बहुत समय की बात है Raja Veer Vikrmaditya राजा वीर विक्रमादित्य उज्जैन में राज करते थे। वे ब्राह्मणों को बहुत मानते थे। इसीलिये किसी ब्राह्मण को वे नौकरी में नहीं रखते थे। कारण कि मुँह से किसी दिन उल्टी-सीधी न जाने कौन सी बात निकल जाय। नौकरों से सभी तरह की बात करनी पड़ती है।
एक दिन एक आदमी उनके दरबार में आया और कहने लगा-‘राजन! मैं गरीब ब्राह्मण हूँ। मुझे कोई नौकरी दीजिये, जिससे मैं अपनी गुजर कर सकूँ। राजा ने उत्तर दिया- ‘महाराज, मैं किसी ब्राह्मण को नौकरी पर नहीं रखता। आप लोग तो मेरे गुरु और पूज्य हैं। आपसे नौकरी कराके पाप का भाजन में कैसे बनूँ? आप आयें हैं तो मेरे बदले तीर्थ-यात्रा कर आइये। जो खरचा पड़ेगा, मैं दूँगा।’ ब्राह्मण ने कहा- महाराज, जब तक मैं तीर्थ-यात्रा करूँगा तब तक मेरी स्त्री क्या खायेगी? राजा ने कहा-
‘मैं ब्राह्मणी के खाने-पीने आदि का सब प्रबन्ध कर दूँगा।’ ब्राह्मण राजी हो गया और रुपया लेकर घर गया। स्त्री के खाने-पीने का प्रबन्ध करके चलते समय राजा से कह गया-‘महाराज, मैं तीर्थों को जाता हूँ। ब्राह्मणी को कोई तकलीफ न हो। आप उसकी हर तरह से रक्षा करना।
ब्राह्मणी बड़ी पतिव्रता थी। ब्राह्मण के जाते समय उसने पति का एक चित्र अपने पास रख लिया था। उसकी नित्य पूजा करती और उसी को देखकर रहती थी। एक दिन न जाने कैसे ब्राह्मण के घर में आग लग गई। कहीं निकलने का मार्ग न मिला। ब्राह्मणी अपने पति के चित्र को छाती से लगाकर जल मरी। जब यह समाचार राजा को मालूम हुआ तो वह बहुत दुःखी हुआ। उसने ब्राह्मणी की लाश उठवाकर तेल में रखवा दी। कुछ दिनों बाद ब्राह्मण तीर्थ यात्रा करके लौटा। आशीर्वाद दिया।
राजा ने दुःखी भाव से कहा-‘महाराज, घर में आग लग जाने से आपकी ब्राह्मणी तो जल मरी। ऐसा कहकर उन्होंने तेल में रखी हुई ब्राह्मणी की लाश दिखाई। ब्राह्मण बोला-‘महाराज, मैं अपनी स्त्री लूँगा। उसे मैं आपकी रक्षा में छोड़ गया था। आपकी असावधानी से उसकी मृत्यु हुई। जिस तरह हो उसे जीवित करके मुझे दीजिये। राजा ने उसे बहुत समझाया। धन-दौलत देनी चाही, पर वह नहीं माना। उसने कहा-‘मुझे तो अपनी स्त्री ही चाहिये। मुझे दुनिया की धन-दौलत से क्या काम!
निदान में राजा ब्राह्मणी को जीवित करने के लिये अमृत की खोज में निकले। चलते-चलते एक दिन वे एक गाँव में जा पहुँचे। देखा, पीपल के पेड़ के नीचे सुन्दर चबूतरा बंधा हुआ है। राजा विश्राम करने के लिये उस चबूतरे पर जा बैठा। चबूतरे के पास ही एक मकान था। इस मकान में रहने वाली स्त्री ने इनको बैठा देखा तो वह एकदम यह कहती हुई इनके पास दौड़ी- ‘बेटा, मुझे छोड़कर कहाँ चले गए थे? कई वर्षों बाद आज मिले हो!’ ऐसा कहकर उसने इनको अपने गले लगा लिया।
इस स्त्री का जवान लड़का जो सूरत-शकल में इन्हीं के समान था, रूठकर कहीं चला गया था। स्त्री ने समझा कि यह मेरा ही लड़का है। राजा बड़े असमंजस में पड़े। उन्होंने उसे दूर बैठाकर कहा-‘माता, मैं आपका पुत्र नहीं हूँ। आपको भ्रम हो गया है। परन्तु मुझे मालूम हुआ कि तुम्हरा पुत्र तुम्हें छोड़कर कहीं चला गया है और तुम उसके दुःख से दुःखी हो।
मैं राजा वीर विक्रमादित्य हूँ। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि तुम्हारे पुत्र को खोजकर तुमसे मिला दूँगा। तुम विश्वास रखो। मैं झूठी प्रतिज्ञा नहीं करता हूँ। इस प्रकार उस स्त्री को आश्वासन देकर राजा अमृत और इस स्त्री के लड़के की खोज में आगे चले।
कुछ समय पश्चात् चलते-चलते वे प्रसिद्ध दानी राजा करन के राज्य में पहुँचे। राजधानी में आकर देखा कि राजा प्रतिदिन सवा मन सोना दान किया करता है। इनको आश्चर्य हुआ। राजा इतना सोना कहाँ से पाता है? वे नगर में ठहर गए और राज-दरबार में आने-जाने लगे। एक दिन उन्होंने अपनी ही शकल का एक आदमी देखा। अनुमान किया कि हो न हो यह उसी स्त्री का पुत्र है, जो उस दिन मुझे चबूतरे पर मिली थी। उससे बात-चीत की। अनुमान सत्य निकला।
तब राजा ने कहा-‘तुम्हारी माता तुम्हारे वियोग में बहुत दुःख उठा रही हैं। तुम शीघ्र घर जाकर उससे मिलो। दोनों सलाह करके राजा करन के पास गये। वीर विक्रमादित्य ने कहा-‘राजन, यह मेरा भाई है। इसे घर जाने की आज्ञा दीजिये। इसकी जगह मैं काम किया करूँगा। राजा ने मंजूर कर लिया। वह तो छुट्टी पाकर घर चला गया और राजा विक्रमादित्य उसकी जगह पर काम करने लगे।
इनका काम था प्रतिदिन बारह बजे रात को राजा को जगाना। रात के बारह बजते ही इन्होंने राजा करन को जगा दिया। राजा करन उठे और पूजन की सामग्री लेकर कहीं चले गये। सबेरा होते ही वे सवा मन सोना लेकर आये और उसे याचकों को दान में दे दिया। वीर विक्रमादित्य को बड़ा अचंभा हुआ। यह राजा कहाँ से इतना सोना प्रतिदिन लाता है? उन्होंने माना कि इसका पता लगाना चाहिये।
दूसरे दिन विक्रमादित्य ने करन को सोते से जगाया। वह प्रतिदिन की तरह पूजन की सामग्री लेकर चला गया। यह भी उसके पीछे हो गये। राजा करन नगर के बाहर बहुत दूर एक निर्जन वन में जा पहुँचे। वहाँ एक सुन्दर देवी का मंदिर बना हुआ था। मंदिर के समीप ही तालाब था। राजा ने पहले तालाब पर जाकर स्नान किया। फिर मंदिर में जाकर देवी की पूजा की। पूजा करके बाहर निकला।
मंदिर के सामने एक बड़े चूल्हे पर तेल का भरा हुआ कढ़ाहा चढ़ा था, जो आग की तेजी से खौल रहा था। राजा करन उस कढ़ाई में कूद पड़ा। जब उसका शरीर चुर गया, तब देवी प्रकट हुई। देवी ने राजा के शरीर को कढ़ाई में से निकालकर उसका भोजन किया। फिर बची हुई हड्डियों को इकट्ठी करके उन पर अमृत छिड़ककर राजा को जिंदा कर दिया। फिर उसने अपने खलांत से राजा को सवा मन सोना दिया। राजा सोना लेकर घर आया।
वीर विक्रमादित्य को सोना मिलने का सब रहस्य मालूम हो गया। दूसरे दिन उन्होंने एक दूसरे नौकर को बुलाकर राजा करन के यहाँ पर छोड़कर उसे आज्ञा दी कि उनकी नींद न खुलने दे। आधी रात होते ही वे देवी के मंदिर पर पहुँचे। स्नान करके देवी की पूजा की। फिर अपनी देह को चाकू से काटकर उसमें किशमिश, बादाम, चिरोंजी आदि मसाले और केसर-कस्तूरी तथा अन्य सुगंधित पदार्थों से भरकर कढ़ाई में कूद पड़े। देवी ने प्रकट होकर इनके शरीर का भोजन किया। तृप्त होकर बोली-‘राजा, आज तूने अच्छे भोजन कराये। मैं प्रसन्न हूँ। तू मन चाहे वरदान मांग ले।
राजा ने त्रिवाचा हराये। जो मागूँगा वहीं पाऊँगा। देवी ने कहा-‘हाँ, जो मांगेगा, वही पायेगा। राजा ने कहा-‘भगवती, जो आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो मुझे अपना अमृत घड़ा दीजिये। दूसरे सोना पैदा करने की खलांत दीजिये। तीसरा एक वरदान और मांगता हूँ कि आप इस स्थान को छोड़कर कहीं अन्यत्र चली जाइये।’ देवी वरदान देकर चली गई। राजा अमृत का घड़ा और सोना बनाने की खलांत लेकर अपने स्थान पर लौट आया। आकर देखा, राजा करन सो रहे हैं।
वीरों को बुलाकर आज्ञा दी कि अमुक स्थान पर देवी का मंदिर बना है, उसे तोड़-फोड़कर उसका नाम निशान मिटा आओ। वीर चले गए। विक्रमादित्य ने तब राजा करन को जगाया। वे घबड़ा कर उठे।
झट उसी स्थान पर पहुँचे। देखकर इनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। वहाँ देवी के मंदिर का नामोनिशान भी नहीं था। न कढ़ाहा, न सोना बनाने की खलांत। राजा खिन्न होकर घर लौट आया। इधर सवेरा हो गया था। याचक गण इकट्ठे हो रहे थे। ब्राह्मणों ने आवाज लगाना शुरू किया-‘राजा करन,’ दान दे। राजा करन दान कहाँ से देते? वे मन से चुपचाप बैठे थे।
वीर विक्रमादित्य ने पूछा-‘राजन् आज दान क्यों नहीं देते? ब्राह्मण इकट्ठे हो चुके हैं। राजा ने हृदय की वेदना व्यक्त करते हुये कहा- ‘दान कहाँ है? जहाँ से लाता था, आज वहाँ कुछ नहीं है। आज मेरा प्राण भंग हुआ जाता, परन्तु मैं प्रण भंग होने के पहले अपना प्राण ले लूँगा। जीते जी प्रण भंग न होने दूँगा। राजा वीर विक्रमादित्य ने सोने की खलांत देते हुए कहा-‘राजन्, आप निराश न हों । यह सोना बनाने की खलांत है। इससे याचकों को दान दीजिये।
आप प्रतिदिन कढ़ाहे में चुरते थे। आपको दारूण कष्ट सहन करना पड़ता था, तब सोना मिला करता था। अब आपको यह कुछ नहीं करना पड़ेगा। इस खलांत से घर बैठे सोना बना लिया करो और याचकों को दान दिया करो। इतना कहकर उन्होंने सारा हाल सुनाकर अपना परिचय दिया। राजा करन ने कहा-आपने मेरा बड़ा उपकार किया। मैं आपका चिर कृतज्ञ रहूँगा।
वीर विक्रमादित्य अमृत का घड़ा लेकर घर आये। ब्राह्मण की स्त्री की लाश पर अमृत छिड़ककर उसे जिंदा किया और ब्राह्मण को बुलाकर कहा- लीजिये महाराज, आपकी स्त्री जीवित हो उठी। उसे अब अपने घर ले जाइये। ब्राह्मण ने कहा-‘राजा तू समर्थ है। तभी तो मैंने तुझसे स्त्री लेने का हठ किया था। तेरा कल्याण हो।’