बांकी रजऊ तुमारी आंखें, रओ घूंघट में ढाकें।
हमने अबै दूर सैं देखी, कमल फूल सी पाखें।
जिनखां चोट लगत नयनन की, डरे हजारन कांखें।
जैसी राखें रई ईसुरी, ऊसई रइओ राखैं।
बिगरन बारे नयन नसाने, की के नईयां जाने।
हेरन लगे-लगे न बरके, चलत न लगै निशाने।
भरे उमंग उपत के उरझे, बरबस अनुआ ठाने।
ईसुर खान जगत अपजस की, कीरत नईं अमाने।
ऐसे अलबेली के नैना, बिना लगे माने ना।
लेती आन उपत के खूदों, मानुष गैल निमै ना।
बाने बांद हार गए इनसे, सोमें कोऊ बरकै ना।
ईसुर प्रान जात नाहक में, लेना एक न देना।
महाकवि ईसुरी ने नेत्रों की महिमा या श्रंगार वर्णन जिस तरह से किया है, इसकी तुलना अन्य कवि से कर पाना कठिन है। वे कहते हैं कि नायिका के नयन ऐसे लुभावने हैं कि हर कोई इनकी परिधि में आ फँसता है। कितनी भी कोशिश करें, किन्तु उनसे बच पाना बड़ा मुश्किल होता है।
ये नेत्र स्वयं अपना जाल फैला कर फँसाने में माहिर होते हैं। आप सामने पड़ने से कितने ही बचो, किन्तु बच पाना कठिन है, ये फँसा ही लेते हैं। जो इनके चक्कर में एक बार फंस गया तो फिर मुक्त हो पाना कठिन ही नहीं, असम्भव हो जाता है।