नो।’’ और फूट-फूट कर रोने लग जाता।

दिलदार की हालत दिन-ब-दिन खराब होती चली गई। दारू पीने की अधिकता ने उसके लीवर को बुरी तरह डेमेज कर दिया था। बड़े अस्पताल के डॉक्टर ने जवाब दे दिया था। दिलदार मेडिकल लीव पर चल रहा था। एक दिन डंडे के सहारे वह नाजिर साहब के पास आकर बोला, ‘‘हजूर! मैं अब बचूँगा नहीं। मेरी मदद कीजिये। मुझे अपनी वसीयत बनवानी है। मुझे अपनी सर्विस बुक सही करानी है।’’

नाजिर साहब सख्त पर दिल से भले आदमी थे। उन्होंने अपने एक परिचित वकील की मदद से दिलदार की वसीयत बनवा दी और सर्विस बुक भी संशोधित करवा दी। दिलदार ने अपनी वसीयत व सर्विस बुक पर अपनी चल-अचल सम्पत्ति का पच्चीस-पच्चीस प्रतिशत अपनी दोनों बेटियों श्रीदेवी व सरिता को देने की व्यवस्था रखी। वहीं शन्नो को जिद करके आधे का हिस्सेदार बनाया। नाजिर साहब को निरुत्तर करता दिलदार बोला, ‘‘हुजूर! देर-सबेर जब ठोकर खाकर शन्नो वापस लौटेगी, तब मैं नहीं रहूँगा पर वह तो जिंदा रह लेगी  हजूर! मेरे सिवा उसका कोई नहीं है। वह बहक गई है, हुजूर! वह आएगी, एक दिन जरूर वापस आएगी। आई लव माय शन्नो।’’

इस घटना के कुछ दिन बाद एक दिन सुबह-सबेरे कार्यालय पहुँचते ही चौकीदार ने नाजिर साहब को खबर दी, ‘‘हुजूर! साइकिल स्टैंड के पास दिलदार बेहोश पड़ा है।’’       नाजिर साहब साइकिल स्टैंड की ओर दौड़े चले गए। गिरी पड़ी दो साइकिलों के ऊपर बिछा, नशे में धुत, गहरी मोहक मुस्कान लिए दिलदार का निस्तेज चेहरा और उसकी अधखुली आँखें, जैसे उनसे कह रही हों, ‘हुजूर! आई लव माय शन्नो।’         जैसे कमल के पत्ते पर जल नहीं ठहरता, वैसे ही दिलदार अपनी मोहक, गहरी मुस्कान लिए इस फरेबी दुनिया में कहाँ ठहरने वाला था, वह दूर बहुत दूर जा चुका था।

प्रेम की यह कैसी परिणिति । ऐसी दु:खदाई मृत्यु! मृत्यु के समय उसका कोई उसके पास नहीं था, जिसकी हथेली का स्पर्श उसके ठंडे हो रहे मस्तक पर होता…उसके निस्तेज हो रहे नेत्र अपने लिए देख पाते दो बूंद आंसुओं के, तो शायद वह अभागा सकून पा जाता । नाजिर साहब ने आसमान तकने के बाद चौकीदार बच्चू सिंह से कहा, ‘‘पुलिस चौकी में खबर कर दो, जम्मू को सूचना भिजवा दो।’’

आज वर्षों बाद कथा लेखक के इस बयान को दर्ज किया जाए, “शन्नो, जुगनू से तीन बच्चे पैदाकर इलाहाबाद से नामांत्रित प्रयागराज में खुशहाल जीवन जी रही है। दोनों की बेटियां श्रीदेवी और सरिता अपनी-अपनी ससुराल में हैं, जबकि उम्रदराज जम्मू अपने निवास में आज भी मुहल्ले-भर के कुत्तों संग अक्सर दारू पिए मस्त पड़ा अपना जीवन पूरा कर रहा है। … और दिलदार उफ्फ उसका तो उसकी बेटियों के सिवा कोई नाम लेने वाला ही नहीं है, हो भी कैसे कोई उसे जाने तब न कि था एक प्रेमी जो वास्तव में दिलदार था।”

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

कथाकार-महेंद्र भीष्म

3 thoughts on “Kamal Ka Patta  कमल का पत्ता”

  1. Kass pyar ki gehrie ko log samajh pate
    Bahut hi dil ko chuu jane wali story hai.lekhak ne bahut acche dhang se likha hai.super story.

    Reply

Leave a Comment

error: Content is protected !!