रस्ता आधी रात लौ हेरी, छैल बेदरदी तेरी।
तलफत रही पपीहा जैसी, कहां लगाई देरी।
भीतर से बाहर हो आई, दै-दै आई फेरी।
उठ-उठ भगी सेज सूनी से, आंख लगी न मेरी।
तड़प-तड़प सो गई ईसुरी, तीतुर बिना बटेरी।
जो हम विदा होत सुनलैवी, माडारें मर जैबू।
हम देखत को जात लुबे, छुड़ा बीच में लैबू।
अपने ऊके प्रान इकट्ठे, एकई करके रैबू।
ईसुर कात लील को टीका, अपने माथे दैबू।
वियोग श्रृँगार का एक पक्ष ये भी कहा है महाकवि ईसुरी ने कि जिसे हम अपनाना चाहते हैं वह दूर भागता है। हम उसके प्यार के दीवाने हैं और वह हमसे नफरत कर दूर-दूर भागती है। यह कैसा प्यार है, इससे तो नफरत ही उत्पन्न होती है प्यार नहीं। यह संयोग की विपरीत प्रतिक्रिया है।