वंशी ध्वनि प्राण हरे।। टेक।।
गोप बधू श्रवनन सुनि धाई, टोना सहज परे।। 1।।
बिसरी सुधि शरीर सजन पति, पिता पुत्र बिसरे।
लोक-लाज, कुल-कान बिसरि गई, रही श्याम रट रे।। 2।।
बस्तर त्यागि नगिन उठि धाईं, उलटे सिनगार करे।
चलि चलि गई जहां श्याम मनोहर, मुरली अधर-धरे।। 3।।
लियो है लगाय श्याम उर अपने, विविध विलास करे।
दास मुकुन्द पियै मिलीं प्यारी, बहुरि न आई घरे।। 4।।
मुकुन्द स्वामी कहते हैं, श्री कृष्ण की वंशी की ध्वनि, प्राण को हरने वाली है इस वंशी की ध्वनि को सुनकर ही गोप वधुएँ वैसे ही भागकर चली आई, जैसे उनपर कोई जादू छा गया हो। वंशी की ध्वनि सुनकर उन्हें अपने पिता, पुत्र, साजन और शरीर तक की सुधबुध न रही। लोक-लाज और कुल की मर्यादा को भूलकर वे श्याम-श्याम ही रटने लगीं।
कोई उलटे साज-सिंगार करके और कोई अपने वस्त्रों को ही त्याग करके जहाँ श्याम सुन्दर अधरों पर मुरली धरे हुए हैं, वहाँ आ गई। सबने अपने श्याम सुन्दर को हृदय से लगाया और कई प्रकार से आनंद प्राप्त किया। स्वामी मुकुन्द दास कहते हैं कि इस प्रकार सबको अपने प्रिय पति मिल गये अतः वे पुनः लौटकर अपने घर नहीं आई।
रचनाकार – श्री मुकुंद स्वामी का जीवन परिचय