करवा चौथ एक पारंपरिक हिंदू व्रत है, जिसे विवाहित महिलाएँ अपने पति की लंबी उम्र और सुख-समृद्धि के लिए रखती हैं। यह व्रत कार्तिक मास की कृष्ण पक्ष की चतुर्थी तिथि को मनाया जाता है, जो आमतौर पर अक्टूबर या नवंबर महीने में आता है। बुन्देलखण्ड मे करवा चौथ Karwa Chauth का भित्ति चित्रण किया जाता है।
दीवार पर गाय के गोबर से चौरस लीपते हैं। चावल को पीस कर उसके घोल से लकड़ी के अग्र भाग मे रूई लपेट कर भित्ति चित्रण किया जाता है। यह चित्रण करने मे स्त्रियों को बहुत समय लगता है। इस कारण पर्व के नौ दिन पूर्व अर्थात दशहरे वाले दिन से चित्रण प्रारम्भ कर दिया जाता है।
इसमे मध्य मे पार्वती का स्वरूप मुख्य होता है उनका सीढ़ीदार लहंगा बनाया जाता है। दाँये बाँये सूरज चन्दा, श्री गणेश, कार्तिकेय, शिव पार्वती, राधा कृष्ण, गंगा-जमुना, देवरानी-जेठानी, इमली के पेड़ पर से चलनी से दिया दिखाता भाई, सीढ़ी पर चढी पूजा करती बहन, सिंगार सामग्री, सर्प, धोबी-धोबन और कुम्हारिन-कुम्हार अपने बच्चों सहित, करवा आदि अनेक वस्तुयें चित्रित की जाती हैं।
सम्पूर्ण चित्र का आधार कथात्मक होता है। चित्रण काल्पनिक तथा पारम्परिक होता है। बुन्देलखण्ड मे कुछ लोग चित्र मे दो गोला कार आकृतियाँ बनाकर नीचे सीढीनुमा बना कर भी भित्ति चित्रण करते हैं। यह चित्र भी चारो ओर से रेखाओ द्वारा बंद रहता है।
इस पूजा का विधान है कि स्त्रियाँ निर्जला व्रत रह कर सभी तरह के पक्के – कच्चे पकवान बनाती हैं। पक्के (पूडी, कचौडी, सब्जी रायता, खीर आदि) कच्चे (रोटी कढी, चावल, बरा, फरा आदि) व्यंजनों के साथ कच्चे चावल और पिसी शक्कर की पिढ़ियाँ भी कछ घरों मे बनती हैं। संध्या बेला मे स्त्रियाँ पूर्ण श्रंगार करके भित्ति चित्रण के समक्ष धातु का करवा तथा मिटटी का करवा भी रखती है उनमे पानी भर देती हैं।
मिटटी के करवा मे पीली सींके लगाई जाती हैं। उस पर दीपक जलाकर रखते हैं। पूजन कर कथा भी कही जाती हैं। मिटटी का करवा रखना परम आवश्यक है, क्योंकि इससे सम्बन्धित कथा यह है कि एक बार पार्वती जी चौथ पर पृथ्वी लोक पर आईं और कहा मैं चार घड़ी चन्द्रमा रहने तक ही रहूँगी और जो स्त्रियाँ मेरी पूजा करेगी वे अमर सुहाग का वरदान पायेंगी
गरीब घर की स्त्रियाँ झटपट मिटटी के करवा लेकर उनमे बताशा का चूरा भरकर पार्वती जी के पास पहुँची और पूजा कर अखण्ड सौभाग्यवती का वरदान पाया। किन्तु उच्च कुलीन घर की स्त्रियाँ चाँदी-सोने के करवे मे पकवान भरकर पूर्ण श्रृंगार करके पूजन हेतु पहुँची तब तक सुहाग बँट चुका था।
स्त्रियों की अनुनय विनय से पार्वती जी ने अपने बॉँये हाथ की कनिष्ठिका काट कर सब पर छिड़ककर सुहाग दिया। जिसको जितना मिला उतनी ही लम्बी उम्र उसके सुहाग की हुई। इसी कारण स्त्रियाँ प्रतिवर्ष मिटटी का करवा रखकर पूजा करती हैं और अपने पति की दीर्घायु की कामना गौरा जी से करती हैं।
चन्द्रमा के उदय होने पर गौराजी के करवे से अपना करवा पाँच या सात बार बदला जाता है। चन्द्रमा को अर्ध्य दिया जाता है। तत्पश्चात् व्रत का पारायण प्रसाद खाकर किया जाता है। करवा चौथ भित्ति चित्रण से सम्बन्धित एक लोक-कथा अत्यन्त प्रचलित है जिसे पूजा मे भी कहा जाता है—
एक सात भाइयों की अकेली प्रिय बहन सताना थी। विवाह के बाद पहला करवा चौथ पड़ा, भाई चौथ पूजन की सामग्री लेकर सताना के ससुराल गये। जब वे भोजन कर रहे थे तब उन्होने सताना से भी खाने का आग्रह किया किन्तु सताना ने व्रत के बारे मे बताया। भाई सताना का भूख से कुम्हलाया चेहरा देख कर दुःखी थे।
बहन के प्रेम मे वशीभूत होकर छोटा भाई चलनी और दिया लेकर इमली के पेड पर चढ़ गया और दूसरे भाई ने कहा कि चन्द्रमा निकल आया। सताना को चलनी मे जलता दिया घने पेड़ से चन्द्रमा जैसा प्रतीत हुआ उसने चन्द्रमा को अर्घ्य देकर व्रत तोड़ दिया।
भाई प्रसन्न होकर अपने घर लौट आये। जब चन्द्रमा निकला तब भाईयों की पत्नियों ने पूजा की। उधर सताना का व्रत खंडित होने से उसके पति की मृत्यु हो गई | छोटे भाई ने पूजा वाली घटना अपनी पत्नी को बताई। पत्नी ने सताना से कहा- तुमसे करवा चौथ की पूजा मे चूक हुई है इस कारण तुम साल भर अपने पति का शव रखो और करवा चौथ पर नियम पूर्वक व्रत रहना वे जीवित हो जायेंगे। सताना ने वैसा ही किया। गौरा जी की कृपा से सताना का पति जीवित हुआ ।
इसी कथानुसार कुछ परिवारों मे भित्ति चित्र मे मृत पुतरा बनाते हैं। पूजन के बाद उसे जीवित पुतरे मे चित्रित कर बदल देते हैं। यह कथा थोड़े हेर फेर के साथ लगभग सभी स्थानों पर कही जाती है।




