Charkhari Parsi Theatre Ka Kendra चरखारी- पारसी थियेटर का केन्द्र

Charkhari Parsi Theatre Ka Kendra चरखारी- पारसी थियेटर का केन्द्र

बुन्देलखण्ड में प्राचीनकाल Charkhari Parsi Theatre Ka Kendra रहा है। संस्कृत नाटककार भवभूति के नाटकों का मंचन कालपी के निकट कालप्रियनाथ मन्दिर की विशाल रंगशाला में हुआ करता था । भवभूति ने ‘उत्तर रामचरितम्’ की प्रस्तावना में स्वंय स्वीकार किया है कि कालप्रियनाथ-यात्रा के समय कालप्रिय नाथ मंदिर की रंगशाला में उनके नाटकों उत्तर रामचरितम्, मालती माधव तथा महावीरचरितम् का प्रथम मंचन हुआ था।

‘दी रायल ड्रामाटिक सोसायटी चरखारी’ से ‘दी जय हिन्द थियेट्रिकल कंपनी तक

ओरछा का अखाड़ा कला, संगीत एवं रंगकर्मो के संबर्द्धन के लिये अति विख्यात रहा है । सुप्रसिद्ध नर्तकी राय प्रवीण वहा नृत्यांगनाओं की प्रमुख थी । प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के पूर्व झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के पति राजा गंगाधर राव की रंगशाला उच्च्चकोटि की सुविधाओं से युक्त थी। राजा गंगाधर राव स्वंय अच्छे रंगकर्मी थे। उन्होंनें रंगमण्डल गठित करके उसे पोषित और संवर्धित किया था। अंग्रेजों ने उस रंगशाला को नष्ट करके एक सांस्कृतिक केन्द्र को ध्वस्त कर दिया था।

बीसवीं शताब्दी के प्रारम्भ में, हिन्दी फिल्म उद्योग प्रारम्भ होने के पूर्व देश में पारसी थियेटर का वैभव शिखर पर था। उस समय यह थियेटर्स लोकरंजन का सबसे बड़े साधन थे। कलकत्ता, बम्बई तथा देश के बड़े नगरों में पारसी एलफिंस्टन थियेट्रिकल कंपनी तथा अल्फ्रेड कंपनियों का बोलबाला था।

उस समय के अग्रणी नाटककार आगाहश्र कश्मीरी दि ग्रेट शैक्सपियर थियेटर कंपनी कलकत्ता का स्वयं संचालन कर रहे थे। इन सभी थियेर्स में आगाहश्र द्वारा लिखित नाटकों की धूम रहती थी। देश के कोने-कोने से हजारों नाट्यप्रेमी उनके नाटक देखने इन नगरों में जाते थे।

इस वातावरण में बुन्देलखण्ड के चरखारी राज्य के नाट्यप्रेमी महाराजा अरिमर्दन सिंह जूदेव ने बुन्देलखण्ड की जनता को पारसी थियेटर का आनन्द देने के लिये चरखारी को पारसी नाटकों का सशक्त केन्द्र बनाने का संकल्प लिया तथा वे इसमें सफल भी हुये। उन्होंने ‘दी रायल ड्रामाटिक सोसायटी’ चरखारी की स्थापना की थी। वहां एक भव्य रंगशाला का निर्माण कराया तथा नाटककार आगाहश्र कश्मीरी को चरखारी लाकर राजकीय अतिथि का सम्मान दिया । वहां लगभग ढाई वर्ष रहे। वहीं उन्होंने अपने सर्वोत्तम नाटक ‘सीता बनवास’ तथा ‘राम अवतार’ (अप्रकाशित ) की रचना की थी ।

चरखारी में ही ‘सीता बनवास’ लिखने के पश्चात् उसके पूर्वाभ्यास में अत्यन्त श्रमपूर्व समय दिया तथा उसका मंचन कराया। इन नाटकों को देखने बुन्देलखण्ड के छोटे-मोटे अन्य राज्यों के सुदूर क्षेत्रों से जनता चरखारी आती थी। इस प्रकार चरखारी देश में पारसी थियेटर का महत्वपूर्ण केन्द्र बन गया था।

चरखारी उत्तर प्रदेश राज्य में महोबा से 21 किमी दूर स्थित है। यहां के बुन्देला शासकों ने वहां मंगलगढ़ का भव्य दुर्ग, उसका कलात्मक प्रवेशद्वार ड्योढ़ी दरवाजा, अनेक सरोवर, महल तथा कलात्मक मंदिर बनवाकर उसे बुन्देलखण्ड का कश्मीर बनाने की कोशिश की थी। इसे देखने दूर दराज से लोग आते थे।

यहां के शासक राजा अरिमर्दनसिंह जूदेव की नाट्यप्रियता ने यहां भव्य रंगशाला भी बनवाई तथा वार्षिक राजस्व का एक बड़ा भाग उसके रखरखाव पर व्यय किया। स्वयं रंगकर्मी के रूप में रंगमण्डल का विकास किया था। आगाहश्र कश्मीरी जैसे श्रेष्ठ नाटककारों को भारी मानदेय देकर सम्मानपूर्वक रखा।   

किन्तु चरखारी का यह दुर्भाग्य ही कहा जायेगा कि भौगोलिक स्थिति की विडंबना, रेल एवं लेक व्यू पैलेस, चरखारी जहाँ रह कर आग़ाहश्र ने “सीता वनवास” नाटक लिखा राजपथ से उपेक्षित तथा सुदूर होने कारण यह नगर देश में पारसी थियेटर का तीसरा सशक्त केन्द्र होने के बावजूद, राष्ट्रीय मानचित्र पर स्थान नहीं पा सका ।

केवल चरखारी नरेश अरिमर्दन सिंह जू देव ही नहीं, उनकी महारानी (राजकुमारी नेपाल) भी रंग-प्रेमी थी। वह उनके साथ कलकत्ता नाटक देखने जाती थीं। एक बार यह राजदम्पत्ति अपने सेकेट्री यहिया अलवी तथा ए.डी.सी. उम्मेद खां के साथ कलकत्ता गये। न्यू अलफ्रेड कंपनी के कोरंथियन थियेटर्स में आगाहश्र का नाटक ‘आंख का नशा’ चल रहा था। बुकिंग काउन्टर से पता चला कि शो हाउस फुल हो चुका था।

महाराज इसी शो में नाटक देखना चाहते थे। उनका थियेटर प्रबंधकों से विवाद हो गया तथा बात की बात में उन्होंनं थियेटर के पारसी मालिक से मिलकर न्यू अल्फ्रेड कंपनी लगभग सवा लाख रूपये में खरीद ली। वह उसे पूरी साज सज्जा तथा प्रमुख कलाकारों के साथ चरखारी ले आये। प्रथम चरण में इस कंपनी को वहां के रावबाग पैलेस के निकट ठहराया गया।

चरखारी में भगवान गोवर्धननाथ का प्रसिद्ध मंदिर है। जो वहां के शासकों द्वारा प्रबंधित रहा है। इस मंदिर की ओर से कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा से पूर्णिमा तक विशाल व्यापारिक मेला लगता है, जिसमें बुन्देलखण्ड के दूर दराज से व्यापारी तथा दर्शक आते हैं। पहली बार इस मेले में प्रतिदिन एक नाटक मंचित किया गया।

इस प्रकार आगाहश्रृत पंद्रह नाटक मंचित किये गये। इससे इन नाटकों की लोकप्रियता पूरे क्षेत्र में फैल गयी । इससे उत्साहित चरखारी के रंगमण्डल के सदस्यों तथा कम्पनी के कलाकारों को मिलाकर ‘दी रायल ड्रामाटिक सोसायटी चरखारी’ की स्थापना की गयी ।

भव्य रंगशाला बनाने का निर्णय लिया गया। पहले इस कंपनी का नेतृत्व आगाहश्र के छोटे भाई आगा महमूद ‘हश्र’ कर रहे थे किन्तु तय हुआ कि आगाहश्र को ही निर्देशक बनने के लिये तैयार किया जावे। महाराज आगाहश्र से अभिभूत थे। उस समय चरखारी के तहसीलदार का वेतन प्रतिमाह चांदी के पच्चीस कलदार थे किन्तु आगाहश्र को पन्द्रह सौ चांदी के कलदार प्रतिमाह मानदेय देना तय किया गया। साथ ही चरखारी के विशिष्ट राजकीय अतिथि गृह “लेक व्यू पैलेस”, जिसे जनभाषा में ताल कोठी कहते हैं, उनको उपलब्ध कराया गया ।

कमल के सौन्दर्य-वैभव से भरपूर 56 हेक्टेयर में विस्तृत इस सरोवर का नैसर्गिक दृश्य मनभावन था। खान-पान तथा सुरा का व्यय राजकीय कोष से दिया जाना स्वीकार कर लिया गया। इन समस्त सुविधाओं तथा चरखारी के वैभव से प्रभावित आगाहश्र ने चरखारी आना स्वीकार कर लिया। वे जनवरी 1926 में चरखारी पहुंचे तथा मई 1928 तक उनके चरखारी में रहने की सूचना मिलती है।

चरखारी नरेश ने आगाहश्र से यह भी अनुरोध किया वे अपने चरखारी को ऐतिहासिक बनाने के लिये एक सुन्दर धार्मिक नाटक लिखें, उसका पूर्वाभ्यास कराकर तैयार करायें। साथ ही स्वयं निर्देशन करके उसके शो मंचित करायें। उक्त अनुरोध पर आगाहश्र ने ‘सीता वनवास’ तथा ‘रामअवतार’ नाटकों की रचना की। दो लिपिकों बरजोरे, (गुजराती) तथा गोकुलप्रसाद डुलिया (स्थानीय) द्वारा आगाहश्र के डिक्टेशन पर यह नाटक लिखा गया । इसके कापीराइट भी दि रायल ड्रामाटिकल सोसायिटी ने ले लिये थे। इसके साथ ही चरखारी नरेश ने उनसे एक भव्य रंगशाला के निर्माण का निर्देशन करने का भी अनुरोध किया।

नाट्य विशेषज्ञों तथा वास्तुविदों की देख-रेख में रंगशाला का निर्माण 1927 ई.  में दीपावली के पूर्व ही लगभग डेढ़ वर्ष में पूर्ण कर लिया गया । 1927 के गोवर्धन नाथ मेले में रंगशाला का शुभारम्भ हो गया। इसके निर्माण, सहयोगी व्यवस्थाओं तथा साज-सज्जा पर चरखारी नरेश अरिमर्दन सिंह जू देव ने उदारता से पैसा खर्च किया।

मंच लकड़ी की तखतों से पाटा गया था। श्रोताओं तक ध्वनि-प्रेषण की समुचित व्यवस्था करने तथा ध्वनि-ईकों रोकने हेतु ऊपर छत में मिट्टी के घड़े लटकाकर पांरपरिक विधि से ध्वनि – नियंत्रण की व्यवस्था की गयी थी । थियेटर की स्वनियंत्रित रंगदीपन व्यवस्था, यवनिका – विधान, दृश्य सज्जा एवं चित्रकला विभाग, वेश सज्जा विभाग, अभिनय विभाग नृत्य विभाग एवं संगीत विभाग थे। रंगदीपन के लिये श्रेष्ठतम् उपकरण लाये गये थे। मंच पर रंगदीपन एवं परिसर को निर्बाध आलोकित रखने हेतु हालैण्ड से आयातित पचास HP का जैनरेटर लगाया गया था।

यवनिका-विधान भी अभूतपूर्व था । यवनिकाओं पर जीवन्त दृश्य एवं चित्रावलियां बनाने के लिये दिल्ली तथा बुन्देलखण्ड के प्रसिद्ध चित्रकारों को लगाया गया था । यवनिकाओं को लपेटने के बजाय लकड़ी के फ्रेम में लगी पूरी सीनरी मंच के ऊपर चढ़ाने ओर नीचे गिराने की विशेष व्यवस्था थी। इसके लिये दृश्य सज्जा विभाग में तीस दृश्य-परिवर्तक (सीनरी शिफ्टर) कर्मचारी थे।

वेष-भूषा  विभाग के भी दो अनुभाग थे। एक वेष निर्माण का तथा दूसरा वेष-सज्जा का। वेष-भूषा निर्माण विभाग में कुशल दर्जियों की नियुक्ति की गयी थी। जो पात्रों के वस्त्र – विन्यास के अनुरूप, उनकी नाप की पोशाकें तैयार करते थे। अभिनय विभाग में लगभग 20 अभिनेता तथा 32 नर्तक थे। इसमें कुछ अभिनेता कलकत्ता से आये थे शेष चरखारी के थे।

महिलाओं की भूमिका के लिये एक अति सुन्दर युवक ‘साबिर कश्मीरी” को आगाहश्र अपने साथ लाये थे। उसकी महिलानुरूप भाव-भंगिमाओं और प्रस्तुति ने थियेटर को चर्चा का विषय बना दिया था। स्थानीय लोग उसका अभिनय देखने दूर-दूर से आते थे। चरखारी में महिला कलाकारों की व्यवस्था नहीं थी, इसलिये कुछ महिला कलाकार बाहर से बुलाये जाते थे । किन्तु उनमें अधिकांश नृत्यांगनायें ही होती थीं।

थियेटर का अपना संगीत विभाग था। जिसमें विभिन्न वाद्यों के सिद्धहस्त वादक नियुक्त किये गये थे। थियेटर में प्रमुख दायित्व निम्न प्रकार थे-

निर्देशक एवं लेखक-आगाहश्र कश्मीरी,
नृत्य निदेशक- मास्टर चमन लाल तथा नर्वदाशंकर,
सह निर्देशक एवं प्रभारी एक्टर विभाग-वाहिद अली,
रंगदीपन प्रभारी – अल्ताफ हुसैन,
दृश्य सज्जा (कला प्रभाग) प्रभारी – पुरूषोत्तम तथा गिरजा पेन्टर,
दृश्य सज्जा प्रभारी–रामगोपाल चौबे, बापे, मुन्नी बाबू,
वेष निर्माण – फूल खां, प्राम्टर – गोकुलप्रसाद दिहुलिया,
भण्डार प्रबंधक – जुगल प्रसाद श्रीवास्तव, शो प्रबंधक-शंकर प्रसाद त्रिपाठी,
सामान्य प्रबंधक-कामता प्रसाद सक्सेना,
स्वत्वाधिकारी – मु.यहिया अलवी, सेक्रेटरी चरखारी स्टेट ।

थियेटर में कुल मिलाकर एक सौ बीस से अधिक कलाकार एवं कार्यकर्ता थे। जिनके ऊपर चरखारी राज्य का साठ हजार रूपया वार्षिक बजट था। केवल सीता वनवास नाटक के लेखन और तैयारी पर पचास हजार रूपयों से अधिक व्यय किया गया था। इसे फिजूलखर्ची मानते हुये ब्रिटिश शासन के नौगांव स्थित पालिटिकल एजेन्ट ने आपत्ति की थी।

उसके द्वारा बार-बार परेशान किये जाने पर महाराजा अरिमनर्दन सिंह चरखारी छोड़कर दिल्ली चले गये और थियेटर अनाथ हो गया। बाद में बड़ी महारानी (नेपाल वाली महारानी) ने अपने व्यक्तिगत कोष से थियेटर चलाने की अनुमति दे दी। किन्तु थियेटर अधिक दिन चल नहीं सका। प्राचीन रंगशाला की सीनरियां, पोशाकें, सजावटी सामान कौड़ियों के भाव बेच डाले गये ।

स्वाधीनता के बाद हमीरपुर, जालौन के सांसद मन्नूलाल द्विवेदी ने स्थानीय कलाकारों को जोड़कर ‘दी जय हिन्द थियेट्रिकल कंपनी चरखारी’ की स्थापना की किन्तु धनाभाव के कारण यह कंपनी भी अकाल काल कवलित हो गयी। किन्तु स्थानीय कलाकार निराश नहीं हुये। वे फाका मस्ती के माहौल में भी मंच को जिन्दा रखने की कोशिश करते रहे किन्तु शासकीय संरक्षण के अभाव मं यह रंगमण्डल बिखर गया।

बुंदेलखंड का स्वांग 

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