Khajuraho Ka Itihas खजुराहो का इतिहास

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मध्य प्रदेश बुन्देलखण्ड के जिला छतरपुर में स्थित खजुराहो अपने मन्दिरों के कारण सुविख्यात है । Khajuraho Ka Itihas खजुराहो का हर पत्थर बखान करता है । 9वीं और बारहवी शताब्दी  के बीच निर्मित ये मन्दिर नागर शैली के बड़े उत्कृष्ठ मंदिर हैं । विशिष्ट वास्तु-लक्षणो एवं उत्कीर्ण मूर्ति-कला के कारण ये भारत के समानरूप अन्य सब स्मारकों में अद्वितीय है ।

खजुराहो जो खजुराहो-सागर अथवा निनोरा-ताल नामक झील के दक्षिण-पूर्वी कोने मे बसा है, किन्तु किसी समय यह एक विशाल एवं भव्य नगर था। उस भव्य नगर की गौरव-गाथा, आज भी उन भग्नावशेषों में पढ़ी जा सकती है, जो खजुराहो के समीपवर्ती आठ वर्ग मील के क्षेत्र में बिखरे पड़े हैं।

History of Khajuraho 

खजुराहो के चारों ओर विस्तृत प्रदेश का नाम प्राचीन काल मे वत्स तथा मध्ययुग में जेजाभुक्ति अथवा जेजाकभुक्ति था और चौदहवीं शती से यह बुन्देलखण्ड के नाम से प्रसिद्ध है । 200 ई० पू० से ही इस प्रदेश ने, सांस्कृतिक क्षेत्र में, भारतीय इतिहास को महत्त्वपूर्ण योगदान प्रदान किया है। इसी प्रदेश में गुगकालीन भरहुत केन्द्र मे और पुनः गुप्त  कालीन भूमरा, खोह, नचना और देवगढ़ केन्द्रों में, मूर्ति-कला और वास्तु-कला के अभूतपूर्व  कार्य हुए हैं । गृप्तकालीन स्थापत्य-विकास के क्रमिक सोपानों के रूप में नचना का पार्वती मन्दिर, भूमरा का शिव मन्दिर और देवगढ़ का दशावतार मन्दिर दर्शनीय हैं।

बाद मे निर्मित नचना का चतुर्मुख-महादेव मन्दिर और भी महत्त्वपूर्ण है। उत्तरभारतीय प्राचीनतम शिखर-मन्दिरों में इसका विशिष्ट स्थान है और यह गुप्त एवं मध्ययुगीन मन्दिर-शैलियों के बीच की एक कड़ी है। मन्दिर-निर्माण की यह परम्परा प्रतीहार-शासनकाल में टूटी नहीं । प्रतीहार नरेशों द्वारा अनेक मन्दिरों का निर्माण हुआ ।

उनके श्रेष्ठतम दो मन्दिर इसी प्रदेश में निर्मित हुए – जिला झाँसी (उतार प्रदेश) के बरुवा- सागर का शिव मन्दिर (जराय का मठ) और जिला टीकमगढ़ (मध्य प्रदेश) के मन्खेरा का सूर्य मन्दिर । दोनों नवीं शती की रचनाएं हैं। इनके अतिरिक्त प्रतीहार-शासनकाल में स्थानीय शैली के भी कुछ साधारण मन्दिर कणाश्म (granite) द्वारा निर्मित हुए, जो सब छतरपुर जिला (म प्र) में स्थित हैं ।

स्थापत्य की ऐसी प्रष्ठभूमि से युक्त उस प्रदेश में एक शक्तिशाली मध्यभारतीय राजवंश के रूप में चन्देलों का उदय हुआ और खजुराहो को उनकी प्रथम राजधानी बनने का सौभाग्य मिला । ये चन्देल राजा  महान निर्माता और कला एवं साहित्य के अच्छे पारखी थे। उनके संरक्षण में जेजाकभुक्ति (जशौति) को राजनीतिक स्थिरता, समृद्धि एवं सम्पन्नता प्राप्त हुई और दसवीं तथा बारहवी शरतियों के वीच यह एक महान सांस्कृतिक  आन्दोलन का क्षेत्र रहा, जिसके परिणाम- स्वरूप अनेक साहित्यिक कृतियों एवं भव्य स्मारकों का जन्म हुआ ।

चन्देल राज-दरबार माधव, राम, नन्‍दन, गदाघर तथा जगनिक जैसे कवियों और ‘प्रबोधचन्द्रोदय’ के रचयिता कृष्ण मिश्र जैसे नाटककार से अलंकृत था। नरेशों में गण्ड और परमार्दिन स्वयं श्रेष्ठ कवि थे और धंग तथा कीर्तीवर्मन थे कवियो और लेखको के संरक्षक । चन्देल नरेशों ने अपने राज्य महोबा (प्राचीन महोत्सव नगर), कालिजर (कालंजर) और अजयगढ़ (जयपुर दुर्ग ) केन्द्रो को सरोबरों, दुर्गों, प्रासादों तथा मन्दिरों से सुसज्जित किया । किन्तु भव्यता की दृष्टि से, इनमे से किसी भी केन्द्र की तुलना  उनकी राजधानी खजुराहो (प्राचीन खर्जुरवाहक) से नहीं की जा सकती, जिसे उन्होंने मन्दिरों एवं सरोवरों से अलंकृत किया था।

कन्नौज के गुजर-प्रतीहार सम्राटो के सामन्‍त के रूप में चन्देलो ने अपना राजनीतिक जीवन प्रारम्भ किया । चन्देल अभिलेख समान रूप से नन्नुक (825 -840  ई०) को वंश का प्रथम राजा मानते हैं। सम्भवत: उसका दूसरा नाम विरुद चन्द्रवर्मा था । अभिलेखों में उसे ‘नृपति’ अथवा ‘महीपति’ से ऊँचा पद नहीं प्रदान किया गया है । सम्भवत वह स्थानीय सामन्त मात्र था।

नन्नुक का उत्तराधिकारी उसका पुत्र  वाक्‍पति (845 -865  ई०) हुआ, जो बुद्धि और वाक्शकित में देवगुरु बृहस्पति के तुल्य था। खजुराहो अभिलेखो के अनुसार वह पृथु और कुकुत्स्थ के समान था। किन्तु उसका भी विरुद “क्षितिप’ अथवा ‘पृथ्वीपति’ से ऊँचा नहीं था। सामान्य स्तर का सामन्‍त होते हुए भी वह साहसी और वीर योद्धा था । उसने विन्ध्य की ओर राज्य बिस्तार किया था ।

बाक्पति के दो पुत्र थे, जयशक्ति और विजयशक्ति (865 -884 ई) । कुछ अभिलेखो में जयशक्ति को जेजा अथवा जेज्जक और विजयशवित को विजय, विज्ज अथवा विज भी कहा गया है। इन दो भाइयों का उल्लेख कई चन्देल अभिलेखों में हुआ है। बड़ा भाई जयशक्ति पिता की मृत्यु के पश्चात्‌ सिहासन पर बैठा । सम्भवतः उसके कोई पुत्र नहीं था, इस लिए  उसकी मृत्यु के बाद उसका छोटा भाई राजा  हुआ ।

सामान्यतः इन दोनों भाइयों का उल्लेख साथ-साथ हुआ है। उनके उत्तराधिकारियों के लगभग सभी ताम्न-पत्रों में यह कहा गया है कि उन्होंने अपने जन्म से वंश को माँ सम्मान दिया । एक महोबा अभिलेख के अनुसार जयशक्त ने अपने नाम पर राज्य का नाम जेजाकभुक्ति उसी प्रकार रखा था, जिस प्रकार पृथु ने पृथ्वी ।

जयशक्ति और विजयशक्ति ने दावाग्नि  की भाँति अपने राज्य के समस्त शत्रुओं को नष्ट कर दिया था । जयशक्ति ने अपना ध्यान शासन-प्रबन्ध की ओर दिया और विजयशक्षित ने  समकालीन राजनीतिक गतिविधियों में सक्रिय भाग लिया। विजयशक्ति का उत्तराधिकारी उसका पुत्र राहिल (885 -905 ई०) हुआ । उसके शासन- काल में कोई महत्त्वपूर्ण घटना नही घटी । राहिल को वीर, योद्धा और शत्रुहन्ता माना गया है, जिसके कारण शत्रु भयभीत रहते थे ।

चन्देल वंश का प्रथम महत्त्वपूर्ण राजा हर्षदेव  (905-925 ई०) हुआ, जो पिता राहिल की मृत्यु के पश्चात्‌ सिहासन पर बैठा । समकालीन राजनीति में भाग लेकर हर्षदेव  ने चन्देलवंशीय शक्ति, सामर्थ  और ऐश्वर्य के नये युग का प्रारम्भ किया । 907 ई० में गुजर-प्रतीहार सम्राट्‌ महेन्द्रपाल की मृत्यु के पश्चात्‌ कन्नौज के प्रतीहार वंश की ग्रह-कलह ने हर्षदेव  को वहाँ की सक्रिय राजनीति मे भाग लेने का अवसर प्रदान किया ।

क्षितिपाल अथवा महीपाल को उसने पुनः 917 ई० में सिहासन पर बैठाया, और सम्भवत इस सफलता की स्मृति मे उसने मातंग्रेश्वर मन्दिर का निर्माण कराया, जो रेतीले पत्थर (Sand Stone) के बने खजुराहो-मन्दिरों में प्राचीनतम है । सामन्‍त होते हुए भी हर्ष प्रतीहार साम्राज्य का भाग्य-विधाता बनकर चन्देल-प्रतिष्ठा की अभूतपूर्व वृद्धि की । उसने चाहमान कुमारी कचुका से विवाह किया और अपनी पुत्री नट्ट अथवा नट्ट देवी का विवाह कलचुरि नृपति कोवकल्ल से किया ।

इन वैवाहिक सम्बन्धों के परिणामस्वरूप चन्देलों की शक्ति और प्रतिष्ठा की अत्यधिक अभिवृद्धि हुई। हर्ष वीर योद्धा, राजनीतिज्ञ एवं मृदुभाषी था ।  उसने जिस नीति का प्रारम्भ किया उस पर चलकर यशोवर्मन , विद्याधर और मदनवर्मन ने विशाल साम्राज्य का निर्माण किया। हर्ष देव की मृत्यु के पश्चात्‌ उसका यशस्वी पुत्र यशोवर्मन्‌ (925-950 ई०) राजा बना । उसने पिता की विजय-योजना को न केवल आगे बढ़ाया, वरन पतनशील प्रतीहार

साम्राज्य के अवशेषों पर नव-विकसित चन्देल साम्राज्य का भवन निर्माण किया । उसने अपनी विजय-यात्रा में गौड़ (बंगाल) से खब (उत्तर-पश्चिम) तक धावे मारे । 954 ई० के खजुराहो अभिलेख के अनुसार उसने गोड़, खष, कोसल, चेदि, कुर, मिथिला, मालवा, कश्मीर तथा गुर्जरों की विजय की । किन्तु उसकी सर्वाधिक महत्त्वपृ्णं उपलब्धि कालिजर-किले की विजय थी, जिसके परिणामस्वरूप चन्देलों की प्रतिष्ठा बढ़ी और उनकी गणना एक शक्तिशाली राजवश के रूप में होने लगी ।

954  ई० के खजुराहो अभिलेख के अनुसार उसने एक भव्य विष्णु-मन्दिर का निर्माण कराया  था, जो खजुराहो का वर्तमान लक्ष्मण मन्दिर है। स्थापत्य की दृष्टि से यह अपने युग में मध्यभारत का सर्वाधिक विकसित और अलंकृत मन्दिर था। चन्देलो की शक्ति एवं प्रतिष्ठा के अनुरूप ही यह स्मारक बना । इस अभिलेख में यह उल्लेख है कि इस मन्दिर में प्रतिष्ठित वैकुण्ठनाथ की प्रतिमा को यशोवर्मन  ने हेरम्बपाल के पुत्र हयपति देवपाल से प्राप्त किया था। आज भी यह प्रतिमा लक्ष्मण मन्दिर में दर्शनीय है ।

यशोवर्मन की मृत्यु के पश्चात्‌ उसका पुत्र धंग  (950 -1008  ई०) सिंहासन पर बैठा । सैन्य -शक्ति और प्रतिभा के बल पर उसने पैतृक राज्य को और अधिक मजबूत  किया । उसका शासनकाल चन्देल-इतिहास में महत्त्वपूर्ण रहा और उसके समय में चन्देल साम्राज्य की सीमाएं लगभग अन्तिम रूप से निर्धारित हो गई । चन्देल-प्रतीहार सम्बन्धो का भी नया अध्याय प्रारम्भ हुआ । बह अपने वश का प्रथम नृपति था, जिसने कमजोर प्रतीहार-सत्ता को अस्वीकार करके स्वाधीनता की धोषणा की ।

चन्देल साम्राज्य की सुरक्षा-पंक्ति मे उसने गोपाद्रि (ग्वालियर ) विजय द्वारा एक नई कड़ी जोड़ दी । गोपाद्रि निविवाद रूप से प्रतीहार सम्राट्‌ के अधिकार-क्षेत्र में था। इस विजय के पश्चात्‌ ही उसने स्वतन्त्रता की घोषणा की होगी। उसके राज्य की सीमा कालिजर से मालव  नदी तक, मालव नदी से कालिंदी  तक, कालिंदी से चेदि राज्य तक और चेदि राज्य से गोप (। गोपाद्रि) तक फैली थी । इस विशाल साम्राज्य की राजधानी होने का गौरव खजुराहो को ही प्राप्त था । इतना ही नहीं, उसने भारत के अन्य भागों में भी दूर-दूर तक धावे मारे ।

इसमें कोई सन्देह नही कि धंग चन्देल वश का प्रतिभाशाली और वीर शासक था । उसने पडोसी राज्यो की आपसी राजनीति में ही भाग नहीं लिया, वरन्‌ गज़नी के अमीर सुबुक्तगीन अथवा सुल्तान महमूद, जिसे चन्देल अभिलेखों में हम्बीर कहा गया है, उसके विरुद्ध शाही शासक जयपाल की सहायता भी की। शक्ति में वह हम्बीर के तुल्य कहा गया है ।

विजेता के रूप मे वह महान्‌ था, किन्तु कला तथा स्थापत्य के संरक्षक के रूप में वह और भी महान था। उसके शासनकाल में खजुराहो के दो श्रेष्ठतम मन्दिरों–विश्वनाथ और पार्श्वनाथ का निर्माण हुआ था। विश्वनाथ मन्दिर का निर्माण उसने स्वयं कराया था और पार्श्वनाथ उसके शासनकाल में, उसके द्वारा सम्मानित पाहिल द्वारा निर्मित हुआ था। तीसरे मन्दिर का पता नहीं चलता, जो उसके शासनकाल में ग्रहपति वंश के कोक्‍कल द्वारा 1001 ई० में वैद्यनाथ (शिव) की प्रतिष्ठा की गई थी ।

धंग के पश्चात्‌ उसका पुत्र गंड अल्पकाल के लिए सिंहासन पर बैठा (1008 -1017) । उसने शान्तिपूर्वक  शासत किया। खजुराहो के दो मन्दिर–जगदम्बी और चित्रग्रुप्त-जो एक-दूसरे के निकट स्थित है, सम्भवत: इसी के शासनकाल में निर्मित हुए थे । इनमे पहला वैष्णब और दूसरा  सूर्य मन्दिर है ।

गंड के पश्चात्‌ उसका पुत्र विद्याधर (1017 -1026  ई०) राजा  हुआ, जिसे चन्देल वंश को गौरव के शिखर पर पहुँचा देने का श्रेय प्राप्त है। विद्याधर शक्तिशाली शासक था । विदेशी आक्रमणकारी सुल्तान महमूद गज़नवी द्वारा 1018 ई० में कन्नौज पर किये गये आक्रमण का सामना करने के स्थान पर कन्नौज-नरेश राज्यपाल ने छिपकर अपनी प्राणरक्षा की थी।

विद्याधर ने राज्यपाल को देशद्रोही माना और महमूद के लौटते ही, दण्ड-रवरूप उस पर आक्रमण कर, उसे मार डाला । इसके अतिरिक्त विद्याधर ने न केवल अपने विरोधियों  कलचुरियो और परमारों पर विजय प्राप्त की, बरन उसने सुल्तान महमूद द्वारा दो बार (1016  और 1022  ई० में) कारलिजर-किले पर किये गये आक्रमण का जमकर विरोध भी किया था।

कालिंजर का यह किला मजबूती में सारे भारत मे अपना दूसरा नही है । उसके संरक्षण में चन्देल साम्राज्य समृद्धि-शिखर पर पहुँच गया था। विद्याधर ने अपने पूर्वजों की मन्दिर-निर्माण-परम्परा को अक्षुण्ण रखा होगा और खजुराहो का विशालतम और श्रेष्ठतम कन्दरिया-महादेव मन्दिर उसी के द्वारा निर्मित हुआ होगा ।अभिलेखों में शिव के अनन्य भक्त के रूप में विद्याधर का उल्लेख और कन्दरिया मन्दिर के मण्डप में एक संक्षिप्त अभिलेख की प्राप्ति, जिसमें उल्लिखित नृपति का नाम विरिद विद्याधघर का ही दूसरा नाम हो सकता है।

विद्याधर की मृत्यु  के पश्चात्‌ शक्तिशाली कलचुरियों और मुसलमानों के भीषण आक्रमणों के फलस्वरूप चन्देल-शक्ति का क्रमशः पतन हो गया। चन्देल-शक्ति के पतन के साथ-साथ खजुराहो का महत्व भी क्षीण होता गया, क्‍योंकि परवर्ती चन्देल नरेशों ने महोबा, अजयगढ़ और कालिजर के दुर्गों पर अपना ध्यान विशेष रूप से केन्द्रित किया।  किन्तु खजुराहो का कलात्मक वेग रुका नहीं और वहाँ बारहवी शती तक मन्दिर-निर्माण की परम्परा चलती रही।

कन्दरिया-महादेव मन्दिर के पश्चात्‌ अनेक मन्दिरों, जेसे बामन, आदिनाथ, जबवारी और चतुर्भुज, का निर्माण हुआ । ये मन्दिर अपेक्षाकृत छोटे होते हुए भी कलात्मक दृष्टि से बड़े मन्दिरों के समान ही महत्त्वपूर्ण है। शैव मन्दिर दूलादेव का निर्माण 12 वीं शती के उत्तरार्ध में हुआ और एक अन्य शैव  मन्दिर के निर्मित होने का उल्लेख खजुराहो सग्रहालय के एक अभिलेख मे प्राप्त है, लिपि के आधार पर 12 वीं शती के उत्तरार्ध  का माना जा सकता है ।

खजुराहो में देव-मूत्तियों की प्रतिष्ठा  की परम्परा तो मदनवर्मा के शासनकाल में 1158 ई० तक चलती रही जयवर्मन के 1117  ई० के खजुराहो अभिलेख से स्पष्ट है कि परवर्ती चन्देल नरेशों ने खजुराहो की अवहेलना नहीं की। सम्भवतः परवर्ती खजुराहो-मन्दिर विद्याधर के प्रभावशाली उत्तराधिकारियों, जैसे विजयपाल (1029-51 ई० ), कीत्तिवर्मनू (1070-98 ई०) और मदन वर्मन  (1126-63), के संरक्षण मे निर्मित हुए ।

खजुराहो के पर्यटन स्थल 

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