आषाढ़ मास की शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा गुरू पूर्णिमा के नाम से जानी जाती है बुन्देलखण्ड में इसका एक स्वरूप भिन्न होता है यहाँ Kunghusu Poone कुनघुसू पूने भी कहते हैं । यहाँ कुलवधू या गृह वधू की पूजा इसी दिन की जाती है। स्त्री घर की शोभा है, मर्यादा है, सम्माननीय है, वंश-वृद्धि में सहायक है उसका वधू रूप गरिमामय होता है जिसमें बड़ों के लिये आदर व छोटों के लिये प्यार होना चाहिए।
अपने कुल की मर्यादा में रहकर समाज में मान-सम्मान प्राप्त करना ही कुलवधू का दायित्व है। इन सभी पारिवारिक भावनाओं को अपने में समाहित किये कनघुसूं की पूजा की जाती है। इस पूजा का भित्ति चित्रण घर की वरिष्ठ महिला द्वारा किया जाता है। नाम के अनुरूप कुनघुसूं का चित्रण कोने में किया जाता है।
पूजागृह या रसोई के चारों कोनें गोबर से लीपकर उस पर हल्दी से पुतरियां बनाई जाती हैं। यह बहुयें कहलाती हैं। संभवतः यह कुल की देवी या उन बहुओं का प्रतीकात्मक चित्रण है जो पुराने समय से कूल मर्यादा और वंश वृद्धि में सहायक बनीं। यह भी कहा जाता है कि यह भविष्य की बहुयें हैं जो परम्परानुसार परिवार को संचालित कर उसे समाज में सम्माननीय स्थिति में रखेंगी।
भित्ति चित्रण के पश्चात इन प्रतीकात्मक बहुओं को घी गुड़ का भोग लगाकर विधिवत पूजा की जाती है। वरिष्ठ महिला ऐसी प्रार्थना करती है कि “हे कलवधू तुम हमारे परिवार की लक्ष्मी बनकर धन-धान्य को परिपूरित कर, वंश बेल में वृद्धि करो और कूल की लाज, मान-मर्यादा तथा पारिवारिक सद्भाव बनाये रखो।
यह समस्त गुण यदि कुलव्धू में हैं तो वह परिवार में सुख समृद्धि बनाये रखने और वृद्धि करने में सहायक होगी। प्रतिवर्ष यह पूजन परिवार की वच्चुओं को अपने दायित्वों तथा कर्तव्यों को स्मरण कराता है। कुनघूसूं से सम्बंधित एक पौराणिक कथा भी है –
एक बार राजा दक्ष प्रजापति ने बहुत बड़ा यज्ञ किया। उसमें समस्त देवताओं को आमंत्रित किया, किन्तु अपने दामाद शंकर तथा पुत्री सती को आमंत्रित नहीं किया। जब सती को यज्ञ के बारे में ज्ञात हुआ तब वे यज्ञ में जाने की जिद करने लगीं। भगवानशंकर ने बहुत समझाया कि विवाह के बाद पितागृह पुत्री के लिये पराया हो जाता है। बिना निमन्त्रण के वहाँ नहीं जाना चाहिये व्यर्थ ही अपमान होगा। किन्तु सती माता-पिता के प्रेम में वशीभूत हो अपनी मान-मर्यादा भूलकर यज्ञ में पहुँच गई।
वहाँ सभी भगवानों के आसन थे किन्तु भगवान शंकर को स्थान नहीं दिया गया था और देवी सती का भी अपमान हुआ। क्रोधित हो सती ने हवन कुंड में कृदकर आत्मदाह कर लिया। भगवान शंकर ये घटना जान कर रौद्र रूप में आ गये। उन्होंने अपने वीरभद्र नामक गण को यज्ञ विध्वंस करने भेजा। वीरभद्र तथा अन्य गणों ने यज्ञ खंडित कर उपस्थित देवताओं को अंग-भंग कर दिया।
भगवान विष्णु ने शंकर जी से शान्त होने की तथा देवताओं को पुर्नरूप प्रदान करने की प्रार्थना की, शंकर जी ने प्रार्थना स्वीकार कर सबको क्षमा कर दिया किन्तु देवी सती को वे क्षमा न कर सके क्योंकि देवी सती ने पति की आज्ञा न मान अपनी मान मर्यादा भुलाकर स्वयं अपना और अपने पति का अपमान होने दिया। देवी सती दस हजार वर्षों तक कोयल बनकर वन में रही । उसके पश्चात् राजा हिमवान की पुत्री पार्वती के रूप में जन्म लेकर उन्होंने कठिन तपस्या की तब भगवान शिव उन्हें पति रूप में प्राप्त हुए ।
इस कथा का तात्पर्य कुनघुसूं पूने के पूजन उद्देश्य से मिलता हुआ है। भारतीय संस्कृति में स्त्री को अपने पतिगृह के पारिवारिक नियमों का पालन करना चाहिये। समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिये यह अत्यन्त आवश्यक है।
संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त
सांस्कृतिक बुन्देलखण्ड – अयोध्या प्रसाद गुप्त “कुमुद”




