Chhatarpur-Angrejo Se Sandhi छतरपुर- अंग्रेजों से संधि

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By admin

अठारहवीं शताब्दी के अन्त में कुँवर सोनेशाह पंवार ने छतरपुर की रियासत कायम कर ली । पूर्व में यह पन्ना के राजा किशोरसिंह के प्रपितामह महाराजा हिंदुपत  के यहाँ नौकर था। हिंदूपत वि० सं० 1834  में मरे और  इनके पुत्र सरनेतसिंह को रियासत छोड़ कर राजनगर में रहना पड़ा।

इसके मरने पर हीरासिंह राजा हुआ पर यह बहुत ही छोटा था। इससे रियासत का प्रबंध कुंवर सोनेशाह करता रहा। पर यह बहुत ही चालाक था।  इससे इसने यह मौका हाथ से नहीं  जाने दिया और  बि० सं० 1842  में अपने लिये एक अलग जागीर कायम कर ली  । मराठों की चढ़ाई के समय इसने कुछ और भी इलाका उसमें मिला  लिया।

इस समय इसका दबदबा सारे बुंदेलखंड में था। इससे अंग्रेजों  ने भी कई राजनैतिक कारणों से इसे अपने हाथ में कर लेना उचित समझा और वि० सं० 1863  ( 5-6-1806  ) मे इसे सनद दे दी । इस समय इसके पास 151  गाँव खालसा और 143  गाँव नानकार, पदारख और सेवा चाकरी के थे।  |परंतु छतरपुर खास कर चारों थाने, जिन पर अलीबहाहुर के समय भी इसी का अधिकार था तथा मऊ और सालट इसने अली बहादुर की मृत्यु  के बाद दबा लिए थे।

अंग्रेजों ने उनके बदले में कुंवर सोनेशाह का 19000 रुपए वार्षिक  का खिराज, जो अलीबहादुर  को दिया जाता था, सरकार ने छोड़ दिया । वि० सं० १४२२ में सरकारी सेना हटा लेने  पर सोनेशाह को मऊ और उसके लड़के प्रतापसिंह को छतरपुर दे दिया गया। कुंवर सोनेशाह ने विक्रम-संवत्‌ 1869  में अपनी रियासत अपने पांचों पुत्रों मे बॉट दी परंतु छोटे लड़के ने समान भाग मांगा  । इससे प्रतापसिंह का हिस्सा छोटा हो गया।

इस बंटवारे से ये सब स्वतंत्र हो गए। परंतु इस तरह का बटवारा सरकारी सिद्धांत के प्रतिकूल था। इससे अँगरेज सरकार ने यह बँटवारा नामंजूर कर दिया और सोनेशाह को यह सूचना दे दी गई कि तुम्हारी मृत्यु के पश्चात्‌ यदि किसी किस्म की गड़बड़ हुई तो  सरकार प्रतापसिंह का ही पक्ष लेगी। सोनेशाह वि० सं० 1972  में भरे।  |

सोनेशाह की मृत्यु के पश्चात्‌ हिम्मतसिंह, पिरथीसिंह, हिंदूपत और  बखतसिंह राजा प्रतापसिंह के अधीन कर दिए गए और  इन्हें हीनहयाती जागीरें दी गई। वि० स० 1873  ( 28- 7-1816 ) में सबने मिलकर सरकार को  एक इकरारनामा लिखा जिसकी सनद राजा प्रतापसिंह  को संवत्‌ 1874  (11-1-1817) में मिली ।

इस समय पुराने बँटवारे में भी कुछ परिवर्तन किया गया।  इस परिवर्तन से कढ़निया और देवराय का किला तो  राजा प्रताप-सिंह का मिला और राजगढ़ तथा तिलोहा बखतसिंह ने पाए।  परंतु पिरथवी सिंह के पास एक भी अच्छा स्थान न था। इससे बखतसिंह ने राजगढ़ पिरथीसिंह  को देकर उसके बदले में छः गाँव ले  लिए।

हिम्मतसिह, पिरथीसिह और हिंदूपत की मृत्यु के पश्चात्‌ इनकी जागीरें छतरपुर राज्य में मिला दी गई और  बखतसिंह ने  भी अपनी जागीर राजा प्रतापसिंह को देकर उससे 2250 रुपए मासिक लेना  मंजूर कर लिया।

राजा प्रतापसिंह को वि० सं० 1884  (18-1-1827) मे राजाबहादुर की पदवी दी गई। इन्होंने वि  सं० 1909  मे जगतराज को गोद लेना चाहा । यह बखतसिंह का लड़का था। नियमानुसार इन्हें अपने ज्येष्ठ भ्राता पिरथीसिंह के लड़के कुंजल शाह को गोद लेना चाहिए था किंतु इन्होंने अपने पिता की मृत्यु के पश्चात अपने दोनों भाइयों को  लेकर राजविद्रोह किया था, इससे इनके अधिकार जब्त  कर लिए गए थे।

जगतराज को गोद लेने के संबंध में टेहरी, चरखारी, बिजावर, पन्ना, अजयगढ़, दतिया और शाहगढ़ के राजाओं से भी सम्मति ली गई थी। इन सब लोगों ने बुंदेलखण्ड  की प्रचलित प्रथा के अनुसार जगतराज का गोद लिया जाना उचित बताया  परंतु कोर्ट आफ डाइरेक्ट्स ने ऐसे प्रश्नों पर सहमति  लेना नामंजूर कर दिया। राजा प्रतापसिंह गोदसंबंधी प्रश्न  का निपटारा होने के पूर्व ही बि० सं० १६११ (19-5-1854) मे मर

बुन्देली झलक (बुन्देलखण्ड की लोक कला, संस्कृति और साहित्य)

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