Isuri Ke Radhe Shyam ईसुरी के राधे श्याम

Isuri Ke Radhe Shyam ईसुरी के राधे श्याम

Bundelkhand के महाकवि ईसुरी के रजऊ की फागों से इतने विवाद उत्पन्न हो गए थे तरह-तरह के ताने सुनने पड रहे थे, उनकी शान्ति छिन गई थी। Mahakavi Isuri  शान्ति की खोज में वृन्दावन धाम गए और श्री राधे श्याम के चरणों में गिरकर आत्मशान्ति की इच्छा प्रकट करने लगे। Isuri Ke Radhe Shyam ने उंन्हे नई चेतना प्रदान की और वे भक्ति रस मे डूबते चले गये।

बुन्देलखंड के महाकवि ईसुरी के राधे श्याम

बुंदेली कवि ईसुरी की जितनी प्रतिबद्धता श्रृंगारिक फागों में मिली है, उससे कहीं अधिक व्यापक उनका धार्मिक पक्ष रहा है। उन्होंने रजऊ नायिका को सम्बोधित कर बहुत फागें कहीं, जिससे वे बुन्देली लोकसाहित्य में बड़े चर्चित हुए। फिर Isuri

Ke Radhe Shyam का प्रवेश उनके जीवन मे होता है।  जीवन के उत्तरार्द्ध में उनका रुझान भगवान श्रीकृष्ण और श्रीराम की ओर उन्मुक्त हुआ और वे अपनी तिरपन वर्ष की अवस्था में वृन्दावन चले गए।

ब्रजभूमि में घूम-घूम कर उन्होंने श्रीकृष्ण जी की लीलास्थली के दर्शन किए और अध्ययन भी। उन्हें सांसारिक जीवन के भटकाव ने थका दिया था। रजऊ और इस समाज की उपेक्षा ने उन्हें बहुत झकझोरा और वे श्रीकृष्ण की भक्ति के रस में रंगते चले गए। अपने तीन वर्ष के ब्रज प्रवास में उन्होंने भक्ति रस की ऐसी धारा बहाई कि महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri  के साहित्य की धारा ही बदल गई। भगवान तो भक्त के वश में होते आए हैं। 

अपनों तुम्हें जान गिरधारी, हमने कीनीं यारी।
काउ और से करने होती, बहुत हती संसारी।
हर-हर तरां तुमारे ऊपर, तबियत भरी हमारी।
तुलसी गंगा जामिन जाकी, जनम ज़िन्दगी हारी।
ईसुर तकी श्यामली मूरत, गोरी नई निहारी।

जिन पै किरपा होत तुमारी, अन्तस अधिक मुरारी।
गओ आसमान बाकी ठोक, इन्द्र तखत में भारी।
बड़े सूर सरई में बेदे, समर भूमि नई हारी।
दये उतार पील ऐरावत, ऐसी पाती डारी।
कोउ भओ न होने ईसुर, अर्जुन सो धनुधारी।

झूला झूलत श्याम उमंग में, कोउ नहीं है संग में।
मन ही मन बतरात खिलत हैं, फूले हैं अंग-अंग में।
झौंका लगत उड़त जौ अंबर,रंगे हैं केशर रंग में।
ईसुर कात बता दो हमका, रंगे कौन के रंग में।

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महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri  ने राधे-श्याम के दर्शन किए और उन्हीं के रंग में रंग गए। अपने तीन वर्ष के ब्रज प्रवास के दौरान उन्होंने श्रीकृष्ण-राधा के चरित्र पर सैकड़ों फागें लिखीं।

रेखा श्याम मंजनि काड़ी, मोय दुबीचें आड़ी।
भाल चन्द्रमा के ऊपर हो, मदकन ने लट छांड़ी।
ब्रज के लोगन के देवे खां, मानो जमुना बाड़ी।
सुखकर सुन्दर श्रीकृष्ण की, मुख पै मूरत ठांड़ी।
बलदाऊ घर बैठे ईसुर, हेरें कर पै डाड़ी।

बारे बनमाली का जाने, कई जसोदा मां ने।
जरती काये हमसो लालन, तुमें पड़े सिहाने।
मन आवै जितनी लै लेओ, जी खां जितनी चाने।
नौ लख धेनु नन्द बाबा के, जा में नई अगाने।
ईसुर ठाड़ी रात दुआरे, रोजउ देत उराने।

श्री कृष्णजी की बाल लीलाओं का चित्रण करते हुए महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri  कहते हैं कि ब्रज बालाएँ कन्हैया की रोज-रोज शिकायतें करने आती हैं तो नंदरानी उनसे कहती हैं- अरी ग्वालनियों! तुम मेरे लल्ला के क्यों पीछे पड़ी रहती हो। वह बेचारा अभी नासमझ है, तुम लोग क्यों उसके पीछे पड़ी रहती हो। कन्हैया को माखन की कोई कमी तो है नहीं। उसके बाबा नंद जी के पास नौ लाख दुधारू गायें हैं, उसे कोई भूख पड़ी है क्या, जो तुम्हारा माखन छीनने जायेगा। तुम क्यों रोज-रोज उसको डराने के लिए दौड़ी आती हो। मेरा लल्ला तो बेचारा भोला-भाला है, वह क्या जाने ये छल-छद्म। गोपियाँ यशोदा जी से कहती हैं।

अपने बनमाली खां तासें, कओ जसोदा माँ से।
ले गओ दूध दई की दोनी, उठा हमारे ना से।
नई डरात पराये घर में, जाबै पैठ सुलासें।
मैं तो बूंद-बूंद जोरन, ऐसौ आय कहां से।
ईसुर छूट जात हातन से, हारी नन्द लला से।

राधा-कृष्ण की भक्ति से ओत-प्रोत महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri  की फागें बहुत चर्चित हुई हैं और होली के समय इन फागों को लोग बड़ी उमंग के साथ गाते हैं।
मोय बल रात राधिका जी को,करैं आसरो की को।
दीनदयाल दूर दुख मेलत, जिनको मुख है नीको।
पैले पार पातकी कर दए, मोहन सौ पति जी को।
कैसे लगत खात सब कोऊ, खाद कात ना घी कौ ।
ईसुर कछू काम की जानों, कदमन के डिग झीको।

ऐसी मान्यता है कि यदि भक्त भगवान राम की कृपा पाना चाहता है तो उसे श्री हनुमान जी की कृपा प्राप्त करने से श्रीराम प्रसन्न होते हैं और उसी तरह यदि श्रीकृष्ण की कृपा चाहिए है तो श्रीराधा जी को प्रसन्न करना जरूरी है। इसी कारण से महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri  ने श्रीकृष्ण की कृपा हेतु राधाजी की उपासना को माध्यम बनाने पर जोर दिया है।

जो काउ गुन गावे राधा को, जनम सफल हो ताको।
ऐसी नौनौ नाम लाड़ली, लेतन लगे मजाको।
ऐसो नौनौ गौनो कर दओ, अजामील गना को।
जेई भजन में पाप ईसुरी, हरे कोटि वाधा को।

महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri  राधा जी की सुन्दरता का वर्णन करते हुए कहते हैं ।
जग में होत उजेरौ जी को, राधा कौ मुख नीकौ।
उतै हिरात परब हीरन की, कुन्दन कौ रंग फीकौ
जौ रंग रूप पाइए कांसे, विरन करेजौ झीकौ।
ईसुर सदा स्वाद वानो लय, सुकस सनेह अमी कौ

राधा जी के रूप सुन्दरता को बढ़ाने वाले गहनों की तारीफ करते हुए ईसुरी कहते हैं कि गहनों के धारण करने से राधा जी का रूप निखर रहा है और राधा जी के अंगों में पहनने से गहनों का महत्त्व बढ़ गया है।

कानन डुले राधिका जीके, लगे तरकुला नीके।
आनन्द कन्द चंद के ऊपर, दो तारागन झीके।
परतन पसर परत गालन पै, तरें झूमका जीके।
जिनके घर से जौ पैराऔ, और जनन ने सीके।
श्याम सनेह ईसुरी देखत, ब्रजवासी बस्ती के

राधा-श्रीकृष्ण से इतना प्यार करती थी कि उन्हें सदैव श्री कृष्ण के पास जाना,उनसे मिलना बातें करना अच्छा लगता था। जिस तरह गीत गोविन्द में जयदेव ने राधा-कृष्ण के प्रेम-प्रसंगों, केलि-कथाओं तथा उनकी श्रृंगारिक अभिसार लीलाओं का रहस्यमय चित्रण किया है, उसी तरह महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri  ने राधा-कृष्ण की प्रीति की रीति का वर्णन अपनी फागों के माध्यम से किया है।

राधा आउत जात कुंवारी, दई बेचन गिरधारी।
देउ अगोऊ गैल गोकुल की, मिल जै प्रानन प्यारी।
जांचो चलौ जान न पावै, जा सक की हुसियारी।
लेऊ चुकाय जगात जनम की, है माखन बेपारी।
ईसुर होत चोर की सौ लों, साउ की एक मुरारी।

राधा की सखी श्रीकृष्ण जी के पास जाकर कहती है कि हे माधव! हे केशव! आपके वियोग में राधा इतनी व्याकुल है कि वह अपना सब कुछ भूल गई है। वह इतनी दुबली-पतली हो गई है कि अपने गले में पहने हुए हार का बोझ भी सहन करने में सक्षम नहीं है। वह आपकी प्रतीक्षा में विह्नल है। वह आपके प्रेम में पागल सी होकर आपसे मिलने को घर से निकल पड़ी है।

राधा लाड़ करै गिरधर पै, रूपै न अपने घर पै।
उरझे से सुरझे ना नैना, जी कै पीताम्बर पै।
कोउ बात यो फार सामने, कै नई सकत जबर पै।
ईसुर जात मोह के बस में, सती चढ़ी सरबर पै।

महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri  राधा को बहुत चतुर-स्यानी कहकर उनके सम्बंध में कहते हैं कि राधा जी ने श्रीकृष्ण को अपने प्रेमजाल में इस तरह फँसा रखा है। राधा-कृष्ण प्रसंग की फागों में इसुरी की यह फाग बड़ी सुन्दर बन गई है।

ऐसी चतुर राधका जी ने, तिरलोकी बस कीने।
जानौ सुनी बाह सई जाने, कई स्यावास सबीने।
जौन हते काउ के जाने, ते भये क्वाल नवीने।
बिलखत फिरत बनई बन व्याकुल,जादू से कर दीने।
बेदन कये गांय ना ईसुर, के रस कौन कबीने।

राधा और कृष्ण का प्यार हृदय की गहराई में जाकर था। जितना श्रीकृष्ण जी राधिका से प्यार करते थे, उतना ही राधा श्रीकृष्ण से। वे एक दूसरे के बिना एक पल भी नहीं रहना चाहते थे।
नैना श्री वृषमान कुंवरि के, दरस लेत गिरधर के।
हैं के नई गुलाब फूल गए, बच्चा भूल भंवर के।
अंजन मुकुर कंज बन रंजन, रंजन बारे सरके ।
ईसुर तरन अरुन अलसाये, देखे बड़ी फजर के।

महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri ने राधा और कृष्ण के द्वारा होली खेले जाने का बड़ी रसमयता के साथ वर्णन किया है।
ब्रज में खेलें फाग कनाई, राधे संग सुहाई।
चलत अबीर रंग केशर को, नभ अरुनाई छाई।
लाल-लाल ब्रज लाल-लाल बन, बीथन कीच मचाई।
ईसुर नर नारिन के मन में, अति आनंद समाई।
 
भीजीं फिरैं राधिका रंग में, मन मोहन के संग में।
दूध की धूमर धाम मचाई, मजा उड़ावत मग में।
कोऊमाजूम धतूरा फांके, कोउ छका दह भंग में।
तन कपड़ा गए उगर ईसुरी, करी ढांक सब ढंग में।
 
केशव दई श्यामता अलिखां, गई बृषभान महल खां।
वारि पात जल जात मांग पर, मांजद खल के मल खां।
बेनिसिरी राधिका जू की, तिरबेनी के फल खां।
ईसुर तरन लगे जे पानी, जानौ का भई कलिखां।
      
दिन के मिलने हेतु सिधारी, श्री बृजभान कुमारी।
कुवले फूल कमल दल संपुट, निघा चकोरन डारी।
आवो भयो जात रई भीतर, मकरन्दन अंधियारी।
श्री बृजभान भुवन में ईसुर, दीपक देह दिवारी।

झूला झूलत श्याम उमंग में, कोउ नहीं है संग में।
मन ही मन बतरात खिलत हैं, फूले हैं अंग-अंग में।
झौका लगत उड़त जौ अम्बर, रंगे है केशर रंग में।
ईसुर कात बतादो हमकों, रंग कौन से रंग में।

जब वसुदेव जी बालकृष्ण को मथुरा के कैदखाने से ब्रज में नन्दबाबा के घर ले जा रहे थे, तब यमुना नदी को पार करते समय यमुना श्रीकृष्ण के चरण स्पर्श करने के लिए बढ़ रही हंै। वसुदेवजी प्रभु लीला को समझकर आगे बढ़ते जा रहे हैं और यमुना बड़े वेग के साथ उफान पर है। प्रभु ने यमुना का आशय समझकर अपनी टांग यमुना जल को स्पर्श करा दी ।यमुना प्रभु चरण स्पर्श से शीघ्र उतर गई और वसुदेव जी यमुना पार कर गए। ईसुरी ने इस दृश्य को अपनी फाग में प्रदर्शित किया है।

रेखा श्याम मंजनि काड़ी, मोय दुबीचें आड़ी।
भाल चन्दमा के ऊपर हो, मदकन ने लट छाड़ी।
ब्रज के लोगन के देवे खां, मानो जमुना बाड़ी।
सुखकर सुन्दर श्रीकृष्ण की, मुख पै मूरत ठाड़ी।
बलदाऊ घर बैठे ईसुर, डेरे कर पैं डाड़ी

गुइयां मन मोहन के मारें, जमुना गैल बिसारें।
जब देखौ तब खड़ौ कंज में, गए कदम की डारें।
गैल घाट को हँसो खेलबो, जा नई चाल हमारें।
रैबो कठिन हमारे ईसुर, जदु बंसिन के मारें ।

श्रीकृष्ण, इन्द्र के कार्य व्यवहार से अप्रसन्न थे। उन्होंने ब्रजवासियों से इन्द्र की वजाय गोवर्धन की पूजा करा दी। इन्द्र नाराज हो गये और ब्रज को बर्बाद करने के लिए घनघोर वर्षा करनी प्रारंभ कर दी। सात दिन रात भारी वर्षा कर ब्रज को डुबाने की चेष्टा में इन्द्र लगा था, किन्तु कृष्णजी ने अपनी एक अंगुली पर गोवर्धन पर्वत उठा लिया और ब्रजवासियों की रक्षा की। महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri  ने इसी दृश्य को अपनी फाग में वर्णन किया है।

बरसौ जा ब्रज में बैजावै, मेर्घइं इन्द्र सुनावैं।
सात दिना और सात रात लौ, बूंदें ग़म ना खावैं।
ब्रजबासिन के घर अंगना में, जल जमुना कौ धावै।
लओ उठा गोवरधन नख पै, छैल छत्र पर छावै।
कैसे मारे मरत ईसुरी, जिनको श्याम बचावै।

बा दिन बांसुरिया के सुरकी, बंशी कैसी मुरकी।
जौ भौ हाल कान से लगके, खाल फूट गई उरकी।
हाँ हो आई भनक के परतन, झाक विरह के जुरकी।
ईसुर भमां गए बहुतेरे, विष की दुरकन ढुरकी

सखीरी भाग हमारे भारी, हार गए गिरधारी।
दस और चार भुवन चैदा में, जिने भजत संसारी।
राम-कृष्ण में भेद कहां है, जिन गौतम तिय तारी।
पठये सुरग मरीच सुबाहू, तकत ताड़का मारी।
हैं गरीब के नाथ ईसुरी, दीनन के हितकारी।

गुइयां काके नाते गारी, देत हंसे गिरधारी।
ना कउं इतै सासुरौ मोरो, ना उनकी ससुरारी।
बसती सास ससुर की नईयां, ना है बाप मतारी।
एकउ गांव बसत हैं ईसुर, सरगै जाल ना सारी।
दई मारे को सात होत जब, कएं चाय बोदारी।

रइओ मनमोहन से बरकीं, तुम नई भई अहर की।
होत भोर जमुने ना जइयो, दैकें कोर कजर की।
उनकौ राज उनई की रैयत, सिर पर बात जबर की।
ईसुर कात तला में बसकें, सैये सान मगर की।।

नैना मोसे लगे दिलवर, घरै चलो गिरधर के।
उनखां चलो देखिए फिर कें, भर के एक नजर के।
कोउन के भीतर नों भर गए, वे रंग पीताम्बर के।
जां चित चड़े लाज ता खोई, ना रए घूंघट तइ के।
ईसुर दये मोए करुनानिधि, दरसन दोर बगर के।
 
जब से ब्रज छोड़ो नन्दलाला, सोच करैं ब्रजबाला।
दीजै संघ मिरग की छाला, औ तुलसी की माला।
दीजे दोष कहां काऊ खां, भई सो लिखी कृपाला।
ईसुर कोउ देत ना देखे, धुंआ पराई साला।

राजा भए द्वारका जाकें, गोकुल को दई खाकें।
कारी लकुट कमरिया कारी, रहत हते तन ढांके।
खिरके बहुत बरेदी जिनके, जाने धेनु चराकें।
तन-तन छांछ मांगते फिरते, घरन-घरन में जाकें।
ईसुर का औखाद नन्द की, जाए जशोदा मां के।

श्रीकृष्ण जी जब ब्रज को छोड़कर द्वारका चले गए। ब्रजवासी उनके वियोग में बड़े उदास एवं दुःखी रहने लगे थे। जब श्री कृष्ण जी ने उद्धव को ब्रज भेजा तो वे गोपियों और ग्वालों से कृष्ण जी का संदेश कहते हैं। गोपियों की दशा बहुत दयनीय हो रही थी। वे श्रीकृष्ण जी के विरह में बड़ी व्याकुल थीं। वे दुखित होकर कहती हैं कि मैं अपने दोषों का कहाँ तक वर्णन करूँ, मेरी ही गलतियों से नाराज हो कन्हैया हमें छोड़कर चले गए हैं ।

जोगन भई राधका तोरी,बरस बीस की गोरी।
राख लगाए लटे छुटकाएं, डरी कंधा पै झोरी।
गावें बजत चमीटा बुटका,चमक रयीं ना चोरी।
फेरो देत फिरत फिरकी लै, ब्रज बासन की खोरी।
उन गुपाल से कह्यो इसुरी, जै गुपाल की मोरी।

राधा उद्धव जी से कहती हैं…।
ऊधो ल्याए जोग की माला,दिवा पठई नंदलाला।
अलबेलिन खां सेली सिंगी, छाप तिलक मृगछाला।
राख लगाय बांद के कंठी, बनन लगी बृजवाला।
संतन संग ईसुरी बादी, जमुना तट पै साला।

उद्धव जी जब श्रीकृष्ण जी का संदेशा लेकर ब्रज आते हैं तो उनका संदेश पाकर राधा बड़ी विकल हो जाती हैं। वे कृष्ण के राग में इस तरह विह्नल हो जाती हैं कि अपनी सुधबुध भूल जाती हैं।

पाती छाती सौ चिपकाई, कृष्णचन्द्र की आई।
हातन हात लई गोपिन के, राधा जुए गुआई।
अब भगवान भए हैं सूदे, ऊधौ खां पहुंचाई।
समाचार लिए दिए ईसुरी, सब खां बांच सुनाई।

महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri  कहते हैं कि राधा जी ने उद्धव से कहा कि ऊधो आप कन्हैया से कहना…।
अपनों तुमें जान गिरधारी, हमने की नी यारी।
काउ और से करने होती, बहुत हती संसारी।
हर-हर तरां तुमारे ऊपर, तबियत भरी हमारी।
तुलसी गंगा जामिन जाकी, जनम ज़िन्दगी हारी।
ईसुर तकी श्याम की सूरत,गोरी नई निहारी।

राधा जी शिकायत भरे लहजे में उद्धव जी से कहती हैं कि कन्हैया पूरे धोखे बाज निकले हैं। हम से मीठी-मीठी बातें करके प्यार में लहा लिया और अब विरह अग्नि में जलने को छोड़कर चले गए हैं। महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri  ने राधा की ओर से कृष्ण को संदेश भेजा है…।

जासौं जरत रात है छाती, को है कीको साथी।
केबू करे लगन ना पैहें, हवा देह में ताती ।
ना मौखाद संदेशे आए, न लिख भेजी पाती।
कौने गुना खबर बिसरा दई,मैं अपराधिन कांती।
ईसुर कहूं भूभ ना बादर, भए भीम के हाती।
 
ओई घर जाओ मुरलिया वारे, जहां रात रए प्यारे।
अब आवे को काम तुमारो, का है भवन हमारे।
हेरें बाट मुनइयां हुईए, करैं नैन कजरारे।
खासी सेज लगा महलन में, दियला धर अजयारे।
भोर भए आ गए ईसुरी, जरे पै फोरा पारे।।

करिया बूंदा बुंदकातर कैा, तक बेंदा ऊ उर कौ।
सनेय समान गुरओ होवे, मान चन्द्र के घर को।
देखो देतई ते सुख देतन, मिलवौ अरि से अरकौ।
देत झमाक ढांक मुख झझका, लग ना जाये नज़र कौ।
ईसुर दई ब्रषभान लाड़ली, मनहर लव गिरधर कौ।

सांस्कृतिक सहयोग के लिए For Cultural Cooperation

संदर्भ-
ईसुरी की फागें- घनश्याम कश्यप
बुंदेली के महाकवि- डॉ मोहन आनंद
ईसुरी का फाग साहित्य – डॉक्टर लोकेंद्र नगर
ईसुरी की फागें- कृष्णा नन्द गुप्त
मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’

admin

Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.

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