Chaukadiya Fag Ki Vastugat Visheshta फागों की प्रधान प्रवृत्ति लोक शृंगारिकता की विशिष्टता है, जो रीतिकालिक शृँगारिकता की रूढ़िबद्धता के विरुद्ध प्रतिक्रियास्वरूप फूटी है। साथ ही गाँव और नगर की शृँगारिकता में बहुत अन्तर होता है। ग्रामीण शृँगारिकता सहज, स्वाभाविक, मुक्त और बनावट-बुनावट से परे होती है।
जबकि नागरी तड़क-भड़क और फैशनवाली बनावटी, शिष्ट और रूढ़ होती है। इसी अन्तर को ध्यान में रखकर मैंने फागों के शृँगार को लोकशृँगार (लोकसिंगार) कहा है। लोकशृंगार रूढ़ियों से परे स्वच्छन्द होता है, इसी कारण उसमें दुराव-छिपाव न होने से ग्राम्य उन्मुक्तता की गुंजाइश अधिक रहती है। ‘ईसुरी’ की एक फाग का उदाहरण पर्याप्त है….
हम खाँ बिसरत नईं बिसारी, हेरन हँसन तुम्हारी।
जुबन बिसाल चाल मतवारी, पतरी कमर इकारी।
भोंय कमान बान से तानें, नजर तिरीछी मारी।
‘ईसुर’ कात हमारी कोदीं, तनक हेर लेव प्यारी।।
उक्त फाग की तीन कड़ियों में रूप-सौन्दर्य का सहज लोकचित्रा है, पर चौथी कड़ी में प्रेमी का आमन्त्राण ग्राम्य स्वच्छन्दता को दर्शाता है। दूसरे, इन फागों में दैहिक मांसलता और ऐन्द्रिकता की अधिकता है। डॉ. रामविलास शर्मा जैसे समीक्षक ने तो लोककवि को ‘मदन महीप’ के चारण कहा है और उनकी कविता को ‘कामातुर प्राणी की विह्नल पुकार है’ कहकर अपने निर्णय को दुहराया है। वस्तुतः कामातुरता में एकनिष्ठता न होकर भटकन होती है, जबकि ईसुरी में एक संकल्पित मानसिकता है, एक मन को दूसरे मन से जोड़ने की दृढ़ मानसिकता, जो निम्नांकित फाग से स्पष्ट है…..।
करकें नेह टोर जिन दइयो, दिन दिन और बढ़इयो।
जैसें मिलै दूद में पानी, ऊसई मनै मिलइयो।
हमरो और तुमारो जो जिउ, एकई जानें रइयो।
कात ‘ईसुरी’ बाँय गहे की, खबर बिसर जिन जइयो।।
रंगत की फागों की पांडुलिपियों में रूप-सौन्दर्य के चित्र नखशिख की पद्धति का ही अनुसरण करते हैं। शिख से लेकर नख तक क्रमिक चित्राणों में देह के सभी अंगों, आभूषणों और शृँगार-प्रसाधनों के अलंकृत वर्णन रीतिकालीन नखशिख-चित्रण से होड़ करते हैं। अन्तर केवल इतना है कि रीतिकालिक चित्रा परिनिष्ठित भाषा में अधिक साहित्यिक हो गए हैं, क्योंकि उनमें नागरी कल्पना की रेखाओं में चमत्कारी रंगों का जड़ाव है, जबकि फागों के चित्रों में लोककल्पना और लोकसहज रंगों की बुनावट है। पहले में नागरीपन है, तो दूसरे में लोकसुलभ प्रकृत रूप। ऐन्द्रिकता में दोनों बढ़चढ़कर है। गंगाधर व्यास की एक फाग देखें….।
जौ तिल लगत गाल को नीको, मन मोहत सबही को।
कै पूरन पूनों के ससि में, कुरा जमो रजनी को।
कै निरमल दरपन के ऊपर, सुमन परो अरसी को।
गरल कंठ लै आन बिराजो, कै पति पारबती को।
‘गंगाधर’ मुख लखत साँवरो, राधा चन्द्रमुखी को।।
उक्त फाग में मुख और तिल के उपमान पूर्णिमा के चन्द्र पर रात्रि का अँकुआ, स्वच्छ दर्पण पर रखा हुआ अरसी का सुमन तथा कंठ पर शिव का पिया विष है। सभी उपमान नए हैं और चन्द्रमुखी राधा के सौन्दर्य की वृद्धि करते हैं। फागें प्रेम के विविध रूपों की अलबम हैं।
मिलन और बिछोह के विविध आलेखनों में आनन्द और पीड़ा के अनेक रूप और रंग हैं। गाँव का लोकसहज प्रेम निश्छल और खरा होता है। उसमें न तो गम्भीरता और उदात्तता का बोझ रहता है और न दुराव-छिपाव तथा कुंठा की साजिश। बनावटी शिष्टता उसे छू नहीं पाती।
ईसुरी का प्रेम यही लोकप्रेम है। प्रेम के शास्त्राय रूपों से भिन्न लोककलम से लिखा हुआ प्रेम का लोकचित्रा है। लोकसंस्कृति के मूल्यों से रंजित। स्थिर और एकनिष्ठ। फाग की दो पंक्तियाँ देखें….
बिधना करी देह ना मेरी, रजऊ के घर की देरी।
आउत जात चरन की धूरा, लगत जात हर बेरी।
ख्याली कवि तो रियासती न्याय की बानगी देते हुए कृष्ण के मन को राधा के सौन्दर्य की मुद्रा की अदालत में खड़ा कर देते हैं। न्याय के रूपक द्वारा राधा के प्रेम की ठसकीली मुद्रा देखें…।
तोरी बेइंसाफी आँसी, सुनो राधिका साँसी।
कायम करी रूप रियासत में, अदा अदालत खासी।
पठवा दये नैन के सम्मन, चितवन के चपरासी।
मन मुलजिम कर लओ कैद में, हँसी हतकड़ी गाँसी।
कबि ख्याली बेगुना लगा दई, दफा तीन सौ ब्यासी।।
उक्त फाग में रियासती न्याय की पद्धति भी स्पष्ट हुई है और तत्कालीन रूप-सौन्दर्य का प्रभावी प्रभाव भी आभास देता है। इस पुनरुत्थान के नैतिक और मानवतापरक दृष्टिकोण का असर इस जनपद के फागकाव्य पर भी पड़ा। अब फागें केवल शृँगारी या भक्तिमयी नहीं रही थीं, उनमें नैतिक मूल्यों की अभिव्यक्ति होने लगी थी।
ईसुरी ने तो दया-धर्म, कर्म और मनुष्यत्व का ही सन्देश नहीं दिया, वरन् युद्ध में जूझने और मातृभूमि के प्रति प्रेम के नवीन आदर्शों के पालन को अनिवार्य समझा। उनके उदाहरणों में फागों की वही पंक्तियाँ दी गई हैं, जो साक्ष्य के लिए जरूरी हैं….।
दीपक दया-धरम को जारौ, सदा रात उजयारौ।
धरम करें बिन करम खुलै ना, बिना कुची ज्यों तारौ।
मानस होत बड़ी करनी सें, रजउ सें कइये तीसैं।
नेकी बदी पुन्न परमारथ, भक्ति भजन होय जीसें।
अपने जान गुमान न करिये, लरिये नहीं किसी सें।
बे ऊँचे हो जात कहत हैं, नीचे नबै सभी सें।
जो कोउ समर भूम लड़ सोबै, तन तरवारन खोबै।
देय न पींठ लेय छाती में, घाव सामनें होबै।
ऐसे नर के मरें ‘ईसुरी’, जस गंगा लौं होबै।
फागों में पारिवारिक और सामाजिक समस्याओं की वास्तविकता के संकेत भी हैं और नए आविष्कारों के वर्णन भी। पारिवारिक समस्याओं में सौतिया डाह से घर की टूटन और सामाजिक समस्याओं में बाल या अनमेल विवाह के दो उदाहरण गंगाधर व्यास की फागों से प्रस्तुत हैं….
जो घर बिगरो बिन बिगरायें, सौत सौत के आयें।
मगरे सें कौआ ना उतरो, राती न्याँव मचायें।
हमकों बलम मिले हैं बारे, दूजे बदन इकारे।
हँस मुसक्यान तनक ना कबहूँ, मिलबे हाँत पसारे।
ईसुरी ने तो उस समय के अकाल और ऋणग्रस्त होने का वर्णन किया है। सम्बन्धित पंक्तियाँ देखकर यथार्थ का अनुमान लगाया जा सकता है।
आसों दै गओ साल करोंटा, करो खाव सब खोटा।
गोऊँ पिसी कों गिरुआ लग गओ, मऊअन लग गओ लौंका।
ककना दौरी सब धर खाये, रै गओ फकत अनोटा।
संवत् उनइस सौ छब्बिस में, बुथे धरे ते रिन कें।
जनम जनम के रिन चुकवा दय, परी फादली जिनकें।
संयोग, वियोग, भक्ति और प्रकृति-सम्बन्धी फागों में लोकसहज भावुकता बगरी पड़ी है। कवि ने नए-नए लोकउपमानों द्वारा कल्पना की नई-नई छवियों से सजाकर नवीन मूर्तरूपों में ढाल दिया है। प्रेमी कभी प्रेमिका की अँगुली का छला हो जाना चाहता है, तो कभी पंखों पर उड़नेवाला पंछी, दोनों की भावदशा का अन्तर देखें…
जो तुम छैल छला हो जाते, परे उँगरियन राते।
मौं पोंछत गालन खाँ लगते, कजरा देत दिखाते।
घरी घरी घूँघट खोलत में, नजर के सामूँ राते।
‘ईसुर’ दूर दरस के लानें, ऐसे काए ललाते।।
बिध ना दये पापी पंख हमें, उड़ उड़ के मिलते मिंत्रा तुमें।
तन तो राम जुदा कर दीनो, अंतस में दुई एक दमें।
परबस भए कछू बस नइयाँ, ज्यों पिंजरा में बिहंग भमें।
‘गंगाधर’ तुम बिन मन ब्याकुल, दरसन हूहैं कौन समें।।
दोनों फागों में प्रेमी के दर्शन की प्यास से उत्पन्न पीड़ा की भावना प्रधान है, पर ईसुरी की फाग में ऐन्द्रिकता और भोगमूलकता है, जबकि गंगाधर व्यास की फाग में अंतस की एकप्राणता के कारण लोकभाव की दृढ़ता से पिंजड़े में बार-बार भ्रमता पंछी भी एकनिष्ठता से सम्बल पाता रहता है। वस्तुतः वैचारिकता का पारस स्पर्श फागों की भावुकता को नित नई दीप्ति प्रदान करता है।
कवियों की सहज बुद्धि भावना की सहचरी बनकर उसकी सेवा-टहल करती रही है। उसे सजाती-सँवारती और राह दिखाती है। लोक की रीति-नीति सिखकार और लोकसंस्कृति का पाठ पढ़ाकर लोकोन्मुखी कर देती है। वैयक्तिक भाव को लोकभाव में ढालने का काम वैचारिकता की क्रियाशील उपस्थिति में होता है। एक उदाहरण देखें….।
रइयो मनमोहन से बरकी, तुम नई भईं अहिर की।
होत भोर जमुनें ना जइयो, दैकैं कोर कजर की।
उनको राज उनइँ की रैयत, सिर पै बात जबर की।
‘ईसुर’ कात तला में बसकें, सइए सान मगर की।।
उक्त फाग की कहावत का अर्थ यह है कि जिस राजा के राज्य में रहे, उसकी हर बात मनना पड़ती है। ईसुरी के समय गाँव के राजा जमींदार थे और उनके सामने गाँव के लोग विवश थे। ईसुरी ने इस सामन्ती एकाधिकार के विचार को मनमोहन से जोड़कर उसे सरस भावुकता प्रदान कर दी है। इस प्रकार लोकविवेक लोकभावक को सन्तुष्ट कर लोकरस का लोकानन्द अनुभूत कराता है।