Khajuraho Ke Mandir खजुराहो के मन्दिर

Khajuraho Ke Mandir खजुराहो के मन्दिर

मध्य प्रदेश बुन्देलखण्ड मे स्थित Khajuraho Ke Mandir नागर-वास्तु के बड़े उज्ज्वल स्वरूप हैं और अपने विशिष्ट लक्षणों के कारण बे भारतीय वास्तु-कला के विकास में एक महत्वपूर्ण तत्व संविहित करते हैं। वास्तु-वैशिट्य के अति- रिक्त, उत्कीर्ण मूर्ति-सम्पदा के कारण भी उनका अपूर्व महत्व है । उनमें उत्कीर्ण हिन्दू तथा जैन देवी-देवताओं, अप्सराओं अथवा सुर-सुन्दरियों, मिथुनों, पशुओं तथा जन-जीवन के विविध विषयों की सहस्नों मनभावन मूर्तियाँ दर्शनीय हैं । शास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि से देव-मूर्तिया  विशेष महत्व की है । 

                       

 Khajuraho Temples

खजुराहो-शिल्पी शास्त्र-पारंगत ही नहीं थे, वरन्‌ वे भारत के विभिन्न भागों मे प्रचलित प्रतिमा- निर्माण की परम्पराओं से भी अवगत थे। देव- प्रतिमाओं के रचने मे उन्होंने शिल्प-शास्त्रों से मार्गदर्शन तो लिया ही है, साथ ही अपनी मौलिक कल्पना-शक्ति के आधार पर नूतन लक्षण-लाञ्छनों को जन्म देने में भी वे नही चके हैं। इसीलिए ये मूर्तियाँ जहाँ एक ओर शास्त्रीय लक्षण-लाडछनों की सीमा में बंधी मिलती हैं, वहाँ दूसरी ओर उनमें नवीनता और मौलिकता के भी दर्शन होते हैं ।

कुछ विलक्षण मूर्तियाँ तों उनकी नितान्त मौलिक कृतियाँ प्रतीत होती हैं, क्योंकि ऐसी प्रतिमाएँ दुर्लभ हैं और इनका कोई प्रत्यक्ष शास्त्रीय आधार भी नही प्राप्त होता। यह भी सम्भव है कि वे शिल्प-शास्त्र अब तक लुप्त हो गए हों, जिनके आधार पर इनका निर्माण हुआ है। वस्तुत: मूर्तिकला विज्ञान sculpture science के अध्ययन की दृष्टि से खजुराहो उत्तरभारत में एक अद्वितीय केन्द्र है ।

यहां पर 85 मन्दिरों का निर्माण चन्देल वंशीय राजाओं ने विभिन्न समय में करवाया था लेकिन रख-रखाव का अभाव एवं उपेक्षा के कारण यह मात्र 22 मन्दिर शेष हैं। जिन्हें भौगोलिक दृष्टि से 3 भागों में बांट सकते हैं।
1 – पश्चिमी समूह
2 – पूर्वी समूह
3 -दक्षिण समूह।

                                     पश्चिमी समूह

खजुराहो बस्ती से पश्चिम में होने के कारण इस समूह को पश्चिमी मन्दिर समूह कहते हैं, कुल 12 मन्दिर पश्चिमी समूह में हैं जिनमें प्रमुख विश्वनाथ, लक्ष्मण, कन्दरिया एवं जगदम्बा मन्दिर हैं।

चौंसठ योगिनी मन्दिर
चौंसठ योगिनी मन्दिर
शिव सागर तालाब के पश्चिम की ओर स्थित है चौंसठ योगिनी मन्दिर सबसे पुराना है। चन्देल राज्यवंश के उदय के लगभग 300 वर्ष पूर्व 6वीं शताब्दी में ग्रेनाइट पत्थर का पुर्णतः बना हुआ है। वर्तमान में 35 कोठियां है किंवंदती के अनुसार 65 कोठियां थीं जहां तांत्रिक अनुष्ठान 64 योगनियों के लिए किये जाते थे। एक मात्र ऐसा मन्दिर जिसका मुंह उत्तरमुखी है 5.4 मीटर ऊंचा सह चतुष्कोणीय मन्दिर जिसका माप – 31. 4X18.3 मीटर है।

सम्भवतः एक काली मूर्ति बाकी में काली की सहचर अन्य 64 योगनियां की मूर्तियां प्रतिष्ठत की गई हैं। वर्तमान में इस बड़ी कोठरी में महिषासुर मर्दिनी महेश्वरी एवं चतुर्भुज ब्रह्माणी विराजमान हैं और बाकी कोठरियां खाली हैं। लक्ष्मण मन्दिर में पाये जाने वाली मैथुन मूर्तियां जो जन-जीवन को चित्रित करती हैं। वास्तव में ये चित्र वाममार्गी तांत्रिकों के हैं जो पूर्णिमा की रात्रि में सामूहिक सम्भोग करते थे और यह समारोह 64 योगनियों के ही समय होता था।

लालगुआं मन्दिर
लालगुआं मन्दिर
लालगुआं मन्दिर सागर के किनारे एवं चौंसठ योगिनी के पश्चिम में यह मन्दिर स्थित है। मन्दिर पश्चिम मुखी है। शिखर पिरामिड के आकार का है। मन्दिर का गर्भग्रह खाली है। इसके सामने नन्दी की एक सुन्दर प्रतिमा है। सम्भवतः यह मन्दिर भगवान शिव को समर्पित था। लगभग 900 ई० में बना यह मन्दिर ब्रह्मा मन्दिर के समान है।

मत्तंगेश्वर मन्दिर
मत्तंगेश्वर मन्दिर
हर्षवर्मन ने लगभग 920 ई० में इस मन्दिर का निर्माण कराया था। सम्भवतः चन्देल राजाओं द्वारा निर्मित यह पहला मन्दिर है। किंवदन्ती के अनुसार इस मन्दिर में पूजा-अर्चना निर्माण कार्य से ही होती रही है। यह खजुराहो का सबसे पवित्र मन्दिर है। जिसमें आज भी पूजा-पाठ होता है एवं यात्रियों के लिए खुला रहता है। इसकी निर्माण शैली ब्रह्मा मन्दिर से मिलती-जुलती है। मन्दिर पिरमिड शैली में बना हुआ है। जगति के ऊपर गर्भग्रह तथा एक ही शिखर है। मन्दिर में तीन झरोखे हैं उत्तरी झरोखे के नीचे की ओर सीढ़ियां बनी हुई हैं। पुरातन काल में इसे मृत्युंजय महादेव मन्दिर के से पुकारा जाता था।

भगवान शिव को समर्पित इस मन्दिर के गर्भग्रह में 7.2 मीटर व्यास की जंघा पर 2.5 मीटर ऊंचा, 1.1 मीटर व्यास के शिव लिंग की स्थापना की गई है। लोक मतानुसार शिव लिंग के नीचे मरकत मणि रखी है। जिसे साक्षात् शिव ने धर्मराज युधिष्ठर को दी थी बाद में यह हर्षवर्मन को प्राप्त हुई। भगवान शिव का वरदान समझकर उन्होंने शिवलिंग के नीचे वह मरकत मणि स्थापित कर दी।

बराह मन्दिर
बराह मन्दिर
बराह मन्दिर बिल्कुल मत्तगेश्वर मन्दिर के सामने स्थित है। जो कि भगवान विष्णु के तीसरे अवतार बराह को समर्पित है। हिरणाक्ष राक्षस को मारकर, पृथ्वी को पाताल से निकालकर, उन्हीं का रूप दिखाया गया है । मत्तगेश्वर मन्दिर के समान पिरामिड शैली का बना हुआ है यह आयताकार बालू पत्थर पर बना हुआ, 14 स्तम्भों पर खड़ा हुआ यह मन्दिर जिसके गर्भग्रह में ही पत्थर पर 2.6 मीटर लम्बी 1.8 मीटर

बराह की ऊंची बराह की मूर्ति स्थापित है। जिसके पूरे शरीर पर देवी-देवताओं की मूर्तियां अंकित हैं। इन मूर्तियों की संख्या लगभग 764 है। शेष नाग भगवान पैरों के पास भक्ति भाव में दिखाये गये हैं। जबकि पृथ्वी देवी की मूर्ति नष्ट हो चुकी है सिर्फ चरण कमल ही बने हुए हैं लगभग उनकी ऊंचाई 2.4 मीटर रही होगी। मन्दिर की छत सुन्दर कमल पुष्प से सुसज्जित है। दो भागों में विभक्त इस कमल में सहस्त्र दल पद्म प्रतीत होते हैं।

लक्ष्मी मन्दिर
लक्ष्मी मन्दिर
बराह मन्दिर की उत्तर दिशा में लक्ष्मी मन्दिर एवं लक्ष्मण मन्दिर के ठीक सामने स्थित है। यह मन्दिर भगवान विष्णु के वाहन गरुण के लिए बनाया गया था लेकिन वर्तमान में इसमें देवी ब्रह्माणी की प्रतिमा स्थापित है जिसे वर्तमान में लक्ष्मी मन्दिर कहते हैं।

लक्ष्मण मन्दिरलक्ष्मण मन्दिर
यशोवर्मन द्वारा बनवाया यह मन्दिर पंचायत शैली का सबसे सुरक्षित स्थिति में वर्तमान में स्थित है। मन्दिर के मण्डप में दाहिनी तरफ लगे हुए शिलालेख  में वर्णन मिलता है कि लक्ष्मण मन्दिर राजा यशोवर्मन ने अपने पिता हर्षवर्मन के द्वारा

कन्नौज के राजा महिपाल को पराजित कर भगवान विष्णु की प्रतिमा स्थापित करने के लिए 930 ई० बनवाया था । यशोवर्मन को लक्ष्मण वर्मन के नाम से भी जाना जाता था। इसलिए इसका नाम लक्ष्मण मन्दिर पड़ा। यशोवर्मन ने मथुरा से 16 हजार शिल्पकारों को बुलाया, उन शिल्पकारों ने इस मन्दिर को 7 वर्ष की अवधि में इस भव्य एवं सुन्दर कलाकृतियों से सुसज्जित कर इस मन्दिर का निर्माण किया। उसी का परिणाम है कि आज 1000 वर्ष से अधिक समय होने पर पूर्ण सुरक्षित है।

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कन्दारिया महादेव मन्दिरकन्दारिया महादेव मन्दिर
महाराजा विद्याधर ने जब मुहम्मद गजनी को दूसरी बार परास्त किया एवं मुहम्मद गजनी को भगाने में सफल हुए तब उन्होंने इसे भगवान शिव की कृपा माना। इसके बाद लगभग 1065 ई० विद्याधर द्वारा कन्दरिया महादेव मन्दिर का निर्माण किया। भगवान शिव का यह विशाल मन्दिर 117 फुट ऊंचा, 117 फुट लम्बा एवं 66 फुट चौड़ा है।

मध्य युगीन यह मन्दिर अपनी शिल्प कला एवं स्थापत्य एवं कला का उत्कृष्टतम् उदाहरण है जिसे कला पारखी निहारते ही रहते हैं। दूर से इस मन्दिर को अवलोकन करने पर ऐसा लगता है जैसे कोई विशाल पर्वत खड़ा हो। इसका प्रवेश द्वार ऐसा प्रतीत होता है जैसे किसी कन्दरा अथवा गुफा का द्वार हो । इसलिए इस विशाल मन्दिर का नाम कन्दरिया पड़ा।

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महादेव मन्दिर
कन्दारिया महादेव के उत्तर में शिव मन्दिर है जिसे महादेव मन्दिर कहते हैं। इस मन्दिर का मूल भाग खण्डित है वेदी भी नष्ट हो चुकी है। प्रवेश द्वार पर शिव की प्रतिमा ही महादेव मन्दिर का प्रतीक है। स्तम्भ के साथ चबूतरा ही वर्तमान में स्थित है जिसमें सिंह की मूर्ति रखी है। प्रथम चन्देल राजा (चन्द्रवर्मन) को शेर के साथ युद्ध करते हुए दिखाया गया है। इसे ही चन्देल राजाओं ने अपना राजकीय चिह्न घोषित किया था।

देवी जगदम्बा मन्दिरदेवी जगदम्बा मन्दिर
देवी जगदम्बा मन्दिर का निर्माण गण्डदेव वर्मन ने किया था। यह मन्दिर निरन्धार शैली का बना हुआ है, अर्थात् मन्दिर की आन्तरिक संरचना प्रवेश द्वार, महामण्डप, अन्तराल एवं गर्भगृह है । मन्दिर की छत पर खुदाई का कार्य देखते ही बनता है। मूल रूप में यह मन्दिर भगवान विष्णु का था। गर्भगृह के प्रवेश द्वार के ऊपर गरुण पर आरूढ़ विष्णु की मूर्ति आज भी देख सकते हैं।

महााज छतरपुर ने सन् 1880 के लगभग इसका जीर्णोद्वार कराया था एवं साथ ही मनियागढ़ से पार्वती की मूर्ति लाकर यही स्थापित की थी। तभी से यह जगदम्बा अथवा पार्वती मन्दिर नाम हुआ। मन्दिर का बाह्य भाग सुन्दर एवं दर्शनीय है।  दीवारों  पर निर्मित आलिंगन की मूर्तियाँ विशेष उल्लेखनीय हैं। कुबेर, यम एवं शीशा देखते हुए अपनी ओर आकर्षित करती हैं। दीवारों पर प्रतिमाओं की दो लाइनें हैं तथा उसके ऊपर छोटी प्रतिमाओं की एक लाइन है।

चित्रगुप्त मन्दिरचित्रगुप्त मन्दिर
चित्रगुप्त मंदिर  11 वीं सदी के उत्तरार्ध में निर्मित यह मन्दिर निरन्धर शैली का है अर्थात् आंतरिक भाग को हम चार भागों में विभक्त कर सकते हैं। प्रवेश द्वार, महामण्डप, अन्तराल एवं गर्भग्रह है। गर्भग्रह में भगवान सूर्य की मूर्ति स्थापित है जो कि सप्त अश्व के रथ पर आरूढ़ हैं। सूर्य के दाहिनी ओर चित्रगुप्त भगवान की एक खण्डित मूर्ति है जो कि लेखनी लिये हुए हैं। उन्हीं के नाम पर इस मन्दिर का नाम चित्रगुप्त पड़ा। भगवान चित्रगुप्त सभी का लेखा जोखा रखते हैं ऐसा धर्मग्रन्थों में वर्णन है ।

मन्दिर के आगे के हिस्सा का सन् 1920 में छतरपुर रियासत ने जीर्णोद्धार कराया था। बड़ी प्रतिमाओं की तीन लाइन एवं छोटी प्रतिमाओं की एक लाइन दृष्टिगोचर होती है। इसमें ऊपर की लाइन में सभी मूर्तियाँ एक फुट ऊँचाई की हैं। शाल भंगकाओं के अलावा विभिन्न आलिंगनों में मुगल मूर्तियाँ इस मन्दिर की विशेषता है। पत्थर होने, हाथियों से भिड़ंत, उत्सवों, शिकार एवं नृत्य आदि की मूर्तियाँ उल्लेखनीय हैं। वेदी की दक्षिण में एक आले में भगवान विष्णु की 11 सिरों वाली मूर्ति दर्शनीय है। बीच वाला मुख विष्णु का एवं इसके दोनों तरफ दशावतार दिखाये गये हैं।

चौपड़ा तालाब
चित्रगुप्त मन्दिर से लगभग 200 मी0 दूर चौपड़ा तालाब स्थित है जिसमें चारों तरफ सीढ़ियाँ बनी हुई हैं। इसके मध्य में खम्भों पर छतरी बनी हुई है।

पार्वती मन्दिरपार्वती मन्दिर
पार्वती मन्दिर ईटों व चूने का बना हुआ है। पार्वती मन्दिर मूल रूप से किसी-न-किसी देवता का प्राचीन मन्दिर रहा होगा जो बाद में सन् 1880 में पुनः निर्माण हुआ एवं देवी पार्वती को समर्पित हुआ। इसमें केवल गर्भगृह ही गर्भगृह में गौ माता पर गौरी मूर्ति प्रतिष्ठित है।

विश्वनाथ मन्दिरविश्वनाथ मन्दिर
विश्वनाथ मन्दिर 1002 ई0 में महाराजा धंगदेव द्वारा बनवाया गया तथा यह मन्दिर सुन्दर एवं अपनी शिल्प कला में खजुराहों के दूसरे मन्दिरों की विश्वनाथ मन्दिर तरह बेजोड़ है। पश्चिमी मन्दिर समूह में यह मन्दिर उत्तर भाग में स्थित है। यह मन्दिर भगवान शिव को समर्पित है। यह मन्दिर पंचायतन शैली का है। इसके चारों कोने पर चार उप-मन्दिर बने होंगे लेकिन इस समय मात्र दो उप-मन्दिर शेष हैं। एवं उत्तर पूर्व के कोने पर एवं दूसरा दक्षिण पश्चिम कोने पर स्थित है शेष दो काल के ग्रास में समा गये।

जिस समय इस मन्दिर का निर्माण हुआ उस समय शिल्पकला अपनी चरम सीमा पर थी। इस मन्दिर की शिल्प एवं स्थाप्तय कला को देखने से प्रमाणित होता है कि कितनी उन्नत एवं समृद्ध थी । मन्दिर की लम्बाई 89 फीट एवं पौने 46 फीट चौड़ाई है। इसके उत्तर की तरफ के जीने की ओर दो हाथी हैं। मन्दिर की बाह्य दीवार पर ज्ञान मुद्रा में धर्म उपदेश करते हुए श्री गणेश जी हैं।

विश्वनाथ मन्दिर- विस्तृत जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें

नन्दी मन्दिर
विश्वनाथ मन्दिर के एक ही चबूतरे पर पूर्व की ओर नन्दी मन्दिर है जो कि भगवान शिव का वाहन है। नन्दी की 6 फीट ऊँची भव्य प्रतिमा अनुकरणीय एव दर्शनीय है। यह मंदिर छोटा और खंभों पर बना हुआ है ।

                                पूर्वी मन्दिर समूह
खजुराहो बस्ती के समीप स्थित मन्दिर पूर्वी मन्दिर समूह के नाम से जाने जाते हैं। इनमें ब्रह्मा, बामन, जवारी, घंटाई, पार्श्वनार्थ, आदिनाथ एवं शांतिनाथ प्रमुख हैं। इसके साथ ही खखरा मठ हैं जो काल के प्रभाव से नष्ट हो चुका है। यह बौद्ध मठ था जिसकी मूर्ति पुरातत्व संग्रहालय में देखी जा सकती हैं।

हनुमान मन्दिर
पश्चिमी समूह से पूर्वी समूह की तरफ जाने पर लगभग 1 किमी दूरी पर हनुमान मन्दिर आता है । भक्तजनों ने इस मन्दिर में जो मूर्ति है उसके ऊपर सिन्दूर चढ़ा रखा है मूर्ति की लम्बाई लगभग 3 मी.  है। हर्ष शासन काल का एक शिला लेख प्रतिमा की पीठ पर देखा जा सकता है। लगभग 922 ई0 का यह शिलालेख सबसे पुराना शिलालेख है यहाँ से आगे रास्ता दो भागों में बंट जाता है एक रास्ता जैन मन्दिर की ओर तथा दूसरा रास्ता ब्रह्मा, जवारी एवं वामन मन्दिर की ओर जाता है।

वामन मन्दिरवामन मन्दिर
ब्रह्मा मन्दिर से लगभग 200 मीटर की दूरी पर यह मन्दिर उत्तर पूर्व में स्थित है। भगवान विष्णु के वामन अवतार को समर्पित है। यह मन्दिर निरन्धार शैली का है । मन्दिर का प्रवेश द्वार टूटा हुआ है लेकिन महामण्डप एवं गर्भग्रह अच्छी तरह स्थित में है। इस मन्दिर में कोई मैथुन प्रतिमा नहीं है। इस वामन मन्दिर मन्दिर की विशेषता है कि नायिकाएँ अपने अनूठे सौन्दर्य की छठा बिखेरती है। शिल्पकार ने अपनी पूर्ण कला इसी मन्दिर में बिखेरा है। भगवान शिव के विवाह का दृश्य भी मार्मिक है। इसमें शिव एवं पार्वती को अग्नि के फेरे लेते हुए दिखाया गया है। 1050-75 ई0 में उसका निर्माण हुआ है।

जवारी मन्दिरजवारी मन्दिर
भगवान विष्णु के लिये समर्पित यह मन्दिर लगभग 1075-1100 ई० का बना हुआ है। वामन मन्दिर से 200 . मीटर की दूरी पर उत्तर पूर्व की ओर यह मन्दिर स्थित है। प्रवेश द्वार पर मकर तोरण बहुत ही सुन्दर बना हुआ है। मन्दिर छोटा होते हुए भी इसमें प्रतिमाएँ बहुत हैं। मन्दिर की बाह्य दीवार पर तीन लाइन की मूर्तियाँ हैं। जिसमें कुछ मैथुन के दृश्य भी पाये जाते हैं। इस मन्दिर की प्रतिमाएँ इतनी सुन्दर हैं कि मन को इतना आकर्षित करती हैं जिसका वर्णन करना मुश्किल है।

ब्रम्हा मन्दिर
900 ई0 का बना यह मन्दिर ननोरा ताल के पूर्वी तट पर स्थित है। यह बालू एवं लावा पत्थर से निर्मित है। यह पिरामिड शैली का मन्दिर है। इसका शिखर मतंगेश्वर , वाराह एवं लालगुआ मन्दिर से मिलता-जुलता है । मन्दिर में ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश के दर्शन होते हैं। प्रवेश द्वार पर गंगा एवं यमुना की मूर्तियाँ भी देखने को मिलती हैं।

खखरा मन्दिर
खजुराहो बस्ती करीब 500 मीटर की दूरी पर उत्तर में यह भगवान बुद्ध का मन्दिर था जो कि उस समय भव्य एवं सुन्दर रहा होगा। आज केवल चबूतरा एवं कुछ खम्मे शेष हैं मन्दिर के गर्भ गृह में प्राप्त भगवान बुद्ध की प्रतिमा संग्रहालय के मुख्य कक्ष की शोभा बढ़ा रहे हैं।

                                        जैन मन्दिर समूह

घंटाई मन्दिर
खजुराहो गाँव के दक्षिण में स्थित घंटाई मन्दिर अपनी कला के लिये अद्वितीय उदाहरण है। इसके स्तम्भों पर लटकती हुई घंटियाँ शिल्पकार की अपनी अनूठी कृति है । घंटिओं के कारण ही इसे घंटाई मन्दिर के नाम से जानते हैं अपने जमाने में यह मन्दिर भव्य, सुन्दर एवं उत्कृष्ट. नमूना था लेकिन आजकल की गति के कारण खण्डहर में तब्दील है।

घंटाई मन्दिर का प्रवेश द्वार एवं महामण्डप की छत आज भी पुराने समय की भव्यता की याद दिलाता है। गर्भग्रह के प्रवेश द्वार पर गरुड़ के ऊपर विराजमान शासन देवी चक्रेश्वरी तथा तीर्थकार के गर्भधारण के समय उनकी माता को दिखायी देने वाले 16 स्वप्न भी प्रदर्शित हैं।

पार्श्वनाथ मन्दिर
पाहिल नामक श्रेष्ठी द्वारा 10वीं शताब्दी में पार्श्वनाथ मन्दिर का निर्माण हुआ था। महामण्डप के प्रवेश द्वार पर लगा हुआ शिलालेख पर वर्णन है कि यह मन्दिर पाहिल नामक श्रेष्ठी ने लगभग 950 ई0 में बनवाया था। पंचरथ शैली में निर्मित यह मन्दिर जैन समूह में सबसे श्रेष्ठ मन्दिर है। पार्श्वनाथ मन्दिर में युगल चित्रों का अभाव है।

विद्वानों के अनुसार यह मन्दिर यहाँ के समस्त मन्दिरों में उत्कृष्ट एवं सुन्दर है । मन्दिर की आंतरिक संरचना में मण्डप, महामण्डप, गर्भगृह, अन्तराल एवं प्रदक्षिणा पथ दर्शनीय हैं। गर्भगह के प्रवेश द्वार पर तीन लोक का चित्रण है। नव ग्रहों के साथ ही जैन तीर्थकारों को देखा जा सकता है। मन्दिर के आलों में जैन तीर्थकार की प्रतिमाएँ देखने को मिलती हैं।

पार्श्वनाथ मन्दिर-विस्तृत जानकारी के लिए यहाँ क्लिक करें

आदिनाथ मन्दिर
पार्श्वनाथ के उत्तर में आदिनाथ मन्दिर स्थित है। यह आकार में छोटा है। निरन्धार शैली का यह मन्दिर पार्श्वनाथ मन्दिर के लगभग 100 वर्ष बाद में निर्मित हुआ । मन्दिर के गर्भगृह में जैन तीर्थकार प्रथम ऋषभदेव की प्रतिभा विराजमान है। इन्हें आदिनाथजी के नाम से भी जाना जाता है । मन्दिरकी बाहरी दीवाल पर तीन पंक्तियों की लाइन में मूर्तियाँ दर्शित हैं।

सबसे ऊपर की लाइन में गंधर्व, किन्नर एवं विद्याधर हैं। दोनों लाइनों में देवता, यक्ष एवं अप्सरायें आदि बीच की लाइन में देव कुलिकाएँ हैं। जिसमें 16 शासन देवियों का स्पष्ट उल्लेख किया हुआ है। बालक के लिए हुए ममतामयी जननी विशेष रूप से उल्लेखनीय है। नृत्य करते हुए नायिका विशेष वर्णनीय है।उसके नीचे ढोलक बजाते हुए दर्शनीय हैं।

जैन संग्रहालय
जैन मन्दिर परकोटा के बाहर नव-निर्मित संग्रहालय है। आधुनिक स्थापत्य कला का सुन्दर उदाहरण देखने योग्य है। यहाँ की प्रबन्ध समिति ने यहाँ पड़ी हुई प्रचुर मात्रा में जैन मूर्तियाँ एवं जैन सामग्री आदि को संकलित करके इस संग्रहालय में संग्रहीत की हुई हैं। वर्तमान में लगभग 200 मूर्तियाँ इस संग्रहालय की शोभ बढ़ा रही हैं।

शांतिनाथ मन्दिर
शांतिनाथ मन्दिर ही एक ऐसा मन्दिर है जहाँ पर आज भी पूजा-अर्चना सुचारू रूप से चल रही है। यह मन्दिर विशाल, गम्भीर, सौम्य एवं शांतिदायनी भगवान शांतिनाथ की मूर्ति के लिए प्रसिद्ध है। गर्भग्रह में स्थित भगवान शातिनाथ की 4.5 मीटर ऊँची प्रतिमा 11वीं सदी में निर्मित की गई थी । मन्दिर के मण्डप में बायीं ओर की दीवाल में इसके तीर्थकार पार्श्वनाथ जी के शासन देव – देवी धरणेन्द्र पद्मावती की मूर्ति देखी जा सकती है ।

                                     दक्षिणी मन्दिर समूह
खजुराहो गाँव के दक्षिण में तथा खूड़र नदी के पास स्थित मन्दिर समूह दूल्हादेव एवं चतुर्भुज मन्दिर प्रमुख है।

दूल्हादेव मन्दिर
घंटाई मन्दिर से लगभग 500 मीटर की दूरी पर दक्षिण दिशा में नदी के किनारे दूल्हादेव मन्दिर स्थित है। यह मन्दिर खजुराहों की स्थापत्य एवं मूर्तिकला का बेजोड़ उदाहरण है। इसे सर्वोत्तम मन्दिर की श्रेणी में गिना जाता है। यह मन्दिर भगवान शिव को समर्पित है। दूल्हादेव मन्दिर का निर्माण सन् 1100-1150 में हुआ।  निरंधार शैली का यह मन्दिर कुंवर मठ अथवा नीलकठेश्वर मन्दिर के नाम से जाना जाता था कनिघम द्वारा लिखा गया है। गर्भग्रह के द्वार पर तीन लोक के चित्रण में सप्त मातृकाएँ एवं नृत्य लोक का चित्रण उल्लेखनीय है।

गर्भग्रह में सहस्त्रामुखी शिव को प्रतिष्ठित किया गया है। जिनकी पूजा करने से एक हजार एक शिवलिंग का फल प्राप्त होता है। लोकमतानुसार, एक वारात यहाँ से गुजर रही थी यकायक दूल्हे राजा घोड़े से गिर पड़े एवं तुरन्त ही स्वर्ग सिधार गये। उसी समय से इस मन्दिर का नाम ‘दूल्हादेव’ लोग कहने लगे। इस मन्दिर की मूर्तियाँ छोटी एवं गहराई में कम गहरी हैं। यहां की मूर्तियों की भाव भंगिमाओं की छटा देखते ही बनती है।

शारीरिक बनावट एवं मुख की मुद्रा अपने आप में बेजोड़ है। यहां प्रतिमाओं की तीन लाइन है। मैथुन मूर्तियां विशेष उल्लेखनीय है जो दूसरे मन्दिरों से भिन्न है। युगलों की विभिन्न मुद्राएं दर्शनीय हैं। सबसे ऊपर की लाइन में गंधर्व एवं किन्नर उड़ते हुए दिखाए गये हैं जिसका सजीव चित्रण दिखाता है। मन्दिर के दक्षिणी आले में अंधकासुर वध एवं ऊपरी आले में पद्मासन अवस्था का चित्रण देखने योग्य है।

चतुर्भुज मन्दिर
खजुराहो गांव के दक्षिण में चतुर्भुज मन्दिर स्थित है। पश्चिमी मन्दिर समूह से इस मन्दिर की दूरी लगभग 4 किमी0 है। इसका निर्माण 11वीं शताब्दी में हुआ। यह निरन्धार शैली का मन्दिर है। गर्भग्रह एवं प्रवेश द्वार बाला यह मन्दिर पश्चिमी मुखी है। गर्भग्रह में भगवान शिव की चतुर्मुखी 2.7 मीटर ऊची प्रतिमा प्रतिष्ठित है। कुछ लोग इसे विष्णु प्रतिमा भी कहते हैं। बाहरी दीवार  में दक्षिण की ओर अर्धनारीश्वर की मूर्ति विशेष दर्शनीय है एवं उत्तर की ओर नरसिंह की मूर्ति है। ऊपर गंधर्वों एवं विद्याधरों की मूर्ति देखने योग्य है।

बुन्देलखण्ड के पर्यटन स्थल 

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