बुन्देलखंड की लोककथा लोक द्वारा लोक के लिए लोक से कही जाती है। गाँवों की अथाई में नीम या बरगद के नीचे रात की ब्यारी (Dinner) के बाद, लोककथा कहने-सुनने का चलन है। Bundeli Lok-Katha Parampara गाँवों से शुरू होती है । Bundelkhand के गाँवों की अथाई में नीम या बरगद के नीचे रात की ब्यारी के बाद, लोककथा कहने-सुनने का चलन है या फिर बाई-दादी अपने पुत्रों-पुत्रियों और नातियों-नातिनों को चारपाई पर लेटे हुए लोककथाएँ सुनाती हैं।
लोककथा वह कथा है जो लोक द्वारा लोक के लिए लोक से कही जाती है। लोक द्वारा लोक से कहने का अर्थ है लोक की वाचिक परम्परा की अनिवार्यता। Bundeli Lok-Katha Parampara लोकमुख में रहती है।
लोककथा के लिए वक्ता-श्रोता दोनों ही अनिवार्य हैं। वक्ता एक होता है, पर श्रोता कई हो सकते हैं। गाँवों की अथाई में नीम या बरगद के नीचे रात की ब्यारी के बाद, लोककथा कहने-सुनने का चलन है या फिर बाई-दादी अपने पुत्रों-पुत्रियों और नातियों-नातिनों को चारपाई पर लेटे हुए लोककथाएँ सुनाती हैं। बहरहाल, लोक-कथा में कहने-सुनने की क्रियाएँ जरूरी हैं। यह बात अलग है कि सत्यनारायण की कथा या गणेश चौथ की कथा पढ़कर भी कही जाती है।
कथा वही है जो कही जाय। कथक या कथिक या कहने वाला यदि कथक्कड़ है, तो उसे कई कथाएँ याद रहती हैं। प्रश्न यह है कि लोककथा आती कहाँ से है। उसकी रचना कैसे होती है ? अगर सूक्ष्मता से देखा जाए, तो लोककथा की रचना-प्रक्रिया में दो-तीन स्थितियाँ प्रमुख हैं। पहली स्थिति कथा से लोककथा तक की यात्रा है। कथाकार कथा की रचना करता है अथवा संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश के ग्रन्थों में दी गई कथा को लोकभाषा में अनूदित करता है, तब वह लोककथा नहीं होती।
कथा को लोककथा होने के लिए लोकमुख में आना पड़ता है और लोकमुख में वही कथा आ पाती है, जिसमें लोकत्व होता है। लोकत्व लोकतत्त्वों से बनता है और उन्हीं से कथा को लोकप्रियता मिलती है। लोक के लिए जो कथा उस समय उपयोगी होती है, वह लोक द्वारा ग्रहणीय होने से लोकमुख में आ जाती है और फिर लोक के साँचे में ढलकर लोककथा बन जाती है।
कुछ लोककथाएँ तत्कालीन लोक के लिए तो उपयोगी होती हैं, लेकिन आगत लोक में उपयोगी न होने के कारण अपने-आप गौण हो जाती हैं और धीरे-धीरे लोकमुख से विलग हो जाती हैं। कभी-कभी उनके कथानक में निहित कोई घटना या कोई अंश इतना सबल होता है या उपयोगी ठहरता है अथवा उसमें शाश्वतता की गुणवत्ता होती है, जिसके कारण वह दूसरी लोककथा का केन्द्र बनकर अपने चारों तरफ एक दूसरा कथावृत्त बुन लेता है।
उदाहरण के लिए, ‘रानी की चतुराई’ नामक बुन्देली लोककथा में मर्द की परीक्षा शाश्वत तत्त्व है, उसी को लेकर एक-दूसरी लोककथा ‘नाक चूमा दै चली’ का इतिवृत्त है। कौन सी कथा पुरानी है, यह कहना कठिन है। लोककथा की भाषा लोकभाषा और शैली अधिकतर इतिवृत्तात्मक होती है। अलंकरण और चित्र सहजतः ही आते रहते हैं। बहरहाल, सब कुछ अकृत्रिम और नसैर्गिक-सा रहता है, बनावट और बुनावट के लिए कोई अवकाश नहीं।
लोक के लिए का आशय है लोक को दृष्टि में रखकर लोक के लिए उपयोगी। लोककथा किसी खास वर्ग, जाति, समूह और धर्म इत्यादि के लिए नहीं होती। वह किसी व्यक्तिहित के लिए नहीं कही जाती, वरन् उसमें लोकहित ही निहित रहता है। लोककथा के अन्त में ‘‘जैसी उनकी मंसा पूरी करी, बैसी सबकी करियो’’ या ‘‘जैसे उनके दिन फिरे, बैसेई सबके फिरें’’ जैसी पंक्तियोँ लोकत्व की प्रतीक की हैं।
लोक से का आशय बालक-बालिका से लेकर वृद्ध-वृद्धा और रंक से राजा तक सभी वर्ग, जाति, धर्म आदि के लोक आते हैं। श्रोता का अपना मनोविज्ञान होता है, जिसे वक्ता को समझना पड़ता है। कभी-कभी वक्ता श्रोता के लिए उसके मन के अनुकूल कल्पना के उपयोग से कोई प्रसंग या घटना गढ़ लेता है।
आशय यह है कि वह लोककथा कहते हुए उसमें एकाध घटना बढ़ा या कमा भी देता है। कथक कभी-कभी इतना कुशल होता है कि एक लोककथा को दूसरी-तीसरी से सम्बद्ध करता हुआ वह इतनी लम्बी कथा कह जाता है, जितनी एक सोचे-समझे अन्तराल के लिए ठीक बैठती है। श्रोता भी हुंकारा देता नहीं थकता। वस्तुतः कथा का रस कुछ विचित्रा ही होता है।
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लोककथा के लिए Bundelkhand का कथक किस्सा या किसा कहता है। मेरी समझ में यह मध्ययुग की देन है, क्योंकि किस्सा अरबी का शब्द है और उसी से उसका बुन्देलीकरण ‘किसा’ हुआ है। बुन्देली में फारसी, अरबी आदि विदेशी शब्दों को बुन्देलीकरण के बाद ही अपनाया गया है। लोककथा का प्रारम्भ कथक इस प्रकार करता है…।
किस्सा सी झूठीं, बातें-सी मीठीं, घरी-घरी को बिसराम, जानें सीताराम। सक्कर का घोड़ा, सकरपारे की लगाम, छोड़ देव नदिया के बीच, चला जाय छमाछम छमाछम। ई पार घोड़ा, ऊ पार घास, न घोड़ा घास कों खाय, न घास घोड़ा कों खाय। इत्ते के बीच में, लगाईं घींच में, तन आए रीत में, तब धर कड़ीरे कीच में, झट आ गए बस रीत में । हँसिया सी सीधी, तकुआ सी टेढ़ी, पहला सौ कर्रौ, पथरा सौ कौंरो, हाँथ भर ककरी, नौ हाँथ बीजा, होय होय खेरे गुन होय।
जरिया को काँटो, बारा हाँत लाँबो, आदो छिरिया नें चर लओ, आदे पै बसे तीन गाँव, एक जर, एक खूजर, एक में मान्सई नइयाँ। जीमें मान्सई नइयाँ, में बसे तीन कुम्हार, एक ठूँठा, एक लूला, एक के हाँतई नइयाँ। जीके हाँतई नइयाँ, नें रचीं तीन हँड़ियाँ, एक ओंगू, एक बोंगू, एक के ओंठई नइया। जीमें ओंठई नइयाँ, में चुरोए तीन चाँउर, एक अच्चो, एक कच्चो, एक चुरो नइयाँ। जोन चुरो नइयाँ, में न्यौते तीन बामन, एक अफरो, एक डफरो, एक खों भूखई नइयाँ।
जो कोउ इन बातन खों झूठी समझै, बो राजा को हाँड़ देबै उर समाज खों रोटी। ना कैबे बारे को दोख, ना सुनबे बारे को। दोख तो खों, जीनें किसा बनाकें ठाँड़ी करी। दोख तो खों सोई नइयाँ, काए सें कै नें तो समै काटबे के लानें बनाकें ठाँड़ी करी। कैता तो कैतई रात, सुनता सावधान चइए।…
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किस्सन सीं झूठीं, बातन सें मीठीं, घरी-घरी को विसराम, जानै सीताराम। सक्कर को घोड़ा, सकरपारे की लगाम, छोड़ दो दरिया में, चलो जाय छमाछम-छमाछम। ई पार घोड़ा, ऊ पार घाँस, ना घोड़ा घाँस खों खाय, ना घाँस घोड़ा खों खाय। इतने के बीच में दो, लगाई घींच में, तौउ न आये रीत में, तो घर कड़ोरो कीच में, सोउ झट्टईं आ गए रीति में। हँसिया सो सूदो, तकुआ सो टेड़ो, पाला सों कर्रौ, पथरा सो कौरो।
हाँत भर ककरी, नो हाँत बीजा, होय-होय खेरे गुन खोय। जरिया को कांटों, अठारा हाँत लाँचौ, आदौ छिरिया ने खा लओ। आदे पै बसे तीन गाँव, एक ऊजर, एक गूजर, एक में मान्सई नइँयाँ। जी कें हाँतइ नइँयाँ, ऊने बनाई तीन हड़ियाँ। एक ओंगू, एक बोंगू, एक के औठई नइँयाँ। जीमे औठई नइँयाँ, ऊमें चुरैए तीन चाँउर। एक ऊंचो, एक कूँचो, एक पै आँचई नँइँ आई।
जी में न्यौते तीन बामन, एक अफरो, एक डफरो, एक खों भूँकई नइँयाँ। पोनी को डंका, बतासे को नगाड़ों, जब बजै जब किडी, धुम-किडी धुम। जो इन बातन खों झूठीं माने, तो राजा को दाँड़ और जात खों रोटी। कैबे बारो कैरव, सुनबे बारो चौकन्ना चइये। ना कैबे बारे खों दोस, न सुनवे वारे खो दोस/दोस ऊखों, जीने किसा बनाकें ठांडी करी।
कहानी की रोचकता कहानी कहने वाले पर बहुत निर्भर करती है। उसके कहने का ढंग नाटकीय लहजे, हाव-भावों का प्रदर्शन, जैसे आँखें मटका कर इशारे करना, नाक-भौं सिकोड़ना तथा जोश की भाव भंगिमा का प्रदर्शन जितना श्रेष्ठ होगा, कहानी की रोचकता और श्रोताओं का कोतूहल उतना ही अधिक बढ़ता जायेगा। जब ऐसी स्थिति कहानी कहने वाला उत्पन्न कर देता है, तब श्रोता चाहता है कि कहानी निरंतर चलती रहे। वह पूरी रात समाप्त न हो।
कहानी कहने वाले व्यक्ति का एक सहायक होता है जो कहानी की कथावस्तु, घटित घटनाओं, असमंजस, कहानी में आने वाले उतार-चढ़ाव के अनुसार टिप्पणी (कमेन्ट्स) कर स्थिति अनुसार हूँका भरकर कहानी को आगे बढ़ाने एवं उसकी रोचकता में वृद्धि करने में सहायक होता है। कहानी के समापन पर ‘बाड़ई ने बनाई टिकटी, हमाई किसा निपटी’ अथवा ‘कथा लेत विसराम सुनबे बारन खों सीताराम’ कहा जाता है।
लोककथा में नायिका या सुन्दर युवती का वर्णन भी काव्यात्मक होता है उदाहरण …… बो कैसी लगत। बारन बारन मोती गुहै, सोरा सिंगार करै, बारा आभूषन पेंनें, बिछिया अनोटा पैरें, सेंदुर सुरंग लगाएँ, मोंतिन सें माँग भरें, केसर कस्तूरी को लेप करें, पान खाएँ, अतर लगाएँ, लोंगन लायची को बटुवा कमर में खोंसें।…को बदन कैसो लगत। होरी कैसी झार, नैनू कैसो लोंदा, पूनो कैसो चन्दा, दिवारी कैसो दिया, कनैर कैसी डार, लफ लफ में दूनर हो जाय, गरे सें पान की पीक दिखाए, कंकड़ मारे सें लोहू कढ़ आय, फूँक मारो तो अकासै उड़ जाय, बीच में खेंचे सें गाँठ पड़ जाय, पछारे सें नागिन-सी लिपट जाय, पलंग पै हिरा जाय तो बारा बरष ढूँड़ैं ना मिलै।…
नायक का वर्णन तो ऐसा लगता है, जैसे कविता साकार होकर बैठ गई हो गुलाब कैसो फूल, चम्पा कैसो रंग, केर कैसो गाभो, सूरज कैसी जोत, सुआ कैसी नाक, भौंरा कैसे बार, सिर पै जरी का मंडील बाँधें, बदन पै तीन खाव का अंगारू मिसरू का पैजामा पैरें, कमर में रेसमी फेंटा बाँधें, जीमें चाँदी की मूठ का पेशकब्ज खुसो। कान में दो बड़े-बड़े मोती लगो बाला, गरे में सूबेदारी कंठा, पाँवन में जड़ा तोड़ा पैरें। हाँथ में लफलफाती छड़ी, पाँवन में लड़ी के चर्राटेदार जूता पैरें। मौं में पान को बीड़ा चबाएँ दैल छबीला गवड़ू जवान।
लोककथाओं के वर्णन इसी तरह की लच्छेदार भाषा में होते हैं, जो मध्ययुगीन अलंकरण के साक्षी हैं। कथाओं के बीच में दोहा या चैबोला या तो पात्रों के संवाद रूप में आते हैं या फिर भाव-सौन्दर्य के लिए। उदात्त भावों और शिक्षाओं का समावेश श्रोताओं को प्रभावित करने में सफल है। असम्भव घटनाएँ हवाई कल्पना की उपज हैं, जो कल्पना की सम्भावित दौड़ की माप होती हैं।
यह निश्चित है कि वक्ता जितना योग्य, बौद्धिक और कुशल होगा, उसके द्वारा सामान्य लोककथा की कथा, कथानक आदि में उतना ही निखार आएगा। श्रोताओं के स्तर, उनकी जिज्ञासा, लगन और ग्रहणशीलता का असर भी वक्ता पर पड़ता है। कथा से उनके जुड़ाव के लिए उनकी उत्सुकता की त प्ति और मनोरंजन जरूरी है। ‘किस्सा सी झूठीं’ में चाहे जितना झूठ हो, लेकिन वह सच के तने पर खड़ा होता है, सच के बीज से उगकर। इसी सच के लिए लोककथा की सार्थकता होती है।
हर लोककथा की एक मानसिकता होती है, मनोविज्ञान से सम्पुष्ट। दादी या नानी की कथाओं में बाल-मनोविज्ञान की दृष्टि होती है। चरवाहा, गड़रिया, किसान आदि जंगल मे बैठकर श्रम-परिहार के लिए कथाएँ सुनाते हैं।
हर अंचल की कथा में आंचलिक संस्कृति के चित्र लिखे होते हैं। हर कथा में सम्बन्धों की नई दुनिया होती है। राक्षस की कन्या राजकुमार से सहयोग कर अपने पिता तक को मृत्यु के मुख में पहुँचा देती है। तोता और मैना कथा के नायक की सहायता करते हैं। या तो वे भेद खोल देते हैं या अपने प्राण देकर नायक का उपकार करते हैं। देवता और मनुष्य का सम्बन्ध भी नई दिशा खोलता है।
आशय यह है कि हर कथा का अपना उद्देश्य होता है, जिसकी सार्थकतामयी सिद्धि के लिए अनुरूप वस्तु, पात्र और घटनाएँ बुनी जाती हैं। इस प्रकार हर लोककथा का निजी व्यक्तित्व होता है, जो अपनी मौलिकता में दूसरी कथा से भिन्नता रखता है।
लोककथाओं की विविधताओं के बावजूद उनमें एकता की प्रबलता रहती है। उसका कारण है लोक की निश्चित लोकमान्यताएँ। अंचल के रीति-रिवाज, संस्कार, लोकमूल्य, लोकविश्वास आदि भी एकता के सूत्रों को मजबूत करते हैं। स्थानीय और सामयिक रंग भी आन्तरिक एकत्व लाते हैं। उसकी घटनाएँ अधिकतर काल्पनिक, रोमांचक और नीतिपरक होती हैं, जिनमें विभिन्न पात्रों मनुष्य, पशु-पक्षी, देवता, राक्षस, राजा-महराजा आदि के व्यक्तित्व बँधे रहते हैं।
संवाद लोकसहज, वातावरण आंचलिक, भाषा सरल लोकभाषा और लोकसहज कथनशैली, सब सुखान्त, आशावादी और आदर्शवादी अन्त से जुड़े रहते हैं। कथा के अन्त में भरत वाक्य है कि ‘जैसी उनकी आस पूजी, वैसई सबकी पूजै’, ‘जैसें उनकी राखी, वैसई सबकी राखियो’ आदि। अपना ही कल्याण नहीं, वरन् सबका कल्याण। यही भारतीय संस्कृति की दृष्टि, जो सबको एकत्व में बाँधती है।
लोककथाओं के कथानकों का ढाँचा कथानकरूढ़ियों या अभिप्रायों पर आधारित होता है। दैत्य या दानव या कथा-नायक के प्राण किसी वस्तु में रहना, जिसके रूप-रंग में परिवर्तन से नायक को संकट और नष्ट होने से नायक का निधन, किसी रहस्य को प्रकट करने की वर्जना और प्रकट करने से मनुष्य पत्थर का बन जाना, परकाय-प्रवेश, सौतेली माँ का पुत्र को देश निकाला, नायक का पशु-पक्षियों की बोली समझना, संकटग्रस्त नायक का पात्रा को पशु-पक्षियों द्वारा सहायता, पुनर्जन्म, कर्मों का फल मिलना, पार्वती का छिंगुरी के अमृत से मृत को जीवित करना।
इसी प्रकार भाग्य की प्रधानता, स्त्री का पातिव्रत्य या सतीत्व, सत की परीक्षा, संकट की पूर्व सूचना, जैसे दूध फटना या पौधे का मुर्झाना, अशरीरी आत्माओं का सहयोग, बिछुड़ों का पुनर्मिलन, जादू-टोना, भाई-बहिन का अटूट प्रेम और बहिन का भाई के संकट के समय सहायता देना आदि न जाने कितने पुराने-नए अभिप्राय हैं, जो देश-काल के अनुकूल में बनते-बिगड़ते रहते हैं। अगर कथानक का विश्लेषण किया जाए, तो अभिप्रायों के गठन का ही कोई रूप प्राप्त होगा। इन कथानकरूढ़ियों या अभिप्रायों पर लोककथा का देश-काल पता चलता है।
लोककथाओं का काल-निर्धारण अत्यन्त कठिन है। एक लोककथा में कुछ कथानकरूढ़ियाँ आदिकाल की हैं, तो कुछ मध्यकाल की। इसलिए यह कहना सम्भव नहीं है कि यह लोककथा आदिकाल की है। लोककथा तो कथक पर निर्भर है, क्योंकि वह आदिकालीन कथा को मध्यकाल में उस समय की कथानकरूढ़ि से जोड़कर सुनाने लगता है। इस कारण कथानकरूढ़ियों का मिश्रण उसके काल-निर्धारण में बाधक है।
कुछ कथाएँ ही ऐसी मिलेंगी, जो इस मिश्रण से बची हों। उन्हें काल-परिधि में बाँधा जा सकता है। इस दृष्टि से यहाँ उक्त वर्गीक त विषयों से सम्बन्ध कथाओं की परम्परा खोजने का प्रयत्न किया जा रहा है।
संदर्भ-
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली लोक संस्कृति और साहित्य – डॉ. नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुन्देलखंड की संस्कृति और साहित्य – श्री राम चरण हयारण “मित्र”
बुन्देलखंड दर्शन – मोतीलाल त्रिपाठी “अशांत”
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेली काव्य परंपरा – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुन्देली का भाषाशास्त्रीय अध्ययन -रामेश्वर प्रसाद अग्रवाल
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