Homeबुन्देलखण्ड के साहित्यकारMoti Kavi “Moti Harkara”  मोती कवि "मोती हरकारा’’

Moti Kavi “Moti Harkara”  मोती कवि “मोती हरकारा’’

Moti Kavi “Moti Harkara”  का जन्म चरखारी के एक प्रतिष्ठित घोष परिवार में सन् 1895 ई. के लगभग हुआ था। इनकी रचनाओं में कहीं मोती राम और कहीं मोती लाल की छाप भी मिलती है, किन्तु उन्हें मोती हरकारा’’ के नाम से लोग अधिक जानते हैं। वे एक अच्छे तांत्रिक भी थे। इनके पिता चरखारी नरेश मलखान सिंह के दरबार में थे। पिता का देहावसान हो जाने पर लगभग 12-14 वर्ष की आयु में ही इन्हें चरखारी नरेश ने अपने यहाँ रख लिया था।

राज कवि से प्रतिष्ठित….मोती कविमोती हरकारा’’

इस समय चरखारी की गद्दी पर राज बहादुर जुझार सिंह जू देव बैठ चुके थे। बालक मोतीराम की काव्य प्रतिभा ने जुझार सिंह जू देव को प्रभावित भी किया था। कवि ने उन्हें अपने काव्य गुरु के रूप में सम्मान दिया है।

1 – चक्रपुरी मम जन्म जहां छत्रसाल राज चल आयो है।

तासु बंस भूपत जुझार सिंह पालो मोह पढ़ायो है।।

2 – तिन सैं में पूछौ कछु पिंगल वर्ण भूप सो मोह कहे।

3 – यह सुभ वचन नृपत मुंह भाषिय लीने मैं निज धार सो मन।

महाराजा श्री मर्दन सिंह के राज्यकाल में इन्होंने कवि के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त की। महाराजा साहब के विवाह में द्वारचार के समय चारण प्रवृत्ति को संजोये इनके द्वारा पढ़ा गया एक छन्द दृष्टव्य है…।

रतन जड़त भूषन अंग अंग पै सजाये भूप
रूप सो अनूप बनै कहत न कवीन्द्र पै।

श्रीमन् महाराजाधिराजा अरिमर्दन सिंह ब्राजे
बन दूल्हा जिन दूल्हा गयेंन्द्र पै।’

रचनायें  – एक खण्ड काव्य प्रेम पयोधि’ इनके ज्येष्ठ पुत्र श्री जुगल किशोर जी के सौजन्य से देखने को मिला। इसमें उद्वव गोपी प्रसंग कुछ व्यावहारिक धरातल को छूते हुए चला है। रचनाकाल के सम्बन्ध में कवि ने ग्रन्थ में लिखा है…।

एक सहस नौ सौ में जसनों संवत् अधिक नवासी के।
सावन सुक्ल पक्ष सुभ सातें जस बरनौं सुषरासी के।।

तदनुसार श्रावण शुक्ल पक्ष सप्तमी संवत 1989 अर्थात् सन् 1932 ई. में ग्रन्थ रचना प्रारम्भ की। मोती माला’ ने 108 दोहों का संग्रह बताया जाता है किन्तु इसके कुछ ही दोहे देखने को मिल सके। गोपाल अष्टक’ की रचना कवि ने जीवन के अन्तिम क्षणों में आत्म शान्ति के लिए की थी– ‘मोती धीर धरौ मन में, है सांवरो सुंदर सोच विमोचन।कुछ ग्रन्थों की चर्चा है किन्तु उपलब्ध नहीं है। कवि की फुटकर रचनाओं में ख्याल और फागें बहुत लोकप्रिय हैं। घनाक्षरियों और सवैयों में कृष्ण लीला की श्रृँगार रस एवं भक्ति भावना प्रधान रचनायें भी बहुत मिलती हैं। साहित्य-फड़ों के लिए कवि ने पर्याप्त रचनायें दी हैं जो आज भी गायकों के बस्तों में बंधी हैं।

कवित्त
देर न करीती दीन द्रोपदी पुकारी जब,
सभा बीच नीच खींच पट खोलो है।

देर न करीती प्रहलाद प्रन पालो प्रभु,
देर न करीती जब भक्त चित्त डोलो है।

मोती जन आरत सो भारत में भार ही की,
देर न करीती गज घंट गिरो पौलौ है।

मोरी बेर देर औ अबेर कैसी दीनानाथ,
देर न करीती जब करी हरी बोलो है।।
(गायक – श्री देवी साहू)

जब दुष्ट दुष्शासन ने सभा के मध्य द्रोपदी की साड़ी खींची तो द्रोपदी ने पुकारा आपने आने में विलम्ब नहीं किया था। आपने भक्त प्रहलाद के प्रण को पूरा करने में थोड़ा भी विलम्ब नहीं किया और भक्त के मन ने जैसे ही चाह की आप तुरंत पहुँच गये।

दीन जन के पुकारने पर, आपने तनिक भी देर नहीं लगाई और हाथी का घंटा गिराकर बिल्ली के बच्चों को बचाया था। आपने तब भी विलम्ब नहीं किया था जब हाथी ने मगर से रक्षा हेतु पुकारा था फिर हे दीनों के स्वामी! केवल मेरे लिये ही इतनी देर क्यों लगा दी ?

आली आज लाल ते गुमान कीन्हों लाड़ली ने,
हेरत मुख फेरत दृग भये लाल डोरी के

भौहन को तान कमान पनिच वरन कर,
कारे कजरारे नैन जोरे बरजोरी के।।

मोती सखी सियानी जे चिमानी चित्रसारी में,
वारी में मीन मृगा वन में कंज खोरी कें।

बोलत न बनै बैन देखत रये नैन येन,
वीर वीरता के वे किशोर श्री किशोरी के।।
(गायक – श्री देवी साहू)

हे सखी ! आज श्रीकृष्ण से राधिका जी ने गुमान कर लिया है। वे देखते ही मुंह दूसरी ओर पलट लेती हैं, नेत्रों (क्रोध में) के किनारों पर लाल डोरे से खिंच गये हैं। भृकुटी को चढ़ा कर (क्रोधित होकर) धनुष और प्रत्यंचा के समान बनाकर काले काजर युक्त नेत्रों को बलपूर्वक (बाण के रूप में) जोर लिया है।

मोती कवि कहते हैं कि जो सखियाँ चतुर (बुद्धिमान) थीं वे रंग-महल में चुप होकर दुबक गई, वे ऐसी लग रही थीं जैसे पानी में मछली, वन में हिरण और छोटे कटोरे में कमल का पुष्प। किशोरी जी के वीरत्व से परिपक्व किशोर नयन अच्छी तरह देखते तो रहे किन्तु उनके मुँह से (क्रोधवश) शब्द नहीं निकले।

ऊधौ गिरधर ते ब्रज भरकें सुनो सूर सुत करकें।
जौन चेटका कौ पति ठहरै बांधो हमें पकर कें।

धरियो सिफर जौन पै जावै जी तज प्रानी पर कें।
ता रिपु के बाहन कौ भक्षण डोलत है सिर धर कें।

मोती’ तौन सकल ब्रज भर कें लै गये मोहन हरकें।।

हे उद्धव जी अपने कान देकर सुनो कि श्रीकृष्ण ही पूरे ब्रजवासियों के अपने थे। उन्होंने हम सबको प्रीत के बंधन में बांध लिया और हमारे मन को हरण करके ले गये।

फाग
खोवै न द्रव्य कहूं लोभी ग्यान बातन में,
बल न जताय कभउं नाहर पड़इयन में।

ज्ञानी न ज्ञान देत मूरखन की सभा बीच,
डाकू न वार करै फूंस की मड़इयन में।

संत नहीं वीर्य देत गनिका व्यभिचारन में,
जलधि स्वांति बरसै न जानके भड़इयन में।

मोती लाल हाल जौ विचार कें बखान करै,
सूरवीर खोवै न लोइया लड़इयन में।
(गायक – जुगल किशोर)

लोभी व्यक्ति ज्ञान की बातों के लिये अपना धन व्यय नहीं करता, शेर कभी पड़ेरुओं (गाय-भैंस के छोटे बच्चों) को अपनी ताकत नहीं दिखाता। ज्ञानी व्यक्ति मूर्खों की सभा को नहीं समझाते, डाकू घास-फूंस के घरों (गरीब के मकानों) पर डाका नहीं डालते।

संत व्यक्ति व्यभिचारी स्त्रियों अथवा वेश्या को रतिदान नहीं करता। स्वाति नक्षत्र के जल की वर्षा पितृपक्ष में नहीं होती। मोती कवि कहते हैं कि मैं विचार (चिंतन) करके कहता हूँ कि अच्छा वीर और योद्धा कभी भी अपने बाण सियारों को मारने के लिये नष्ट नहीं करता।

फाग
कारे सब नईं होत विकारे हमने सोच विचारे।
एक दोस भौंरा कौ देखत सब दोषल कर डारे।

कारे सिंधु महाकारे तें चौउदा रतन निकारे।
कारे केस बिना नईं आदर नारी नृपत दुआरे।

मोती नाम लेत कारे कौ सो सुर धाम सिधारे।।
(गायक – श्री जुगल किशोर, चरखारी)

हमने चिंतन कर लिया है कि सभी काले रंग वाले खराब नहीं होते। केवल एक भ्रमर का दोष देखकर सभी काले रंग वालों को दोषी कह दिया। (कवि आगे काले रंग वालों के गुणों की चर्चा करते हुए कहता है कि) काले समुद्र को मंदराचल पर्वत (नागराज की सहायता से) द्वारा मंथन कर चौदह रत्न प्राप्त किये गये थे।

सिर पर काले बालों के बिना युवती और राजा दोनों के द्वार पर सम्मान नहीं मिलता। अर्थात् दोनों जगह युवा अवस्था का ही सम्मान है। मोती कवि कहते हैं कि काले कृष्ण का नाम लेने वाले देव लोक को पा जाते हैं।

कलियां अपने गुन नईं कातीं भौंरे दोष लगातीं।
मदमातो जोवन जब आओ उपत उपत बैठातीं।

बैठत संपुट कंज कली भई कैद रहे इक राती।
जो ना होतो उदय भान कौ तो फांसी करवातीं।

मोतीराम जसीली बनकें बुझी आग सुलागातीं।
(गायक – श्री जुगल किशोर, चरखारी)

कलियाँ अपने लक्षणों की बात न कहकर भ्रमर को दोषी बतातीं हैं। मदमस्त जवानी के आने पर वे भ्रमरों को आमंत्रित करती हैं। खिले कमल पर जब भौरा बैठता है तो वह (सूर्यास्त होने पर) अपने दलों को सिकोड़ कर कली के रूप में बदल जाती है और भौरा एक रात्रि के लिए कैद हो जाता है। यदि सूर्यादय न हुआ होता तो भौरा की तो फाँसी निश्चित थी। मोती कवि कहते हैं कि ये कलियाँ रसवान बनकर शान्त हृदय में कामाग्नि पैदा कर देती हैं।

नैना अबै चली गई घालैं बरछी कैसी भालें।
देखत तकत हजारन रै गये लिखी चितोर दिवालें।।

कइयक गिरे तमारौ खा कें ऊँचे सें भये खालें।
मोती लाल जियें वे कैसें जिन्हें करेजें सालें।।

अभी-अभी नयनों से प्रहार करते हुए नायिका निकल गयी है। उसमें (नयनों में) बरछी की नोंक की तरह प्रभावी पैनापन है। हजारों लोग हतप्रभ हुए चित्र लिखे से देखते रह गये। बहुत से मदहोश होकर नीचे गिर गये। मोती कवि कहते हैं कि वे कैसे जीवित रह सकते हैं जिनके हृदय में चोट लगी है ?

रसना राम नाम खां बोलौ बड़ो नाम अनमोलौ।
भूलो फिरत मोह सागर में जौ मन डोलौ डोलौ।।

भव सागर से पार करें खां है आशा अब तो लौ।
मोती लाल झपट हिरदे के कपट किवारे खोलौ।।
(गायक – श्री जुगल किशोर, चरखारी)

कवि अपने आप से कहता है कि जिह्वा से राम का नाम लो, यह अमूल्य है। मोह रूपी समुद्र में मन भटकता फिरता है (भुलावे में घूमता है)। इस संसार सागर को पार करने के लिये हे प्रभु! अब आप तक ही आशा टिकी है अर्थात् आपका ही भरोसा है। मोती कवि कहते हैं कि शीघ्र ही हृदय के छल से निर्मित कपाटों को खोल लो।

गज खां पकरें ग्राह दसन में खेचत जतन जतन में।
पूरौ फंसो गसो पद मोरौ पावत नहीं भगन मैं।।

तब चिक्कार पुकार राम खां पहुंचो चित्त चरन में।
रा’ के कहत कष्ट गओ मोती ‘म’ भओ ठीक मगन में।।
(गायक – श्री जुगल किशोर, चरखारी)

हाथी को मगर ने अपने दाँतों में जब जकड़ लिया तब पहिले तो अपने आपको वह उससे छूटने के लिये अनेक प्रयासों सहित बाहर खींचता रहा, जब उसने मन में समझ लिया कि उसका पैर पूरी तरह मगर के मुँह में फंस चुका है और छूट कर भागने की कोई सम्भावना नहीं है, तब उसका मन प्रभु श्रीराम के चरणों में पहुँचा और आर्त भाव से चीख कर उनका नाम लिया। मोती कवि कहते हैं कि रा’ का उच्चारण होते ही कष्ट दूर हो गया म’ की पूर्ति आनंद की अवस्था में हुई।

जब जब परी दास पै पीरा, हरन आये रघुवीरा।
एक बार प्रहलाद भगत हित नरसिंह धरो सरीरा।

बचा लओ गज खां जल भीतर करो सिंधु के तीरा।
मोती लाल बचा प्रभु लइयो भवनिधि अगम गंभीरा।।

जब-जब भक्त पर आपत्ति आई श्रीरामचन्द्र जी स्वयं उसके निर्वाणार्थ आये। एक बार प्रहलाद भक्त के हित में नरसिंह रूप धारण किया था। एक बार जल के भीतर मगर से बचाकर समदु्र के किनारे ला दिया था। कवि मोती कहते हैं कि हे प्रभु! यह संसार सागर बहुत गहरा है इससे मुझे उबार लेना।

ख्याल
लखन भ्रात सें मिलो पिया तुम लै सिया छोड़ हिया का छल।
लघु कर जानो नहीं, दशरथ सुत में त्रिभुवन कौ बल।। टेक।।

लै कैं मिलौ जानकी जब तुम दया करेंगे दीन दयाल
लोट जायेंगे लंक से रामचन्द्र लक्ष्मण कपि भालु

लगै न कुल खां कलंक जामें सोइ करौ मोरे प्रतिपाल
लड़ें न जीतो राम सें कहों मैं तुम सें हाल।।

उड़ान-लियें कपिन की सेन परे हरि एक सें एक हैं सूर धवल।
लघु कर जानो नहीं, ………….।।

लाल ध्वजा फहराये लंक में अर बल भये बालि के लाल
लाल बालि के लड़ेंगे तुमसें तब तुम का करहौ दस भाल

लै कैं गदा अंजनी नन्दन जब दस मुख पै दै हैं घाल
लखौ पिया तुम हिया में अपने तब न चलेंगे ऐसे गाल।

उड़ान-ल्याये चुराय पिया जगजननी कहं दसमुख की गई अकल।
लघु कर जानो नहीं, ………….।।

लखी न लख में एक दसानन बहुत तरह समुझायो बाल।
लिये दस लंगर परे हैं तिनकौ तनक न मन में ख्याल।

लगे हैं गेरां समुद्र गढ़ जीत लिये दसहूं दिगपाल।
लंकपती खां कौन डर जाके बस में जम औ काल।।

उड़ान-लिया उठा गिर सहित पसूपति कहु मोसें है कौर सबल।
लघु कर जानो नहीं, ………….।।

लाज रहै जामें पिया प्यारे आनंदसिंह कौ यही सबाल
लाला बलदेव कथें छंद यह डाला तेरे ऊपर जाल

ल’ से ‘ल’ तक कहो ख्याल कूँ नईं उठकें दे जाना चाल।
लपक कें तोरी लाड़ले चंग छीन लेगा तत्काल।।

उड़ान-लिये चंग छंद कवि मोती कहें सुनकें दुस्मन गये निकल।
लघु कर जानो नहीं, ………….।।

मंदोदरी रावण से कह रही है- हे प्रियतम! आप हृदय का छल दूर कर सीता को साथ ले जाओ और लक्ष्मण के भाई श्रीराम से मिलो। उन्हें तुम छोटा मत मानो, दशरथ के पुत्र श्री राम में तीनों लोकों की शक्ति है। जब आप सीता को ले जाकर मिलोगे तो दीनों पर दया करने वाले श्रीराम आप पर दया करेंगे और वानर, भालू, लक्ष्मण सहित श्रीराम लंका से वापिस लौट जायेंगे। हे मेरे पालनकर्ता! वही कर्म करो जिससे कुल को किसी प्रकार का दोष न लगे। आप श्रीराम से युद्ध नहीं जीत सकते, यह मैं निश्चित रूप से कहती हूँ।

श्रीराम अपनी वानरों की सेना में एक से एक बलशाली योद्धाओं सहित डेरा डाले पड़े हैं। लंका के ऊपर लाल ध्वज फहराने की सामर्थ्य रखने वाले बालि पुत्र अंगद हठी शक्ति के रूप में उपस्थित हैं। जब वही बालि पुत्र आपसे युद्ध करेंगे तब क्या कर सकोगे ? अंजनी पुत्र हनुमान जी जब अपनी गदा से आपके दश मुखों पर प्रहार करेंगे (तब आप क्या करोगे)। हे प्रियतम! आप अपने हृदय में विचार कर देखो, तब आपका मुँह इस तरह नहीं चल सकेगा। आप जगत की माता को चोरी से ले आये हो, आपकी बुद्धि कहाँ नष्ट हो गई ?

मंदोदरी ने अनेक प्रकार से समझाया किन्तु रावण की समझ में एक भी बात नहीं आई। वह बोला- दस लंगर समुद्र में पड़े हुए हैं उसकी तुम्हें जानकारी नहीं है। लंका गढ़ के चारों ओर समुद्र फैला है, मैंने दशों दिगपालों को भी जीत लिया है। हे प्रिये! जिसके काबू में यम और काल हैं उस लंकापति रावण को किसी का कैसा भय? भगवान शंकर सहित मैंने कैलाश पर्वत को उठा लिया था भला मेरे से अधिक बलवान कौन है ? आनंद सिंह का प्रश्न यही है कि हमारे पक्ष की लाज बची रहे।

लाला बल्देव कहते हैं कि हमने छंद पढ़कर तुम्हारे ऊपर जाल डाल दिया है। अब ल से ल तक छंद कहो वर्ना स्थान छोड़कर भाग जाओ अन्यथा लाड़ले चंग छीन लेगा। मोती कवि ने छंद लेकर धंग कहना प्रारंभ किया तो दुश्मन स्थान छोड़कर भाग गये। अंतिम छंद में दूसरे पक्ष को चुनौती है और गाने के लिये ‘ल’ से ‘ल’ का विषय दिया गया है। इसमें ‘गायकों’ के नाम दिये गये हैं।

प्रेम पयोधि
दोहा-कंस आद खल मार के उग्रसेन दयो राज।
भक्त सकल सुष में करे मथरा में ब्रजराज।।

प्रेम जसोदा नंद कौ उर सब ब्रज कौ चैन।
भूलत ना तो स्याम को रटत रहत दिन रैन।।

कंस आदि दुष्टों को मारकर श्रीकृष्ण जी ने महाराज उग्रसेन को राज्य दे दिया और मथुरा में भक्त जनों को सुख-शान्ति प्रदान की। यशोदा माता और नंदबाबा का स्नेह और ब्रज का वह आनंद-शांति श्री कृष्ण को भूलता नहीं है, वे रात-दिन यही बात दुहराते रहते हैं।

छंद -ऊद्यो ये अक्रूर मदन सब ब्राजे स्याम के पास ही थे।
रहत हते हर बार साथ में सषा स्याम के षास ही थे।।

बोले सब से कृष्ण चंद्र हमें ब्रज कौ सुष नई भूलत है।
वो प्रेम जसोदा नंद गोप कौ नेह नैन में झूलत है।।

श्रीकृष्ण के पास में ही उद्धव जी, मदन जी और अक्रूर जी बैठे हुए थे। ये सदैव ही साथ में रहते हैं क्योंकि वे उनके आत्मीय मित्र हैं। श्रीकृष्ण जी सबसे कहने लगे कि मुझे ब्रज का आनंद-सुख भूलता नहीं है। यशोदा माता, नंद बाबा और गोप-ग्वालों का स्नेह आँखों में झूलता है।

ब्रजवासिन कौ प्रेम सखा मै कैसें तुमें वषान करों।
फांस लयो है मोय मोह में केहि विध उनसे मान करों।।

यैसो कै कें प्रीत सिंध में डूब गये मोहन प्यारे।
यह हाल स्याम को देष नेह में विश्मय उद्यव चित धारे।।

हे मित्र! मैं तुमसे उन ब्रजवासियों के प्रेम का कैसे वर्णन करूँ? उन्होंने मुझे अपने नेह के बंधन में बांध लिया है। मैं उनसे कैसे अभिमान कर सकता हूँ ? इस तरह कहकर श्रीकृष्ण प्रेम-सागर में डूब गये। उनका यह हाल देखकर उद्धव जी को आश्चर्य हुआ और वे मन में विचार करने लगे।

ब्रह्म सच्दानंद कृष्ण यह निराकार साकार भये।
कहैं वेद भुय भार देष हरि भक्तन हित औतार लये।।

उठ खड़े भये तत्काल उधव जी हाथ जोर बोले बानी।
प्राक्रित सम तुम मोह मूल में मोहे हौ गुण निध ग्यानी।।

श्रीकृष्ण परब्रह्म परमात्मा हैं। चिदानन्द निराकार भगवान ने मनुष्य का यह शरीर धारण किया है। वेद कहते हैं कि पृथ्वी का भार दूर करने और भक्तों के लिये अवतार धारण करते हैं। तुरन्त उद्धव जी खड़े हो गये और हाथ जोड़कर यह वचन बोले कि हे कृष्ण, आप संसार के सामान्य प्राणियों की तरह मोह मोहित हुए से वचन बोल रहे हो जबकि तुम गुणसागर और ज्ञानवान हो।

यह मोह भूल की भूल भाल में परै तौ पावे पार नहीं।
है असार संसार स्याम तुम जानत हौ कछु सार नहीं।।

सुष दुख समपत विपत काल अरु कर्म भोग भल मंद सुनो।
योग वियोग जाल जग जानो हित अनहित भ्रम फंद सुनो।।

हे कृष्ण ! जी, यदि तुम इस मोह की जड़ संसार के भुलावे में पड़ जाओगे तो फिर इससे बच नहीं सकोगे। यह संसार व्यर्थ है, सार रहित है, इससे मोह कर लेने से कोई लाभ नहीं है और तुम भी यह सब अच्छी तरह जानते हो। सुख-दुख, सम्पत्ति-विपत्ति, काल और सांसारिक कर्म-भोगादि सब निरर्थक हैं। मिलना और बिछुड़ना इस जगत के फँसाने वाले जाल हैं और लाभ-हानि भी भ्रांति है, धोखा है।

जन्म मरण धन धरन धाम पुर जात पाँत परवार कहे।
सुनहु स्याम सब स्वर्ग नर्क बहु जहं लग जग व्योहार कहे।।

स्वप्न सरस यह सब माया कौ जाल जगत फैलायो है।
सो माया के ईश आप फिर मोह कहां से आयो है।।

जीवन-मृत्यु, धन-सम्पत्ति, धरा-धाम, घर-गाँव, जाति-पांति, परिवार और स्वर्ग-नर्क आदि जहाँ तक संसार का व्यवहार होता है। श्याम सुन्दर तुम सुनो वह सब स्वप्न की तरह जगत में माया द्वारा फैलाया हुआ जाल है। इसी माया के आप स्वामी हैं फिर आप के मन मोह कहां से आ गया ?

दोहा-यह विचार भूलौ नहीं अस्तमान जग जान।
सुष दुष हान न लाभ कछु जबहिं जगै दृग ग्यान।।

यह तत्व की बात कि संसार नश्वर है कभी नहीं भूलना चाहिए। जब ज्ञान के चक्षु खुल जाते हैं तो सुख-दुख और हानि-लाभ आदि का प्रभाव नहीं पड़ता।

छंद- यह सुन बोले कृष्ण चन्द्र तुम सखा ग्यान गुण जानत हौ।
जो खुलो मोक्ष को मार्ग उयै तुम भली भांत पहचानत हौ।।

 

सुनो मित्र ने ब्रजवालों संग लाग्यि स्वच्छ विहार रचन।
विविध काम वस नार भेष धर आये जहां सब देव नचन।।

यह सुनकर श्रीकृष्ण जी बोले कि हे मित्र, तुम ज्ञान के तत्व को जानते हो और मोक्ष के लिये जो द्वारा खुला हुआ है उसकी भी तुमको अच्छी तरह से पहचान है। फिर मित्र को सुना कर ब्रज के लोगों के लिये स्वच्छ विचार श्री कृष्ण जी के मन में आया, जहां पर अनेक देवता गण एक आकांक्षा लेकर वनिता वेश धारण कर नृत्य करने आये थे।

विश्वनाथ गोपेश्वर होकें चन्द्रकला शश आये थे।
मोरे संग रहास मंडल में सुख अनेक सुर पाये थे।।

 

सो सषा जसोदा नंद राधका ब्रजवाल विरह दुष पाते हैं।
हम कह आये हते सोई आसा सब जीते हैं विलषाते हैं।

भगवान विश्वनाथ अर्थात् शंकर जी भी चन्द्रकला सहित चन्द्रमा को धारण किये हुए वेश बदलकर वहां पधारे थे और अनेक देवताओं ने मेरे रहस मंडल की क्रीड़ा में सहभागी बन कर आनंद प्राप्त किया था। वे मित्रगण बाबा नंद, यशोदा माता, राधिका जी और ब्रज की बालायें वहां विरह के दुख में दुखी हैं। मैंने उनसे लौटने की बात कह दी थी उसी आशा में वे सब जीवित हैं और दुख भी भोग रहे हैं।

वह उनकी सच्ची प्रीत देष इक क्षण भर मोय न भूलती हैं।
नीर हीन जिन दीन मीन ज्यों त्यों मो बिन वह कूलती है।

मोरे परम मित्र तुम, जाओ यह ग्यान कहौ विन्द्रावन में।
ब्रज वनता मोरो वियोग तज धीर धरें अपने मन में।।

उनका सच्चा प्रेम देखकर एक क्षण मात्र के लिये भी वे मुझे नहीं भूलती हैं। जिस प्रकार पानी के अभाव में मछली की दयनीय स्थिति हो जाती है वैसे ही वे मेरे न होने पर पीड़ा में कराहतीं हैं। मेंरे प्रिय सखा तुम वहां वृन्दावन में जाकर यह अपना ज्ञान उनको सुनाओ ताकि ब्रज की ग्वाल बालायें भी मेरे वियोग से त्राण पाकर धैर्य धारण करें।

कन्थ भाव तज देय राधिका पुत्र भाव जसुधा मईया।
मोकौई सुर सम मान भजन ब्रज करै ग्यान कहियो भइया।।

बनता सवै ब्रह्म आराधैं कहीयौ यह पाती दैकें।।
समझा सबै शीघ्र आ जईयो रोहन माता कों लैकें।।

राधिका जी मेरे प्रति पति का भाव छोड़ दें और यशोदा माता पुत्र का भाव छोड़ दें और सभी स्त्रियाँ ब्रह्म की आराधना करें। यह पत्र देकर उन्हें समझा देना और उन्हें समझाने के बाद रोहणी माता को लेकर तुरंत वापिस आ जाना।

क्रीट मुकट पीताम्बर बांधो प्रभु निजकर ऊधो तन में।
अपने रथ बैठार कृष्ण कह तात जाव विन्दावन में।।

चलत समय बलराम कृष्ण के भयो नीर नैनन जारी।
आंहै कछु दिन में संदेस यह कहियो ब्रज में गिरधारी।।

श्रीकृष्ण भगवान ने उद्धव जी को कुंडल, मुकुट पहनाये और अपने ही हाथों से पीताम्बर उनके शरीर पर बाँधा। अपने रथ पर बैठाकर कहा- भइया तुम अब वृन्दावन जाओ। उद्धव के चलते समय बलराम और कृष्ण दोनों के नेत्रों में आँसू बहने लगे। फिर कृष्णजी ने कहा कि तुम यह संदेश दे देना कि कुछ दिन बाद गिरधारी (कृष्ण) ब्रज में आयेंगे।

कछु आभूषण भूषण देके प्रभु बोले मईयै दईयो।
छूवो चरन दोई मैइन कौ मुष तें पालागन कहीयो।।

कहियो भूल न जावैं मोकूं बैसई प्रेम प्रभाव करें।
वह क्षीमर कों क्षीर हमारौ निज कर भाव पिवाओ करें।।

श्रीकृष्ण जी ने कुछ गहने-वस्त्र आदि वस्तुएं देकर कहा कि ये दोनों माताओं को दे देना और मेरी ओर से उनके चरण छूकर पालागन (पांय लागों) कहना। उनसे यह भी कहना कि मुझे भूल मत जाना और पहले की तरह स्नेह बनाये रखें। वह क्षीमर के दूध को अपने हाथ से उसी भाव से पिलाया करें।

भाव सहित वह सेज हमारी मइया रोज लगाओ करें।
बैसई गाय बजाय भावतें तैसई अवै सुबाओ करें।।

प्रात होत वन की वेरा पर ओई भाव सुभाओ जगाओ करें।
ओई माखन ओई मेवा मिश्री ओई भाव तें भोग लगाओ करें।।

माता जी हमारी शैया नित्य उसी भाव से लगाया करें और जिस प्रकार पहले गीत गाकर सुलातीं थीं उसी प्रकार सुलाती रहें। प्रातःकाल होते ही जंगल जाने के समय उसी भाव से जगाया करें और पहले की तरह मक्खन, मिश्री, मेवा आदि का प्रसाद जैसे मुझे खिलातीं थीं उसी प्रकार से खिलाया करें।

राषैं सदा सकल सुध मोरी मइया तें कहियो भइया।
ल्यावे रोज षरग तें मोरे दरसन हित स्यामा गईया।।

निस दिन अपने हिय में राखें मूरत मोरी मन भर कें।
ऊसई बातें रोजई करहौं सपने में गोदी पर कें।।

भैया उद्धव जी माता यशोदा से कहना कि मेरा सदैव सभी प्रकार से ध्यान रखा करें। उनसे कहना कि मुझे दर्शन कराने के लिये नित्य श्यामा गैया (काले रंग की गाय) को खिरक (पशुओं के बांधने का स्थान) से छोड़कर लाया करें। रात-दिन अपने हृदय में मेरे स्वरूप का मन से ध्यान करते हुए वहीं बनाये रखें। मैं स्वप्न में उनकी गोद में लेटा हुआ पहले की तरह बातें करता रहूँगा।

दोहा – जो जो मईया करत तीं सो सो करतई जांय।
सुध भूलें मन ते नहीं षवर न देह भुलाय।।

माता यशोदा जो कुछ भी पहले नित्य किया करती थीं वैसे ही करतीं रहें मुझे स्मरण भी करतीं रहें मुझे कभी भूल न जांय।

छंद –कहौ हार घुन्चू हिये झूलत भूलत ना कामर कारी।
लेत आईयो लकुट मात सें मुरली मोर परम प्यारी।।

वो गेंद बड़ी चौगान षेल की जो काली दह तें ल्याये थे।
लईयो मंगा मात से कहीयो श्री दामें दै आये थे।।

मुझे अभी भी घुंघुचुओं (गुंजा-एक बेल का फल) का हार हृदय पर झूलने लगता है और काली कंबल कभी नहीं भूलती। माता यशोदा से मेरी छड़ी और मेरी परम प्रिय बाँसुरी भी लेते आना। वह गेंद भी ले आना जो चौगान खेलने की थी उसे मैं कालिया दह से लाया था, माता जी को बता देना कि वह गेंद मैं श्रीदामा (एक सखा) को देकर आया था उससे मांग कर भेंज दें।

वह प्रेम भरी सुन बान ग्यान उद्धव के सरमाते हैं।
मनहु नेह धर देह प्रीत को भाव संदेस भिजाते हैं।

उद्धव जी कर जोर कहें मैं सब तरह उन्हें समझाऊँगो।
थोड़े दिना वृन्दावन रहकें शीघ्र शरण में आऊँगो।

प्रेम का वह माधुर्य स्वरूप सुनकर उद्धव जी का ज्ञान लज्जित हो गया। ऐसा प्रतीत हो रहा था मानो स्नेह स्वयं स्वरूप धारण कर भाव रूपी संदेश भेज रहा हो। उद्धव जी हाथ जोड़ कर बोले कि मैं उन्हें सब तरह से ज्ञान सिखा कर तथा कुछ दिन वृन्दावन में निवास कर शीघ्र ही आपकी शरण लौट आऊँगा।

ब्रज मग कों रथ बढ़ा चले फिर पकर लयो मोहन आकें।
भूले नहीं हमें सुख ब्रज कौ कह दइयो जा समझा कें।।

जा दिन ते सब बृज बनतन तज बिछरो मैया मैं तोतें।
ता दिन ते कहीयो कोउ ऊधौ कहात कन्ईया नई मोतें।।

ब्रज के मार्ग पर जैसे ही उद्धव जी का रथ आगे बढ़ा कि कृष्ण जी ने पुनः उसे रोक लिया और बोले-तुम अच्छी तरह सबको समझाकर कहना कि मुझे ब्रज का सुख-आनंद किसी प्रकार भी भूला नहीं है। उद्धव जी माता यशोदा से भी कहना कि जिस दिन से मैंने ब्रज की बालाओं को छोड़ा है और आपसे विछोह हुआ है तबसे कोई मुझे ‘कन्हैया’ कहने वाला नहीं मिला।

पाल पोष तुम दोऊ भइयन को करें रये निज नैनन में।
हमने सेवा कर ना पाई है यही सोच भारी मन में।।

रिणियां बने बंधु दोऊ तोरे मात नेह के दावा सें।
कोटन जन्म उरण नहीं तुमतें कह दईयो नंद बाबा सें।।

आपने जितने स्नेह से हम दोनों भाइयों का पालन-पोषण करके बड़ा किया और जैसे आँखों में सम्हाले रहीं उसके बदले में हम आपकी सेवा नहीं कर पाये यही चिंता मन में लगी रहती है। हम दोनों भाइयों के ऊपर माता के स्नेह का ऋण बना हुआ है और नंद बाबा से भी कहना कि करोड़ों जन्म लेकर भी हम तुम्हारा ऋण नहीं चुका सकते।

दोहा – भक्त मुक्त मैं दै चुको चार पदारथ हाल।
उरिण नहीं रिन में रह्यो तोसों तोरौ लाल।।

(‘प्रेम पयोधि’ के छंद श्री बृजगोपाल घोष से प्राप्त)

मैंने भक्ति के फलस्वरूप चारों पदार्थों (अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष) को तो पहले ही दे दिया है, किन्तु वात्सल्य के नेह से तुम्हारा पुत्र तुम दोनों के ऋण से कभी मुक्त नहीं हो सकता।

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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