Isuri Ki Shikshaprad Fagen ईसुरी की शिक्षाप्रद फागें

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Bundelkhand के जनमानस को ज्ञान की  दिशा देती हैं Isuri Ki Shikshaprad Fagen। जो अन्य कविओं की फागों ऐसा देखने को नहीं मिलता, यद्यपि उनके समकालीन कवियों गंगाधर व्यास, ख्याली राम आदि जैसे कई कवि हुए हैं, किन्तु उनमें से कोई भी महाकवि ईसुरी  के समान बहुफलकीय फागें नहीं दे पाए। उनकी रचनाओं में लोक के मनोभाव लबालब भरे हैं। इनकी रचनाओं में बुन्देलखंड के लोक जीवन सम्बन्धी कल्पनाएँ बार-बार उभर कर आती हैं। जिंन्हे बार-बार पढा जाता है।

बुन्देलखंड के महाकवि ईसुरी की शिक्षाप्रद फागें

महाकवि ईसुरी Mahakavi

Isuri  की फागों में कालतत्त्व की महिमा का बहुत ही सटीक साहित्यक वर्णन देखने को मिलता है। कहीं-कहीं इनकी फागों में भावों की बहुत ऊँची उड़ाने पाई जाती हैं। यही करण है कि Isuri Ki Shikshaprad Fagen  लोक साहित्य का एक रूप विधान बन गईं हैं। ईसुरी सिद्ध वाणी के अत्यंत सरस कवि थे। उनकी लेखनी ने जहाँ श्रृँगार रस में पगी फागें दी हैं, वहीं भक्तिपरक, नीतिपरक और उद्देश्यपरक फागें भी उनकी उल्लेखनीय बन गई हैं।

रीतिकालीन कवियों की तरह ही महाकवि ईसुरी ने श्रृँगार रस की अविछिन्न धारा बहाई है। उनकी फागों में ग्रामीण जीवन का सजीव चित्रण देखने मो मिलता है। वे कहीं बिहारी के सदृश्य तो कहीं जयदेव के पास दिखाई देते हैं। तुलसी और कबीर की तरह उनकी रचनाएँ शिक्षापरक बन गई हैं। उन्होंने जनपीड़ा को उकेर कर जन-जन की आवाज बनने का जो अभियान चलाया था, उससे आमजनजीवन के हृदय में ईसुरी का उत्कृष्ट स्थान बन गया है।

यश की प्राप्ति, सम्पत्ति का लाभ लेना ईसुरी का प्रयोजन तो था नहीं, वे तो जनकवि थे, वे जनता के बीच में रहकर उनकी भावनाओं, क्रियाकलापों को अपनी रचनाओं में संजो लेते थे। यही कारण है कि वे जन-जन के हृदयी कवि बन गए।
बखरी रैयत हैं भारे की, र्दइं पिया प्यारे की।
कच्ची भीत उठी माटी की, छबी फूस चारे की।
बे बन्देज बड़ी बेबाड़ा जेई, में दस द्वारे की।
बिना किबार-किबरियां वालीं,बिना कुची तारे की।
ईसुर चाय जौन दिन लैलो, हमें कौन वारे की।

रहना होनहार के डरते, पल में परलै परते।
पल में राजा रंक होत है, पल में बने बिगरते।
पल में धरती बूंद न आवै, पल में सागर भरते।
पल-पल की को जानै ईसुर, पल में प्रान निकरते।
ईसुरी जीवन की निरर्थकता पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं…।

ऐंगर बैठ लेव कछु काने, काम जनम भर राने।
बिना काम को कोऊ नइयां, कामें सब खां जाने।
जौन काम खां करने नैंयां, कईयक होत बहाने।
जौ जंजाल जगत कौ ईसुर,करत-करत मर जाने।

महाकवि ईसुरी शिक्षा देते हुए कहते हैं कि कुछ समय मेरे पास बैठ लो। मैं तुमसे कुछ सार की बाते कहना चाहता हूं। काम तो सारे जीवन भर करते रहना है, जो कभी न पूरा होता है न समाप्त। काम मुझे भी करना है, आपको भी और इस संसार में जो भी आया है उसे भी। बिना काम का भला कौन है? वो तो जिसे काम करना नहीं होता है वह न करने के बहाने ढूंढ लेता है। दुनिया में काम अनन्त हैं और जीवन क्षण भंगुर। अतः इस जीवन में कुछ सार की बातों के लिए भी समय निकाल लेना चाहिए।

महाकवि ईसुरी की आध्यात्म परक फागें अद्वितीय हैं। उनकी फागों में कला पक्ष बड़ा प्रबल है। वे द्विअर्थी फागें कहने के कुशल शिल्पी हैं। जिसकी जैसी बुद्धि-जैसी समझ होती है वह वैसा ही समझ लेता है, किन्तु वे जो कह रहे हैं, वह शाश्वत सत्य है।

अब दिन गौने के लग आये, हमने कईती काए।
सुसते नई काम के मारें, ऐंगर बैठ न पाए।
आसों साल वियाब भये ते, परकी साल चलाए।
तेवरस साल विदा की बातें, नाऊ संदेशा लाए।
सब सेवा विरथा गई ईसुर, आशा जीव जिवाए।

महाकवि ईसुरी  कहते हैं कि इस दुनियादारी के चक्कर में पड़कर दो घड़ी स्वजनों के साथ बैठकर बातें नहीं कर पाए। इस वर्ष व्याह, दूसरे वर्ष गौना और तीसरी साल विदा का समय आने वाला है। इसी फेर में जीवन निकल गया। न काम ही पूरा हो पाया है और न ही हरि स्मरण भी कर पाए हैं।

महाकवि ईसुरी अपनी द्विअर्थी फागों के माध्यम से नायिका की आड़ लेकर इस संसार को उपदेशित करते हुए कहते हैं।
बाहर रेजा पैर कड़े गए, नैचैं मूंड़ करैं गए।
जीसे नाम धरै ना कोऊ, ऐसी चाल चलैं गए।
हवा चलें उड़ जाय कंदेला, घूंघट हाथ धरैं गए।
ईसुर इन गलियन में बिन्नू, धीरें पांव धरैं गए।

महाकवि ईसुरी  कहते हैं कि इस दुनिया में आए हो तो इसके चाल-चलन बोल-व्यवहार भी सीख लेना जरूरी है। वे कहते हैं कि तहजीब से वस़्त्रों को पहनना, घमण्ड का नशा छोड़कर नीचे सिर झुका कर विनम्रता से चलना चाहिए, जिससे कोई कुछ कह न पाए। इस जगत में अच्छाई-बुराई बराबर है। अब आपको जो अच्छा लगे, उसे अपना लो, तुम्हें संसार वैसा ही नाम देगा।

मानुस कबै-कबै फिर होने, रजऊ बोल लो नौनें।
चलती बैरां प्रान छोड़ दए, की के संगे कौनें।
जियत-जियत को सबकोउ, सबको मरे घरी भर रौनें ।
होजें और जनम खां बातें, पाव न ऐसी जोनें।
हंड़िया हात परत न ईसुर, आवै सीत टटौनें।

महाकवि ईसुरी ने कहा है कि आदमी को समाज में अपने बोल चाल एवं कार्य व्यवहार का ध्यान रखना चाहिए। वाणी में मधुरता लाने की जो शिक्षा दी गई है, उसका सदा पालन करना चाहिए। ईसुरी ने मनुष्य शरीर की क्षणभंगुरता को बडे़ आकर्षक ढंग से प्रस्तुत करते हुए कहा है।

तन को कौन भरोसो करने, आखिर इक दिन मरने।
जो संसार ओस का बूंदा, पवन लगें सें ढरने।
जो लौ जीकी जियन जोरिया, जीखां जै दिन भरने।
ईसुर ई संसारे आकें, बुरे काम खां डरने।

मनुष्य को जीवन में प्राप्त अनुभवों से सीख लेनी चाहिए। जीवन का पल-पल सीखने का होता है, जो जीवन में घटित घटनाओं से सबक ले लेता है, उसे फिर कठिनाईयों का सामना नहीं करना पड़ता है। किन्तु जो सचेत नहीं होता है, उसे बार-बार धक्के खाने पड़ते हैं।

अब न होबी यार किसी के,जनम-जनम खां सीके।
यार करे की बड़ी बिबूचन, बिना यार के नीके ।
नेकी करतन समझें रइओ, जे फल पाये बदी के
ये ई मान से भले ईसुरी, पथरा राम नदी के।

महाकवि ईसुरी  कहते हैं कि बडे़ अनुभव के बाद जो शिक्षा प्राप्त कर ली है, उसे वे दूसरों को सिखा देना चाहते हैं। अनाधिकारी से प्रेम करने का कटु अनुभव लेकर वह मनुष्य जीवन तक से घृणा करने लगते हैं। वे कहते हैं कि इस जीवन से भले वे किसी पवित्र नदी (सरयू) के पत्थर बनना ज्यादा पसंद करते हैं।

सबसे बोलें मीठी बानी, थोड़ी है ज़िदगानी।
येई बानी हाथी चढ़बावै, येई उतारै पानी।
येई बानी सुरलोक पठावै, येई नरक निशानी।
येई बानी सें तरैं ईसुरी, बडे़-बडे़ मुनि ज्ञानी।

जग में जौलो राम जिवावै, जे बातें बरकावै।
हाथ-पांव दृग-दांत बतीसऊ, सदा ओई तन रावै।
रिन ग्रेही ना बने काऊ को, ना घर बनों मिटावें।
इतनी बातें रहें ईसुरी, कुलै दाग ना आवे ।

भज मन राम सिया भगवानें, संग कछु नहिं जाने।
धन सम्पत्त सब माल खजानों, रेजै ए ई ठिकाने।
भाई बन्धु अरु कुटुम्ब कबीला, जे स्वारथ सब जाने।
कैंड़ा कैसो छोर ईसुरी, हंसा हुए रवाने।

जीवन की नश्वरता को प्रतिपादित करते हुए महाकवि ईसुरी  ने कहा है कि ये मनुष्य तू क्या ये तेरा- ये मेरा के चक्कर में पड़ा हुआ भटक रहा है। इस जीवन का कोई अस्तित्व नहीं है, आज है तो कल नहीं है, तू इस संसार के मोह चाल को त्याग दे, ये सब क्षण भंगुर है।

राखे मन पंक्षी ना राने, एक दिन सब खां जाने।
खालो-पीलो लै लो-दै लो, एही लगे ठिकाने।
करलो धरम कछु बा दिन खां, जादिन होत रमाने।
ईसुर कई मान लो मोरी, लगी हाट उठ जाने।

महाकवि ईसुरी  कहते हैं कि ये जीवन नश्वर है, इसे एक न एक दिन नष्ट होना ही है। ये तेरा ये मेरा के जाल में उलझकर व्यर्थ समय बर्बाद न करके कुछ धर्म कर्म कर लेना चाहिए। दूसरों का भला कर कुछ पुण्य अर्जित कर लेना चाहिए, इसी में जीवन की सार्थकता है।

आओ को अमरौती खाकें, ई दुनियां में आकें।
नंगे गैल पकर गए धर गए, का करतूत कमाकें।
जर गए बर गए धुन्धक लकरिया, धर गए लोग जराके।
बार-बार नई जनमत ईसुर, कूंख आपनी मांके।

अपने मन मानिक के लाने, सुघर जौहरी चाने।
नर तन रतन खान से उपजे, चढ़ो प्रेम खरसाने।
बेंचो आई दुकाने चायै, जो कीमत पहचाने।
ईसुर कैउ जगां धर हारे, कोउ धरत न गानै।

एक दिन होत सबई कौ गौनों, होनों और अन्होंने ।
जाने परत सासरे सांसउ, बुरौ लगे चाय नौनों।
जा ना बात काउ के बस की, हँसी लगे चाय रोनों।
राखौ चायें जौ नौ ईसुर, दयें इनई भर सोनो।

नइयां ठीक जिन्दगानी को, बनो पिण्ड पानी को।
चोला और दूसरो नइयां, मानुस की सानी को।
जोगी जती तपी सन्यासी, का राजा रानी को।
जब चायें लै लेव ईसुरी, का बस है प्रानी को।

जो कोउ जोग जुगत कर जानें, चढ़-चढ़ जात विमाने।
ब्रह्मा ने बैकुण्ठ रचो है, उन्हीं नरन के लाने।
होन लगत फूलन की बरसा, जिदना होत रमाने।
ईसुर कहत सबई के देखत, ब्रह्म में जात समाने।

करलो ऐंगर हो दो बातें, यार पुराने नातें ।
मोरी कभउं खबर तो लेते, दुख और पीर पिराते।
जो तुम तारि देउ तो टउका, जात न कईये जाते।
ईसुर एक दिन तुम चलि जैहो,देकर पथरा छाते।

महाकवि ईसुरी  कहते हैं कि इस दुनिया के रिश्ते-नाते क्षण भंगुर हैं, जो आया है वह जाता है, यह अमिट सत्य है। मनुष्य तन पाकर जो भी रिश्ते-नाते बने हैं, उन्हें स्थायित्व देकर निर्वाह करना चाहिए।

करके नेह टोर जिन दईयो, दिन-दिन और बढ़इयो।
जैसे मिले दूध में पानी, उसई मनै मिलइयो।
हमरो और तुम्हारो जो जिउ एकई जाने रइयो।
कात ईसुरी बांह गहे की, खबर बिसर जिन जइयो

करके प्रीत मरे बहुतेरे, असल न पीछू हेरे।
फुदकत रहे परेवा बनकें, बिरह की झार झरेरे।
ऐसे नर थोरे या जग में, डारन नाईं फरेरे।
नीति तकन ईसुर की ताकन, नेही खूब तरेरे ।

महाकवि ईसुरी  प्रकृति के अमिट सिद्धान्त का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि जो मनुष्य दोहरा चरित्र जी लेता है, उसकी कदर कोई नहीं करता है । ये दोहरापन ज्यादा दिनों तक न तो चलता है और न छिपाए छिपता है। एक न एक दिन कलई खुल ही जाती है, तब नीचे को मुंह करना पड़ जाता है।

तोरो मन पापी तन नौनों, एक भांत में दोनों।
मन से रात अन्देश सबई कोउ, तन को मचो दिखोनों
मत माटी की मोल कदर कर,तन की कीमत सोनों।
ईसुर एक नोन बिन सबरे, लगत व्यंजन रौनों।

दीपक दया धरन को जारौ, सदा रात उजियारौ।
धरम करे बिन करम खुलै ना, जों कुंजी बिन तारौ।
समझा चुके करें न रैयो, दिया तरे अंधियारौ ।
कात ईसुरी सुनलो प्यारी, लग जै पार निवारौ।

महाकवि ईसुरी  ने हमेशा सतकर्म की बात कही है। वे कहते हैं कि कभी किसी से धोखेबाजी नहीं करनी चाहिए।
जीकौ सेर हवेरे खइए, बदी काउ की कइए।
नौ दस मास गरभ में राखो, तिनके पुत्र कहइए।
सब जग रूठो-रूठो रनदो, राम न रूठो रइए।
ईसुर वे हैं चार भुजा के,का दो भुजा निरइए।

महाकवि ईसुरी धर्म निरपेक्षता के हिमायती कवि थे। उन्होंने धार्मिक ढोंग पर कभी विश्वास नहीं किया। वे न जात पात पर भरोसा करते थे, न ऊँच-नीच पर। वे सभी को उसी ईश्वर का अंश मानते थे, जो उनमें रम रहा है और उनके आस पास रहने वाले सभी में हैं।

सिर धरो विपत को बोजा, तै परसूदी होजा।
करने नहीं सूम की संगत, दाता कौ घर खोजा।
हिन्दू के तो विरत होत हैं, मुसलमान के रोजा।
घायल परे हजारों तुम पै,जब तुम पैरे मोजा।
ईसुर सात पांच की लाठी, एक जनै का बोझा।

महाकवि ईसुरी  के समकालीन समाज की दशा बड़ी खराब थी। देश गुलाम था, अंग्रेजों की सत्ता थी। अंग्रेजों के चमचे भारतीय आम जनता पर रौब जमाये रहने के लिए तरह-तरह के जुल्म ढाते थे। शिक्षा नगण्य थी। सामाजिक कुरीतियाँ इस तरह व्याप्त थीं कि आम जनजीवन का जीवन नरक की तरह था। जमींदारों, कामदारों तथा सत्ताधीशों के विरोध में मुंह खोलने का साहस किसी में नहीं था ।

उस समय भारत स्पष्ट रूप से दो धड़ों में बंटा था। एक अंग्रेजी सत्ता का पक्षधर गुलामी प्रिय लोगों का सम्पन्न गुट, दूसरा अंग्रेजी सत्त्ता का विरोधी भारत की आज़ादी को चाहने वाला गुट जो स्वाधीनता के लिए प्रयासरत, संसाधन विहीन, शोषित प्रताड़ित लोगों का समूह। ऐसी स्थिति में सरकार के विरोध में होंठ खोलना खतरों से खाली नहीं था।

महाकवि ईसुरी की नायिका रजऊ का सम्बन्ध शब्दतः सत्ता के नज़दीक रहने वाले ठाकुर वर्ग से था, जिससे वह वर्ग ईसुरी से नाराज रहता था। किन्तु वे बहुत अच्छे फगवारे थे, जनता उन्हें चाहती थी, उनसे प्यार करती थी, उनकी फागें सुनने को भीड़ जुटती थी, जिससे ठाकुर जमींदार उनसे सीधी टक्कर नहीं ले पाते थे, क्योंकि उन दिनों स्वतंत्रता के आन्दोलनों में देशी राजाओं की बगावत जारी थी।

सरकार नहीं चाहती थी कि बहुसंख्यक जनता उनकी छोटी-छोटी गलतियों के कारण सरकार के विरोध में बगावत पर उतर आयें। इसी कारण ईसुरी के विरोध में कुछ भी अन्यथा करने से बचते रहते थे, जबकि ईसुरी इन सबसे अनजान रहकर अपने काम से काम रखने वाले थे। रजऊ उनकी काल्पनिक नायिका थी।

रजऊ, रज्जो, रज्जू या इससे मिलता-जुलता होता था, वे उनसे बेमतलब की खार खाए रहते थे। ईसुरी तो सच्चे कवि थे, जिनका काम था दिग्दर्शन। उनकी फागों में मात्र दिशा बोध था और जन मनोरंजन का भाव।

मौरो मन बिगरौ भओ कांसे, हाल तुमारे नांसे।
रइओ गरई हरई न हुइओ, जुरै ना लोग तमासे।
जानें नहीं जगत में कोऊ, उरै नहीं उर फांसे।
का सबूत झूठ के ऊपर, चलती नैया सांसे।
ईसुर ऐसउ रान देव अब, कांसे को स्वर कांसे।

महाकवि ईसुरी  कहते हैं कि मनुष्य को अपने मान-सम्मान को बचाए रखने के लिए दूसरों के मान-सम्मान का विशेष ध्यान रखना पड़ता है…।

को नई जानत बुरओ चितैवो,रूखे मन मुस्कैवो।

को बनतीली बात बनाये,अंधरै नैन निरैवो।
मात-पिता की कौन भलाई, सोवत चूमा लैवो।
पर घर गए सो साजौ नइयां, बिन आदर कौ जैवो।
मान-पान ईसुर इज्जत गई, तौ अच्छो मर जैवो।

सत्य समाज और समाज चिन्तक हमेशा ही इस भावना के अनुरूप कार्य करते हैं कि उनसे कभी ऐसा अनर्थक कार्य व्यवहार न हो जाय कि किसी का दिल दुःखे, किसी का अहित हो। वे सदैव ऐसे बुरे कर्मों से अपने आपको बचाकर रखते हैं।

ले लो सीराम हमारी, चलती बेरा प्यारी।
ऐसी निगा राखियौ हम पै, होय न नज़र दुआरी।
मिलके काउ बिछुरत नईयां, जितने हैं जिउधारी।
ईसुर हंस उड़न की बेरा, झुक आई अंधियारी।

जीवात्मा महाप्रयाण के लिए समुद्यत है, चारों ओर अंधकार घिर आया है। ऐसे अंतिम समय में सभी से राम-राम कहकर अन्तिम प्रणाम करना इस विश्वास के साथ कि जीवात्माएँ कभी मिलकर बिछुड़ती नहीं हैं।

नैया कोउ कौ कोउ सहाई, सब दुनिया मंजियाई।
गीता अर्थ कृष्ण कर लाने पिता सो जाने माई।
जा दई देह आपदा अपने, की खों पीर पराई।
विपत समय में एक राम बिन, कोउ न होत सहाई
अपने मर गए बिना ईसुरी, सुरग न देत दिखाई।

सांस्कृतिक सहयोग के लिए For Cultural Cooperation

संदर्भ-
ईसुरी की फागें- घनश्याम कश्यप
बुंदेली के महाकवि- डॉ मोहन आनंद
ईसुरी का फाग साहित्य – डॉक्टर लोकेंद्र नगर
ईसुरी की फागें- कृष्णा नन्द गुप्त
मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’

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