Turat Dan Mahapunya  तुरत दान महापुन्न

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By admin

येई नगर में एक गरीब बामन राततों बो अपने परवार को पालन भीक मांगकें करततो। कछू दिनों तक ऐसई चलो फिर इनकें एक कन्या को जनम भव । वामन की घरवारी बोली कै अबै तक तो जैसो चलो सो चलत रओ, मनो अब जा मौड़ी हो गई सो अब कछु करवो जरूरी है। इनकी बातें सुनकें बा मौड़ी जो थोरे समय पैलें भई हती बा अपने पिता सें बोली – पिता जी तुम राजा करन के दरबार में जाओ अर उनसें इत्ती कै दियो कै Turat Dan Mahapunya  ‘तुरत दान महापुन्न सेवा दान पाप ने पुन्न’

बामन नें पूंछी कै बेटा अर कऊँ राजा ईको मतलब बूझन लगो तो हम का कै देहें? कन्या बोली तुम हमायी कै दियो । तुमें राजा कछु इनाम देंहें ।

सो भैया वामन दूसरे दिनां राजा करन के दरबार में पौंचे। राजा ने उनको स्वागत सत्कार करो फिर इनसें पूछी सुनाओ महाराज कैसो आबो भओ? वामन बोले महाराज ‘तुरत दान महापुन्न सेवा दान पाप ने पुन्न।’ उनकी बात सुनकें राजा करन बोले- पंडत जू तुमनें बहुत गहरी बात कही मनो हमें ईको मतलब बता देओ । वामन ने कई कै राजा साहब जा बात हमाई तुरत की भई मौड़ी ने कई है, राजा ने सोची कै जा बड़ी अच्छी बात है मनो ईको मतलब जानवो तो भौतई जरूरी है।

राजा पंडत ने  गये उनकी बच्ची खों बुलवाई, ओसें हात जोरकें पूंछी कै देवी ईको मतलब तो बताओ । राजा की बात सुनकें बा बोली कै मतलब तो हम बता सकत हैं, मनो आप उज्जैन जाओ उते के राजा की रानी पेट से हैं बारा सालें हो गयीं अबै तक ऊ बच्चा उनके पेटई में पल रओ है। मनों जैसई आप उते जैंहो सो वो बच्चा को जनम हो जैहे । सो राजा साहब आप खां बोई कुँवर ईको मतलब समझा देहे ।

राजा अपने घोड़ा पै सवार होकें उज्जैन की तरफ चले । चलत- चलत रात भई सो उन् सोची कै कहुं रूक जाओ चइये । मनो उते तो बड़ो वियाबान जंगल हतो सो कहां ठहरते? जब वे आंगे चले तो का देखत हैं के सामने एक हल्की सी टपरिया बनी है सो राजा ओ टपरिया के सामने पौंचे। इनने अपनो घोड़ा बांदकें अवाज लगाई टपरिया में सें एक आदमी निकरो ।

राजा ने उसें पूंछ भैया उज्जैन की गैल तो बता देओ, हम ई पहार में भूलन में पर गये । टपरिया वारो एक भील हतो उनें राजा सें कई कै मालक तुम रात में इतईं ठैर जाओ कायसें कै जो जिनावरों को इलाको है होत भुंसरा आपखों हम रस्ता बता दैवी सो आप उज्जैन पौंच जेहो ।

राजा खों भील की बात जच गई। भील तो अच्छे स्वभाव को हतौ मनो उकी घरवारी बड़ी चंडालन हती। बा इन दोईयन की बातें सुनरई हती सो भील सें बोली कै देखो तुम कायखां झंझट मोल लेत हो? भील ने राजा सें कई आपखों भोजन बनवायें देत हैं। भील की औरत ने कुल दो रोटी बनाईं एक तो ओनें खा लई, दूसरी भील खों देकैं कई के जा चाय तुम खा लेओ चाय ओखों खवादेव। राजा भील की औरत को वेहार देखई रये हते सो वे बोले तुमई खां लेओ हमें भूख नई लगी।

भील ने राजा खों रोटी दई सो राजा नें आदी रोटी भील खों दई और आदी अपन ने लेकें बाहर निकरकें घोड़ा खों खवा दई । अब हल्की सी टपरिया हती तीन जनें ऊमें कैंसे सोउते। भीलनी ने अपनी खटिया बिछाई अर भील सें कै दई आदी खाट पै तो हम सोहें अर आदी पै तुम जैसो जानों सो करो ।

तनक देर में वा तो घुरकन लगी । राजा नें भील सें कई भैया तुम सो जाओ हम पैसे दे रये, कायसें कें उते भौत जंगली जिनावर आउत जात हते ईसें पैहरो देवो जरूरी हतो। आदी रात तक तो भील-भीलनी सोउत रये फिर जैसई भील की नींद खुली ऊने राजा से कई अब आप सो जाओ हम पैहरो देंहें। ओई बेरां भीलनी उठी सो बा कैन लगी कै हम दोई जनें पैरा दे रये हैं तुम सो रओ । सो भईया जे दोई पहरो दे रये हते अर राजा सो रये हते ।

होत-करत ओई बेरां एक शेर आओ ऊनें इन दोईयन खां मार डारो। जब राजा की आँख खुली सो देखो तो दोई आदमी मरे डरे । उनें बड़ों रंज भओ वे सोचन लगे कै हमाये कारन इन दोईयों की जान चली गई । भुंसरा उठकें राजा ने इनको किरिया करम करो फिर उज्जैन की रस्ता पकरी । राजा जैसई दरबार में पौंचे उज्जैन बारी रानी के पेट में हल्की-हल्की पीर आउन लगी ।

तनक समव बीतवे पै उनकें कुँवर को जनम हो गओ। उज्जैन में राजा विक्रमादित्य को राज्य हतो । उन्ने सोची कै राजा करन के चरन ऐसे परकै हमायी रानी कें बारा बरस पल रये कुँवर को जनम हो गओ । राजा करन हमाये लानें बड़े भागशाली भये सो जा बात विक्रम के मन में बड़ी घरयारईती । राजा करन नें विक्रमादित्य सें कई कै महाराज हमें पैले सेईं जानकारी हती के हमाये इतै पाँचवे पै आपकें कुँवर को जनम हुइये। अब हमें आपके कुँवर सें एक बात पूंछनें हती सो आप तनक देर के लानें कुँवर खां हमाये पास बुलवाओ।

सो भैया कुंवर खों बुलाओ गओ, राजा करन की तरफ देखकें कुँवर अपने आप बोले कै राजा साहब आप का पूंछों चाहत हो हमें सब पता है । मनों आप हमाई बात मानों सो आप पैलें इते से उत्तर दिशा में जाओ उते कछु देखो बो हमें बताओ तो हम पूरी-पूरी बात बता देंहें।

कुँवर की बात सुनकें राजा उत्तर दिशा में गये उनने देखो कै एक सुंगरिया व्याईतीको आदो बच्चा बाहर निकरो है अर आदो भीतरें । ऊखों बड़ो कष्ट हो रओ हतो, राजा ने देखो अर वापस आ गये अर कुँवर खों जा बात बता दई । कुँवर बोले राजा साहब सब खां अपने-अपने करमन के भोग भोगने परत हैं । जै सुंगरिया खां आप देखकें आ रये हो व पिछले जनम में भीलनी हती जीको आपने क्रिया करम करो हतो । सो राजसाहब आप खां आपके सवाल को जबाव मिल गओ हुइये।

दूसरे दिनां राजा करन अपने राज में वापस आ गये । इते राजा विक्रम सोचन लगे कै राजा करन को हमाये ऊपर बड़ो उपकार है उनको हमाये ऊपर रिन है । सो हमें उनकी कौनऊ मदद करवे मिल जाये तो बड़ो अच्छो रेवै । एक दिना राजा विक्रम घोड़ा पै सवार होकें राजा करन की नगरी में पौंचे उनके राज में जावेई के पैंलें इनने सादू को भेस बनाओ फिर ऐसी जगां बैठे जहाँ सें राजा की सबरी जानकारी मिलत रये ।

राजा करन हर रोज सवा मन सोनोदान करत हते । विक्रम नें सोची कै रोज-रोज इत्तो सोनों कां से आउत हुइये ? ईको पता लगाव चइये । उनने देखो कै राजा करन पीरे बादरों उठे, सब कामों से फारग भये अर घोड़ा पै बैठकें चल दये, जै तो देखई रय हते साइन्ने अपनों घोड़ा उनके पाछें लगा दये । राजा करन एक मंदर के सामने अपनों घोरा बांदकें मंदर के भीतरें पोंचे, वो मंदर देवी जी को हतो ।

उमें सात देवियाँ हतीं पैलें राजा ने उनके चरन छिये अर सामने एक बड़ो कढ़ाव जीमें तेल खौल रओ हतो जेऊ कढ़ाव में कूंद परे । इत्तेई में वे’ गये फिर देखत का हैं कै देवी ने उने निकारो अर सातई बैनों ने मिलकें उनको मांस खाओ। उनकी हड्डी इकट्ठी करी फिर इमरत छड़को सो राजा करन फिरसें जी उठे देवी नें उने सोनो दओ। राजा सोनो लैकें घोरा पै बैठकें अपने दरबार में आ गये ।

राजा विक्रमादित्य ने सब देखकें सोची कै राजा खों सोनो जेको बे दान करत हैं लेवे में कित्तो परेशान होने परत है? दूसरे दिनां राजा विक्रम राजा करन के पैंलें मंदर में पोंच गये। उनने राजा करन के जैससब करो, देवी ने उने जब सोनो देन लगीं सो राजा बोले माता मोरी अरज सुन लेओ। देवी नें पूंछी का चाहत हो । विक्रम बोले कै पैली विनती जा है कै आप जो स्थान छोड़कें राजा करन के महल में अपनो ठौर बना लेओ । दूसरी जा कै राजा करन के पलका के नेचेंईं रोज सोनो मिलत जाये।

माता मोरी अरजी मान लओ तो तुमाव जो सेवक तुमें कबहुं ने भूलहे। देवी ने दोई वरदान दै दये। अब भईया राजा करन उतैं पौंचे तो ओ मंदर में देवी नें हतीं जे घबरा गये। सोचन लगे कैमताई गुस्सां तो नई हो गयीं। फिर उने राजा विक्रम ने आकें सब बात बता दई । फिर राजा विक्रम अपने राज खां वापस चले गय।

तुरत दान महापुण्य सेवा दान – पाप न पुण्य (भावार्थ )

पूतगुलाखरी बाजार गये, उन्होंने सामान खरीदा, जब वे वापिस आ रहे थे तो एक व्यक्ति को कहते सुना – ‘तुरत दान महा पुण्य, सेवादान पाप न पुण्य’ । यह सुनकर उन्होंने पटेल जी से पूछा कि इसका क्या मतलब है? पटेल बोले, सुनो – इसी नगर में एक गरीब ब्राह्मण रहता था। वह भिक्षावृत्ति से अपनी जीविका चलाता था । कई बार तो उसे खाने के लाले पड़ते थे। कुछ समय उपरांत उसके घर में एक कन्या जन्मी ।

पंडिताइन को चिन्ता हुई कि यहाँ तो हम दोनों को खाने के लाले पड़े रहते हैं और अब इस बेटी का क्या होगा? उसके अपने मन में यह विचार ही आया था कि उसकी नवजात कन्या बोली – हे, पिता महाराज ! आप राजा करन के पास जायें, वे इतने बड़े दानी हैं कि संसार भर को दान देते हैं, वे आपकी मदद अवश्य ही करेंगे।

बच्ची की बात सुनकर उसकी माँ कहती है कि बेटी जो भी हो पंडित राजा करन के पास जाता है, वह कुछ न कुछ शास्त्रार्थ करता है। जिसके बदले राजा उसे कुछ दान देते हैं । तेरे पिता तो कुछ जानते ही नहीं? लड़की ने कहा कि आप जाकर राजा से इतना कह दें कि ‘तुरंत दान महापुण्य सेवा दान पाप न पुण्य’।

अगले दिन वह पंडित राजा समक्ष जाकर वही बात दुहरा देते हैं। राजा करन तो बड़े बुद्धिमान थे, उन्होंने पंडित की बात ध्यान से सुनी और उनसे पूछा कि आपने जो कहा है- उसका क्या आशय है। पंडित राजा की बात सुनकर घबरा गये । वे राजा से बोले कि मेरी नवजात बच्ची ने यह बात कही है। राजा ने पूछा कि आपकी बच्ची कहाँ है, मैं उससे मिलना चाहता हूँ। राजा नवजात बच्ची से पूछते हैं कि बेटी इसका क्या आशय हुआ ।

उसने कहा कि- हे राजन्! आप उज्जैन जायें, वहाँ के राजा की रानी के बारह वर्ष से पेट में बच्ची है, आप वहाँ जायेंगे तो वह बच्ची जन्मेगा, वही बच्चा इसका मतलब बतायेगा । बच्ची की बात सुनकर राजा करन उज्जैन की ओर प्रस्थान करते हैं। उन्हें जंगल में ही रात हो गई तो वे किसी स्थान पर रूकने का विचार करने लगे। उन्हें समीप ही एक झोपड़ी नजर आई। वे वहाँ पहुँचे तो देखा कि वहाँ एक भील परिवार रहता है। राजा ने उससे कहा कि मैं रास्ता भटक गया हूँ, तुम मुझे रास्ता बतला दो।

भील बोला कि – हे राजन! आप रात्रि में यहीं विश्राम करें। सुबह मैं आपको सीधा रास्ता बतला दूँगा, आप पहुँच जायेंगे। मैं गरीब जरूर हूँ, लेकिन आपको रूकवाकर मैं कृतार्थ होऊँगा । राजा ने उसकी बात मान ली। भील तो बड़ा नेकदिल था, लेकिन उसकी पत्नी बड़ी कर्कशा थी । उसने दो ही रोटियाँ बनाईं। एक स्वयं ने खा ली, दूसरी अपने पति को देकर कहा कि इसे चाहो तो स्वयं खा लो या उसे खिला दो।

राजा उसकी बात सुन रहे थे। जैसे ही वह रोटी लाया तो राजा ने कहा कि तुम खा लो, मुझे भूख नहीं है। भील बोला कि आप मेरे अतिथि हैं, आप खायें। राजा ने कहा कि हम आधी-आधी रोटी खा लेंगे। राजा आधी रोटी लेकर बाहर आये और वह चुपचाप अपने घोड़े को खिला दी। अब विश्राम करने की समस्या आई, झोपड़ी बहुत छोटी थी, उसमें एक ही खाट बिछ सकती थी।

उसकी पत्नी ने कहा कि आधी खाट पर तो मैं सोती हूँ, बाकी तुम जानो । राजा ने कहा कि आप दोनों सो जायें, मैं तो जागता रहूँगा, मेरे आने से आपको बड़ी परेशानी हो रही है। अंत में राजा ने उन दोनों को सुला दिया और वे पहरा देने लगे ।

आधी रात को जब भील की आँख खुली तो उसने राजा को अपनी जगह सुला दिया और वह पहरा देने लगा। भीलनी भी उठ गई । कुछ समय उपरांत राजा तो गहरी नींद में सोये थे और वहाँ एक शेर आ जाता है, भील ने उसे भगाने का प्रयास किया लेकिन शेर ने उन दोनों को खा लिया। सुबह राजा उठे तो देखा कि दोनों पति-पत्नी को जानवर ने अपना ग्रास बना लिया है, यह देख उन्हें बड़ा दुःख हुआ ।

उनके बचे हुए शरीर की राजा ने अन्त्येष्टि की और ये अपने घोड़े पर सवार होकर उज्जैन नगरी पहुँच गये । उनके पहुँचते ही उज्जैन की महारानी को प्रसव पीड़ा होने लगी। वहाँ के राजा महाराज विक्रमादित्य थे उन्होंने राजा करन का सत्कार किया।

कुछ समय उपरांत रानी के कुँवर का जन्म हुआ । राजा करन को इसकी जानकारी हुई तो वे विक्रमादित्य से बोले कि मुझे किसी भविष्य वक्ता ने बतलाया था कि मैं आपके यहाँ पहुँचूँगा तो आपकी रानी के कुँवर का जन्म होगा, वह अक्षर सत्य सिद्ध हुई । अब दूसरी बात का जबाव आपके कुँवर देंगे।

राजा ने नवजात कुंवर को बुलवाया। कुँवर राजा करन से बोले- महाराज मुझे आपके प्रश्न की जानकारी है, लेकिन आप यहाँ से उत्तर दिशा में जायें और आपको अपने प्रश्न का जवाब स्वयं ही मिल जायेगा। राजा करन बाहर जाते हैं, तो उन्हें रास्ते में एक सुअरनी दिखी, वह बच्चा जन रही थी। लेकिन उसका आधा बच्चा बाहर निकला था, आधा पेट में था ।

राजा को इसके अलावा वहाँ कुछ नहीं दिखा तो वे वापस कुँवर के पास आ गये । कुँवर से बोले कि मुझे इसके अलावा कुछ नहीं दिखा। कुँवर ने कहा कि- हे राजन् ! सबको अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है ।

जिस सुअरनी को आपने देखा है, उसका आधा बच्चा बाहर और आधा भीतर था। वे पिछले जन्म में भील-भीलनी थे, जिन्हें आपने देखा ही था । सो- हे राजन् ! आपके प्रश्न का जवाब भी यही है। राजा वहाँ से संतुष्ट होकर अपने राज्य में वापिस आ गये।

राजा करन के जाने के पश्चात् विक्रमादित्य ने सोचा कि देखो राजा करन के आने पर ही हमारे कुँवर जन्मे हैं। उनका आगमन हमें शुभ था । अब हमें इनकी कोई मदद करनी चाहिये।

मैं अगर राजा करन के किसी काम आ सका तो अपने आपको धन्य समझँगा और एक दिन विक्रम अपने घोड़े पर बैठ राजा करन के राज्य की तरफ चले । वहाँ पहुँचकर उन्होंने अपना घोड़ा किसी को सुपुर्द किया। अपना साधू वेष बनाया और ऐसे स्थान पर जा बैठा, जहाँ से राजा की गतिविधियों का जायजा ले सके ।

राजा करन नित्य प्रति सवा मन स्वर्ण दान करते थे । राजा विक्रमादित्य ने सोचा कि इनके पास कहाँ से इतना सोना आता है? इसकी जानकारी लें। विक्रम ने देखा कि राजा करन बड़े भोर में उठ, दैनिक कार्यों से निवृत्त हो अपने घोड़े पर सवार होकर चल दिये। वे एक मंदिर में गये, वह देवी मन्दिर था, देवी की सात मूर्तियाँ उसमें स्थापित थीं।

उस मंदिर के समक्ष एक बड़ी कड़ाही रखी है, जिसमें तेल है। वह तेल इतना गर्म था कि उसमें धुआँ निकल रहा था। राजा करन ने देवी को प्रणाम किया और पलक झपकते ही वे उस कढ़ावा में कूद पड़े। फिर क्या देखते हैं कि उस तेल में राजा की देह जल रही है, जिसे सात देवियों ने निकाला तथा राजा करन की देह को खाया उनकी हड्डियाँ एकत्रित कीं, उन पर अमृत छिड़का तो राजा पुनः जीवित हो गये।

उन्होंने उठकर देवी को प्रणाम किया, जाते समय उन्हें सवामन सोना मिल गया, जिसे लेकर वे पुन: अपने घोड़े पर सवार होकर वापिस आ गये । राजा विक्रमादित्य को स्वर्ण की जानकारी मिल गई। दूसरे दिन राजा विक्रम करन से पहले उठकर देवी मंदिर पहुँच गये। उन्होंने वही किया जो करन करते थे, लेकिन जाने से पूर्व उन्होंने अपना शरीर जगह-जगह चीरकर उसमें मसाले भर दिये।

जब देवियों ने उन्हें खाया तो वह स्वाद अलग था, जिससे वे अति प्रसन्न हो गईं। उन्होंने विक्रम को अमृत छिड़ककर जीवित किया तथा उनसे कहा कि राजा हम तुम पर अति प्रसन्न हैं, इससे इच्छित वर मांगो, वह वर हम तुम्हें देंगी।

राजा विक्रम ने कहा कि माता मुझे दो वरदान दें- पहला यह कि राजा करन को रोज-रोज आपके स्थान पर न आना पड़े, उन्हें वहीं प्रतिदिन सवा मन सोना मिल जाये। दूसरा यह कि आप अपना यह स्थान छोड़कर राजा करन के महल में जहाँ आप उचित समझें, रहें। देवी ने एवमस्तु कहकर अर्न्तध्यान हुईं। यहाँ राजा करन उठकर देवी मंदिर पहुँचे तो क्या देखते हैं कि मंदिर में देवियाँ नहीं हैं।

वे बड़े हैरान थे कि अब मैं कैसे दान दूँगा । कहीं ऐसा तो नहीं कि देवी हमसे असंतुष्ट होकर चली गईं? उसी समय राजा विक्रम आ जाते हैं, वे अपने असली वेष में थे, उन्होंने करन को सबकुछ बतला दिया, कहा कि- राजन् !

आपको प्रतिदिन अपने ही कक्ष में स्वर्ण मिल जाया करेगा तथा आपकी देवी आपके महल में ही हैं । यह विक्रमादित्य का असली स्वरूप था और यह राजा करन की असलियत थी । उनकी आत्मीयता एवं त्याग देखकर ही कहा गया था कि ‘तुरत दान महापुण्य सेवा दान पाप न पुण्य’ ।

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