Dharmasanvari धर्मासाँवरी-लोक गाथा परिचय

यह लोकगाथा बुन्देलखंड की चरागाही संस्कृति पर आधारित होती हुई भी दाम्पत्य-परक समस्या को केन्द्र में रखकर चलती है। चिड़िया Dharmasanvari  और चिड़वा दंग रिछरिया का विवाद बच्चों के बँटवारे को लेकर है। जो एक अदभुत प्रेम कहाँनी है।


चिड़िया का तर्क है कि जंगल में आग लगने पर चिड़वा पलायन कर जाता है और चिड़िया आग की परवाह न कर अपने अंडों की सुरक्षा में पंख फैलाए भूखी-प्यासी बैठी रहती है। इसलिए बच्चों पर चिड़वा का कोई हक नहीं है। लेकिन इस तथ्य के बावजूद राजा भोज और वाणासुर की कचहरी में एक-सा निर्णय होता है।

पुरुष-बच्चे चिड़वा को और स्त्री -बच्चे चिड़िया को दिए जाएँ। यह निर्णय चिड़िया (नारी) को स्वीकार्य नहीं है, पर वह विवश होकर यह निर्णय ताम्रपत्र पर लिखवाकर सुरक्षित रख देती है और आत्महत्या कर लेती है। चिड़वा का प्रेम भी सच्चा है, क्यों कि वह भी अपने प्राण त्याग देता है।


चिड़िया-चिड़वा धर्मासाँवरी और दंग रिछरिया के रूप में जन्म लेते हैं। धर्मा साँवरी वाणासुर की पुत्री होती है, वह पूर्वजन्म के र्निणय को नहीं भूल पाती और नगर की घुड़ियों के घोड़ा-बच्चे अपने बाड़े में बँधवा लेती है। जब घुड़ियों के स्वामी राजा से कहते हैं, तब वही ताम्रपत्र निकलवाकर रख देती हे।

यहाँ तक पूर्वजन्म की कथा इस जन्म से बँध जाती है, लेकिन बाद की कथा इससे मेल नहीं खाती। दोनों अर्थात् Dharmasanvari और Dang Richhariya का विवाह होता है, लेकिन वे बरात के लौटते ही विलग हो जाते हैं। दंग रिछरिया (पूर्वजन्म का चिड़वा अगले जन्म में) बारह वर्ष तक बेड़नी (नारी) की गुलामी करने की सजा पाता है।

अगर इसे कर्मफल मान लें तो पूर्वजन्म की चिड़िया (अब धर्मासाँवरी) का क्या दोष, जो वह बारह वर्ष तक वियोग का दुख सहन करती है। फिर इस दम्पति के भांजे परशू की यात्रा और विवाहों के र्वणनों का पहली कथा से कोई सम्बन्ध नहीं जुड़ता। इतना अवश्य है कि मामा (दंग रिछरिया) को मुक्त कराने के लिए ही यह यात्रा आयोजित हुई है।

यात्रा के दौरान चारों विवाह चार बाधाओं के प्रतिफल के रूप में ही अंकित हुए हैं, इसलिए वे कच्चे धागे से बँधे हुए भी औचित्य सिद्ध करने में सफल हैं। इस रूप में पूरा कथानक बन और चरागाही पृष्ठभूमि और परिवेश में दम्पति के दाम्पत्यपरक सम्बन्धों की गाथा बन गया है।

दाम्पत्यपरक सम्बन्धों में विवाह, संयोग-वियोग और सन्तति के सूत्र ही प्रमुख हैं। इस गाथा में विवाह दो प्रकार के हैं। एक तो धर्मासाँवरी और दंग रिछरिया का विवाह, जो दुनिया या दोना में रखे केशों के आधार पर होता है। दूसरे परशू के चार विवाह, जो परशू के पौरुष के कारण होते हैं। सभी विवाह-सम्बन्धों में जातिगत, धर्मगत, सम्प्रदायगत, वर्गगत आदि भेदभाव नहीं हैं।

धर्मा साँवरी, राजा वाणासुर की पुत्री है, जो एक पशुपालक को ब्याही है। उसी प्रकार नीमा के राजा और राजा भोज की पुत्रियाँ परशू बरेदी को वरण करने में गौरव समझती हैं। अन्तर केवल इतना है कि पहले प्रकार के विवाह में पूर्वजन्म की प्रीति जिम्मेदार है, जबकि दूसरे प्रकार में पुरुष का शौर्य ही प्रधान है। आदिकाल में पुरुष की वीरता ही विवाह की कसौटी रही है और इसका उत्कर्ष जहाँ ‘आल्हा’ लोकगाथाओं में दिखाई पड़ता है, वहाँ आदिकालीन रासो काव्यों में भी है।

राजपूत युग भी चुनौती, बदला और वैयक्तिक साहस एवं शौर्य का युग था, अतएव उसमें जादू के चमत्कार जुड़ जाना अस्वाभाविक नहीं है। उत्तर चन्देलयुग तंत्र- मंत्र की शक्तियों पर विश्वास रखता था, इसीलिए गाथाओं में तन्त्र-मन्त्र, रूप-परिवर्तन आदि जुड़ गए हैं। इस गाथा में देवी माता के प्रभाव के संकेत मिलते हैं और चन्देलकाल में शाक्त प्रभाव एक ऐतिहासिक सत्य है।

बकरा की बलि, डाइन, बिराजन गाय, मलनिया साँड़, गंगाराम तोता, सुख-दुःख की मुरली, पेंती चीरकर छिड़कने से गायों का जीवित हो जाना, उपर से आकाशवाणी होना, क्वाँरी गाय का दूध, जादू के पान या बीड़ा, देवी का छत्र तानना, जादू की तुमरिया, देवी का संकट की खबर देना, चील बनना, मछली और किलकिला बना देना, दिन-रात चलना और लौटकर वहीं पहुँचना, पत्थर बना देना।

पत्थर से आदमी बनाना आदि विश्वास, अंधविश्वास, प्रतीक, चमत्कार आदि तत्कालीन लोकसंस्कृति के यथार्थ को लिखने में सहायक हैं। सन्देशवाहक तोता, डायन, आकाशवाणी, देवी-देवता का सहायक होना, जादू के चमत्कार आदि कुछ कथानकरूढ़ियाँ हैं, जो गाथा को उत्तरआदिकालीन साबित करती हैं।


1 – चिड़िया-चिड़वा का विवाद।

2 – धर्मा साँवरी और दंग रिछरिया के विवाह, विछोह और मिलन।
3 – परशू की यात्रा और विवाहों के साथ मामा को ले आने का।

तीन प्रसंगों में छोटी-छोटी घटनाएँ हैं। इस तरह कोई ज्यादा उलझाव नहीं है, लेकिन कारसदेव की गाथा के कथानक से अधिक सघन हो गया है। गाथा के प्रमुख पात्रा धर्मा साँवरी, दंग रिछरिया और परशुराम सभी सामान्य हैं। धर्मा साँवरी में लोकनारीत्व है, पर गाथाकार ने उसे जादू के कौशल में निपुण दिखाकर लोकत्व से विलग कर दिया है।

उसका व्यक्तित्व तत्कालीन नारी से पूरी तरह मेल खाता, यदि वह अन्त की जादूगरनी से अलग रहती। इस दृष्टि से दंग रिछरिया लोकसामान्य पात्र है और पशुपालक के गुणो से युक्त है। परशू का पौरुष अधिक उभरकर आया है और वह दंग रिछरिया की तुलना में तत्कालीन नायकत्व का अधिक अधिकारी है।

अन्त में, इस गाथा की कुछ विचित्राताएँ प्रस्तुत कर उसकी पहचान रेखांकित करना उचित है। भोज को राजा का प्रतीक मानना उसके लोकत्व की पहली पहचान है। नायिका का सौन्दर्य-चित्राण सहज स्वाभाविक और संक्षित है।
सहजई है धर्मा को रूप, सूरज की किरन सी दमक रई रहे।
भौंहन चढ़ी हैं कमान, हिरनी सी अँखियाँ डोल रई रे।

नौ सौ नवासी की संख्या का प्रयोग सर्वत्रा शुभ माना गया है। पुरुष के कानों में कुंडल और नारी के कानों में तरकुला शोभित होना प्रेम की अभिव्यक्ति का एक विचित्र माध्यम है। धर्मा परशू से कहती है। वीरन सुन लेव धरम की बात, कानन में कुंडल सो हैं तुमायें रे। मोरें तरकुला कान, मोरी तोरी जोड़ी तो बन गई रे। 

लोधिन भी ऐसी ही पंक्तियाँ कहकर प्रेम का संकेत देती है। बिराजन गाय और मलनिया साँड़ भी नए पात्र हैं, जो प्रधान पात्र के सहायक हैं। सुख-दुख की मुरली सुख और दुख व्यक्त करनेवाली संगीतात्मक प्रतीक है। गाथा का अन्त चारों ओर के आनन्द से होता है ‘पुन हो गइ आनन्दी चारउँ खूँट, सुक की मुरलिया है बज रयी रे।’ इन सब विचित्राताओं से इस लोकगाथा के व्यक्तित्व की एक अलग मूर्ति खड़ी हो जाती है, जो अन्य लोकगाथाओं के बीच अलग दिखाई पड़ती है।

संदर्भ-
बुंदेलखंड दर्शन- मोतीलाल त्रिपाठी ‘अशांत’
बुंदेली लोक काव्य – डॉ. बलभद्र तिवारी
बुंदेलखंड की संस्कृति और साहित्य- रामचरण हरण ‘मित्र’
बुंदेली लोक साहित्य परंपरा और इतिहास- नर्मदा प्रसाद गुप्त
बुंदेली संस्कृति और साहित्य- नर्मदा प्रसाद गुप्त
मार्गदर्शन-
श्री गुणसागर शर्मा ‘सत्यार्थी’
डॉ सुरेश द्विवेदी ‘पराग’

धर्मासाँवरी -बुन्देली लोक गाथा

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