कैसे मिटै लगी कौ घाओ, ई की दवा बताओ।
दिन या रात चियारें परतीं, ज्वर ना खाए चाओ।
गुनिया और नावते हारे, खेल-खेल के माओ।
कात ईसुरी कैसे करिए, चलत न एक उपाओ।
महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri ने प्रीति को परिभाषित हुए कहा है कि इस पीड़ा को कोई समझता नहीं है, किसे कैसे समझाएं। इसके मर्म को समझने की ना तो कोई कोशिश करता है और अगर समझाने का प्रयास करो तो उपहास उडाते हैं।
सब कोउ होत प्रीत से न्यारो, ऊंचे गरे पुकारें।
यही प्रीति की ऐसी बिगरन साहूकार बिगारे।
राज बादशाह छोड़ प्रीति से, बेई जोग पग धारे।
ऐई प्रीति से लैला पीछूं, मंजनू सो तन गारे।
ऐई प्रीति से ईसुरी हो गए, ऐसे हाल हमारे।
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कीसो कहें प्रीति की रीति, कयें से होत अनीति।
मरम ना जाने ई बातन कौ, को मानत परतीती।
सही ना जात मिलन को हारी, बिछुरन जात न जीती।
साजी बुरई लई सिर ऊपर, भई जो भाग बदीती।
परबीती नहीं कहत ईसुरी, कात जो हम पर बीती।
महाकवि ईसुरी Mahakavi Isuri कहते हैं कि प्रेम में विछोह पीड़ा किसी से कहते नहीं बनती है और किसी से कहो भी तो उपहास के पात्र बनो। किन्तु इसे सह पाना बड़ा कठिन है, फिर भी जो भी है भोगना तो पड़ता ही है, क्योंकि यह कहीं से आई हुई नहीं, स्वयं के द्वारा की गई है। मैं और किसी की क्या कहूँ, मैं तो आप बीती को कह रहा हूँ, जो मैं भोग रहा हूँ, सहन कर रहा हूँ।