Aisi Rang De Rang Nahi Chhute ऐसी रंग दे रंग नहीं छूटे

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Aisi Rang De Rang Nahi Chhute रंगोत्सव होली की वह अल्हड़ और निर्दोष मस्ती,वह हुरयाया हुलास, ऐसी रंग दे रंग नहीं छूटे वह उन्मादी उमंग –तरंग अब कहाँ रही ?किंतु नीरस और  बदरंग हो रही इस जिंदगी को यदि महफूज रखना है तो हमें रिश्तों में प्रेम के, सद्भाव और भाईचारे के रंग – अबीर से आज के अराजक और हिंसक समय से बचने की कोशिश तो हम कर ही सकते हैं। आइए इस ऋतु पर्व से जुड़ते हैं।

ऐसी रंग दे रंग नहीं छूटे

/> Aisi Rang De Rang Nahi Chhute


फाग का राग मे समर्पण
फागुन सज -सँवरकर समर्पण को तैयार है। आत्मोत्सर्ग करने की अदम्य लालसा लिए पलाश के पुष्प जोगिया बाना पहने प्रियतमा की बाट जोह रहे हैं। महुआ चुए आधी रात, अँगिया छुट-छुट जाय की मादक स्वर लहरियाँ सीधेतौर पर सीने में बरछी- सी धँसी जा रहीं हैं। बौरों के मुकुट माथे धरे रसाल की तो बात ही निराली है। बड़ा रसिया जो ठहरा। हरे- हरे पत्तों के बीच में हरी अमियाँ अँगुरी गुच्छों – सी लटक रहीं हैं।

पत्तो के झीने परदों में से कहीं से एक हूक आ रही है। कोयलिया कुहुक – कुहुक करती हुयी बौरायी इधर-उधर अपने पीव को ढूँढ़ रही है। और तो और कसैला-कड़ुवा नीम भी अपनी समूची कड़ुवाहट को विदाकर नव अधोवस्त्र पहने पल्लवित-पुष्पित हो गया है। भौरों को लेकर तो हमारे साहित्य में बहुत कुछ कहा गया है।महात्मा सूरदास जी द्वारा रचित ‘भ्रमर गीत’ उपालंभ  परंपरा का उत्कृष्ट और अत्यंत विख्यात गीत काव्य है। रसलोभी भँवरा न जाने कितने प्रेमियों का प्रतीक है।

इस षटपद पर तो अनेक आक्षेप हैं,बहुतेरे उपालंभ हैं। और विरह विदग्ध कातर उच्छ्वास हैं सो उसकी बातें न करना ही ठीक है। ठेठ फागुन की संपूर्णता को देखने का सुख बड़े पुण्य से ही मिलता है। नदिया की धार में इस मौसम में जो रवानी होती है, जो अकुलाहट होती है, वह देखते ही बनती है। ऐसा लगता है मानो अपने प्रेमी की बाँहों में समाहित होने के लिए सरपट आगे भागे जा रही हो।

कभी गुनगुनाते हुए, कभी मुस्कुराते हुए, तो कभी इतराते हुए, बही चली जा रही हो अनंत की ओर । बिंदु से सिंधु होने की ऋत यात्राएँ पड़ाव रहित होतीं हैं। जब चरैवेति – चरैवेति का मंत्र जीवन की धड़कन बन जाता है। तब कहीं होता है वह मिलन, जो अनवर्चनीय है,अकथ है, अनंत है। यही तो अभीष्ट है प्रेम का।

प्रकृति और सौंदर्य
जाड़े के भयंकर शीत का प्रकोप अब ठंडा पड़ चुका है। उष्णता धीरे-धीरे से अँकुवा रही है। घाम तचने लगा है। सूरज की आँखें लाल हो उठीं हैं। कठोर शीत से पथराये हुए पहाड़ अब चिकने हो गये हैं, मानो तैल्य स्नात हों। वे हठयोगियों की भाँति रसवंती धरती को अपलक नजर गढ़ाए देख रहे हैं। पता नहीं न जाने क्या देखे जा रहे हैं श्रंगारी रसिकों की भाँति। वहीं खेतों में गेहूँ की बलखाती बालियाँ गदराकर मीत-मिलन की बाट जोह रहीं हैं।

सरसों तो पहले से ही वियोग में पीली पड़कर ठठा -सी गयी है। हाँ,अलसी अभी भी अपने साजन की पहनायी हुयी बैंगनी बेसर अपनी नासिका में धारण किए हुये मदमस्त हो चिहुक रही है। मटर यौवन के भार से धराशायी हो गयी है। अरहर की  फलियों से अलमस्त करने वाली  देहगंध बह रही है। गोधूलि में रंभाते हुए पशु विदक रहे हैं। फागुन की देहरी पर मदन बेधड़क दुंदुभी बजाये जा रहा है। समूची प्रकृति कामोद्दीपित हो उठी है।   

प्रकृति की यह जो अनंत सृजनात्मक चेष्टाएँ हैं वे सौंदर्यबोधी संस्कृति की सृष्टा हैं। यही रस संस्कृति की जन्मदात्री हैं। संयोगी सामगीत हैं। इन्हें अधरों से छूकर अमृत्व प्राप्त करने के असीम अवसर हैं हमारे समक्ष। बस, आवश्यकता इन आह्लादिक क्षणों को आत्मसात करने की है। जीवन में जीवंत करने की है।

ठूँठ होते जा रहे जीवन में यह वासांतिक फगुनाहट के विभिन्न रूपकार हमारे लोकमानस को रसाद्र करने के अनुपम उपादान हैं। मगर हमें फुरसत कहाँ जो हम उत्सव धर्मी संस्कृति के साथ कुछ पल बिताएँ। निष्ठुर जीव तो घोर याँत्रिक हो गया है।

घड़ी की सुइयों के साथ वह चक्कर  घिन्नी बना हुआ है। कब यह ऋतु पर्व आते हैं, कब चले जाते हैं,उसे पता ही नहीं चल पाता है , और मालूम भी हो जाए तो भी उसे कोई खास मतलब नहीं रह गया इन उत्सवों से।


यह सांस्कृतिक उदासीनता हमें अनेकानेक अवसादों से भर रही है। बहुतेरे आसन्न संकट मुँह बाये खड़े हैं। प्रकृति तत्वों से जो दूरियाँ हमने बनाली हैं उन्हें खत्म करना होगा । दुराव की गहरी खाइयों को पाटना होगा। सामंजस्यता के सेतू थापने होंगे ,जहाँ से हम बेधड़क-बेरोकटोक अपने गंतव्य को आ-जा सकें।इन वर्जनाओं से मुक्ति चाहिए तो हमें अपने पर्वों को मूलरूप में आत्मसात करना ही होगा।

संस्कृति श्रृंगार का महोत्सव
हमारी संस्कृति में श्रंगार और आन्नद महोत्सव के रूप में वसंत एवं होली क्रीड़ा का सदैव से ही प्रमुख महत्व रहा है। समाज जीवन में रचे -बसे रहे हैं यह पर्व। प्राचीन ग्रंथों में इसे ही मदनोत्सव या मदन महोत्सव भी कहा गया है। इन पर्वों का विकास विभिन्न व्यवहार तथा परंपरागत संस्कारों के अनुरूप हुआ।

होली जैसे सुअवसरों पर गायन एवं नृत्य की एक समृद्धशाली परंपरा रही है। फाल्गुनी पूर्णिमा के दिन होलिका दहन के आयोजन का प्रचलन महाराज भोज  द्वारा 11वीं शताब्दी में  रचित ” श्रंगार प्रकाश ” में भी मिलता है। यह पर्व होलाका एक कृषि समृद्धि का अनुष्ठान था जिसमें अग्नि में होला ( चना,जौ,गेहूँ,मटर आदि की फलियाँ ) की आहुतियों द्वारा संपन्न किया जाता था। इसी आधार पर कालक्रमानुसार होलिका , होलाका, होला आदि नामों से परिवर्तित होता हुआ यह पर्व अंततः ‘होली’ नाम से अभिहित है।

देश के अधिकांश प्रांतों में यह लोकोत्सव कृषि व फसल से संबद्ध है। वस्तुतः यही आग्रायणेष्टि यज्ञ है। यह जो इस पर्व की ऐतिहासिकता और शास्त्रीयता है उसीसे फागु या फाग प्रचलन में आयी। फाग और होली सभी उत्सवों में सर्वाधिक लोकप्रिय पर्व रहा है। समाज के प्रत्येक वर्ग में समारोह पूर्वक मनाए जाने का उल्लेख है। मध्यकाल में वैष्णवोपासकों द्वारा इस पर्व को नृत्य, गीत,वाद्यादि के साथ मनाए जाने का प्रचलन हुआ।

पन्द्रहवीं सदी से लेकर उन्नीसवीं सदी तक इन फागु गीतों ( होली गीत ) भक्ति एवं रीतिकाल में व्यापक प्रसार हुआ। रीतिकाल में रति आधारित फागु (फागें ) रचीं गयीं – मधुरितु कुसुमित बन भई बौरी गावत फाग राग इति गौरी..वहीं संत-साहित्य की फागें आध्यात्मिक भावना से अनुप्राणित हैं। अष्टछाप के कवियों द्वारा रचित पदों में धमार, धमारि, चाँचर, झूमक, फाग आदि की विलक्षण पद रचना की- डोल झुलावत सब ब्रज सुंदरि, झूलत मदन गोपाल। गावत फाग धमार हरिख भर ,हलधर और सब ग्वाल।।

महात्मा सूरदास जी यह “राग होरी” आज भी लोक में बड़ी मस्ती से गायी जाती है – ब्रज में हरि होरी मचाई। इतसों निकली कुँवरि राधिका उतते कुँवर कन्हाई। खेलत फाग परस्पर हिलिमिलि यह सुख बरनी न जाई।     होलिकोत्सव के संदर्भ में ऊपर वर्णित कुछ तथ्यात्मक बातें  रखने के पीछे मेरी मंशा सिर्फ़ इतनी भर है कि भारतीय संस्कृति की यह विशेषता रही है।  

वह प्रत्येक काल में चिरनवीन रही है। उसकी यह सत् चिरजीविता हमें अक्षुण्ण रखनी है। हमें ही उसे उत्सवी संस्कृति बनाए रखने के सात्विक उपक्रम करने होंगे। हमारे जीवन में जो विद्रूपताएँ हैं , ठेरों वर्जनाएँ हैं  विसंगतियाँ हैं और विरोधाभास हैं उनका शमन करना है।


बदरंग होते मन में प्रेम का रंग भरना है जैसे भोर के पाँव में सूरज अरुणिमा की महावरी लगाता है,जैसे साँझ को चन्द्रमा धीरे-धीरे अपने बाहुपाश में भर लेता है, जैसे फूलों से तितलियाँ बतियातीं हैं,भँवरे मदिर- मदिर मकरंद पीते हैं … जैसे खुशबू हवा में बिना मोल बहती है। जैसे वृक्ष फल देते हैं, मेघ बरसते हैं ,नदी बहती है। चाँद -सूरज आते हैं जाते हैं समूची सृष्टि के सुख देने और भी प्रकृति के जो उपहार हैं हमें मनुष्यता की भाषा सिखाते हैं….


उठिए ! उठाइए !! प्रेम रंग भरी पिचकारी और सराबोर कर दीजिए उसे जो अब तक इस अलौकिक रंग से बचता रहा है, दूर-दूर भागता रहा। जीभर के मल दीजिए उसे अपनी निर्मलता के गुलाल-अबीर से। रंग दीजिए ऐसे पक्के सृजनधर्मी रंग में जो कभी न झूटे। शायद यही अभीष्ट है होली का। शायद यही अर्थ है यह कहने का कि-      ऐसी रंग दो रंग नहिं छूटे ….।

मूल आलेख-  डा. रामशंकर भारती ए – 128/1 दीनदयाल नगर , झाँसी – 284003 (उ.प्र.)

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