Bhram Nivaran भ्रम निवारण -बुन्देलखण्ड की लोक कथा 

Bhram Nivaran भ्रम निवारण -बुन्देलखण्ड की लोक कथा 

कभी कभी भ्रम में आकार इंसान बहुत कुछ खो देता है और उसे जब सच का भान होता है तो बहुत पछताता है इस लिए समय रहते Bhram Nivaran भ्रम निवारण कर लेना चाहिए जैसे  किसी नगर में एक राजा रहता था। वह बड़ा खिलाड़ी था। किसी भी रूपवती स्त्री का पता लगा कि उसे पाने के लिये वह पागल हो उठता। एक रोज की बात, कि उसे मालूम हुआ कि उसके प्रधानमंत्री की स्त्री बहुत सुंदर है।

राजा के खास आदमी ने कहा कि महाराज, सिंहलद्वीप की पत्नि भी उसके सामने कुछ नहीं है, फिर क्या था? राजा उसे पाने के लिये व्याकुल हो उठा और उससे मिलने का उपाय खोजने लगा। अंत में उसने सोचा कि मंत्री को किसी काम के बहाने कुछ दिन के लिये बाहर भेज दिया जाये।

उसके चले जाने पर पीछे कुछ किया जाएगा।

यह सोच राजा ने मंत्री को बुलाया और कहा-प्रधान जी, राज्य की पूर्वी सीमा का झगड़ा बहुत दिन से पड़ा है। कुछ दिन और यों ही पड़ा रहा तो अचलपुर का राजा इधर का सारा हिस्सा दबा लेगा। सो तुम जाओ और उस झगड़े को निपटा आओ।

मंत्री ने कहा- जो आज्ञा। राजा बोला- देर हो जाय तो कोई बात नहीं, लेकिन झगड़े की जड़ काट कर आइये। सीमा पर पक्की मुनारे बनवा दीजिये। मंत्री था सीधे स्वभाव का। छल -फरेब नहीं जानता था। सो राजा की आज्ञा पाकर अगले दिन वह घर से चल दिया। इधर राजा को उसके जाने की खबर मिली तो बढ़िया पोशाक पहिन, इत्र-फुलेल लगा मंत्री के घर जा पहुँचा।

खबास ने अन्दर जाकर खबर दी कि महाराज पधारे हैं। प्रधान की स्त्री भी बहुत नेक थी। उसके मन में कोई कपट-भाव न था। उसने समझा कि हो न हो, महाराजा को उनके जाने का समाचार नहीं मिला। इसी से मिलने आये हैं। ऐसा सोच उसने नौकर से पलंग बिछवा दिया। राजा आकर बैठ गया। भीतर से पान-इलायची भिजवा कर स्त्री ने कहलवाया कि प्रधान जी आज ही बाहर चले गये हैं।

बैठा-बैठा राजा सोचने लगा कि अब किस ढंग से काम निकाला जाय। इसी समय पिंजड़े में से तोता शोर मचाने लगा है कि- अरे! कौन है, जो जनानखाने में घुस आया है ? चल, बाहर हो। राजा ने सोचा कि आज ठीक अवसर नहीं। मंत्री तो बहुत दिन के लिए चला गया है। फिर किसी दिन आऊँगा। इतना सोच राजा ने अपनी हीरे की अंगूठी उंगली से उतार वहीं पलंग पर रख दी कि देखें इस सौगात का मंत्री की स्त्री पर क्या असर पड़ता है और महल चला आया।

उधर मंत्री कुछ दूर निकल गया तो उसे याद आया कि काम के और सब कागज तो उसने रख लिये, लेकिन नक्शा घर पर ही छोड़ आया। उसने शीघ्र ही घोड़ा लौटाया। जिस समय वह घर पहुँचा, राजा साहब जा चुक थे। भीतर जाकर देखता क्या है कि पलंग बिछा है और सोने की तश्तरी में पान-इलायची रखे हैं, इत्र महक रहा है।

यही नहीं, पलंग पर वह चमक क्या रहा है? उसने उठाकर देखा तो मालूम हुआ कि राजा की अंगूठी है। मामला समझते उसे देर न लगी। उसने निश्चय कर लिया कि उसकी स्त्री पापिनी है और राजा साहब से फँसी है। अँगूठी उठाकर उसने रख ली और मन की बात मन में ही रखकर नक्शा लेकर वह चला गया। स्त्री से कुछ नहीं कहा।

राजा को जब यह खबर मिली कि प्रधान की स्त्री सती-साध्वी  है और किसी भी तरह से उसके चक्कर में नहीं आ सकती तो उसने फिर उसे पाने की कोशिश न की। कुछ दिन बाद काम  निपटाकर मंत्री घर लौट आया, लेकिन उसका मन स्त्री की ओर से खिंचा रहा। वह न उससे बातचीत करता था, न उसकी खबर सुध लेता था। स्त्री इससे परेशान थी। बहुत सोचती थी, पर कारण उसकी समझ में न आता था। ऐसा तिरस्कार कब तक सहती ? सो तंग आकर अपने माता-पिता के घर चली गई।

वहाँ रहते-रहते जब तीन-चार महीने हो गये और उसे न तो कोई लेने ही आया, न कोई खबर ही मिली तो माँ-बाप को चिन्ता होने लगी। एक रोज माँ ने बात-बात में कहा-‘बेटी, मालूम होता है, इस बार तुम दोनों में कुछ मनमुटाव हो गया है, तभी तुम्हें कोई लेने नहीं आया।

लड़की बोली-‘माँ, मेरी खुद समझ में नहीं आता कि क्या बात है। इस बार जब से वह बाहर घूम कर लौटे हैं, तभी से उनका मन जाने कैसा हो गया है? इसके बाद लड़की ने राजा साहब के आने की सारी घटना कह सुनाई। बोली-‘ऐसा मालूम होता है, माँ कि उन्हें मेरे आचरण पर कुछ संदेह हो गया है। इसी से वह मुझसे बोलते तक नहीं।

माँ चुपचाप सुनती रही और शाम को जब पति घर आये तो जो कुछ उसने लड़की के मुँह से सुना था, सब उन्हें कह सुनाया। प्रधान का ससुर बहुत ही चतुर और बुद्धिमान आदमी था। उसने कुछ सोच समझ कर लड़की को साथ ले अपने दामाद के यहाँ प्रस्थान किया।

दोनों ने अपने रूप बदल लिये थे। नगर बाहर बगीचे में उन्होंने डेरा डाला और माली को एक मुहर इनाम में देकर कहा-‘देखा भाई, हम लोगों को चौपड़ खेलने का ऐसा बुरा शौक पड़ गया है कि जब तक दो एक हाथ खेल नहीं लेते, तब तक खाना नहीं भाता। नगर में कोई अच्छा  खिलाड़ी हो तो लिवा लाओ।

मुहर पाकर माली खुश हो गया। उसने सोचा कि यह कहीं का बहुत बड़ा सेठ जान पड़ता है। कुछ दिन भी यहाँ ठहर गया तो मैं मालामाल हो जाऊँगा। जरा से काम के लिये एक मुहर। ऐसे बड़े दिल के आदमी के लिये खिलाड़ी भी ऊँचे दर्जे का ही लाना चाहिये। राजा साहब और प्रधान जी को चौपड़ का बड़ा शौक है। उन्हीं को लाना चाहिये। मन-ही-मन ऐसा सोच माली दरबार में गया और सारा हाल राजा को कह सुनाया। राजा ने मंत्री से कहा-‘ऐसी बात है तो चलो। देखें, कैसा खिलाड़ी है।

इतना कह राजा और मंत्री दोनों रथ पर बैठकर बगीचे में पहुँचे। इधर गद्दा-मसनद लगा कर बैठक पहले से ही तैयार थी। आते ही खेल जम गया। एक ओर बैठे राजा और मंत्री, दूसरी ओर मंत्री का ससुर और उसकी लड़की। खेल प्रारम्भ हुआ।

मंत्री के ससुर ने पांसा फेंकते हुये कहा– बड़े पाप के सुत रहे, राज-काज में मीर। गंगा जल निर्मल भरे, क्यों कर छोड़ा नीर? पांसे जाँय परै पौबारा, मिल जाये जुग शीघ्र।(अर्थात्- बड़े घर के लड़के, राज-काज में मंत्री का काम करने वाले चतुर व्यक्ति होने पर भी गंगा जल के समान पवित्र आचरण वाली स्त्री को तुमने अकारण क्यों त्याग दिया? पांसे ऐसे पौबारा डालो कि बिछुड़ा हुआ जुग फिर मिल जाये।)

ससुर के पश्चात् मंत्री की बारी आई। उसने पासे उठाकर फेंके और अपने ससुर की बात को समझ कर उत्तर देते हुये कहा- कर के पंजा में बसै एक लक्ष्य के मांय। सो हम पाई पार पै नीर पियो न जाय।। जुग मिले चाहे न मिले। (अर्थात्-हाथ के पंजे में पहिनी जाने वाली एक लाख रूपये की अँगूठी मुझे पार (किनारे) पर मिली है। इससे मन में ग्लानि हो जाने से पानी पीना छोड़ दिया है। जुग मिले या न मिले, इसकी परवा नहीं है।)

इसके पश्चात् प्रधान की स्त्री की बारी आई। उसने पांसा फेंकते हुये पति की बात को समझ कर उसका उत्तर देते हुये कहा- केहरि मूँछ भुजंग मणि पतिव्रता को साथ। शूर कटारी विप्र धन जियत न आवे हाथ। जुग मिले चाहे न मिले।

(अर्थात्- सिंह की मूंछ, मणिहारे सर्प की मणि, पतिव्रता स्त्री का सतीत्व, शूरवीर की कटार और ब्राह्मण का धन जीते जी हाथ नहीं आ सकता है। सो तुम्हारा संदेह व्यर्थ है। मैं पवित्र हूँ। जुग मिले या न मिले, इसकी मुझे चिंता नहीं।)

सबसे पीछे राजा का नम्बर आया। पांसा फेंकते हुये सब की बात समझ कर उसने अपनी सफाई पेश की- राजा एक अधर्मी आओ, प्यासो गंगा तीर। पंछी एक तुरत तंह बरजौ, छुओ न निर्मल नीर। पांसे जाय परै पौबारा, मिल जाये जुग शीघ्र। (अर्थात्- एक अधर्मी राजा प्यासा गंगा-किनारे आया। लेकिन एक पक्षी के रोकने पर उसने निर्मल जल को नहीं छुआ। पासे ऐसे पौबारा डालो कि बिछुड़ा जुग फिर मिल जाये।)

इस प्रकार खेल में बातों ही बातों में सब के दिल की सफाई हो गई। मंत्री अपनी स्त्री को निष्कलंक समझकर अपने घर ले गया और दोनों उस दिन से सुखपूर्वक रहने लगे।

बुन्देलखण्ड के संस्कार गीत 

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