आऊँगी मैं दही लैके भोर, दीजै आज जान घर मोहन, नागर नन्दकिशोर

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Aaungi Mai Dahi Leke Bhor आऊँगी मैं दही लैके भोर
Aaungi Mai Dahi Leke Bhor आऊँगी मैं दही लैके भोर

आऊँगी मैं दही लैके भोर।। टेक।।
दीजै आज जान घर मोहन, नागर नन्दकिशोर।। 1।।

हम तौ आज सखिन संग आई, जिन कीजै झकझोर।
हौं उठि भोर सवारे अइहौं, प्रात समय इहि ठौर।। 2।।

हम गोकुल की ग्वालिनी, तु कपटी कठिन कठोर।
चरचि जायँगी चतुर ब्रजनारी, हुइ है नगरिया में शोर।। 3।।

बाढ़ो प्रेम प्रवाह अपार बल, चितवत नन्दकिशोर।
‘मुकुंद’ सखि रस-बस भइ ग्वालिन, छूटि दैके प्रान अकोर।। 4।।

कोई ग्वालिन, नटखट नंद किशोर से कहती है, मैं कल सुबह ही दही लेकर यहाँ आऊँगी। मुझे आज घर जाने दो। हम तो आज यों ही सखी-सहेलियों के संग यहाँ आ गई थीं। हमारे साथ कोई छीना-झपटी मत करना। मैं प्रातः उठकर सबेरे ही इस ओर आऊँगी। हम गोकुल की ग्वालिन हैं, हमारी बात का विश्वास करो। तुम तो कठोर और कपटी हो।

यहाँ रुकने से तमाम होशियारी के बाद भी ब्रजनारी चर्चित हो जायेगी और पूरे नगर में शोर हो जायेगा। परंतु उधर प्रेम प्रवाह बहुत बढ़ गया और नंद किशोर लगातार उस सखि को निहारते रहे। स्वामी मुकुन्द दास कहते हैं कि इस प्रकार वह सखि प्रेम रस के वशीभूत होकर प्राण अर्थात् सर्वस्व देकर ही छूट पाई।

रचनाकार – श्री मुकुंद स्वामी का जीवन परिचय