Mamuliya Bundeli Lok Parv मामुलिया-बुन्देली लोक पर्व  

Mamuliya Bundeli Lok Parv मामुलिया- बुन्देली लोक पर्व

मामुलिया, महाबुलिया, माहुलिया

हमारे क्षेत्र की प्राचीन संस्कृति और सभ्यता के रक्षक लोक-पर्व हमारी अमूल्य धरोहर हैं। बुन्देलखण्ड में बालिकाओं का ऐसा ही लोकोत्सव है ‘‘मामुलिया’’Mamuliya Bundeli Lok Parv के खेल में  प्रयुक्त पुण्य जीवन के सुख और नारी सौन्दर्य का प्रतिनिधित्व करते हैं ।

भारत भूमि त्यौहारों की पुण्यभूमि है। बुन्देलखण्ड में जितने त्यौहार और लोकोत्सव होते हैं, उतने किसी भू-भाग में नहीं होते। आज के भौतिकवादी युग में

जहां मानव की व्यस्तता क्षण-प्रतिक्षण बढ़ती जा रही है, समयाभाव से उत्साह और उमंग और उल्लास का हृास हो रहा है। मुस्कराहट, हंसी  और ठहाके कोसों दूर होते जा रहे हैं, वहां जन-जीवन को सरस, सामान्य और स्वस्थ बनाने में ये लोकपर्व अपनी अहम भूमिका निभाते हैं।

बालिकाओं के विभिन्न अवसरों एवं ऋतुओं के गीतों में मामुलिया के गीत भी आते हैं। बुन्देलखण्ड में कुमारी बालिकाएं भादों मास में कहीं-कहीं क्वार के कृष्ण पक्ष मे मामुलिया के गीतमय खेल खेलतीं हैं। इसके लिए कोई निश्चित तिथि या वार नहीं होता। यह संध्या के समय खेला जाता है। आंगन में बीच गौबर से चौकोर लीपकर और चौक पूरकर बबूल की कांटोवाली हरी झाड़ी लगा दी जाती है यही मामुलिया है।

हल्दी और अक्षत से पूजा करके कांटों में फूल खोंस दिये जाते हैं। चने, ज्वार के फूले, फ्रूट, कचरिया आदि का प्रसाद चढ़ाकर बालिकाएं उसकी परिक्रमा लगाती हैं। उसे उखाड़ कर किसी तालाब या नदी में सिरा देती हैं। वे मामुलिया को पुष्पादि से सजातीं हैं। सजाते समय गाती हैं –

ल्याओ-ल्याओ चंपा चमेली के फूल,
सजाओ मोरी मामुलिया।
मामुलिया के आये लिबौआ
झमक चली मेरी मामुलिया।

पूजन में मामुलिया के स्तुति गान हैं
चीकनी मामुलिया के चीकने पतौआ
बरा तरें लागी अथैया।

कै बारी भौजी बरा तलें लागी अथैया
मीठी कचरिया के मीठे जो बीजा
मीठे ससुरजू के बोल।

काई कचरिया के काए जो बीजा
काए सासजू के बोल
कै बारी बैया, करए सासजू के बोल।

ससुर जी के बोल भले ही मीठे लगते हों, परन्तु सासजू की वाणी उतनी ही कड़वी  है, जितनी कड़वी कचरिया के बीज। जान पड़ता है कि बबूल का वृक्ष बहुतायत से पाये जाने का कारण उसकी उपयोगिता देख देव के रूप में उसकी पूजा की जाती है। यह प्राचीन अनुष्ठान का अवशिष्ट रूप जान पड़ता है।

मामुलिया के आए लिबौआ, झमक चली मोरी मामुलिया
जितै बाबुल जू के बाग, उतै मोरी मामुलिया
आजी देखन आई बाग, सजाय ल्याव मामुलिया
लाओ चंपा चमेली के फूल, सजाओ मोरी मामुलिया
लयाओ घिया तुरैया के फूल, सजाओ मोरी मामुलिया
जिहै-जिहै वीरन जू के बाग, उतै मोरी मामुलिया
भावी देखन आई बाग, सजाय ल्याव मामुलिया
ल्याओ चंदा चमेली के फूल, सजाओ मोरी मामुलिया
जितै-जितै बाबुल जे के बाग, उते मोरी मामुलिया
मैया देखन आई बाग, सजाय ल्याव मामुलिया
ल्याओ चंदा चमेली के फूल, सजाओ मोरी मामुलिया।
******************************

चनदा के आसपास गौअन की रास
बिटियां पूजें सब-सब रात
चन्दा राम राम ले ओ
सूरज राम ले ओ, हम घरै चले
चंदा के आसपास मुतियन की रास
बिटियां पूजें सब सब रात
चंदा राम राम ले औ
सुरज राम राम ले औ, हम घरै चले।
******************************

मामुलिया सी जिन्दगी, कहुं कांटे कहुं फूल
ले ओ संवार आवसीर में, होत सबई में भूल।
लइयो लइयो चमेली के फूल
सजइयो मोरी मामनुलिया
सज वरन-वरन सिंगार
सिरहयो मोरी मामुलिया।

कौना लगाये बमूला के बिरछा
और जरिया की डार
सिरइयो मोरी मामुलिया …….

वन तुलसी गुलबंगा बेला
निके रची कचनार।
सिरइयो मोरी मामुलिया।

बालापन के सपने सहाने
और अंसुअन की धार
सिरहयो मोरी मामुलिया।

निरई जग जो पीर न जाने
और निठुर करतार
सिरइयो मोरी मामुलिया ….

माई बाबुल की देहरी छूटी
छूटो वीरन नेह अपार
सिरहयो मोरी मामुलिया
छूट गई संग की गुइयां
छूटी रार तकरार
सिरहयो मोरी मामुलिया ……

मामुलिया आश्विन मास की पूर्णिमा, अमावस्या तक पितृपक्ष में बुन्देलखण्ड के गांव व शहर में कुंवारी कन्याओं का विशेष खेल होता है, जिसे मामुलिया के नाम से जाना जाता है। इस लोकोत्सव में बालिकायें बेरी की डाल को फूलों से सजाकर लाल पटका पहना कर स्त्री रूप में मानकर पास-पड़ौस सबके घरों में ले जाती हैं तथा गाती हैं..। 
मामुलिया के आये लिवउआ,
झमक चली मेरी मामुलिया।
ल्याओ-ल्याओ चम्पा चमेली के फूल,
सजाओ मेरी मामुलिया।

सभी मामुलिया के दर्शन कर स्नेह पूर्वक मामुलिया के पूजन तथा विदा के लिए धन देते हैं। बालिकाएं चौक पूरकर मामुलिया को उस पर रख पूजा करतीं हैं। अंत में मामुलिया के गले मिलकर विदा लेती हैं तथा उदास होकर उसे पास के नदी या तालब मे विसर्जित कर देती हैं।

मामुलिया में स्त्री जीवन का दर्शन निहित है जिस प्रकार बेरी का पेड़ प्रत्येक वातावरण में बिना विशेष पोषण के फूल, फल देने की क्षमता रखता है उसी प्रकार स्त्री अपने परिवार को सद्गुणों रूपी फलों से सजाकर सन्तान रूपी फल तथा कांटों के समान प्रहरी बना सुरक्षा प्रदान करती है।

डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त के अनुसार क्वार मास के कृष्णपक्ष में क्वांरी कन्याएं मामुलिा या माहुलिया खेलती हैं। लोक प्रचलित शब्द है – ‘‘मामुलिया खेल रयीं’’ जिससे वह एक खेल प्रतीत होता है। लेकिन जब कन्यायें बेरी की कांटेदार शाख लेकर उसे विभिन्न प्रकार के पुष्पों से सजाकर और फल, मेवादि खोंसकर लंहगा एवं ओढ़नी मे मानवीकृत कर देतीं हैं। 

लिपे स्थान पर चौक पूरकर उसे प्रतिष्ठित करने के बाद हल्दी, अक्षत, पुष्पादि से पूजतीं हैं और अठवाई, पंजीरी, हलुआ, फलादि का भोग लगाती हैं, तब वे देवी सिद्ध होती हैं और पूरा खेल उनकी उपासना हो जाती है।

अतएव मामुलिया की पहचान एक प्रमुख समस्या है। यदि वह नारीरूपा मानती है, तो यह निश्चित है कि कन्याएं उसकी पूजा नहीं कर सकतीं, क्योंकि बुन्देलखण्ड में कन्या के चरण-स्पर्श सभी स्त्री-पुरुष करते हैं। यह बात अलग है कि मामुलिया कोई सती या विशिष्ट आदर्श की प्रतीक नारी हो, जैसा कि एक गीत की पंक्ति से लगता है..।
मामुलिया के आ गये लिबौआ,
झमक चली मोरी मामुलिया।

मामुलिया में नारीत्व की प्रतीकात्मकता तो है, जैसे पुण्यों की कोमलता, सुन्दरता और प्रफुल्लता, कांटों की प्रखरता, संघर्षशीलता और वेदना तथा फलों की सृजनशीलता, उदारता और कल्याण की भावना सब नारी में निहित है। इन गुणों के साथ उसमें पतिव्रत्य की साधना के लिए पूरी-पूरी तत्परता है।

एक प्रतीकात्मकता यह भी है कि पुष्प रूपी सुख और कांटे रूपी दुःख से यह जीवन बना है। जीवन का जब तक श्रृंगार होता है, तब तक उसके लिबौआ (विदा कराने वाले) आ जाते हैं। यह क्षणभंगुरता जीवन की अस्थिरता को सांकेतित करती है। इस प्रकार मामुलिया में दार्शनिक महाबोल की प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति हुई है, इसीलिए इसे महाबुलिया, माहुलिया कहा जाता है।

मामुलिया और टेसू से संबंध:-
बुन्देलखण्ड राज्य  बहुत बड़ा है, अतएव उसके लोकोत्सवों के स्वरूप में विविधताएं हैं। दतिया की तरफ ढ़िरिया मांगना चतुर्दशी तक चलता है और पूर्णिमा को अन्त्येष्टि-भोज होता है। पड़ा सुआटा की गर्दन काट देता है। उरई-जालोन तरफ नवमीं से चौदस तक टेसू खेला जाता है और पूर्णिमा को टेसू तथा ढ़िरिया या झिझिया का विवाह होता है।

एक लोककथा के अनुसार झिझिया सुअटा की पुत्री थी, जिसे देखकर टेसू नामक वीर आकर्षित हुआ था। वह सुअटा को हराकर झिंझिया से विवाह कर लेता है। उसी अवसर पर सुअटा के अंग-भंग कर उसे तोड़ा जाता है। इसी तरह मामुलिया और सुअटा को बहिन भाई मानकर कथा की एकसूत्रता सिद्ध की जाती है।

लोककथाकार कथा का विस्तार करने में बहुत कुशल होता है। वह पात्रों के संबंधों की स्थापना से कथा को अन्वित कर देता है। काल-संकलन भी उसमें सहायक हुआ है। पहले मामुलिया फिर सुअटा और उसके बाद टेसू। दूसरे मामुलिया और सुअटा क्वांरी लड़कियां ही खेलती हैं। इस कारण भी जुड़ाव हुआ है।

यह समग्र वैष्णवीवाद को प्रभावित करते है, गणेश सिद्धि और लक्ष्मी संपत्ति के देव है, महाराष्ट्र, गुजरात में विशेष प्रभाव है, समस्त भारत के हृदयस्थल के रूप में बुंदेलखंड है यहॉ की उत्सव धर्मिता अत्यंत सघन है। यहा पर विदेशी प्रभाव भी अत्याधिक नहीं पड़े है अतः प्रत्येक त्यौहार में भक्ति भक्ति का प्राचुर्य मिलता है।

According to the National Education Policy 2020, it is very useful for the Masters of Hindi (M.A. Hindi) course and research students of Bundelkhand University Jhansi’s university campus and affiliated colleges.

बुन्देलखण्ड के लोकोत्सव 

admin

Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *