Jhanjhi / Jhinjhiya  झांझी/ झिंझिया – बुन्देली लोक पर्व

Jhanjhi / Jhinjhiya  झांझी/ झिंझिया – बुन्देली लोक पर्व

जहां लड़कों की टोली में एक टेसू होता है वहां लडकियों की टोली में अधिकांश लड़कियों की Jhanjhi / Jhinjhiya होती है सभी अपनी अपनी झांझी/ झिंझिया भगौनी में रखे रहतीं हैं और कपड़े से उसे ढॉके घर घर घूमती है। जहां टेसू घर के दरवाजे पर ही रुक जाता है वहीं झांझी घर के भीतर आंगन में जा पहुंचती हैं। लड़कियों की टोली एक घेरा बनाकर बैठ जाती है और एक एक लड़की क्रम से घेरे के मध्य आकर अपनी  झिंझिया लेकर नृत्य करती है।

अन्य लड़कियां गीत गाती जाती है। झिंझिया एक छोटी मिट्टी की मटकी होती है जिसमें कील से छेद करके अनेक डिजाइन बनाये जाते हैं। इसमें थोड़ा रेत भर कर दीपक रख दिया जाता है। रात के अन्धेरे में भटकी के छिद्रों से छन छन कर बाहर आता प्रकाश बहुत सुन्दर लगता है। खास कर वह दृश्य तो बहुत ही सुन्दर होता है जब सभी लड़कियां एक साथ नृत्य करती हैं।

क्वांर माह का पितृपक्ष यूं तो सभी शुभ कार्यो के लिये लोक जातियों में अनुपयुक्त माना जाता है परन्तु लोक कला की दृष्टि से यह दिन अत्यन्त महत्वपूर्ण कहे जा सकते है। क्योंकि इन दिनों सदियों पुरानी सांझी खेलने की परम्परा नन्हें नन्हें हाथों से अपने वर्तमान रुप में उद्घटित होती है।

वास्तव में यह बाल लोकोत्सव बाल सुलभ रचनात्मक प्रवृतियों का पारम्परिक मूर्त रुप है जिसमें छोटी छोटी बालिकाएं गीत गाती हुई प्रत्येक संध्या को गोबर, रंग बिरेंगे फूल और चमकदार पन्नी के टुकड़ों से दीवार पर सांझी/झिंझिया के विभिन्न रुपाकर रचती है, दूसरी सुबह उन्हें मिटाती है और फिर शाम को नये बनाती है।

स्थानीय विशेषताओं के साथ सांझी बनाने की परम्परा मध्य प्रदेश, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, बिहार, हरियाणा तथा अन्य क्षेत्रों में प्रचलित है। ग्वालियर में सांझी बनाने की प्रथा अत्यंत लोकप्रिय है।

सांझी से सम्बन्धित किवदन्ती और गीत
बहुत साल पहले किसी गांव में एक ब्राह्मण परिवार रहता था। परिवार में लगभग सत्तर साठ व्यक्ति थे जो सभी प्रकार से सम्पन्न थे। इनमें से छोटे भाई की पत्नी मर चुकी थी, उसे बड़े भाइयों की पत्नियां बहुत परेशान करती थी इससे दुखी होकर वह अपनी पुत्री को लेकर घर छोड़ कर दूसरे गांव चला गया यह गांव जंगल के किनारे एक सुन्दर गांव था। उस जंगल में एक राक्षस रहता था।

ब्राह्मण की रुपवान कन्या जब एक दिन पानी भरने गई तब उस राक्षस ने उसे देख लिया और उस पर मोहित हो गया। उसने लड़की से उसका परिचय लिया और उसके पिता से मिलने की इच्छा प्रकट की तब लड़की ने कहा कि उसके पिता शाम के समय घर मिलते है। राक्षस शाम को ब्राह्मण बहुत घबराया उसने सोचा यह राक्षस मना करने पर मानने वाला नहीं इससे उसने राक्षस से कहा कि विवाह तो हो जायेगा। परन्तु कुछ रस्में पूरी करनी पड़ेगी इसलिये कुछ दिन का समय लगेगा।

इस बीच ब्राह्मण ने अपने परिवार के लोगों को सहायता के लिये बुलाने का पत्र लिख दिया। क्वांर माह के यह सोलह दिन सोलह श्राद्ध के दिन माने जाते है। और इन दिनों ब्राह्मण की लड़की जो खेल गोबर की थपलियों से खेली वह सांझी या चन्दा तरैयां कहलाया और तभी से सांझी खेलने की परम्परा का आरंभ हुआ। सोलह दिन बीतने पर राक्षस आया परन्तु ब्राह्मण के परिवार वाले नहीं पहुंच पाये इसलिये उसने फिर बहाना कि अब उसकी लड़की नौ दीन मिट्टी के गौर बनाकर खेलेगी। राक्षस नौ दिन बाद फिर वापिस आने का कह कर चला गया।

तभी से यह नौ दिन नौरता कहलाये और इन दिनों सुअटा खेलने की प्रथा शुरु हुई। नौ दिन भी खत्म हो गये पर ब्राह्मण ने उससे कहा अब केवल आखिरी रात रह गई है। अब पांच दिन  तुम और मेरी बेटी घर घर भीख मांगोगे तब शरद पूर्णिमा के दीन तुम्हारी शादी हो सकेगी, राक्षस इस बात के लिये भी मान गया और तभी से दशहरे से पूर्णिमा तक उस राक्षस के नाम पर टेसू और ब्राह्मण की लड़की पर झांझी मांगने की प्रथा का आरंभ हुआ।

इस प्रकार जब भीख मांगते पांच दिन बीत गये और ब्राह्मण के परिवार के लोग नहीं आये तो ब्राह्मण निराश हो गया और उसे अपनी पुत्री का विवाह राक्षस से करने के अलावा कोई रास्ता दिखाई नहीं दिया तो शरद पूर्णिमा के दिन उसने विवाह निशिचत कर दिया। लेकिन अभी विवाह के साढ़े तीन फेरे ही पड़े थे कि ब्राह्मण के परिवार के लोग आ गये और उन्होने उस राक्षस को मार डाला।

चूंकि उनकी लड़की का आधा विवाह राक्षस से हो चुका था इसलिये उसे भ्रष्ट मान कर उन्होने उसे भी मार डाला इस लिये टेसू और झांझी/झिंझिया का पूरा विवाह नहीं होने दिया जाता है। उन्हें बीच में फोड़ दिया जाता है। ब्राह्मण के भाइयों ने सोचा न  उनका छोटा भाई पर छोड़ कर भागता और न हीं उनके कुल को इस प्रकार दाग लगता इसलिये सारी समस्या का कारण वही है और उन्होने उस ब्राह्मण को भी मार डाला। इसीलिये नौरता में मिट्टी के गौर बनाकर खेला जाने वाला सुआटा टेसू के विवाह के बाद उस ब्राह्मण पिता के प्रतीक सुअटा के रुप में फोड़ दिया जाता है। 

सांझी तेरे फूल
पचासी तेरे डोढ़ा
मोरे भैया गोरे
बुन्देल भैया गोरे
भइयाजी की पीढरी
बेलना अनबेली
भाभी जी के नैन
क झकझोरे
भाभी की गोद भतीजो सोके

 
मेरी सांझी रानी
कुम्हार की मौड़ी कानी
भर लेआ बेटा पानी

 
मेरी सांझी सोवे पलंग पे
ओर की सांझी लोटे घूरे पै

 
एक हल्दी गांठ गठीली
शीला बाई बहुत हठीली

 
जेवर कांटा जेवर कांटा
जै महुआ जिन काटो
जै महुआ मेरे बाबुल लगा गए
इन तन खेलन जाती
जे महुआ जिन कांटा लागें
घरे जा तो अम्मा लड़ेगी

 
सांझी मेरे फूल पचासी तेरे डोरा
जतन निकालो सांझी बाई को डोला
इनमें और इनमें कोन से भइया गोरे
इनमें में और जिनमें हेमलता बाई को डोला
सांझी तेरे …………………………..
गोरे भाइया, गोरे गुलेल कन्ठी जोड़े
सांझी ……………………………..
जतन निकला मना
भाई को डोला, बबली बाई का डोला

 
माटी को मटेलना पिरोजना
गेडतिया तेरा खेत
खेलन बेटी खेलत भययो बबुला के राजंगी
जब डिर जा सासरे पिरोजन
सूखे कुरकुटा गिर गये पिरोजन
सूखे कुरकुटा देय
नौन चबैना देय
नौन चबैना बगर गयो
गिन गिन टोला देय पिरोजना

 बाबुल दूर जीड़री
जिन करो कौन रखावन जाय
बेटी तुम्ही हमारे लाडली
तुम्ही रखावन जाय
बाबुल इतते जातिउ घाम लगत है
बितते लगत है प्यासं
बैठ वहीं खुदा द कुआ बावड़ीं
वहीं लगवा द बाग
 
मामुलिया – बुन्देली लोक पर्व 

admin

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