Kanhaiya Aathen कन्हैया आठें

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Kanhaiya Aathen कन्हैया आठें

कृष्ण जन्माष्टमी को बुन्देली में कन्हैया आठें Kanhaiya Aathen कहा जाता है। कृष्ण जन्म का उत्सव सम्पूर्ण भारत वर्ष में मनाया जाता है। श्री कृष्ण गाय तथा पशुओं के रखवाले हैं वे कृषकों और ग्वालों के प्रिय है। अपनी बांसुरी की धुन पर तीनों लोकों को मोहित करने वाले हैं। ऐसे सुन्दर रूप व गुण वाले श्रीकृष्ण बुन्देलखण्ड में भी सर्वप्रिय हैं। एक कारण यह भी है श्रीकृष्ण को मान्यता देने का, कि बुन्देली संस्कृति ब्रज से प्रभावित रही है।

भादों मास (भाद्रपद) की कृष्ण पक्ष की अष्टमी को रोहिणी नक्षत्र में मध्य रात्रि (12 बजे) श्रीकृष्ण जन्मोत्सव के रूप में मनाई जाती है। स्त्री पुरूष दोनों व्रत रहते हैं। मन्दिरों व घरों में कृष्ण-जन्म व जन-जीवन से सम्बंधित झाँकियाँ सजाई जाती हैं।

बुन्देलखण्ड में घरों के भीतर पूजागृह या आंगन की चूने से पुती हुई भित्ति पर जन्माष्टमी का चित्रण करना स्त्रियों व बालिकाओं की कलात्मकता का प्रतीक होता है। यह चित्रण जन्माष्टमी से कई दिन पहले से प्रारम्भ हो जाता है। यह रंगीन चित्रण है इस कारण अत्यन्त लुभावना होता है।

इस चित्रण में पारम्परिक रंगों के साथ प्राकृतिक फूल-पत्ती के रसों का प्रयोग भी किया जाता है। रंग प्रयोग भी स्वेच्छा से किया जाता है। आकार का बड़ा या छोटा होना चित्रण करने वाली स्त्री या बालिकाओं की इच्छा पर निर्भर होता है। श्रीकृष्ण जन्म से लेकर बाल्यकाल तक की विशेष घटनाओं को भित्ति पर मनोयोग से चित्रित किया जाता है।

इस चित्रण में चित्रों की संख्या या कृष्ण लीलाओं की विशेष घटनाओं के चित्रण का कोई बंधन नहीं होता है। भित्ति चित्रण बनाने वाली स्त्री के श्रीकृष्ण कथा ज्ञान पर निर्भर करता है। पुराने समय में पास-पड़ोस में सुन्दर कन्हैया आठें लिखने की प्रतियोगिता सी होती थी। वर्तमान में चित्रण परम्परा लगभग समाप्त हो गई है।

प्रसाद के लिये पंजीरी, पंचामृत, सोंठ के लड्डू और हरीरा बनाने का प्रचलन है। कई प्रकार के मेवा भी पागे (शक्कर या गुड़ की चाशनी से जमाना) जाते हैं। वास्तव में यह पूजा ईश्वर भक्ति के साथ कृष्ण जन्म से पूर्व की तैयारी भी है जिसमें माता देवकी और यशोदा के लिये प्रसव के बाद के व्यंजन भी बनाये जाते हैं।

मध्य रात्रि में चित्रांकित भित्ति के समक्ष गोबर से लीपकर चौक पूर लेते हैं। उस पर सिंहासन रखकर बाल-गोपाल श्रीकृष्ण की मूर्ति विराजमान की जातीहै। मूर्ति को यमुना जल में स्नान कराके खीरा काटा जाता है जिसे ‘नरा छीनना’ कहते हें। बुन्देली लोकगीत में इसका वर्णन है –
ऐसी मिजाजिन दाई कन्हैया को नरा न छीने
नरा न छीने मौ हूं न बोले, ठाड़ी ओंठ बिदोलें।

तत्पश्चात मूर्ति को नवीन वस्त्राभूषणों से सुसज्जित कर सिंहासन पर विराजमान किया जाता है। झूला भी डाला जाता है जिस पर कन्हैया जू को झुलाते हैं। प्रसाद चढ़ाकर भजन-कीर्तन होता है तब व्रत का पारायण किया जाता है। श्रीकृष्ण जन्म से सम्बंधित कथा सर्वविदित है कि- अत्याचारी राजा कंस की चचेरी बहन देवकी का विवाह वसुदेव से हुआ तब आकाशवाणी हुई कि देवकी का आठवाँ पुत्र कंस का काल बनेगा।

कंस, देवकी-वासुदेव को कारागार में बंदी बनाकर रखा उनके सात बच्चों को उसने जन्म लेते ही निर्दयतापूर्वक मार डाला। आठवें पुत्र के रूप में श्रीकृष्ण ने जन्म लिया। तब वसुदेव उन्हें यमुना पार ब्रज में नन्दर और देवकी के घर छोड़ आये। वहीं पर पल बढ़ कर श्रीकृष्ण ने बाल्यकाल की अनेक लीलायें कीं। अन्त में कृष्ण ने कंस का वध कर माता-पिता को मुक्ति दिलाई ।  

श्री कृष्ण कर्मयोगी थे उनके जीवन का प्रभाव लोक-जीवन में बहुत पड़ा है। सामान्य वर्ग में कर्म पर अधिक विश्वास किया जाता है। कृष्ण पशु रक्षक हैं तथा उनके जीवन में प्रेम का रस भी है।यह दोनों पक्ष सदैव जन-मानस को आकर्षित करते रहे हैं।

बुन्देली का क्षेत्रीय स्वरूप