बस्ती बसत लोग बहुतेरे, कौन काम के मेरे।
बैठे रात हजारन कोदी, कबहुं न जे दृग हेरे।
गैल चलत गैलारे चरचे, सब दिन सांझ सबेरे।
हाथ दई उन दो आँखन बिन,सब जग लगत अंधेरे।
ईसुर फिर तक लेते उनखां, वे दिन विधना फेरे।
वे रजऊ के बिछोह में कहते हैं कि इस गाँव में भी बहुत सी हैं किन्तु उनके जैसी कोई नहीं और यदि है भी तो मेरे किस काम की। उनकी दो आँखों में कितना जादू था, जिनके बिना यह संसार अन्धकारमय लग रहा है। क्या विधाता दुबारा ऐसा अवसर देंगे , जब उनके देखने का अवसर मिलेगा। वे वियोगी नायिका की विरह दशा का वर्णन करके कहते हैं ।
हम पै बैरिन बरसा आई, हमें बचा लेव भाई।
चढ़कें अटा घटा न देखें, पटा देव अगनाई।
बरादरी दौरियन में हो, पवन न जावे पाई।
जै दु्रम कटा छटा फुलबगिया, हटा देव हरयाई।
पिय जस गाय सुनाव न ईसुर, जो जिय चाव भलाई।
नायिका विरह अग्नि में जलती हुई उन सभी परिस्थितियों से आक्रोशित होती है, जो श्रृँगार को उद्दीत्ति करने वाले हैं। वह अपनी दुश्मन वर्षा ऋतु पर क्रोध कर उसे कोसती है। वह उन सभी उद्दीपनों को प्रतिबंधित कर देना चाहती है, जो उसे नायक की स्मृतियों में जलने की पीड़ा देते हैं। ईसुरी नायिका की विरह पीड़ा का वर्णन करते हुए कहते हैं।
जे दिन कटत बैन बज्जुर के, अबै दुपर ना मुरके।
पूरब से सूरज नारायण, पच्छिम खां ना मुरके।
अपने-अपने घरन मजा में, लोग-लुगाई पुर के।
जान जिवावन आन मिलेंगे, कबे यार ईसुर के।
महाकवि ईसुरी ने ऋतु वर्णन करते हुए नायक-नायिका विरह की पीडा़ का जो चित्रण किया है, उसे देखकर लगता है कि वे उन परिस्थितियों से पूर्ण रूपेण भिज्ञ हैं, जो नायक-नायिका विरह की तपन से जलते हुए कलेजे झेलते हैं। नायिका अपनी पीड़ा व्यक्त करती हुई कहती है।