Bundelkhand Ki Nariyan Aur Lok-Kalayen बुन्देलखंड की नारियाँ और लोक-कलायें

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By admin

भारत का हृदय प्रदेश बुंदेलखंड त्याग और बलिदान का क्षेत्र है। यह क्षेत्र अपनी संस्कृति, कला और भाषायी अस्मिता के लिये अपना विशिष्ट महत्त्व है। यहाँ की परम्परायें और संस्कृति हमारी विरासत हैं। बुंदेलखंड ने साहित्यिक और कलात्मक प्रवृत्तियों की परंपरा हमेशा कायम रखी। Bundelkhand Ki Nariyan Aur Lok-Kalayen एक दूसरे के पूरक हैं। इतिहास गवाह है कि यहाँ की माटी में कोमलता, त्याग, उत्सर्ग, वीरता, भक्ति, प्रेम, संगीत, स्थापत्य और शिल्प के ऊँचे-ऊँचे प्रतिमान रचे तथा यहाँ ‘ठसक’ रची-बसी है।

संस्कृति

के निमार्ण में लोक मूल्यों का विशेष योगदान है। साँस्कृतिक मूल्यों की अपेक्षा लोक मूल्यों में अधिक स्थायित्व होता है। लोक मूल्य जड़ों तक जुडे होते हैं और आस्थायें लोक-जीवन को मजबूत बनाती हैं। हजार-हजार रेशों से निर्मित है हमारी लोक संस्कृति। लोक संस्कृति और लोक कलायें युगों-युगों तक लोक जीवन को दिशा-निर्देश देती हैं और आंतरिक पक्ष की सदाशयता को अभिव्यक्ति प्रदान करती हैं।

बुन्देलखंड की नारियाँ और लोक-कलायें संस्कृति का निमार्ण करती हैं

त्यागवीर हरदौल के चबूतरे मुरैना से लेकर मंडला तक इस भू-भाग को सुदृढ़ और साँस्कृतिक-सूत्र में बाँधे हुए हैं। तीज त्यौहार या उत्सव के अवसर पर द्वारे पर ‘उरैन’ और पुरे हुये चौक बुंदेली संस्कृति की ललक को प्रतिबिंबित करते हैं। ‘मामलिया’, ‘सुअटा’ और झिंझिया लोक-जीवन से जुड़े हुए लोक-पर्व हैं। विवाह के अवसर पर टीका गीत, भाँवर गीत, सजन गीत, सुहाग गीत, विदा गीत, भात गीतों का अपना पृथक-पृथक महत्त्व है।

जनकवि ईसुरी बुंदेलखंड के लोक-जीवन को वर्षों से आलापमय बनाये हुये है और लोक-कवि वजीर की गारियाँ लोक कंठों में सुरक्षित हैं। आल्हाखंड शौर्य और उमंग को आवृत्तिमय बना देता है। कारसदेव की गोटे, माता के भजन और अचरी आत्मनिवेदन की परम्परा के प्रसाद हैं।

बुंदेलखंड के गायन और वादन का भी अपना स्वरूप है Bundelkhand Ki Nariyan Aur Lok-Kalayen बुंदेलखंड में आज भी विद्यमान है । यहाँ की चित्र साधना आदि मानव से प्रारम्भ होकर वर्तमान तक आती है। झाँसी की रानी वीरांगना लक्ष्मीबाई के शौर्य ने इस धरती को गौरवान्वित किया है। महारानी गणेश कुंवार की आस्था ने रामलला की भक्ति में सरवोर कर दिया है। रायप्रवीन की  साहित्यिक प्रतिभा और नृत्यकला ने इस क्षेत्र का स्वाभिमान बढ़ाया है। बहादुर के लिये बुंदेला रानियों की कानातें जनमानस में आज भी दोहराई जाती है।

गोला घालें बुंदेला की रानी।
बीनें जेठ – जिठानी ।।

पासवान खवासिन कनकलता के नाम से काव्य-सृजन करके आश्चर्यचकित कर देती हैं। रानी दुर्गावती की वीरता को कभी विस्मृत नहीं किया जा सकता। लक्ष्मीबाई की सहयोगिनी झलकारी बाई के बारे में ‘झाँसी की रानी उपन्यास में डॉ. वृन्दावन लाल वर्मा लिखते हैं… ।

‘अंत के कोने में खड़ी हुई एक नववधू माला लिये बढ़ी। उसके कपड़े बहुत रंग-बिरंगे थे चाँदी के जेबर पहिने थी। सोने का एकाध ही था। सब ठाठ सोलह आना बुंदेलखंडी। पैर में पैजना से लेकर सिर की दांउनी तक सब आभूषण स्थानिक रंग साँवला।’ झलकारी के सुगठित शरीर को देखकर लक्ष्मीबाई ने उसे अपनी स्त्री-सेना में भर्ती कर लिया था।

मोती बाई नृत्य एवं गान विद्या में पारंगत् थी। मुंदर, जही, मथरा, बैनी, चन्द्रावल रतनकुंवर शौर्य की देवी थीं। रामगढ़ की रानी अवंती बाई लोधी पुरुषवेश में साफा बाँधे घोड़े पर सवार होकर चलती थीं। मालती बाई लोधी तीर कमान चलाने में निपुण थीं। सरस्वती बाई लोधी अंग्रेज कप्तान थोरंटन को ‘सुअर और सिंहनी का संबंध संभव नहीं कहकर लताड़ती हैं। उनका यह मुँहतोड़ जवाब बुंदेलखंड की नारियों के चरित्र को ऊँचा उठा देता है। झड़कुंवर – तात्याटोपे को सहयोग देती थीं। ऐसी हे बुंदेलखंड की नारियाँ । नारी पुरुष की पूर्णता का पयार्य है। जीवन के किसी भी क्षेत्र में उसके सहयोग के बिना कोई भी कार्य सम्भव नहीं है।

Bundelkhand Ki Nariyan Aur Lok-Kalayen हर क्षेत्र में हरफन मौला हैं। खान-पान, रहन-सहन, वेश-भूषा, जाति-धर्म और तौर-तरीके लोक-जीवन में समावेषित हैं। तीज-त्यौहार, व्रत-दीक्षा, मोह-विराग, मेले-पर्व, त्याग तपस्या और राग-विराग के सूत्र भी लोक की संस्कृति की रूप रचना करते हैं। लोक-गीत और लोक काव्य समाज के सहजरूप और संस्कृति के प्रभावपूर्ण पक्ष को स्वर देते हैं।

लोक को जानने के लिए डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त का साहित्य लोक-साहित्य और लोक-कलाओं का प्रवेश द्वार है। लोक के साथ लोक कलायें हैं। लोक की अनुभूतियाँ हैं। गौरा की मूर्ति बहुत कुशलता से कुशल कन्याओं द्वारा बनाई जाती हैं। लोक-कलाओं को सजाने संवारने में महिलाओं का विशेष योगदान है। मामुलिया सजाने और नौरता या सुअटा के चित्रांकन के कई रूप बुंदेलखंड में स्त्रियों और लड़कियों के द्वारा बनाये जाते हैं।

झिंझिया में बेलबूटों का चित्रांकन किया जाता है। जिसे हम कलश चित्र कहते हैं। साँतिया, सुरांती, करवा, चौक, उरैन, ढिंग लगावौ, लीपने में चौक निकारवौ ये सब महिलाओं द्वारा ही किये जाने वाली कला का रूप है। माहुर लगावौ, मेंहदी रचावौ, उबटनौं बनावौ, चौका की छौंका-बघारी, नाज फटकवौ, बीनबौ, कंड पाथवौ, बिठा लगावौ, भाजी चीरवो, जुंआ हेरवौ आदि कामों में भी महिलाओं की हाथ की कला और ‘संवाद’ और ‘लच्छन’ निरखा–परखा जाता है।

बिटिया के गौने की विदा की डलिया बनाने में भी बुंदेलखंड की महिला चतुर है। गुना और गूजा कैसे गोंठे गये। पागवौ। कच्ची समुंदी रोटी में दार-कढ़ी, बरा-मंगौरा, गोरस, पापर-पपरिया और फुलकिया बेलबे सेंकये में भी एक कला है। थारी सजाबौ बहू को  एक नेग-दस्तूर ही है। इसी तरह ननदी का सतिया धरायो। जिठानी का लडुआ बाँधवौ कला के साथ नेग-दस्तूर बन गये हैं। बहू की रोटी  छुवाई के समय नई बहू  से गुलगुला और पकौरी टुरवाई जाती है। पाक-कला, भी लोक का एक रूप ही है। त्यौहार के अवसरों पर विभिन्न प्रकार के पकवान महिलायें ही बनाती हैं।

संक्रांत के अवसर पर तरह-तरह के लडुआ बुंदेलखंड में पर बनते हैं। फूलन के, लाई, मूंग, देउल, तिली, कनक के, बेसन के लडुआ महिलाओं द्वारा बनाये जाते हैं। चूलौ, कुठीला, बरोसी आदि मिटटी से बनाने के अलावा कागज भिगोकर टुकनियां बनाना, बाँस के पंखे, सींको के पंखे सिलाई बुनाई, कढाई अनेक प्रकार की लोक कलायें हैं, जिनमें महिलाओं का विशेष योगदान है।

पापर, अचार, बरी बुंदेलखंड की महिलायें बड़ी चतुरता से बनाती हैं। पूरे एक महिने का सुअटा का खेल कुंआरी कन्याओं द्वारा खेला जाता है। सुअटा की तैयारी, लोक-कला की तैयारी है। इसी प्रकार खुशी के अवसरों पर गाना. बजाना, नाचना इसमें भी महिलायें सबसे आगे रहती हैं। अवसर-अवसर के गीत उन्हे याद हैं। स्वांग बनाना, जुगिया खेलने की कला उन्हें आती है। ढोलक बजाना, मंजीरा बजाना आदि कलाओं से वे परिचित हैं।

रँहटा कातबौ, पुतरियाँ बनाबौ, भुजरियाँ बोवौ, गोधन पसारबौ, दौजें धरबौ, काजर पारबौ हर काम में एक कला है और वे इन कलाओं में निपुण हैं। बुंदेलखंड की महिला भुरारे (प्रातः) उठकर दस-दस सेर पीसनी पीसवे में आगे रही हैं। यह श्रम भी गा-गाकर करना उसकी विशिष्टता है। बुंदेलखंड में पहले कँआरी लड़कियाँ कछोटा मारती थीं और भाजी खोंटकर कौन कितनी जल्दी ‘फना’ भर सकता है यह होड़ सहेलियों मे  लगाई जाती थी। भाजी-खोंटना भी एक कला है। सिमइयाँ बटबौं भी कला है। इन विभिन्न लोक कलाओं ने ही हमें जीवन जीने की कला प्रदान की है ।

लोक-कलायें बुंदेलखंड की धरोहर है। लोक-कलायें समाज में चेतना संजीवनी बनकर हमेशा जीवित रहेंगी। लोक-कलाओं का यह संगम अनूठा हार कला को सुंदर बनाने में महिलाओं का योगदान स्मरणीय है। बुंदेलखंड का के हर क्षेत्र में आगे हैं।

डॉ.कामिनी के बारे मे जानें

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