Homeभारतीय संस्कृतिSatvahan Kalin Sanskriti सातवाहन कालीन संस्कृति

Satvahan Kalin Sanskriti सातवाहन कालीन संस्कृति

Satavahana Period Culture

सातवाहन राजवंश भारत के महान राजवंशों में से एक था। दक्षिण भारत में Satvahan Kalin Sanskriti का प्रभाव प्रथम शताब्दी ईस्वी पूर्व  से तीसरी ईस्वी तक रहा । कतिपय इतिहासविदों की धारणा है कि, सातवाहनों के बहुत लंबे समय तक दक्षिण भारत के अधिकांश भागों पर शासन किया था। यह अवधि लगभग साढ़े चार सौ वर्ष की थी। उनके शासनकाल में सामाजिक आर्थिक जीवन, कला – स्थापत्य, धर्म, भाषा एवं साहित्य आदि क्षेत्रों में स्मरणीय उन्नति हुई।

इस प्रकार लगभग तीन – चार सौ वर्षों के वृहद् सातवाहनों के शासनकाल में दक्षिण भारत में अनेक साँस्कृतिक गतिविधियाँ संपन्न हुई। जिन्होंने न केवल दक्षिण भारत को अपितु संपूर्ण भारत को अमूल्य साँस्कृतिक निधि प्रदान की है। कला – संस्कृति, साहित्य – सृजन, उन्नत अर्थव्यवस्था एवं सुदृढ़ राजनैतिक इच्छा शक्ति आदि को दृष्टिगत् रखते हुए प्रसिद्ध इतिहासविद् ’अजयमित्र शास्त्री’ ने Satvahan Kalin Sanskriti को दक्षिण भारत के इतिहास का ’स्वर्ण युग’ की संज्ञा दी है।

सामाजिक स्थिति
सातवाहन कालीन समाज की प्रमुख विशेषता यह थी कि, यह वर्णो एवं वर्गों दोनों में बंटा हुआ था अर्थात् सातवाहन कालीन समाज में वर्ण व्यवस्था एवं वर्ग व्यवस्था दोनों साथ-साथ चल रहीं थी और बिना किसी विरोधाभास या संघर्ष के समानता एवं भाईचारे के सिद्धांत का परिपालन करते हुए।

सनातन धर्म के अनुयायी चार वर्णो में बंटे हुए थे। सातवाहन काल ब्राह्मण प्रभुत्व का काल था। स्वयं सातवाहन शासक ब्राह्मण थे। सातवाहन शासक स्वयं अपने को ’अद्वितीय ब्राह्मण’ एवं ’क्षत्रियों का दमन’ करने वाला कहते हैं। समाज में ब्राह्मणों की सर्वोच्चता स्थापित थी। शिक्षा, धर्म एवं शासन-प्रशासन में ब्राह्मण प्रभावी भूमिका निभा रहे थे।

क्षत्रिय, सैन्य, सुरक्षा एवं युद्ध, बहादुरी के कार्यों में संलग्न थे। वैश्य, कृषि, पशुपालन, व्यवसाय, व्यापार एवं वाणिज्य आदि आर्थिक गतिविधियों में संलग्न थे। शूद्र, सेवा कार्यों एवं विविध शिल्प कार्यों में संलग्न थे। सातवाहन कालीन समाज की यह प्रमुख विशेषता थी कि, किसी भी वर्ण के साथ कोई भेदभाव नहीं किया जाता था।

सातवाहन काल में दक्षिण भारत में आर्य संस्कृति से इतर स्थानीय लोग अपने व्यवसायों एवं आजीविका के साधनों के आधार पर वर्गो के रूप में पहचाने जाते थे। जैसाकि, कृषकों ’हलिक’, व्यापारी को ’सेठी’, लुहार को ’कंगर’ तेली को तिलपिसक, बढ़ई को ’बंधकी’ कहा जाता था। सातवाहन शासकों ने वर्ण व्यवस्था को समाज में स्थापित करने के प्रयास किये।

इसी काल में विदेशी जातियों शक, पहलव, यवनों ने ब्राह्मण एवं बौद्ध को स्वीकारा। अतः वर्ण व्यवस्था के द्वारा विदेशियों के लिए खोलकर सातवाहनों ने उदारता का परिचय दिया। गौतमीपुत्र ने वर्ण संकरता को रोकने का भी प्रयास किया। किन्तु व्यवहार में कठोरता का पालन नहीं किया और वर्ण संकरता निर्विरोध रूप से चलती रही।

सातवाहन काल में परिवार की ’संयुक्त परिवार’ प्रथा प्रचलित थी। परिवार पितृससत्तात्मक होते थे। परिवार स्त्री और पुरूष दोनों की समानता स्थापित थी। समाज में आठ प्रकार के विवाह प्रचलित थे। समाज में एक पत्नी व्रत आदर्श माना जाता था। हालाँकि, बहुपत्नी प्रथा भी प्रचलित थी। अनुलोम-प्रतिलोम, अन्तर्जातीय विवाह भी होते थे। समाज में स्त्रियों की स्थिति बहुत अच्छी थी।

सातवाहन नरेशों के नाम के साथ उनकी माताओं के नाम जुड़े होते थे और इसमें वे अपना नाम घोषित करने में गर्व अनुभव करते थे। सातवाहन काल में नागानिका, गौतमी, बलश्री आदि नारियों के उदाहरण यह प्रगट करते है कि, पतियों के साथ उनकी स्त्रियां भी शासन-संचालन करती थीं। सातवाहन काल में स्त्रियों को सामाजिक धार्मिक एवं प्रशासनिक अधिकार प्राप्त थे। स्त्रियाँ धार्मिक कार्यो के साथ ही दान देने के लिए भी स्वतंत्र थी।

धार्मिक स्थिति
सातवाहन शासक अपनी धार्मिक सहिष्णुता के लिए प्राचीन भारतीय संस्कृति में जाने जाते हैं। ब्राह्मण धर्म, बौद्ध धर्म, जैन धर्म एवं अन्य सम्प्रदायों के मध्य सातवाहनों ने कोई भेदभाव नहीं किया तथा सभी धर्मो को राजकीय दान प्रदान किये गये। सातवाहन काल ब्राह्मण धर्म का पुनरूत्थान काल था तथा स्वयं सातवाहन शासक भी ब्राह्मण थे।

सातवाहन शासन काल में ब्राह्मण धर्म का अभूतपूर्व विकास हुआ। वैदिक यज्ञ एवं अनुष्ठानों का आयोजन सातवाहन शासकों ने किया। सातवाहन शासक शातकर्णी प्रथम ने दो अश्वमेध यज्ञ किये थे। सातवाहन अभिलेखों में अश्वमेध यज्ञ, राजसूय यज्ञ, वाजपेय यज्ञ, आग्न्याध्येय यज्ञ, अप्तोर्यम यज्ञ, गार्गतिरात्र यज्ञ, दशरात्र यज्ञ आदि अनेक प्रकार के यज्ञों का उल्लेख किया गया है।

समाज में आम जनता भी यथा सामर्थ्य धर्म-कर्म यज्ञ, कर्मकाण्ड एवं दानादि पुण्यार्थ करती थी। सातवाहन काल में दान-पुण्य, तीर्थ यात्राओं एवं पवित्र सरोवरों में स्नान करना धर्म-कर्म का हिस्सा माना जाता था। सातवाहन शासकों ने प्रभूत मात्रा में धर्म-पुण्य की की कामना से दान दिये। सातवाहन काल में ही सर्वप्रथम भूमिदान के प्रमाण मिलते हैं।

सातवाहन शासकों एवं उनकी रानियों ने भारी मात्रा में वैदिक धार्मिक स्थलों एवं ब्राह्मणों को धन एवं भूमिदान दिये। सातवाहन काल में अनेक वैदिक देवी-देवताओं की उपासना के प्रमाण मिलते हैं। स्वयं सातवाहन शासक गौतमी पुत्र शातकर्णि अपने को वेदों का संरक्षक एवं अद्वितीय ब्राह्मण कहने में गौरवान्वित महसूस करता है। सातवाहन काल में शैव सम्प्रदाय और वैष्णव सम्प्रदाय के प्रभावशाली होने के प्रमाण मिलते हैं।

सातवाहन काल में बौद्ध धर्म बहुत सशक्त अवस्था में था। सातवाहन शासकों के स्वयं वैदिक धर्म के अनुयायी होने के बाबजूत बौद्ध धर्म आम जनता में निर्वाध रूप से फलता-फूलता रहा। सातवाहन शासकों एवं राजकीय परिवार के सदस्यों ने बौद्ध संघों, विाहर चैत्यों, स्तूपों एवं भिक्षुओं को दान-दक्षिणा, भूमिदान एवं ग्रामदान किये। दक्षिण भारत में अनेक बौद्ध गुहाओं, चैत्यों, बिहारों का निर्माण सातवाहन काल में हुआ।

सातवाहन काल में विदेशी जातियों अनेक विदेशी जातियों ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया और भारी मात्रा में दान पुण्य कार्य किया। दक्षिण भारत के अनेक अभिलेखों में चैत्य, विहार, स्तूप के निर्माण में दानदाताओं की सूची में विदेशियों के नाम मिलते हैं।

सातवाहन काल में जैनधर्म भी प्रगतिशील अवस्था में था। इतिहासविदों का मानना है कि, सातवाहन काल दक्षिण भारत में जैन धर्म के अनुयायिों की अनेक बस्तियाँ थी। तमिल देश एवं मैसूर में जैन धर्म अधिक प्रभावशाली था। इतिहासकार सेवेल ने वर्तमान आंध्र प्रदेश के लगभग हर जिले में जैन अवशेष देखे थे।

आर्थिक स्थिति
सातवाहन काल में कृषि एवं व्यापार में अभूतपूर्व उन्नति हुई। कृषि सामान्य जनता की आर्थिक गतिविधियों की धुरी थी। सातवाहन काल में खेतिहर किसान को ’हलिक’ कहा जाता था। सातवाहन काल में कृषि एवं भूमि का बहुत महत्व था। कृषि के साथ ही पशुपालन भी ग्रामीण कृषकों का प्रमुख व्यवसाय था। सातवाहन काल में भी गाय को पूज्य एवं पवित्र माना जाता है। सातवाहन शासकों ने दान में सहस्त्रों गायों को दान दिया था, जिसका उल्लेख सातवाहनों के अभिलेखों में मिलता है।

सातवाहन शासक कृषकों से उपज का 1/6 भाग राजस्व कर के रूप में लेते थे। सातवाहन काल में लघु उद्योग, व्यापार एवं वाणिज्य विकसित अवस्था में था। सातवाहन कालीन अभिलेखों, साहित्यिक ग्रंथों एवं विदेशी यात्रियों के वृतान्तों से व्यापार एवं वाणिज्य की प्रगति का ज्ञान होता है।

नासिक एवं जुन्नार के अभिलेखों में अनेक व्यवसायों, व्यवसायकारों, व्यावसायिक संगठनों एवं अक्षयनिधियों का उल्लेख मिलता है। बढ़ई, लुहार, कुम्हार, बुनकरों, ठठेरों, तेलियों, गंधिकों (इत्र व्यवसायियों), मछुआरों, स्वर्णकारों एवं अन्य धातु व्यवसायियों आदि के उल्लेख मिलते हैं। इन व्यवसायियों के अपने व्यावसायिक संगठन होते थे, जिन्हें श्रेणियाँ कहा जाता था।

सातवाहन काल में प्रतिष्ठान, धान्यकटक, भड़ौच, तगर (तेर), जुन्नार, नासिक, वैजयंती, विजयपुर, सोपास, कोंटाकोसिला, गुंडूर, अल्लोसीगें, हैदराबाद (गोलकुंडा), कुदूर आदि अनेक नगरों का व्यापारिक एवं व्यावसायिक मण्डियों के रूप में अभिलेखों, टॉलमी, पेरिप्लस ऑफ दि एरीथ्रियन सी में उल्लेखित है। ये नगर सड़क मार्ग से एक – दूसरे से जुड़े हुए थे।

भड़ौच, सोपारा, कल्याण, कोंटाकोसिला, कोड़ोगरा (गुडूर) उल्लोसीगे, आदि नगरों के बंदरगाहों से विदेशों को व्यापार होता था। जी वैंकटराव का मत है कि, ’’सातवाहन शासक पुलुमावि (द्वितीय) के शासनकाल में पूर्वी दकन में जहाजरानी के एक ऐतिहासिक युग का प्रादुर्भाव हुआ, जो यज्ञश्री के शासनकाल मे अपनी पराकाष्ठा पर पहुंच गया था।

सातवाहन काल में विलासिता की वस्तुओं औषधियों, मसालों, विविध प्रकार के वस्त्रों, आकर्षक हीरे-मोती एवं अन्य रत्न आदि का निर्यात विदेशों को होता था। आयात की वस्तुओं में धातुओं के बर्तन, चकमक के गिलास, मूल्यवान पत्थर गाने वाले लड़के, सुंदर लड़कियाँ मंदिरा आदि थी। सातवाहन काल में व्यापार एवं वाणिज्य की उन्नति में मुद्रा व्यवस्था ने भी आधारभूत भूमिका निभायी होगी। सातवाहनों ने सीसे, पोटीन, चाँदी एवं ताँबे के सिक्के चलाये। इस काल में दक्षिण भारत में रोमन सिक्के भी मिलते हैं।

शिक्षा एवं साहित्य
शिक्षा एवं साहित्य के विकास में सातवाहनों शासनों ने गहरी रूचि ली। शिक्षा राज्य का दायित्व नहीं था। शिक्षा गुरूकुलों, गुरूगृहों में, जैन एवं बौद्ध विहारों में दी जाती थी। सातवाहन काल में  धार्मिक एवं समाजोपयोगी दोनों प्रकार की शिक्षा दी जाती थी। विद्वानों का मत है कि, सातवाहन काल में संभवतः विविध शिल्पों की भी शिक्षा दी जाती होगी।

सातवाहन शासन, व्यापारिक संघ, श्रेणियाँ, धनाढ्य वर्ग आदि अनुदान देकर शिक्षा को प्रोत्साहित करते थे। सातवाहन काल में प्राकृत भाषा राजकीय भाषा थी। प्राकृत के साथ-साथ संस्कृत भाषा का विकास भी सातवाहन काल में हुआ। सातवाहन काल की सर्वश्रेष्ठ साहित्यिक कृति सातवाहन शासन ’हाल’ की प्राकृत भाषा में ’गाथा सप्तशती है। प्राकृत में ही गुणाढ़य की बृहत्कथा एवं संस्कृत में शर्ववर्मन का संस्कृत व्याकरण ग्रंथ ’कातंत्र’ अमर कृतियाँ हैं।

कला
सातवाहन शासनकाल के सुदीर्घ आधिपत्य में पश्चिम एवं दक्षिण भारत में कला का सर्वत्र सर्वांगीण विकास हुआ। सातवाहन काल में स्तूप, चैत्य, विहार, शैलोत्कीर्ण कला एवं मूर्तियों का अभूतपूर्व विकास हुआ। अमरावती, घंटशाल, गोली आदि मे स्तूपों एवं मात्रा कार्ले, नासिक, पीतलखोरा, अजंता आदि में शैलोत्कीर्ण गुहा कला एवं मूर्तियों का भारी संख्या निर्माण हुआ।

स्तूप
सातवाहन शासनकाल में अनेक स्तूपों एवं उनके वास्तु अंगों का निर्माण हुआ। अमरावती (आंध्र प्रदेश) में सातवाहन काल में महास्तूप का निर्माण हुआ। अमरावती स्तूप का प्रमुख वास्तु अंग महावेदिक थी। महावेदिका पर जातक कथाओं के दृश्य एवं बुद्ध के जीवन की घटनाओं का उत्कीर्ण किया गया था। सूचियों पर कमल पुष्पों का उत्कीर्ण है। स्तूप के तोरण द्वारों पर बोधिवृक्ष, धर्मचक्र, स्तूप आदि का उत्कीर्ण है।

गोली (गुंटूर जिला) नामक स्थल पर सातवाहन काल के स्तूप के अवशेष मिले हैं। गोली में शिलापट्ट पर स्तूप का उत्कीर्ण है। शिलापट्टों पर ही अनेक मूर्तियों के अंकन मिले हैं। भट्टिप्रोलु में भी सातवाहन कालीन एक महास्तूप मिला है। घण्टशाल एवं जगय्यपट्ट में भी सातवाहन कालीन स्तूप मिला है। नागार्जुनीकोड़ा (जिला गुंटूर) में सातवाहनों के सामंत इक्ष्वाकु वंश के शासकों ने महास्तूप का निर्माण कराया।

चैत्य एवं विहार
सातवाहन काल में शैलोत्कीर्ण गुफाओं का निर्माण संभवतः भारतीय इतिहास सर्वाधिक हुआ। पश्चिम भारत के शैलगृहों की संख्या बहुत बड़ी है। उनमें सर्वाधिक लगभग 900 बौद्ध, शेष 200 जैनधर्म तथा वैदिक धर्मो से संबंधित है। शैलोत्कीर्ण गुहाओं में चैत्य एवं विहार दोनों सम्मिलित हैं। भाजा (पूना, महाराष्ट्र) में सातवाहन काल में चैत्य, विहार एवं चौदह छोटे-छोटे स्तूप बने थे।

भाजा के चैत्य गृह के वास्तु अंगों में मण्डप, प्रदक्षिणा पथ, स्तम्भ, गजपृष्ठाकार छत प्रमुख है। भाजा के विहार के वास्तु अंगों में महामण्डप, कोडरिया, स्तम्भ, अर्धस्तम्भ प्रमुख है। कोंडाने की गुहा के वास्तु अंगों में महामण्डप, मण्डप, स्तम्भ, गजपृष्ठाकार छत प्रमुख है। पीतलखोरा (औरंगाबाद महाराष्ट्र) की 03 नं. की गुहा चैत्य गृह है। चैत्यगृह में ईंटों का अण्ड बना था।

प्रदक्षिणा पथ एवं कक्ष का विधान है। गुहा नं.  04 विहार थी। अजंता की गुहा नं. 10 सातवाहन कालीन है। गुहा नं. 09 भी चैत्यशाला है। विहार गुहा नं. 12, 13 एवं 08 विहार है। बेडसा, (नासिक, महाराष्ट्र) में विहार एवं चैत्य गृह दोनों, जुन्नार में लगभग 150 शैलगृह एवं 10 चैत्य शालाऐं हैं। जुन्नार हीनयान बौद्ध धर्म का बड़ा केन्द्र था। कार्ला (कार्ले) में एक चैत्यशाला एवं तीन विहार है।

कन्हेरी में एक चैत्यगृह एवं अनेक विहारों का निर्माण सातवाहन काल में हुआ। पूर्वी भारत में सातवाहन काल में भुवनेश्वर (उड़ीसा) के पास उदयगिरि की पहाड़ी पर 19 गुफाओं एवं खण्डगिरि में 16 गुफाओं का निर्माण हुआ।

बौद्ध धर्म के सिद्धांत 

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