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प्रीतम ! प्रीत न करिये, प्रीत किये दुःख होये

Pritam Preet Na Kariyo
प्रीतम! प्रीत न करिये, प्रीत किये दुःख होये
सुन मन कंथ सुजान सुमन होय, प्रेम के फंद न परिये।। 1।।

लोक वेद की राह कठिन है, कुल कलंक तें डरिये।
अरपै शीश प्रेम तब उपजै, जब कुल देह विसरिये।। 2।।

गुरु जन लाज कानि दुर्जन की, कहु कैसे निस्तरिये।
पिया मिलन को प्यारी तलफै, कैसे मित्र जुहरिये।। 3।।

पिया मिले तो जग रूठत है, जग मिले निदरिये।
ए दोनों दुःख आनि परे हैं, कहु कवनि भांति निरवरिये।। 4।।

जा तन लागे सोई तन जानै, दिल बीच बात विचरिये।
पीर पराई कोइ का जानै, कासो टेरि पुकरिये।। 5।।

प्रीत करो तो पूरि निबाहो, निमेष नेह ना टरिये।
जुग जुग होत दोऊ कुल निर्मल, प्रेम पंथ यों वरिये।। 6।।

प्रान जाय प्रन जान न दीजै, जो पिय मन न बिसरिये।
विघन अनेक परे झिर ऊपर, तो प्रिय मन उर धरिये।। 7।।

प्रेम पंथ बारीक बहुत हैं, समुझि बूझि पग धरिये।
ऊँची विकट सिलसिली घाटी, पगु धरते गिर परिये।। 8।।

देख सखि मन सूर सूरकी, सो गहि सुरति सम्हरिये।
सूरति सीढ़ी पाँव दिये जिन, संतन नेह निवरिये।। 9।।

होय सनेह नेह कर्म भ्रम तजिकै, मन वचनकर्म पिय बरिये।
रहस ‘मुकुन्द’ मिले पिय अपने, जग लज्या परिहरिये।। 10।।

प्रीतम, प्रीत मत कीजिए प्रीति का मार्ग बड़ा दुखदायी है। प्रेम करने में अपार दुख है। हे मन! तू तो इन्द्रियों का स्वामी सयाना और समझदार है। प्रेम के फंदे में मत पड़ जाना। सांसारिक एवं वैदिक मर्यादाओं का मार्ग बड़ा कठिन है। कुल कलंक से भी डरना पड़ता है किन्तु जो प्राणों का मोह त्यागकर शीश अर्पण को तैयार रहता है, जिसने अपने कुल की मर्यादा को छोड़कर अपने शरीर की सुधि भी बिसरा दी हो तब उसमें कहीं प्रेम प्रफुल्लित होता है। प्रिया अपने प्रीतम से मिलने के लिए तड़फ (व्याकुल) रही है किन्तु बड़ों की

मर्यादा तथा दुर्जनों की निगाह से कैसे बचकर प्रिय से मिले। प्रेम की स्थिति बड़ी विकट है यदि प्रिय से मिलते हैं तो संसार (जग) रूठता (नाराज) है और मिले बिना चैन नहीं है। ये दोनों प्रकार से दुख आड़े हैं इनसे कैसे पार पायें ? जिसके शरीर में यह रोग (प्रेम) लगा है वही इसके दर्द को समझता है।

थोड़ा आप दिल से विचार कीजिये कि दूसरे के दर्द को अन्य व्यक्ति क्या जानें? तथा दर्दी अपनी पीड़ा को किससे कहे? कौन सुनने वाला है ? यदि आपने प्रीत की है, तो उसे पूर्णतः पालन कीजिए एक क्षण के लिए भी प्रेम रंग में विलग न होइये। प्रेम-मार्ग को इस दृढ़ता से वरण कीजिए कि युग-युगान्तर तक दोनों कुल का निर्मल यश कायम रहे।

प्रीतम की छवि, उसकी याद बड़ी दृढ़ता एवं प्रण से हृदय में धारण कीजिए। भले ही अनेक विघ्न-बाधाएँ सिर पर पड़ें और अन्त में प्राण भी त्यागना पड़े, किन्तु प्रीतम की छवि न बिसरे। प्रेम-मार्ग बड़ा कठिन है। बहुत सोच विचारकर इस पथ पर पग रखना चाहिए।

प्रेम पंथ की घाटी ऊँची, चिकनी और ढलानवाली है। इस पर पैर रखने से पहिले ही गिरने का अंदेशा (डर) रहता है। हे सखि! मेरे मन को आठों याम प्रीतम की छवि की याद के अतिरिक्त कुछ नहीं सूझता। संतों की कृपा एवं प्रीतम की सुरति (याद) की सीढ़ी पर चढ़कर ही हम प्रीतम के पास पहुँचेंगे।

मन, वचन, कर्म से जो अपने प्रीतम का निछावर है जिस प्रेमी को ऐसा अनन्य माधुर्य प्रेम का रंग चढ़ गया है उसके सभी कर्म और सांसारिक भ्रम दूर हो जाते हैं। मुकुन्द स्वामी कहते हैं कि वह प्रेम दीवानी जग की सभी मर्यादाओं को तजकर अपने पिया से मिलती है।

रचनाकार – श्री मुकुंद स्वामी का जीवन परिचय

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