सूजै इन आँखन अनवेली, जग में रजऊ अकेली।
भरके मूठ गुलाल धन्य वे, जिनके ऊपर मेली।
भाग्यवान जिन में पिचकारी, रजऊ के ऊपर ठेली।
ई मइना की आउन हम पै, झिली मस्त की झेली
अब की बेरें उनने ईसुर, फाग सासुरे खेली।
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हम पै इक मुख जात न बरनी, रजऊ तुमारी करनी।
जा ठाड़ी हो जाती जाके, दिपन लगत वा धरनी।
हते नक्षत्र नई पुक्खन में, नई भद्रा नई भरनी।
आई हो औतार मांग भव, तीन ताप की हरनी।
धन्य तुमारे भाग ईसुरी, कैउ करी बैतरनी।
महाकवि ईसुरी की फागें सुनने-पढ़ने में तो सरल और आसान लगती हैं किन्तु उनकी धार बहुत पैनी और मारक क्षमता का तो जवाब नहीं। वे जो भी कहते हैं उनमें एक और गूढ़ अर्थ छिपा रहता है। उसे वही समझ पाता है जिसकी बुद्धि निर्मल और प्रखर है।