Pancham Singh Shrivastava (Kare) पंचम सिंह श्रीवास्तव (खरे)

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बुन्देलखण्ड के इस महान शब्द शिल्पी महाकवि Pancham Singh Shrivastava (Kare) का जन्म टीकमगढ़ (म.प्र.) जिले के ग्राम भेलसी में मार्गशीर्ष कृष्णा तृतीया सम्वत् 1954 (सन् 1897 ई.) में हुआ इनके पिता लाला सोवरनसिंह सिद्धस्त तांत्रिक राजवैद्य और एक अच्छे कवि थे। ये ओरछा नरेश प्रताप सिंह के आश्रय प्राप्त राजवैद्य थे।

पितामह लाला गुपाल सिंह पन्ना नरेश के दरबारी कवि और राजवैद्य थेप्रपितामह लाला माधौसिंह शाहगढ़ नरेश महाराजा बखतबली शाह के यहाँ राजकवि-राजवैद्य खास कलम ड्योढ़ी अफसर आदि सम्मानित पदों पर प्रतिष्ठित थे। इस प्रकार कहा जा सकता है कि महाकवि पंचम की काव्य प्रतिभा वंशानुगत उपलब्धि है।

बुन्देलखण्ड के जाजुल्यमान नक्षत्र…  श्री पंचम सिंह श्रीवास्तव (खरे)

पंचम की प्रारम्भिक शिक्षा खरगापुर में सम्पन्न हुई इसके बाद इन्होंने घर पर ही हिन्दी- उर्दू – फारसी का अध्ययन किया तथा वयस्क होने पर राजस्व विभाग में नौकरी कर ली। उन्नीस वर्ष की अवस्था में इनका विवाह पुक्खन देवी नामक एक सुशील कन्या से हुआ। 78 वर्ष की आयु तक समाज शिक्षा और संस्कृति की निःस्वार्थ सेवा करते हुए बुन्देलखण्ड का वह जाजुल्यमान नक्षत्र अपने पीछे भरा-पूरा परिवार छोड़ भाद्रपद शुक्ल द्वितीया सम्वत् 2032 (1975 ई.) को सदा के लिए अस्त हो गया।

महाकवि पंचम के 12 वर्ष की आयु से कविता लिखने के प्रमाण मिलते हैं इनकी दो-एक लघु रचनाओं के अतिरिक्त शेष साहित्यिक कृष्ण की बहुरंगी झांकियों से बिम्बित हैं। इस महान शब्द शिल्पी को सन् 1942 में नागरी प्रचारिणी सभा वाराणसी नेमहाकवि’ की उपाधि से विभूषित किया एवं साहित्यिक सभा के सदस्य के रूप में अंगीकार किया।

श्री पंचम सिंह श्रीवास्तव (खरे) की रचनाओं में श्यामायन’ प्रबंधकाव्य, ‘कवित्त संग्रहावलीं’, ‘द्रोपदी पच्चीसी’, ‘अंगद चालीसा’, ‘ऊदल का विवाह’, ‘गजलों का गुलदस्ता’ तथा बुन्देलखंडी गीत मंजरी’ अप्रकाशित है। प्रकाशित रचनाओं में ‘वाटिका विहार’ तथा ‘पीतपट पचासा’ है।

सवैया

जानकी राम कौ रूप विलोक-सो बाबरी बात विचारत नाही।
मूरत सो हिय बीच सम्हार-धरी है विचार कियौ मनमाही।।

झाँप दृगन्चल सोच रही-हम कैद करें प्रभू जात कहांही।
पंचम’ आली विसारत सो सुधि-देर भयौ पल टारत नाही।।
(सौजन्य : भान सिंह श्रीवास्तव)

सीता ने राम का रूप देखा तो पागल सी होकर कोई बात नहीं सोच पाती। उस मूर्ति को अपने हृदय के मध्य स्थापित कर मनमाने ढंग से विचार करने लगी। बिना पलक झपकाये, वह देखती रह गई जिससे लगता है कि सोच रही हों कि हम प्रभु को कैद करके ही रहेंगे। वे कहाँ जा रहे हैं? पंचम कवि कहते हैं कि सखी ने देखा कि सीता सुख-बुध खो पलकों को बिना झपकाये लगातार देख रही हैं, तो टोक दिया।

कवित्त
बाजी कहै बाजी से बतावैं बाजी बाजीखड़ी,
बाजी चली आबैं देती सूरत इसारे की।

बाजी कहें हमें तो सुनावौ बाजी बात कैसी
बाजी कहें ठेरौ बात बड़े घर वारे की।।

पंचम’ सो बाजी कहैं जातौं बड़ी साजीबात,
बाजी कहें हाँजी लागी लगन पधारे की।

बाजी कहै मैं तो सुन आई कै सगाई होत,
राधिका किशोरी और पीत पटवारे की।।
(सौजन्य : भान सिंह श्रीवास्तव)

एक सखी दूसरी सखी से बात कर रही है और कुछ सखियाँ खड़ी हैं एवं कुछ वहीं इशारे पाकर चलीं आ रही हैं। एक सखी कहती है कि रुक जाओ यह बात बड़े घरवाले की है। पंचम कवि कहते हैं कि एक सखी कहती है कि यह तो बड़ी अच्छी बात है। तो दूसरी सखी हाँ में हाँ मिलाते हुए कहती है कि मैं सुनकर आ रही हूँ कि राधिका और पीताम्बर कृष्ण की सगाई हो रही है।

बालिदस्य भाल से भुआल काल जाल में,
गय चित्त की भरी ही बात चित्त में भरी रही।

दीप दीप दीप सो दिलीप का जला था वा चला था,
मानधाता के पताका की खरी रही।।

गंगपुत्र ज्ञानी बागुमानी दुर्योधन गय,
पंचम’ कह भारत में पारथ की तरी रही।

ऐसे भय धबल्ल धरा आपनी बताय धाय,
धरा में धसे हैं धरा धरा धर धरी रही।।
(सौजन्य : भान सिंह श्रीवास्तव)

बलि और दसशीश (रावण) जैसे पराक्रमी राजा भी काल के जाल से नहीं बच सके उनके मन में जो बहुत करने का था वह मन में ही रह गया। धरती पर अनेक द्वीपों में जिस महाराजा नाम के दीपक जलते और जिनके ध्वज का सम्मान सदैव रहा ऐसे पराक्रमी और ज्ञानवान गंगापुत्र भीष्म भी चले गये और अभिमानी दुर्योधन नहीं बच सका।

पंचम कवि कहते हैं कि भारत में अर्जुन जैसे महान धनुर्धर और बलवान अनेक योद्धा जिनका भय सर्वत्र था वे सब इस धरती को अपनी बता रहे किन्तु इसी धरा में समा गये। यह धरा (धरती) किसी की नहीं हुई। यह धरती (पृथ्वी) यहीं जहाँ-तहाँ बनी रही।

बेटी भ्रषभान कीरी आन भ्रष भान की है,
आज मान वान कान संग प्रीत पालौ ना।

वदन मयन्क सौ दुरौ रहे दुकूल मध्य,
चंचल द्रगंचल कर अंचल सम्हालौ ना।

पंचम प्रतीत राख छांड़रस रीत वेंन,
बेनहूँ सुधासे सुधाकर से निकालौ ना।

जोंलों गिरधारी गिरधारें सुन प्यारी तौलों,
कठिन कटाक्ष कोर वोर बाकी घालौ ना।।
(सौजन्य : भान सिंह श्रीवास्तव)

हे राधा! तुम वृषभान की पुत्री हो और तुममें हठ की तीव्रता वृष राशि के सूर्य की तरह है। तुम आज यह बात मान लो कि कन्हैया (श्रीकृष्ण) के साथ प्रेम न करो। चन्द्रमा के समान तुम्हारा सुन्दर मुख साड़ी के महीन कपड़े के बीच ढका रहे अब आँख की चपल पलकों को धोती के पल्लू (छोर) से मत सम्भालिये। कवि पंचम कहते हैं कि विश्वास हृदय में रखिये और औपचारिक रसीली वाणी को छोड़ दीजिये। तुम्हारे वचन अमृत के समान है इन्हें चन्द्रमा रूपी मुख से मत निकालिये। हे राधे! जब तक श्री कृष्ण जी गोवर्धन पर्वत धारण किये हुए हैं तब तक तुम अपने बांके नयनों की कोर से कटाक्ष का प्रहार मत करना।

सवैया
लाड़ली लाल किलोलन में, अनमोलन अंकन जोरन की है।
है मणि की मुशक्यान लखौ मुकतान की नासा सकोरन की है।।

पंचम हाँसी हजारन की छवि हीरन की मुख मोरन की है।
लाखन की लिपटान कटाक्ष-कटीली की क्रेल किरोरन की है।
(सौजन्य : भान सिंह श्रीवास्तव)

श्री राधा और कृष्ण जी (लाड़ली-लाल) के आनंद विहार में अत्युत्तम अंगों के क्रियाकलापों के दर्शन अनमोल हैं। उनकी मुस्कान के दर्शन मणियों से अधिक मूल्यवान और नासिका का सौन्दर्य मुक्ताओं से ही आंका जा सकता है। पंचम कवि कहते हैं कि उनकी हँसी की शोभा हजारों में और मुख के मुस्काने का सौन्दर्य हीरों में आंका जा सकता है। उनके आलिंगन के लावण्य पर लाखों और बांकी चितवन तथा विविध क्रीड़ाओं पर करोड़ों निछावर हैं।

कवित्त
क्यारी फुलवारी ना दिखाती है सुगन्धवारी,
हौवेगो नाही तू मनमौज मस्तानी है

कैसौ भओ आनो फिरै घूमत भुलानो,
कहत पंचम नही ये गुलरूह गुलश्तानो है।।

कुंज कुबजा की मथुरा में अवलोक जाय,
खूबियाँ खुलासा खुशवोय कौ खजानौ है।

बाबरे मलिन्द मतिमन्द भाग भाग हाँ से,
मिलैना पराग ये तौ बाग बीरानो है।।
(सौजन्य : भान सिंह श्रीवास्तव)

हे भ्रमर! फूलों की क्यारियों में फूल तो हैं किन्तु उनमें सुगंध नहीं दिख रही। यहाँ अब मौज मस्ती (आनंद विहार) की उमंग नहीं है। पंचम कवि कहते हैं तुम यहाँ कैसे आये और भूले से घूम रहे हो? यह कोई गुलरुह गुलश्ताना नहीं है। तुम मथुरा में स्थित कुब्जा के कुंज को देखकर आओ, वहाँ अच्छाइयाँ हँसती मिलेंगी और सुंगध का भंडार मिलेगा। हे बुद्धिहीन! पागल! भ्रमर यहाँ से भाग जा, यह बाग उजड़ गया है यहाँ पराग भी नहीं मिलेगा।

कारे होत काग और कोयल कुरंग कारे,
कारे नाग होत दगाबाज मनमाने हैं।

कारे होत मेघ बाट रोकत बटोहन की
पंचम विथा में गड़गड़ात देत ताने हैं।।

कारे मलिन्द गुल चूस के न आवैं पास
ऊधौ सुनो कारे होत कपट खजाने हैं।

हारे हम कारे सें हैं होत ठगहारे कारे
कारे ने पठाये कारे रंग परवाने हैं।।
(सौजन्य : भान सिंह श्रीवास्तव)

कौवा काले होते हैं कोयल और हिरन भी काले होते हैं, नाग भी काले होते हैं, ये सभी धोखा देने वाले होते हैं। पंचम कवि कहते हैं कि बादल भी काले होते हैं ये व्यर्थ में गर्जना करके मार्ग में राहगीरों को रोक देते हैं। काले भ्रमर पुष्प का रस चूसकर पुनः उसपर वापिस नहीं आते। इस प्रकार हे उद्धव जी! काले सभी कपट के भंडार होते हैं। हम काले लोगों में पराजित हो चुके हैं। सभी काले ठगने वाले होते हैं। एक कारे ने ही दूसरे कारे को वाहक बनाकर यहाँ भेजा है।

डारिये रंगलला मन को गिरधारी जू सारी भिजोय सो लीजे
लीजे लगाय गुलाल लला अब जो मन आवै मनोहर कीजे।

कीजिए फाग में हाजिर हूँ – कह पंचम प्यारे जराहू पतीजे
जो करन सब आप करौ हुरयोरन में हमें सोंप न दीजे।
(सौजन्य : भान सिंह श्रीवास्तव)

हे नंदलाला! तुम अपने मन भरकर रंग डाल लो और मेरी साड़ी अच्छे से भिगा दो। मुझे अपने हाथों से गुलाल भी लगा लीजिये और हे मनमोहन! तुम जैसा अच्छा लगे सो कर लो। मैं उपस्थित हूँ कोई कमी मत रखो, जो करना है वह आप स्वयं करो किन्तु उन होरी के हुरियारों (होली के मद में मदहोश उत्पाती जनों) को न सौंपियेगा।

दांमनी दमंके ज्वाल धूमसे धुकोरे धरा,
दाबानल कालका कराल घमशान है।

चड़चड़ात झड़झड़ात तड़तड़ात लूमें लेत,
झूंमें झार यैंसें जैसे प्रलय के निशान हैं।।

दीखत न दाव सो उपाव और औरत ना,
पंचम पुकारे ब्रजवासी कहां कान हैं।

आन तुम्हें नन्द की बचाय लीजे प्रान,
चारां ओर चार भान कैधो क्रोध में कृशान हैं।।
(सौजन्य : भान सिंह श्रीवास्तव)

दावाग्नि (जंगल में लगने वाली अग्नि) कालिका के समान प्रचण्ड और भयंकर रूप में प्रकट हुई। बिजली-सी चमक रही है। अग्नि शिखा (आग की लपटें) ऊँचाई तक उठ रही हैं। धुँआ धरा पर गहरा छा गया है, धड़धड़ाहट हो रही है। सूखी लकड़ियों के टूटने की चड़चड़ाहट और कुछ पेड़-झाड़ जलने गिरने की भयंकर झड़-झड़ाहट की ध्वनियाँ हो रही है।

ज्वाला ऊँचाई तक लूमें ले रही है। पंचम कवि कहते हैं कि न तो किसी को कोई उपाय सूझता है न कोई बचाव का मार्ग मिलता है। ब्रज के लोग जोर-जोर से चिल्ला रहे हैं कि कन्हैया कहाँ है? कहाँ है? तुम्हें नन्द बाबा की सौगंध है हमारे प्रान बचा लो, यह अग्नि इतनी क्रोधित है मानों चारों ओर से चार सूर्य निकट आ गये हों।

बुन्देलखन के साहित्यकार 

शोध एवं आलेख – डॉ.बहादुर सिंह परमार
महाराजा छत्रसाल बुंदेलखंड विश्वविद्यालय छतरपुर (म.प्र.)

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