Bundeli Lokgeet Parampara बुन्देली लोकगीत परम्परा

बुन्देलखंड के लोकजीवन मे उद्भावित तरह- तरह के भावों से उत्पन्न रसानुभूति रचनाओं को जन्म देती  हैं। वही लोकसाहित्य की रचना होती रही है। लोक के धर्म में लोकादर्श, लोकनीति और लोकभक्ति से सम्बद्ध लोकगीतो की रचना होती है। Bundeli Lokgeet Parampara मे चन्देल काल का एक विशिष्ट महत्त्व है।


बुन्देलखंड मे लोक के कर्म का अर्थ है वे कर्म, जिनमें गीतत्व की आवश्यकता पड़ती है, जैसे जाँते (चक्की) में गेहूँ या दूसरे अनाज पीसना, खेत में बौनी करना, निराना, फसल काटना आदि के साथ वे विशिष्ट कर्म, जो संस्कार या उत्सव के कारण करने पड़ते हैं और जिनमें एकल या समूह गीत गाए जाते हैं। कभी-कभी विदेशियों के आक्रमण से रक्षा के लिए लोक को तैयार करना पड़ता है, ऐसे संकट-काल में वीरता परक गीत रचे जाते हैं।

Bundeli Lokgeet Parampara में लोकादर्श, लोकनीति और लोकभक्ति से सम्बद्ध लोकगीत प्रचलित होते हैं। तात्पर्य यह है कि लोकजीवन के सभी तरह के पक्ष और सुख-दुख के सभी तरह के भाव इन मुक्तकों की वस्तु रही है, लेकिन एक विशिष्ट युग की विशिष्ट परिस्थितियों में उनके अनुकूल लोकसाहित्य की रचना होती रही है।

लोकसंगीत की दृष्टि से लोकगीतों के रचना-काल का निर्धारण गीतों के स्वर-सन्दर्भ पर निर्भर है, लेकिन कठिनाई यह है कि एक गीत को एक से अधिक स्वर-सन्दर्भों में गाया जा सकता है। जिन लोकगीतों की लोकधुनें निश्चित एवं स्थिर हैं, उनका काल-निर्धारण मोटे तौर पर सम्भव है।

यदि गहराई से विचार किया जाए, तो तीन-चार स्वरों के प्रयोग से रचा गया दिवारी गीत चन्देल-काल का है, लेकिन उसकी लोकधुन के आधार पर रचित आधुनिक काल के कवि का गीत चन्देल-काल का नहीं है। अतएव, स्वर-सन्दर्भों के ही आधार पर रचना-काल की खोज उचित नहीं है। लोकगीत की वस्तु, घटना, पात्र, शब्दभंडार, सांस्कृतिक प्रतीक, कालिक संकेत आदि की जाँच भी कर लेना जरूरी है।

चन्देल-काल में शान्ति-समृद्धि और वैभव-विलास का स्थायित्व रहा है इसलिए बुन्देलखंड की संस्कृति को विकसित करने का आधार मिला। लोक में संस्कारों का पल्लवन, उत्सवों का विकास और श्रंगार-सुख का भोग होता रहा है, जिससे मनोरंजन, साहित्य और कला को उपजाऊ भूमि मिली। यही कारण है कि आज भी चन्देल-काल का एक विशिष्ट महत्त्व है।

1182 ई. में पृथ्वीराज चैहान के आक्रमण से चन्देलों की शक्ति निर्बल पड़ गई थी, लेकिन वीरता का ऐसा ज्वर उमड़ा कि उसने चन्देल साम्राज्य के शान्त तटों को जाग्रत कर दिया और बाहरी शत्रुओं को संघर्ष का नया पाठ सिखा दिया। इस विशिष्ट परिस्थिति में लोककाव्य का सृजन दोनों दिशाओं में फैलता रहा।

एक दिशा थी सांस्कृतिक उत्थान को प्रतिनिधित्व करने वाले लोककाव्य की, जिसमें बुन्देली के संस्कारपरक, लोकोत्सवी, श्रंगारिक, लोकरंजक और ऋतुपरक लोकगीत रचे गए। दूसरी थी शत्रुओं के विरुद्ध संघर्ष को निरन्तर ताजा रखने के लिए अपने में शौर्य उत्पन्न करने की, जिससे वीररसपरक कथाकाव्यों, लोकगाथाओं और ओजस्वी मुक्तकों का जोर रहा। यहाँ हमने दोहा और गाहा पर आधारित दिवारी, सखया , फाग, राई, लमटेरा और देवीगीत का विकास हुआ।

यह निश्चित है कि इस जनपद का लोकजीवन षोडश संस्कारों (सोलह संस्कार) से सम्बद्ध हो चुका था और जब बुन्देली लोकभाषा का प्रचलन हुआ, इन संस्कारों से सम्बन्धित लोकगीतों की रचना प्रारम्भ हुई। संस्कार गीतों को दो वर्गों में विभाजित करने से उनकी वस्तु का अध्ययन सही रूप में हो सकेगा।

पहला वर्ग है जन्म संस्कार गीतों का, जिनमें संचत गीतों से लेकर जन गीतों तक के सभी गीतों का समावेश हो जाता है और उनमें जन्म से जन के लोकाचारों का र्वणन मिलता है।

दूसरा वर्ग है विवाह-गीतों का, जिनमें ओली भरने या सगाई गीतों से लेकर देवी-देवता-पूजन के गीतों तक विवाह-सम्बन्धी लोकाचारों का चित्रण रहता है।

तीसरा संस्कार है मृत्यु, लेकिन उसमें रुदन ही छाया रहता है, गीत का अवकाश ही नहीं रहता। मृत्यु को मोक्ष का द्वार समझनेवाले कबीरपंथियों में अवश्य वह उल्लास बसता है, जो गीत के लिए अनिवार्य है। ‘‘कबीर’’ के नाम पर और उनकी छाप का प्रयोग कर बहुत से पद रचे गए हैं।

 जन्मपरक लोकगीतों में तीन वर्ग स्पष्ट हैं
1 –  जन्मपूर्व गीत/ जन्म से पहले के गीत 
2 –  जन्मगीत / जन्म के समय के गीत 
3 –  जन्मोपरान्त गीत/ जन्म होने के बाद के गीत 

प्रथम वर्ग में पुत्राकांक्षा, गीत, बाँझ-वेदना-गीत, साधें गीत और प्रसवपीड़ा गीत आते हैं। दूसरे वर्ग के गीतों को सोहरे नाम दिया गया है और तीसरे वर्ग के गीत भी सोहरे एवं सरिया गीत के रूप में लोकप्रसिद्ध हैं।


सोने की हिरनी गढ़वाव रूपे के गबेलुवा महाराज,
बन बन देव छुड़ाय संचत तब हुइए महराज।’’

शायद उसे ‘‘सन्तति’’ का अपभ्रंश माना था। वस्तुतः ‘‘संचत’’ शब्द ‘‘संच’’ से निसत हुआ है, जिसका अर्थ है एकत्र करना अथवा रक्षण करना। जन्मपूर्व के सन्दर्भ में उसका दूसरा अर्थ रक्षण करना उचित है, क्योंकि गर्भवती के गर्भस्थ की रक्षा के लिए ही इन गीतों का गायन होता है। संचत गीत भावनात्मक गीत हैं, जिनमें एक ओर उल्लास और आनन्द है, तो दूसरी ओर पीड़ा और कारुणिक वेदना।

सन्तति की कामना के फलस्वरूप गर्भवती नारी को स्वप्न में चन्दा-सूरज, गंगा-जमुना और हरी दूब-केवड़ा दिखाई देते हैं, जोकि शुभशकुन और फल के प्रतीक हैं। उसके मन में मिश्री की डली सी धीरे-धीरे घुलती पुत्र प्राप्ति की लालसा की मिठास हर गीत को मधुर बना देती है। लेकिन देसरी और निपूती नारी सन्तति के अभाव के कारण उपेक्षित और अपमानित होकर निराशा की हर साँस से करुण तक को करुणा बना देती है।

देवी और शिव चन्देल-काल के प्रमुख देवता थे, जिनसे याचना में नारी की दीनता के पीछे मानसिक वेदना की छटपटाहट ही व्यक्त हुई है। पुत्र-कामना का कारण कुछ विद्वानों ने युद्ध के लिए पुरुषों की आवश्यकता माना है। उनका तर्क है कि हर युद्ध के बाद पुरुषों की संख्या कम हो जाती है और हर देश को अपनी रक्षा के लिए पुरुष की आवश्यकता पड़ती है।

देश के लिए पुत्र-कामना तो राष्ट्रीयता का एक अंग बन जाती है, लेकिन ऐसा मानना समुचित नहीं है। पुत्री से पिता को सिर झुकाना पड़ता है, समधी का सम्मान करना जरूरी होता है और दहेज प्रदान करने के साथ-साथ अपने अस्तित्व को नकारना पड़ता है। लेकिन लोकगीत में एक अलग कारण है।

मन जो कहै धिया जनमियो मोरे गजबज आहै बरात।
लटकत आबैं मोरे साजना, बिहँसत दुलहा दमाद।
घर मोरो रीतो अँगर मोरो रीतो सब सुख रीतो पेट।
साजन धिया लैकें निग गए
मन जो कहै पुत्रा जनमियो, मोरे गजबज जैहै बरात।
घर मोरो भर गओ अँगन मोरे भर गओ सब सुख भर गओ पेट।
बेटा बहू लैंकें आइयो

इस लोकगीत में पुत्री और पुत्र-कामना, दोनों की कल्पना है। पुत्री होने से घर में गाजे बाजे से बरात आएगी, समधी मस्तानी चाल से और दामाद दूल्हा हँसते हुए आएँगे, लेकिन दो-चार दिन की खुशी के बाद घर-आँगन और भी खाली हो जाएँगे।

पुत्र होने से घर से गाजेबाजे के साथ बरात जाएगी, लेकिन पुत्र बहू लेकर आता है, तो घर-आँगन भर जाएगा और सभी सुख भी भर जाएँगे। इस अन्तर के कारण ही पुत्र-कामना होती है। ‘साधें’ में गर्भवती नारी की साध पूरी की जाती है। वह जो भी इच्छा करती है, उसे अधिक महत्त्व देकर र्पूण करना परिवार का दायित्व समझा जाता है।

कौना की नार गरभ में मुधरियन पग धरै रे,
ललन-ललन कहै, होरल-होरल कहै।

प्रसव-पीड़ा के गीतों में गर्भवती नारी असहनीय पीड़ा को इसलिए सहती है कि उस पीड़ा की अनुभूति से आनन्द का प्रसव होना है।  ‘‘घुमड़ पीरें आउतीं महाराज’’  पीड़ाओं की घुमड़न उस नारी को आकुल कर देती है। वह अपनी सास, जेठानी और देवरानी को बुलाती है, लेकिन कुबोल कहने से सास, जेठानी एवं देवरानी नहीं आतीं।

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जन्मपरक गीतों में प्रसव-पीड़ा के बाद की आनन्दानुभूति ही व्यक्त हुई है। इस कारण सभी गीत भावप्रधान हैं। भाव की सहजता उसकी प्रधान विशेषता है। इस सहजता को कई बार भिन्न सन्दर्भों में डालकर प्रभावी बनाने की तकनीक लोकगीतों की धरोहर रही है। इसी प्रकार प्रश्नोत्तर शैली उपयोगी सिद्ध हुई है, जिसमें एक पंक्ति प्रश्न करते जिज्ञासा जगाती है, तो दूसरी उत्तर देकर उसे शान्त करती है।

मोरे अँगना में बजत बधैया, लाल ने जनम लओ। टेक।
काहे के छुरा नरा छीनों लाल के, काहे के असनान ?
सोने के छुरा छीनों लाल के, गंगाजल असनान, लाल में जनम…।


इस गीत-वर्ग में नवजात के भूलोटन, नरा छीनने आदि से लेकर जनेउ तक के छोटे-बड़े सभी लोकाचारों के गीत सम्मिलित हैं। बिना गीत के कोई लोकाचार नहीं होता, यहाँ तक कि प्रमुख लोकाचारों को गीतबद्ध कर दिया गया है।

सासो आबैं चरूआ धराबैं, चरूआ धराई नेंग माँगे,
अटरिया पिया तुम चढ़ जइयो…

जिठानी आबै लड्डू बँधाबै, लड्डू बँधाई नेंग माँगे
अटरिया पिया तुम चढ़ जइयो…

देवरानी आबै टाठी सजाबैं, टाठी सजाई नेंग माँगे,
अटरिया पिया तुम चढ़ जइयो…

ननदी आबें संतिया धराबैं…
ननदी आबैं काजर लगाबैं… देवर आबैं बंसी बजाबैं...

लोकाचारों का र्वणन इन लोकगीतों का प्रमुख उद्देश्य है। संस्कृत के श्लोकों से सामान्य वर्ग के लोगों को कठिनाई होने लगी थी। दूसरे, लोकाचारों का परिचय ऐसे ही सरल लोकगीतों के द्वारा सम्भव था। तीसरे, लोकाचारों की क्रियाओं और उनसे जुड़ी भावना का प्रकाशन गीतों से ही किया जा सकता था। इन कारणों से हर लोकाचार के गीत रचे गए और लोकप्रचलित हुए। लोकाचारों के जन्म-सम्बन्धी क्रिया-व्यापार, लोकरीतियाँ और मानवीय प्रवत्तियाँ प्रकाश में आती हैं।

आज दिन सोने कौ महराज। टेक
सोने के सब दिन सोने की रातें, सोने कौ दियला धराऔ महाराज।

आज दिन सोने कौ महराज।
गइया कौ गोबर मँगाओ बारी सजनी, ढिग दै आँगन लिपाऔ महराज।

आज दिन सोने कौ महराज।
ढिग दै आँगन लिपाऔ बारी सजनी, मुँतियन चैक पुराऔ महाराज।

आज दिन सोने कौ महराज।
मुँतियन चैक पुराऔ बारी सजनी, कंचन कलस धराऔ महाराज।

आज दिन सोने कौ महराज।
कंचन कलस धराऔ बारी सजनी, चंदन पटा धराऔ महाराज।

आज दिन सोने कौ महराज।
चंदन पटा धराऔ बारी सजनी, चैमुख दियला जराऔ महाराज।

आज दिन सोने कौ महराज।
चैमुख दियला जराआ बारी सजनी, कासी कै पंडित बंलाऔ महाराज।
आज दिन सोने कौ महराज।        

सोने के दियला जराओ, गोरी धन चैकै आई।
चंदन चैक पुराऔ, गोरी धन चैकै आई।
बामन बुलाऔ बेद दिखाऔ, गुन के गुनत लगाऔ।
सोने के दियला जराऔ

इन गीतों में दो परिवारों के सभी सदस्यों का चित्रण रहता है। गर्भवती नारी केन्द्रीय चरित्र है, जो समस्त कार्य-कलापों की धुरी की तरह संस्कार की गाड़ी चलाती रहती है। वह मातत्व की स्वामिनी है, चतुर भावज है और गृहस्थ पत्नी। लेकिन इन गीतों में भौजी और ननद के व्यंग्य-विनोद तथा भौजी-देवर के हास्य-विनोद, दोनों भौजी के व्यक्तित्व को रेखांकित करते हैं।

तुम तो अटरिया चढ़ जइयो, नेंग पिया हम दै दैहें,
सासो जू आबैं, चरूआ धराबैं, चरूआ धराई नेंग माँगें,

अटरिया पिया तुम चढ़ जइयो, नेंग पिया हम दै दैहें,
हम सो तुमारे सासो ललना तुमारो, लड़का तुमारो घर नइयाँ,

कोठरियो में तारो डरो है। तुम…

 माँगो-माँगो री ननद बाई जो माँगो सो देउँ,
अन्न तो जिन माँगो बाई बंडा को सिंगार री बासन तो जिन माँगो,

बाई चैका को सिंगार री
जेवर तो जिन माँगो बाई,
डब्बन कौ सिंगार री …

उक्त पंक्तियों में भौजी की बात चीत करने की कुशलता के भी दर्शन होते हैं। लोकसाहित्य में औचित्य की चिन्ता भले ही न करे, पर उससे मनोदशा और मानवीय प्रवृत्ति के दर्शन होते हैं। भौजी लड्डू देने में भी उसी प्रवत्ति से शासित है।

सोंठ के लडुआ चिरपरे रे।
लडुआ बँधाबे जिठानी मोरी आई
बिन्ना तनक सो लडुआ हमें दै राखो
लडुआ फोरत मोरी बैयाँ दुखत है
सेंगो दओ नईं जाय।

लड्डू फोड़ने से हाथ या कौंचा दुखना उचित नहीं कहा जा सकता, लेकिन जिठानी, देवरानी, सास आदि उस मनोवृत्ति को समझकर मर्यादित रहती हैं, नहीं तो वे कह सकती थीं कि….

लडुआ फोरत तोरी बैंया दुखत है
पै मोरी दुखत नइयाँ बैन।

छोटे-बड़े कार्यों में मर्यादा की रक्षा भारतीय परिवार के संगठन में महत्त्वर्पूण भूमिका अदा करती है। इसीलिए कंगन माँगने की ननद की हठ जल्दी ही शान्त हो जाती है और देवर भी ललना (नवजात) को पाकर सन्तुष्ट रहता है।

किसी-किसी गगरी उतारने सम्बन्धी गीत में देवर-भौजी की रसिक सम्बन्ध की झलक मिलती है, जो मध्ययुग के गीतों में भी मुखर रही है। ऐसे भावनात्मक गीतों में प्रेम प्रधान रहा है, लेकिन नायिका स्वकीया रही है और वह पति के प्रति प्रेम का फल पाकर एकनिष्ठा की भावना से उल्लसित है।

छठ (षष्ठी) और कूप-पूजन /कुआ पूजन के गीतों में नवजात पुत्र के लिए रक्षा की भावना प्रमुख है। लेकिन कूप-पूजन में जल भरने के कार्य का प्रारंभ है। वैसे तो जल-पूजन के समय अपने स्तनों का दूध कूपजल को अर्पित करते हुए वह स्तनों का सदा भरे रहने’ का वरदान चाहती है। जनेउ गीतों में भी विष्णु, ब्रह्मा ,शिव ,अग्नि, पवन आदि देवों का जनेउ में वास जनेउ -संस्कार को धार्मिकता से जोड़ देता है।

चंगेरया पलना के गीत (लोरी गीत) वात्सल्यपरक होते हैं। उनमें माता का मातृत्व तरंगायित रहता है। वस्तुतः दाम्पत्य-प्रेम की भावना बच्चे के जन्म के बाद पुत्र या पुत्री की ओर मार्गीकृत हो जाती है। इन गीतों में नवजात को चंगेर/चंगेल, झूला या पालना में झुलाकर उसकी किलकारियों और फिर नींद की बलैयाँ ली जाती हैं। पहले मान्य, जेठी-बड़ीं और सास-ससुर तथा बाद में माता वत्सल भाव में डूबकर गा उठती है…।

सो जा बारे वीर,
वीर की बलैयाँ ले जा यमुना के तीर
ताती-ताती पुड़ी बनाई
ओई में डारो घी
पी ले मोरे बारे भइया
मोरो जुड़ाय जाए जी
सो जा बारे वीर
बीर की बलैयाँ ले जा जमुना के तीर
एक कटोरा दूध जमाओ
और बनाई खीर
ले ले मोरे बारे भइया
मोरो जुड़ाय जाए जी
सो जा बारे बीर
बीर की बलैयाँ ले जा जमुना के तीर
बरा पे डारो पालना
पीपर पर डारी डोर
सो जा मोरे बारे भइया
मैं लाऊँ गगरिया बोर
सो जा बारे वीर,
वीर की बलैयाँ ले जा यमुना के तीर


विवाह गीत विभिन्न लोकाचारों को केन्द्र में रखकर लिखे गए हैं, इसीलिए उनमें विचार-विमर्श और लग्न से लेकर विदा गीत तक के संस्कार सम्मिलित हैं।
1- सामाजिक गीत (Social song)
2- कर्मकांडी गीत (Ritual Songs)
3-  प्रेमपरक गीत (Romantic Songs)
4- वर्णन प्रधान गीत (description oriented song)
5-  रक्षापरक गीत (Protection oriented Songs)
6-  यथार्थपरक गीत (Realistic Songs)
7- व्यंग्यविनोदपरक गीत (Satirical Humorous Songs)


विवाहपरक लोकगीत मूलतः सामाजिक होते हैं, उनमें पारिवारिक सम्बन्धों की बुनावट सामाजिक उद्देश्य के तहत रहती है। यही कारण है कि वे किसी परिवार की वैयक्तिकता का चित्रण नहीं करते, वरन् परिवार के सामाजिक रूप की रेखाएँ इस ढंग से अंकित करते हैं कि सामाजिक मर्यादाएँ, संयम और आदर्श सुरक्षित रहें। इसका अर्थ यह नहीं है कि उन गीतों में सामाजिक यथार्थ के लिए कोई स्थान नहीं है। वस्तुतः वे यथार्थ और आदर्श के ऐसे मिले-जुले रूप का प्रतिनिधित्व करते हैं, जैसा सामाजिक जीवन में है। इसीलिए किसी भी तरह की व्यक्तिगतता उन्हें स्वीकार्य नहीं।

सोउत माया झँझकि उठि बैठी,
धिया है ब्याहन जोग।
देस निकर स्वामी धिया वर खोजौ,
धिया भई ब्याहन जोग।
पासगाँव ढूँड़ो दूरगाँव ढूँड़ो,
ढूँड़ो नगर गुजरात।
कतहूँ न मिलै तोर धिया वर सुन्दर,
तोर धिया रै है कुँआर।

जिनके घर में सियानी है बिटिया,
बाय भताई खों सोच मोरे लाल।
माया कहै कुँअला गिर जैहै,
बाबुल कहै बिष खायँ मोरे लाल।
बीरन कहै जोगी बन जैहै,
भौजी कहै कितै जायँ मोरे लाल।

उक्त तीनों अंगों में समाज के हर परिवार की यही समस्या रही है, जिसका तनाव परिवार के हर सदस्य पर अंकित है। लेकिन विवाह पक्का होने पर उल्लास जैसे  पड़ता है। अभाव या तनाव की मानसिकता का कोई प्रश्न ही नहीं, कोई ग्रन्थि नहीं और न कोई दुराव-छिपाव। सामाजिक जागरूकता, संगठन और एकता में अग्रणी काव्य-चेतना। चन्देल-काल में चाहे जितनी समृद्धि और शान्ति रही हो, पर ये गीत पारिवारिक स्थितियों के दर्पण सिद्ध हुए हैं।

कई गीतों में कर्मकांड के प्रारम्भिक या तैयारी का र्वणन है, तो उनमें सुरहिन गाय का गोबर मँगाना, ढिक देकर आँगन लिपवाना, मोतियों का चैक पुरवाना, कंचन कलश और चंदन के पटे रखवाना का क्रमबद्ध संकेत है। लेकिन इन गीतों में कर्मकांडी उझलाव और कट्टरता नहीं है। पुत्री अपने पिता का बहुत ध्यान रखती है, वह कह देती है कि अंकित वस्तुएँ न पूजें, तो उनकी जगहों में स्यामा गाय का गोबर, चून (आटे) का चैक, छेवले के पटे और मिट्टी के कलश की व्यवस्था कर दें..।

मुतियन चैक नै पूजै मोरे बाबुल,
चून को चैक पुराव।
चंदन पटरी नै पूजै मोरे बाबुल,
छेउले की पटरी मँगाव।
कंचन कलसा नै पूजै मोरे बाबुल,
माटी के कलसा धराव।…


विवाह गीतों में भावुकता के कई रूप उदित होते हैं, जो पारिवारिक रिश्तों से छन-छनकर प्रेमभाव की किरनें प्रकाशित करते हैं। माता-पिता का पुत्री और पुत्र के प्रति, पुत्री का माता-पिता के प्रति, दूल्हा का दुलहिन और दुलहिन का दूल्हा के प्रति, भाई का बहिन और बहिन का भाई के प्रति, भौजी का ननद के प्रति और महिलाओं का साजन एवं बरातियों के प्रति प्रेम सामाजिक प्रेम की भावना है, जिसमें भाँति-भाँति के भाव-पुष्प एक साथ सुगन्ध और सौंदर्य बिखेरते हैं। विदा-गीतों में प्रेम का चरमोत्कर्ष होता है…।

तुम खों तो छोड़े बीरन महल अटारी,
हम खाँ बदे परदेस बीरन मोरे।
बाबुल के अँगना बीरन छूट गए हैं,
हम खाँ लिखे परदेस बीरन मोरे।
संग की सखियाँ बीरन छूट गयी हैं,
हम खाँ लगे परदेस बीरन मोरे।
हमरे खेलन की धरी हैं पुतरियाँ,
जमना में दइयो सिराय बीरन मोरे।…

विवाह-गीतों में वर्णन प्रधान गीत इसलिए महत्त्वर्पूण हैं कि उनमें दूल्हा-दुलहिन का सौन्दर्य-चित्रण /सौंदर्य का बखान है हुआ है। विवाह के पूर्व ही दोनों को पारिवारिक महत्त्व मिलने लगता है और दोनों अपने स्वप्नों में उड़कर नए घरौंदे बनाने में लीन रहते हैं। लोकाचार-सम्बन्धी गीत भी वर्णप्रधान होने पर इसी कोटि में आते हैं। उनकी विशेषता है लोकाचार की क्रियाओं के साथ उनका बखान, जो उनके सांस्कृतिक महत्त्व की घोषणा करता है।

कै मोरी बिन्नू तुम साँचे की ढारी,
कै गढ़ी है चतुर सुनार।
माया की कुखियाँ जनम लये हैं,
रूप दये करतार।

कौना ने तेल चढ़ाओ को रये बेंटुलिया ?
बहिना नें तेल चढ़ाओ भउआ रये बेंटुलिया।
चढ़ गओ तेल फुलेल छुटक रईं पाँखुरियाँ।


चन्देल-काल में विवाह के समय वर पक्ष के बराती अस्त्रा-शस्त्रा से सजकर जाते थे, क्योंकि विवाह के लोकाचारों के मध्य कभी युद्ध की घटना सम्भव थी। वत्सराज के ‘‘रूपकषटकम्’’ और ‘‘आल्हा’’ गाथाएँ नारी के अपहरण और बलात् विवाह के साथ-साथ विवाह में युद्ध का साक्ष्य उपस्थित करती हैं। इसी कारण दूल्हे की राछ फिरने का रिवाज है।

राछ घोड़े पर सवार होकर नगर के विशिष्ट द्वारों पर जाती थी, पीछे नारियों का समूह राछ गीत अर्थात् रक्षापरक गीत गाता चलता था। दूल्हे की कटि से तलवार लटकाने का आज भी प्रचलन है। घर से जाते समय ‘‘मूसल नेंग’’ भी रक्षा के लिए शक्ति का प्रतीक है और माँ का दूध पिलाने का नेंग भी दूध की लाज रखने के संकल्प का द्योतक है। चन्देल-काल में वीरगीतों का प्रचलन था और वे जागरण का सन्देश देकर मध्ययुग तक प्रेरित करते रहे हैं, लेकिन वे राछ गीत अब अदृश्य हो गए हैं।


बहुधा आदर्शपरकता के इन्द्रजाल में गीतों की यथार्थपरकता भुला दी जाती है, लेकिन लोककवि और लोक दोनों स्पष्टवक्ता हैं और वे किसी बुराई या बुरे को अथवा दोष या दोषी को छोड़ते नहीं हैं। माध्यम भले ही व्यंग्य, विनोद और उपालम्भ(फरियाद) हो। परिवार के सदस्यों में ननद-भौजी, सौत और बाहरी पाखंडियों में जोगी के सम्बन्ध में यथार्थपरक पंक्तियाँ यत्र-तत्र खरपतवार की तरह समाज के तत्कालीन स्वरूप को सन्तुलन प्रदान करती हैं।
चंचल चतुर सुघर नर भौंरा,
पर घर गमन नै करियो बे।
कै हाँ हाँ बे, कै हूँ हूँ बे…।
जिन घर हीरई हीरा उपजें,
उन घर कभऊ न जइयो बे। कै.।
जिन बागन दुइ कलियन भौरी,
उन बागन न जइयो बे। कै.।
पंख तुमाये बीद जात हैं,
फिन कैसेंउड़ जैहो बे। कै.।
जग में जौ औगुन सोई करहौ,
अगिन खंब बँध जैहौ बे। कै.।

अग्नि-खंभ से बाँध देने का दंड बहुत पुराना है, लेकिन परस्त्री -गमन के लिए यह दंड सामाजिक चेतना जगाने में सफल हुआ है। भौजी का कठोर हृदय और सौत की ईष्र्या का यथार्थ इन गीतों में कई जगह मिलता है, जो पारिवारिक अनुबन्धों को झकझोरता है।


प्राचीनकाल में आनन्द-उल्लास का माध्यम व्यंग्य-विनोद भी था। राछ, चीकट, भोजन आदि के समय और कुछ लोकाचारों में व्यंग्य-विनोद की बानगी मिलती है। राछ में दूल्हा के प्रति, चीकट में बहिन-भाई के प्रति एवं भोजन में समधी और बरातियों के प्रति संयमित व्यंग्यों का उपयोग हुआ है। आल्हा गाथा में जादू के भी प्रसंग हैं, यहाँ एक गीत में टोना के माध्यम से व्यंग्य किया गया है ….।

माई री मोरी टोना करहों।
कौआ की जीभ कबूतर के पखना,
उड़त चिरैया के नैन री। माई.।
नैना बाँधों बे नेन न चलैहैं,
तकैं न पराई नार री। भाई.।

संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल

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Bundeli Jhalak: The Cultural Archive of Bundelkhand. Bundeli Jhalak Tries to Preserve and Promote the Folk Art and Culture of Bundelkhand and to reach out to all the masses so that the basic, Cultural and Aesthetic values and concepts related to Art and Culture can be kept alive in the public mind.
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