Nautanki Parampara बुन्देलखंड में नौटंकी परम्परा

Nautanki Parampara नौटंकी परम्परा

बुन्देलखंड में नौटंकी परम्परा Nautanki Parampara हाथरस से आई हाथरस एक  समय  मे लोक कला के पठन-पाठन और मुद्रण का केंद्र था ।  इस संचरण transmission का मुख्य कारण था बुन्देलखंड का लोक काव्य आल्हा की कथावस्तु के आधार पर वासमजी के शिष्य मुरलीधर राय ने चार खंडों में ‘आल्हखंड’ का नाट्यांकन करके हाथरस में मंचित किया था।

बुन्देलखण्ड में लोकनाट्य नौटंकी परम्परा का उद्भव और विकास 

हाथरस के गोविन्दराम (गोविन्द चमन) ने जो प्रसिद्ध संगीतकार नत्थाराम के गुरु थे, आल्हा-सम्बन्धी छह नाट्य सांगीत की रचना की और उनका मंचन हुआ ।

1 –  ऊदल का ब्याह (दो भागों में )
2 –  मलखान का ब्याह
3 –  धाँधू का ब्याह
4 –  ऊदल-हरण
5 –  सुरजावती का झूला
6 –  लाखन का बयाह या कामरू की लड़ाई।

यह कहना उचित रहेगा कि हाथरसी स्वांग -परम्परा के प्रारम्भ में आल्हा लोककाव्य की प्रेरणा प्रमुख थी और यह स्वाभाविक है कि हाथरस के स्वांगकारों ने अपनी कथावस्तु बुंदेलखंड के लोक काव्य आल्हा से ली । बीसवीं शती के पहले या दूसरे दशक में हाथरस की स्वांग -परम्परा बुन्देलखंड में प्रचलित हुई।

बुंदेलखंड में नौटंकी के प्रचलन का दूसरा आधार है लावनी या ख्याल गायकी। लावनी के तुर्रा और कलगी के अखाड़ों का जन्म बुन्देलखंड में हुआ था। इसका प्रचार-प्रसार पूरे बुन्देलखंड में था और प्राचीन कथाओं पर आधारित लम्बे ख्याल यहाँ प्रचलित रहे, किन्तु ख्यालों से उत्पन्न लोकनाट्य का कोई प्रामाणिक साक्ष्य अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ पर इतना आवश्यक है कि ख्यालों के दंगल बहुत पुराने हैं और उनमें वाचिक अभिनय का प्रदर्शन लोक के आकर्षण का केन्द्र रहा  है।

अनेक विद्वानो का मत है कि राजस्थान की तुर्रा कलगी-परम्परा ब्रजक्षेत्र की ही देन है। जबकि कुछ विद्वान बताते हैं  कि इस परम्परा का उद्भव चन्देरी में हुआ था और राजदरबार में राजा के समक्ष दंगल हुआ था। चन्देरी बुन्देलखंड की समृद्ध रियासत और गायकी का गढ़ रही है। वहीं के बैजू बावरा ने ध्रुवपद गायकी से देसी संगीत की शुरूआत की थी

इससे स्पष्ठ होता है कि तुर्रा-कलगी की परम्परा बुन्देलखंड की देन है और बुन्देलखंड के चन्देरी से ही ग्वालियर तथा ग्वालियर से धौलपुर, भरतपुर, आगरा एवं ब्रजक्षेत्र में गई थी। इन दोनों तथ्यों से सिद्ध है कि बुन्देलखंड और हाथरस के रिश्ते काफी घनिष्ठ रहे हैं, इसलिए सांगीत की हाथरस-परम्परा बुन्देलखंड में 20वीं शती के शुरू में आकर विकास पा गई और आज तक नत्थाराम गौड़ के अधिकांश सांगीत मंचित होते रहे हैं।

कानपुर की नौटंकी का उद्भव एक नई शैली में 1910 ई. से प्रचलित हुई थी और श्रीकृष्ण पहलवान ने उसे नया स्वरूप दिया था। पारसी रंगमंच के प्रभाव से उसमें सहायक या प्रासंगिक कथा- कहानियां, सीनरी वाले पर्दे, गद्यमय संवाद । बुन्देलखंड में झाँसी के महाराज गंगाधर राव ने 1857 ई. में पूर्व एक रंगशाला निर्मित करवाई थी जिसने यहाँ की नाट्यचेतना को पुनर्जीवित किया था।

झाँसी सांगीत और नौटंकी का मुख्य केन्द्र बना। यही कारण है कि सनेही और रसिकेन्द्रजी जैसे साहित्यकार और गणेश शंकर जैसे राजनीतिज्ञ नौटंकी में  रुचि रखते थे। रसिकेन्द्रजी तो कालपी (बुन्देली प्रदेश) के थे जिन्होंने नौटंकी के प्रारम्भ में कोरस (समूहगीत) की संयोजन का सुझाव दिया था।

कानपुर नौटंकी में दूसरा परिवर्तन किया त्रिमोहनलाल ने, जिससे 1933-34 ई. में नारी पात्रों का अभिनय मध्यम स्तर की गायक वेश्याएँ करने लगीं और पुरुषों को राहत मिली। लेकिन उससे नौटंकी का स्तर गिरता गया, क्यों कि तड़क-भड़क के साथ हल्के और अश्लील गीत भी गाए जाने लगे। बाद में तो कामोत्तेजक अभिनय की नौबत आ गई।

बुंदेलखंड में 1927 ई. के लगभग चरखारी में रायल ड्रामैटिक सोसायटी की स्थापना हुई थी जिसका श्रेय चरखारी-नरेश अरिमर्दन सिंह और प्रसिद्ध नाटककार आगा आग़ा हश्र कश्मीरी उर्दू के प्रसिद्ध शायर एवं नाटककार को है। यह कम्पनी पूरी तरह पारसी रंगमंच को समर्पित थी। इस लिये उसका प्रभाव बाद की नौटंकी पर हुआ।

इस प्रकार हाथरस और कानपुर शैलियाँ यहाँ के विभिन्न क्षेत्रों पर छाई रहीं। बुन्देलखंड में नौटंकी की विधा के तहत कोई विशेष परिवर्तन नहीं हुए, केवल गीत, नृत्य, भाषा और नारी पात्रा में यहाँ की लोकरुचि के अनुसार अथवा परिस्थितिवश कुछ नवीनताओं का समोवश किया गया। विशेष बात यह थी कि लोक को आकर्षित करने के लिए विभिन्न मंडलियों ने नौटंकी के बीच लोकछन्द और लोकगीतों का समावेश कर  दिया जिससे लोकसंगीत भी प्रवेश कर  गया।

दतिया में ‘गोरी मउआ बीनन जाय , मउआ मदन रस भरे रस चू-चू जाय’ जैसी पंक्तियाँ गूँजती रहीं। दूसरे ठुमरी, लेद, दादरा, टप्पा आदि की गायकी भी महत्त्व पा गई। नौटंकी के बीच रावला, स्वाँग आदि बुन दिए गए और फिर नौटंकी मे बुन्देली स्वर या रंग ही नहीं चढ़ा, वरन् स्थानीय भाषा को स्थान दिया गया। पुराने कथानकों में बदलाव आया और कुछ बुद्धि सम्पन्न निर्देशकों या कलाकारों ने स्थानीय रुचि समझकर नए संवाद जान बूझकर या भूलवश गढ़ लिए।

बुंदेलखंड मे  वेश्याओं के स्थान पर कम पैसे मे  कामा करने वाली बेडि़नी नारी पात्र बन गईं, जिससे आंचलिक रंग अधिक गहरा हो गया।  वे कभी-कभी बुन्देली गद्य में संवाद करती हैं और उनका मत है कि ‘जैसी जगह वैसी भाषा’। गाँवों में तो बुन्देली ही चलती है और नगरों में लोकगीत, लोकनृत्य और स्वाँग पसन्द करते हैं।

बुंदेलखंड मे कुछ साहित्यकारों ने नौटंकी-रचना में  अच्छे प्रयत्न किए हैं जिनमें विजयबहादुर श्रीवास्तव, भैयालाल व्यास और स्वामीप्रसाद श्रीवास्तव उल्लेखनीय हैं। बुन्देली में नौटंकी लिखने की परम्परा नई है, पर लेखकों को नौटंकी की लोकप्रवृत्ति के अनुरूप प्रचलित लोकभाषा को ही अपनाना आवश्यक है, क्योंकि अनुवादित भाषा बनावटी होगी और लोक संवेदना एव लोक भावना से जुड नही पायेगी।

बुन्देलखण्ड के नौटंकीबाज 

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