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Ghar Ki Laxmi घर की लक्ष्मी-बुन्देलखण्ड की लोक कथा

किसी नगर में एक सेठ रहते थे। सब तरह से भाग्यवान थे। चार पुत्र, घर-गिरस्ती का काम संभालने वाली सुन्दर बहुएँ, धन-धान्य, गाड़ी-घोड़े, नौकर-चाकर सब कुछ था। किसी बात की कमी न थी। परन्तु लोग कहते हैं कि घर की माया और धूप की छाया इन्हें बदलते देर नहीं लगती। देश में अकाल पड़ा। लोग भूखों मरने लगे। सेठ की सारी साहूकारी डूब गई। घर पर जो धन-धान्य था, वह भुखमरों ने लूट खाया। सेठ की हालत खराब हो गई। तब सेठ जी की छोटी बहू Ghar Ki Laxmi बन  कर आई। 

जो सेठ चार घोड़ों की बग्घी पर हवा खाने निकलते थे, वे अब दर-दर मारे फिरने लगे। जो सेठ तकिये के सहारे मसनद पर बैठकर हुक्का पिया करते थे, उन्हें अब हुक्के में रखने के लिये तमाखू भी नसीब न होती थी। समय बदलने पर ऐसा ही होता है।

घर में कंगाली आते देखकर एक-एक करके चारों बहुएँ अपने मायके चली गई। सेठ तो वृद्ध थे। कुछ कर नहीं सकते थे। चारों लड़के दिन भर मेहनत-मजूरी करके जो थोड़ा-बहुत कमाकर लाते, उसी से इनकी गुजर चलती। शाम को दिन भर की कमाई के पैसों से मोटा-झोटा अनाज तो आ जाता था, पर उसे पीसकर बनाने-लिखाने वाला घर में कोई न था। लड़कों की यह तकलीफ देखकर सेठ ने सोचा कि बहुओं को बुला लेना चाहिये।

दूसरे दिन सेठ जी कुछ भुने चने साथ में लेकर चल पड़े। सारे दिन पैदल चलते-चलते बड़े लड़के की ससुराल पहुँचे। एक आदमी से अपने आने की खबर समधी के घर भिजवाई। सेठ का समधी इनकी कंगाली का हाल पहिले ही सुन चुका था। उसने इनकी जरा भी आवभगत न की और सरांय में ठहरा दिया।

दूसरे दिन जब सेठ ने बहू की विदा कर देने के लिये कहा तो समधी ने कहा- आपके घर खुद खाने को तो है नहीं। इस पर बहू को ले जाकर क्या करोगे? क्या उसे भी भूखों मारना चाहते हो? आप अपने लड़कों से कहें कि कुछ काम-धन्धा करें। रोजगार चलने लगे तो विदा करा ले जाना। भूखों मरने के लिये मैं अपनी लड़की को नहीं भेज सकता। समधी का जवाब सुनकर सेठ को बहुत दुःख हुआ। पर उसने सोचा- धीरज धर्म, पुत्र अरु नारी। आफत-काल परखिए चारी।।

यही समय तो मनुष्य की पहचान का है। यह सोच वह वहाँ से चलकर मझले लड़के की ससुराल पहुँचा और अपने आने की खबर दी। लेकिन वहाँ भी उसके साथ वही बर्ताव हुआ जो बड़े लड़के की ससुराल में हुआ था। उसे धर्मशाला में ठहराया गया। कुछ समय बाद समधी ने नौकर के हाथ खाना भेजकर कहलाया कि आपने इस समय आने का व्यर्थ ही कष्ट किया। हमें आपकी गरीबी का बड़ा दुःख है। परन्तु इस समय न तो आपको ही विदा कराना शोभा देता है और न हमें ही विदा करना। समय आने पर विदा कर दी जायेगी।

यहाँ से भी निराश होकर सेठ तीसरे समधी के घर पहुँचे और वहाँ भी ऐसा ही जवाब मिला। अन्त में वह छोटे लड़के की ससुराल गये। ज्यों ही समधी को खबर मिली कि वह दौड़ा आया और बड़े आदर के साथ अपने मकान पर ही उन्हें ठहराया। दो-तीन दिन तक उनकी खूब खातिर की। जब विदा का सवाल छिड़ा तो समधी ने कहा-‘सेठजी, इस समय तो आप जाइए। कई कारणों से अभी लड़की की विदा नहीं कर सकता। पर कुछ दिन बाद मैं खुद ही उसे आपके घर पहुँचा आऊँगा।

समधी का उत्तर सुनकर सेठ दुःखी हुए, परन्तु इसी समय सेठ की बहू ने लज्जा छोड़कर किवाड़ की ओट से आगे बढ़कर कहा-‘पिताजी, आप यह क्या कह रहे हैं? विपत्ति के समय उनका साथ देना क्या मेरा धर्म नहीं है? यदि आप मुझे जाने की आज्ञा देंगे तो मैं वहाँ जाकर उन लोगों के दुःख को हल्का करने की कोशिश करूँगी। मुझे एक-न-एक दिन वहाँ जाना तो पड़ेगा ही। फिर आज ही क्यों न जाऊँ?

लड़की की बात सुनकर पिता ने उसकी सराहना करके कहा-‘बेटी, तेरी बातें सुनकर आज मुझे बड़ा सन्तोष हुआ। मैंने तो तेरा रुख समझने के लिये ही इन्कार किया था। तुम जाओ और उन्होंने विदा कर दी। सेठ बहू को लेकर घर पहुँचे। छोटी बहू के घर आ जाने से सबको रोटी-पानी का सुभीता हो गया। चारों लड़के मजदूरी करके शाम को अनाज लाते और बहू आटा पीसकर रोटी बनाकर सबको खिलाती। इस तरह दिन कटने लगे।

छोटी बहू बड़े सबेरे उठती, घर को झाड़ती-बुहारती, आटा- पीसती, रसोई बनाती और सबको खिलाती। इसी तरह सारे दिन काम करते रहने पर भी उसे बुरा न लगता था। वह सदा प्रसन्न रहा करती थी। जिस दिन से छोटी बहू आई, घर की दशा सुधरने लगी। वह प्रतिदिन खाने की सामग्री में से थेाड़ा-थोड़ा बचाकर रखती जाती थी। इस तरह कुछ संचय हो गया। एक दिन पानी बरसने के कारण लड़कों को मजदूरी न मिली।

सेठ ने निराश होकर कहा- आज क्या होगा? सबको भूखा रहना पड़ेगा। कहीं मांगे से उधार तो मिल ही नहीं सकता। इस पर बहू ने कहा-‘दद्दाजी, आप चिन्ता न करें। एक दिन की तो बात ही क्या, अपने घर में अभी सात दिन खाने के लायक सामान रक्खा है। ऐसा कहकर उसने भीतर से लाकर सामान दिखा दिया। सेठजी आनन्द से उछल पड़े। बोले-‘मेरी बहू घर की लक्ष्मी है।’ फिर बहू ने कहा-‘आज मजदूरी नहीं लगी तो आप लोग जंगल जाकर लकड़ियाँ ले आइये।

चारों भाई कलेवा लेकर लकड़ियाँ लेने चले गये। संध्या समय तीन भाई तो लकड़ियाँ ले आये, पर बड़े भाई को जब कुछ न मिला तो रास्ते में एक साँप मरा पड़ा था। उसी को लकड़ी पर टांग कर घर ले आया और बाहर खूंटी पर टांग दिया। संयोग की बात कि उस दिन नगर की राजकुमारी नहाने के लिये नदी गई थी। नहाते समय उसने अपना नौलखा हार उतारकर किनारे पर रख दिया।

स्नान करके राजकुमारी चली गई और भूल से हार को वहीं रक्खा छोड़ आई। इतने में एक चील आई और हार को चोंच में दबाकर उड़ गई। उड़ती हुई जब वह नगर में आई तो उसकी निगाह खूंटी पर टंगे सांप पर पड़ी। चील नीचे उतरी और खूंटी के पास आ मुँह का हार छोड़कर साँप को चोंच में दबाकर उड़ गई।

उसी समय छोटी बहू बाहर आई और उसकी निगाह नौलखा हार पर पड़ी। उसने उसे उठाकर अपने सन्दूक में रख लिया। दूसरे दिन राजकुमारी की विदा होनी थी। जाते समय नौलखा हार की याद आई। राजकुमारी ने अपने पिता से सब हाल कह सुनाया। तुरन्त सिपाही नदी देखने गये, पर वहाँ हार न मिला। जब तक हार का पता न लग जाये तब तक विदा करना उचित न समझ राजा ने कोई बहाना बना कर बेटी के ससुराल वालों को वापिस कर दिया।

उसी दिन नगर में डौंड़ी पिटवाई गई कि राजकुमारी अपना नौलखा हार नदी पर नहाते समय भूल आई है। जो कोई उसे ला देगा या उसका पता बतावेगा, उसे मुँह-मांगा इनाम दिया जायेगा। सारे नगर में खबर फैल गई। छोटी बहू को भी डौंड़ी का हाल मालूम हुआ। उसने अपने ससुर को बुलाकर कहा-‘आप राजा के पास जाकर कह आइये कि आपका नौलखा हार मेरी बहू के पास है।

सेठ डरते-डरते राजमहल में गया और अपनी बहू के कहे हुए शब्द राजा को सुना दिये। राजा ने उसी समय चार सिपाही सेठ की बहू को ले आने को भेजे। सिपाहियों ने सेठ के घर आकर छोटी बहू से कहा-‘तुम्हें महाराज बुला रहे हैं।’ छोटी बहू ने उत्तर दिया- ‘तुम लोगों ने समझ क्या रक्खा है, जो मुझे इस तरह लेने आये हो। जाकर राजा साहब से कहो कि वह मेरे लिये पालकी भेजें।

सिपाहियेां ने उसका संदेशा राजा को सुना दिया। राजा ने अपनी गलती स्वीकार की और तुरन्त चार कहारों को हुक्म दिया कि वे पालकी ले जाकर सेठ की बहू को लिवा लायें। सेठ की बहू जिस समय दरबार में पहुँची, राजा ने लोगों को हटाकर बीच में परदा डलवा दिया। बहू ने आकर नौलखा हार देते हुए राजा को सारा हाल कह सुनाया।

राजा ने कहा-‘मुझे बड़ी प्रसन्नता है कि बेटी का हार मिल गया। अब तुमको इसके बदले में जो मांगना हो मांगो। सेठ की बहू ने कहा- महाराज मैं चाहती हूँ कि दीवाली के दिन आपके राज्य भर में कहीं भी रोशनी न हो। कोई भी अपने घर दीपक न जलाये और राज्य भर की कपास, तेल और मिट्टी के दीपक इकट्ठे कराकर मेरे घर भेज दिये जायें।’ राजा ने कहा- ऐसा ही होगा।

दीवाली नजदीक आने लगी। राजा को चिन्ता हुई। उसने राज्य भर में डौंड़ी पिटवा दी कि दीवाली की रात को कोई भी आदमी अपने घर दीपक न जलाये। राजा ने राज्य भर की कपास, तेल और दीये इकट्ठे कराके सेठ के घर भिजवा दिये। दीवाली की रात को सेठ का घर असंख्य दीपकों से जगमगा उठा। आधी रात के सन्नाटे में लक्ष्मी सारे राज्य का चक्कर लगा आई, परन्तु उन्हें कहीं एक दीपक भी टिममिटाता हुआ नहीं मिला।

अन्त में उन्होंने सेठ के जगमगाते हुये घर में प्रवेश किया। फिर क्या था, उसी क्षण सेठजी की झोपड़ी की जगह सोने के सतखंडा महल बन गये। असंख्य धन-धान्य, हाथी-घोड़े सब वैभव की वस्तुएँ इकट्ठी हो गई। सबेरे जब सेठ की नींद खुली तो उन्होंने अपने को सोने के पलंग पर सोते हुए देखा। अनेक दास-दासियाँ सेवा में हाजिर थीं। घसीटा नाई जो विपत्ति के समय न जाने कहाँ चला गया था, सेठ जी के लिये हुक्का तैयार कर रहा था। घोड़ों की हिनहिनाहट और हाथियों की चिंघाड़ से कान फटे जा रहे थे।

सेठ जी ने यह सब हाल देखकर कहा-‘क्या मैं सपना देख रहा हूँ।’ उसी समय छोटी बहू ने आकर कहा-‘दद्दाजी, यह सपना नहीं है। आपके आशीर्वाद से और लक्ष्मी जी कृपा से धन-दौलत प्राप्त हुई है।’ सेठ ने कहा-‘मैं तो और किसी लक्ष्मी को जानता नहीं। मेरे घर की लक्ष्मी तो तू ही है। तेरे ही भाग्य से मुझे यह सब मिला है।

गहनई लोक गाथा – हिन्दी 

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