Kushan Kalin Sanskriti कुषाण कालीन संस्कृति

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 Kushan Period Culture

Kushan Kalin Sanskriti के स्थापक पश्चिमी चीन के गोबी प्रदेश के मूल निवासी थे। इतिहासकार कुषाणों को ’यू- ची’ जाति का मानते है। कुषाणों को उनके मूल स्थान से ’हूंग – नू’ (हूण) जाति ने खदेड़ दिया था। कुषाणों ने बैक्टिरिया पर अधिकार कर लिया और सोण्डियाना (आधुनिक बोखारा) को अपनी राजधानी बनाया। यहीं से कुषाणों ने अपने लिए सुरक्षित स्थान तलासने और अपने लिए राज्य निर्माण की लालसा से उत्तर पश्चिमी भारत में प्रवेश किया।

कुषाणों का सबसे महान शासक कनिष्क प्रथम था। कनिष्क से पूर्व कुजुल कडफिसेस, विमकडफिसेस, सोटर मेगास आदि प्रारंभिक कुषाणों शासकों के नाम मिलते हैं। कुषाण शासक विमकडफिसेस ने भारत में सर्वप्रथम स्वर्ण मुद्राएँ प्रचलित की थी। विम कडफिसेस ने ही सबसे पहले कुषाण साम्राज्य को भारत में स्थापित किया था। कुषाण राजवंश का सबसे प्रतापी शासक कनिष्क (लगभग 78 ई – 101 ई तक) था। जिसका शासनकाल कुषाण राजवंश का प्रत्येक क्षेत्र में चर्मोंत्कर्ष था।

सामाजिक स्थिति
भारतीय संस्कृति में कुषाण कालीन संस्कृति अपना विशिष्ट स्थान रखती थी। कुषाण कालीन संस्कृति विविध धर्मो एवं समाजों का सम्मिश्रण थी। कुषाण साम्राज्य में सनातन हिन्दू, बौद्ध, जैन एवं अन्य सामाजिक विचार धाराओं पर जीवन जीने वाले समुदाय रहते थे। इसीलिए कुषाण साम्राज्य में सामाजिक विविधा, कुषाण कालीन समाज की प्रमुख विशेषता थी। सनातन हिन्दू सामाजिक व्यवस्था चार वर्णो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र में विभक्त थी। चातुर्यवर्ण व्यवस्था के अनुसार ही अपने व्यवसायों में संलग्न थी।

समाज प्राचीन आठ प्रकार के विवाहों के साथ-साथ अनुलोम-प्रतिलोम विवाह होते थे। वर्ण संकर जातियों का भी उल्लेख मिलता है। समाज में बौद्ध एवं जैन धर्मावलम्बी अपनी-अपनी सामाजिक व्यवस्थाओं के अनुरूप रह रहे थे। कुषाणकाल में विदेशी जातियाँ अपनी सामाजिक परंपराओं के साथ ही भारतीय परंपराओं का सामाजिक जीवन में उपयोग कर रहे थे।

अनेक विदेशी जातियों ने बौद्ध एवं ब्राह्मण धर्म को ग्रहण कर लिया था। स्वयं कुषाण शासकों ने भी बौद्ध एवं ब्राह्मण धर्म में  अपनी आस्था प्रगट करके उनका सामाजिक जीवन अपनाया था। समाज में स्त्री एवं पुरूषों की वेशभूषा में भी भारी विविधताऐं थी। उत्तर  मध्य भारत, राजपूताना, पंजाब के भौगोलिक क्षेत्र की वेशभूषा में भारी अंतर था। समाज में शाकाहारी एवं माँसाहारी दोनों प्रकार का भोजन प्रचलित था।

कुषाण कालीन समाज में मनोरंजन के साधनों में नृत्य-संगीत-गायन के वाद्ययंत्रों ढोल-मंजीरा, सितार, सारंगी, एकतारा आदि का मूतियों में अंकन बहुत मिलता है। शिकार खेलना पाँसों का खेल, अखाड़े और व्यायाम शालाएँ, नाटकों तथा जादूगरों के खेल आदि मनोरंजन के साधन थे।

आर्थिक स्थिति
कुषाण काल में कृषि, पशुपालन, उद्योग धंधे एवं व्यापार- वाणिज्य उन्नतिशील अवस्था में था। बहुसंख्यक आम जनता कृषि एवं पशुपालन पर निर्भर थी। कुषाणकाल में राज्य द्वारा अनाज संग्रहण एवं वितरण किया जाता था। कुषाण काल उद्योग-धंधों एवं व्यापार-वाणिज्य की दृष्टि से अब तक के भारतीय इतिहास में सर्वश्रेष्ठ स्थिति  में था।

कुषाण साम्राज्य अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक मार्गो एवं व्यापारिक स्थलों के केन्द्र में था। कुषाण साम्राज्य की सीमा पूर्व में चीन तथा पश्चिम में रोमन साम्राज्य से मिलती थी। इसी कारण रोम, ईरान, अफगानिस्तान, खोतन, चीनी तुर्किस्तान, काशगर, चीन, तिब्बत से व्यापारिक संपर्क स्थापित हो गया। इसके साथ ही दक्षिण पूवी देशों में भारतीयों ने हिंद चीन एवं हिन्देशिया में अपने उपनिवेश स्थापित किये थे।

कुषाण काल में संगठित व्यावसायिक संघो एवं श्रेणियों के माध्यम से स्थलीय एवं जलीय मार्गो से बड़ी संख्या में व्यापार होता था। महावस्तु में उल्लेखित है कि, व्यापारी सामान से लदे जहाजों को लेकर समुद्र पार जाते थे। कुषाण कालीन व्यापार एवं वाणिज्य की समृद्धि में मजबूत मुद्रा प्रणाली में महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। कुषाणों ने सोना, ताँबे के विविध प्रकार के सिक्के जारी किये।

धार्मिक स्थिति
कुषाण काल धार्मिक सहिष्णुता एवं सामंजस्य का अद्भुत संगम था। कुषाण साम्राज्य में आम जनता मध्य एशियायी, यूनानी, सुमेरियन, ईरानी, बौद्ध, जैन, ब्राह्मण देवी-देवताओं की उपासना करती थी और शासक सभी का समानता के साथ सम्मान करते थे। कुषाण शासकों के सिक्कों पर ब्राह्मण, बौद्ध, यूनानी, सुमेरी, ईरानी, रोमन आदि धर्मो के देवी-देवताओं के चित्र मिलते हैं।

कुषाणकाल में भी ब्राह्मण धर्म शक्तिशाली था अधिकांश जनता ब्राह्मण धर्मावलम्बी थी। कुषाणों ने अपने सिक्कों पर शिव, नंदी, वासुदेव, मित्र, यम, स्कन्द कुमार, उमा, विशाखा, महासेन, वरूण, मिहिर आदि ब्राह्मण देवी-देवताओं का अंकन करवाया। कुषाणों ने अपने शासनकाल में ब्राह्मण धर्म एवं ब्राह्मण धर्मावलंबियों का पूरा सम्मान किया।

कुषाण काल में जैन धर्म भी प्रचलित था। कुषाण साम्राज्य में मथुरा जैन धर्म का एक बड़ा केन्द्र था। संभवतः मथुरा में जैन धर्म का कोई बड़ा संघ रहा होगा। मथुरा से जैन तीर्थकरों की मूर्तियाँ जैन देवियों की मूर्तियाँ, आयागपट्ट आदि मिले हैं। इस प्रकार कुषाणकाल में जैन धर्म भी प्रगति करता रहा। कुषाण शासकों ने बौद्ध धर्म में गहरी आस्था प्रगट की। अनेक कुषाण शासक बौद्ध धर्म के प्रति आस्थावान थे, वहीं महान कुषाण शासक कनिष्क प्रथम ने स्पष्टतः बौद्ध धर्म अपनाकर, बौद्ध के राजकीय संरक्षण दिया और बौद्ध धर्म के विस्तार एवं प्रगति में योगदान प्रदान किया।

इतिहासकारों का मत है कि, कनिष्क को बौद्ध धर्म में सुदर्शन नामक बौद्ध विद्वान ने दीक्षित किया था। कनिष्क ने अपने शासनकाल के प्रारंभिक वर्षो में ही बौद्ध धर्म को अपना लिया था। कनिष्क ने बौद्ध धर्म की उन्नति के लिए अनेक कार्य किये। इसी कारण बौद्ध ग्रंथों में कनिष्क को बौद्ध धर्म का संरक्षक एवं दूसरे अशोक के रूप में उल्लेखित किया गया है। कनिष्क ने अनेक बौद्ध विहार स्तूपों एवं बौद्ध मूर्तियों का निर्माण करवाया।

कनिष्क के बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए कनिष्कपुर, पुरूषपुर, मथुरा, तक्षशिला आदि अनेक स्थानों पर स्तूपों विहारों का निर्माण करवाया। कनिष्क ने बौद्ध धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए बौद्ध विद्वानों को चीन, तिब्बत, जापान एवं मध्य एशिया भेजा।

चतुर्थ बौद्ध संगीति
कनिष्क ने बौद्ध धर्म की प्रगति और प्रचार-प्रसार के साथ ही, तत्कालीन समय में बौद्ध धर्म में प्रचलित विभिन्न सिद्वानों, मतों एवं विवादों पर गहन अध्ययन एवं विचार विमर्श के लिए चतुर्थ बौद्ध संगीति का आयोजन करवाया। चतुर्थ बौद्ध संगीति कश्मीर के कुण्डलवन में आयोजित की गयी। इस संगीति के अध्यक्ष वसुमित्र तथा उपाध्यक्ष अश्वघोष को बनाया गया।

संगीति में 500 से अधिक बौद्ध भिक्षुओं एवं विद्वानों ने हिस्सा लिया। बौद्ध संगीति में नागार्जुन एवं पार्श्व ने भी हिस्सा लिया था। यह संगीति छह माह तक चली। इसके सम्पूर्ण बौद्ध साहित्य पर विस्तृत चर्चा की गयी। विद्वानों ने गहन चिंतन-मनन करके त्रिपिटकों पर शुद्ध टीकाएँ लिखी। टीकाओं को ’महाविभाष’ नामक ग्रंथ में संकलित किया गया। यहीं ’महाविभाष’ कालान्तर में ’बौद्ध धर्म का विश्वकोष’ कहलाया।

कनिष्क ने सभी टीकाओं को ताम्रपत्रों पर उत्कीर्ण कराके एक नवीन निर्मित स्तूप में संरक्षित करवा दिया। इस बौद्ध संगीति में बौद्ध धर्म में प्रचलित तत्कालीन 18 मतों (सिद्धांतांे) में चला आ रहा विवाद गहन विचार-विमर्श के बाद समाप्त कर दिया गया। ’महायान’ बौद्ध धर्म का उदय संगीति के विचार मंथन से हुआ।

साहित्य का विकास
कुषाण काल साहित्यिक प्रगति का काल था। कुषाण शासक कनिष्क के काल में भाषा एवं साहित्य की चतुर्दिक प्रगति हुई। कुषाण काल में यूनानी संस्कृत, प्राकृत भाषा एवं ब्राह्मी एवं खरोष्ठी लिपियों का विकास हुआ। कनिष्क की राजसभा में वसुमित्र, अश्वघोष, नागार्जुन, पार्श्व, माठर, चरक संघरक्ष आदि महान विद्वानों को राजकीय प्रश्रय प्राप्त था।

वसुमित्र ने चतुर्थ बौद्ध संगीति की अध्यक्षता की तथा महान बौद्ध ग्रंथ महाविभाष की रचना की थी। अश्वघोष ने चतुर्थ बौद्ध संगीति की उपाध्यक्षता की थी। अश्वघोष ने बुद्धचरित, सौन्दरानंद जैसे महान् महाकाव्यों एवं शारिपुत्र प्रकरण जैसे सुप्रसिद्ध नाटक की रचना की थी। महान दार्शनिक एवं वैज्ञानिक नागार्जुन ने प्रसिद्ध ग्रंथ प्रज्ञापारमिता सूत्र की रचना की।

कला
कुषाणों के काल में कला चर्मोंत्कर्ष पर थी। मथुरा, गांधार, पुरूषपुर, मनिक्याल, तक्षशिला, कौशांबी, सारनाथ आदि कुषाण कालीन कला के केन्द्र थे। कुषाण काल में विशेषतः कनिष्क ने कला के क्षेत्र में प्रशंसनीय योगदान प्रदान किया है। कनिष्क ने पुरूषपुर, तक्षशिला, बल्ख, खोतान, मनिक्याल, गांधार आदि में अनेक स्तूपों एवं विहारों का निर्माण कराया।

कुषाण काल में नगरीकरण की प्रगति में अत्यधिक तेजी आयी। अनेक नवीन नगरों की स्थापना हुई एवं पहले से स्थापित नगरों के नगरीकरण में भारी तेजी आयी। कनिष्क ने तक्षशिला में सिरकप तथा पुरूषपुर में कनिष्कपुर नामक नवीन नगरों की स्थापना की। कनिष्क के शासनकाल में मूर्तिकला के क्षेत्र में अभूतपूर्व कार्य हुआ। कनिष्क के शासनकाल ने कला के क्षेत्र में भारतीय संस्कृति को मथुरा कला एवं गांधार कला की महत्वपूर्ण कृतियाँ दी है। कनिष्क के शासनकाल में मथुरा कला एवं गांधार कला की ’मूर्तिकला कला’ विश्वविख्यात हो चुकी थी।

मथुरा कला
भारत में मथुरा का कला की दृष्टि से महत्वपूर्ण स्थान रहा है। मथुरा, कला की दृष्टि से एक लंबे समय तक कला की उत्कृष्ट कृतियों का सृजन करता रहा। कला के एक केन्द्र के रूप में मथुरा कला ने अपनी विशिष्टता को स्थापित किया। इसी कारण मथुरा को ’मथुरा कला के विद्यालय’ (मथुरा स्कूल ऑफ आर्ट) की संज्ञा दी गयी।

वस्तुतः कुषाण काल में मथुरा कला अपने पूर्ण यौवन को प्राप्त कर चुकी थी, मथुरा कला अपनी मूर्तिकला कला में पूर्ण दक्ष हो चुकी थी, अपनी वैशिष्टक विशेषता के कारण इसने सम्पूर्ण भारत की कला को प्रभावित किया। मथुरा कला में बौद्ध, जिन, हिन्दू देवी – देवताओं, यक्ष, यक्षिणी आदि की मूर्तियों का निर्माण हुआ।

कुषाण कालीन मथुरा कला की विशेषताएँ

1 – कुषाण कालीन शिल्पी ने सम्मुख दर्शन के साथ-साथ पार्श्व दर्शन, पृष्ठ दर्शन आदि का प्रयोग किया है, देवताओं और राजपुरुषों की मूर्तियाँ सम्मुख दर्शन रूप में उकेरी गई हैं। उक्त मूर्तियों की श्रेष्ठता हेतु ’सम्मुख दर्शन’ अपरिहार्य था।

2 – मथुरा के शिल्पी को जहाँ जीवन में अनेक पहलू उद्भृत करने थे, वहां अनौपचारिकता का वातावरण उत्पन्न करना आवश्यक था और ऐसे दृश्यों में मुद्रा व कोणों की भिन्नता के द्वारा स्त्री-पुरुष आकृतियों में स्वाभाविकता लाना सम्भव था, जिसके लिये कलाकारों ने आकृतियों में मृद्रा व कोणों की भिन्नता को प्रदर्शित किया है।

3 – उस समय की मूर्तियाँ पृष्ठ से अधिक उभरी हैं और इस कारण पूर्वकालीन मूर्तियों में जो चपटेपन का आभास होता है, वह कुषाण काल में समाप्त हो गया, जो मूर्तियाँ शिलापट्टों पर उभारकर बनाई गई हैं, उनके भी पृष्ठ भाग पर केश सहित आभूषण अथवा वस्त्र दिखाये गये हैं या मूर्ति के पृष्ठ भाग पर पशु – पक्षी, पुष्प – पत्ती आदि आकृतियाँ प्रदर्शित की गई हैं।

4 – कुषाण युग में आरम्भिक काल की स्थूलता के आधार पर मूर्तियों को सुडौल हस्ट-पुष्ट एवं मांसल रूप मंे अंकित किया गया है। इसमें यह भी उल्लेखीय है कि, जंघा व पैरों के भारीपन को दूर करने का प्रयास कुषाण शिल्पियों ने आरम्भ कर दिया था, परन्तु दुर्भाग्यवश मथुरा के शिल्पी को जहाँ अनेकानेक सफलताएँ मिली। उससे वह गुप्त काल में इस दोष से मुक्त न हो सका।

5 – कुषाण कालीन मथुरा कला के शिल्पी ने वस्त्र संरचना में भी नये-नये प्रयोग कर दिये थे, पूर्ण कालीन भारतीय वस्त्रों के स्थान पर मूर्तियों को सुरूचिपूर्ण व हल्के वस्त्रों से सुसज्जित किया गया।

6 – कथानकों के अंकन की एक नई शैली का आरम्भ भी इसी युग में हो गया। पूर्व काल में एक ही चौखट के अन्तर्गत एक कथा से सम्बन्धित अनेक घटनाएँ प्रदर्शित कर दी जाती थीं, परन्तु अब विभिन्न घटनाओं को अलग-अलग स्पष्ट रूप में प्रदर्शित किया जाने लगा।

7 – कुषाण कालीन मथुरा कला में निर्मित मूर्तियों पर मूंछें नहीं दिखायी गईं हैं, वास्तव में मूंछों से रहित मूर्तियों के निर्माण की परम्परा भारतीय थी।

8 – मथुरा की कुषाण कालीन देव प्रतिमा के दाहिने कन्धे पर वस्त्र प्रदर्शित नहीं किये गये हैं, दाहिना हाथ अधिकतर ’अभयमुद्रा’ में ही पाया गया है।

9 – मथुरा की कुषाण कालीन कला के विषय एवं तकनीक भारतीय है। मथुरा के शिल्पी भारतीय आदर्श व भावनाओं को पूर्णतः व्यक्त करते है।

10 – मथुरा शैली की पाषाण कला कृतियाँ प्रायः चत्तेदार ’बलुआ पत्थर’ से निर्मित है।

मथुरा कला शैली में प्रथमतः मथुरा में बुद्ध को प्रतीकों के माध्यम से प्रस्तुत किया गया। ज्ञातव्य रहे कि, बुद्ध की प्रथम मूर्ति मथुरा कला में मथुरा में ही बनीं। कुषाण काल में मथुरा कला का विकास हुआ। डॉव्म् आरव्म् एनव्म् मिश्र ने लिखा है कि, कनिष्क के काल से बुद्ध की आसन एवं स्थानक मूर्तियों का सुचारू एवं प्रभावशाली ढंग से निर्माण होने लगा था। इनमें मथुरा में निर्मित बुद्ध की कंकाली टीला, महोली, कौशांबी, सारनाथ की ’स्थानक मूर्तियाँ’ प्रमुख है। इनके अतिरिक्त, कटरा तथा आन्योर की ’पद्मासन मुद्रा’ में निर्मित बुद्ध की मूर्तियाँ भी कनिष्क के काल की है।

कुषाण कालीन मथुरा कला शैली में हिन्दू देवी – देवताओं की प्रतिमाओं का भी बड़ी संख्या में निर्माण हुआ। शिव, विष्णु, सूर्य, अग्नि, ब्रह्मा, कार्तिकेय, इंद्र, बलराम, कामदेव, दुर्गा, लक्ष्मी, मातृकाएं आदि हिन्दू देवी – देवताओं की मूर्तियों का निर्माण हुआ। कुषाण कालीन मथुरा कला शैली में यक्ष – यक्षिणी मूर्तियों का निर्माण बड़े सुन्दर ढंग से हुआ है।

यक्ष – यक्षिणीयों की मूर्तियों के निर्माण में आध्यत्मिक पक्ष की अपेक्षा भौतिक पक्ष पर अधिक बल दिया गया है। डॉव्म् वासुदेव शरण अग्रवाल ने यक्षिणीयों एवं स्त्रियों की आकर्षक, मोहक, काम क्रीड़ा युक्त नग्न मूर्तियों को आम जनता के उत्सवों (लोकोत्सवों) से जोड़ा है। महोली, गोविन्दनगर से प्राप्त तथा मथुरा संग्रहालय में संरक्षित यक्ष मूर्तियाँ कुषाण कालीन मथुरा कला शैली की विशिष्ट यक्ष प्रतिमाएं है।

कुषाण कालीन मथुरा कला शैली में शिलाओं पट्टों, वेदिका स्तंभों आदि पर राजा – महाराजाओं की प्रतिमाएं मिलती है। इनमें कुषाण शासक कनिष्क की मथुरा संग्रहालय में संरक्षित पत्थर की मूर्ति प्रमुख है। कुषाण कालीन मथुरा कला शैली में जैन प्रतिमाएं भी मिलती है, जिनमें जैन सर्वतोभद्रिकाएं, स्वतंत्र जिन प्रतिमाएं, आयागपट्ट आदि प्रमुख है।

गांधार कला
गांधार मूर्तिकला का कुषाण काल में महत्वपूर्ण स्थान है। कुषाण काल में गांधार एशिया एवं यूरोप के मिलन का एक प्रमुख स्थल था। इसी कारण गांधार में एक विशिष्ट कला का विकास हुआ। जिसकी तकनीक यूनानी एवं विषय वस्तु भारतीय होने कारण विद्वानों ने ग्रीकों – रोमन, ग्रीकों – बुद्धिस्ट, इण्डो – रोमन, इण्डो – ग्रीक आदि नामों से संबोधित किया।

किन्तु हाल के शोधों से प्रमाणित हो गया है कि इस विशिष्ट कला शैली का गांधार में ही उद्भव हुआ। अतः इसे ’गांधार मूर्तिकला शैली’ कहना ही उचित है। गांधार मूर्तिकला कला शैली में निर्मित महात्मा बुद्ध की प्रतिमाओं में बुद्ध की मुखमुद्रा शख्त कठोर रूप में प्रदर्शित की गयी है। इसी कारण आनन्द कुमारस्वामी ने इन प्रतिमाओं को ’आत्मारहित पुतले’ कहा है। निहार रंजन राय ने इन प्रतिमाओं को ’कारखानों में मशीनों’ द्वारा निर्मित कहा है।

कुषाण कालीन गांधार कला की विशेषताएँ

1 – गांधार की कृतियाँ ’स्वात घाटी’ में उपलब्ध ‘स्लेटी पत्थर’ से निर्मित की गयी हैं।

2 – गांधार कला के विषय वस्तु में भारतीय किन्तु तकनीकी विदेशी हैं, अधिकांश विद्वानों का मानना है कि वास्तव में गांधार कला के अन्तर्गत मूर्तियों का विषय भारतीय, किन्तु तकनीकी यूनानी है। एक यूनानी कला के द्वारा भारतीय विषयों की वास्तविक अभिव्यक्ति नहीं हो सकती थी। अतः गांधार के शिल्पी भारतीय आदर्श व भावनाओं को व्यक्त करने में असमर्थ रहे।

3 – महात्मा बुद्ध को सिंहासन पर बैठे हुये दर्शाया गया है तथा कहीं-कहीं वे चप्पल भी धारण किये हुये हैं।

4 – महात्मा बुद्ध केश व उष्णीश (जूड़ा) में दिखाये गये हैं तथा वे आभूषण धारण किये हुये हैं। यह यूनानी प्रभाव को इंगित करता है। अपोलो और एक्रोडाइट की यूनानी मूर्तियों में सिर पर जूड़े का प्रदर्शन किया जाता था। अपोलो की मूर्ति पर निर्मित उष्णीश को ’क्रेम्ब्रीलोज’ कहा जाता था।

5 – गांधार में  निर्मित की गयी कुछ मूर्तियों को रोम में प्रचलित ’शेग’ की तरह का वस्त्र धारण किये हुये प्रदर्शित किया गया है। यह एक बड़ी प्रकार की चादर होती थी, जिससे सारे शरीर को ढंका जाता था।

6 – बैंजामिन रोलेन्ड ने स्पष्ट किया है कि रोम की ऑगस्टस युग की मूर्तियों में दिखाए जाने वाले वस्त्रों में सिलवटों को दिखाने के लिये जिस प्रकार से गहरी लकीरें उकेरी गई हैं ठीक उसी प्रकार गांधार की बुद्ध मूर्तियों के वस्त्रों की सलवटें भी लकीरों में प्रदर्शित हैं, जो निश्चित ही प्रथम सदी ईव्म् की रोमन कला के प्रभाव को सूचित करती हैं।

7 – गांधार मूर्तियों में आध्यात्मिक व भावुकता का अभाव है, यही कारण है कि आनन्द कुमारस्वामी ने इन मूर्तियों को ’आत्मा रहित पुतलें’ कहा है, निहार रंजन रे ने लिखा है कि ’गांधार कला की मूर्तियाँ कलाकारों द्वारा नहीं अपितु बृहत् संख्यां में कारखानों में मशीनों द्वारा निर्मित हैं।’

8 – गांधार मूर्ति शिल्प में बुद्ध मूर्तियों के वस्त्र कुछ भारी तथा मोटे प्रतीत होते हैं, साथ ही मूर्तियों के दोनों कंधों को ढका हुआ दिखाया गया है। कुछ आसन मूर्तियों के दाहिने कंधों पर वस्त्र का प्रदर्शन नहीं हुआ है। मूर्तियों को अधिक वस्त्राच्छांदित करने का कारण सम्भवतः गान्धार प्रदेश की शीतप्रद जलवायु की शिल्पियों की दृष्टि में रहा होगा। कुषाण परम्परा के प्रभाव कुछ मूर्तियों के चेहरे पर मूंछों का भी प्रदर्शन किया गया है।

9 – गांधार मूर्तिकला का विषय प्रधानतः बुद्ध, बोद्धिसत्व तथा बुद्ध से सम्बन्धित है।

10 – यूनानी प्रभाव के कारण गांधार मूर्तियों में बुद्ध ’अपोलो’ देवता के समान लगते हैं।

शुंग-सातवाहन शासकों ने ब्राह्मण राजवंशों की स्थापना की। सर्वप्रथम राजनैतिक परिवर्तन के साथ ही धार्मिक परिवर्तन हुआ। इससे समाज में पुनः ब्राह्मणों की श्रेष्ठता स्थापित हुई। ब्राह्मणों के राजकीय सत्ता  प्राप्ति से वैदिक संस्कृति पुनः प्रतिष्ठित हुई। मौर्यकाल में राजकीय संरक्षण के कारण बौद्ध धर्म संस्कृति का प्रभुत्व बढ़ गया था।

शुंग – सातवाहन शासकों के राजनैतिक उत्कर्ष के साथ ही वैदिक संस्कृति का पुनरूत्थान हुआ और वैदिक धर्म संस्कृति द्वारा विहित सामाजिक धार्मिक ढाँचे को दृढ़ता के साथ स्थापित किया गया। किन्तु वैदिक संस्कृति के उत्थान ने बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म के स्तूप, चैत्य एवं विहार के स्थापत्य एवं विकास में कोई रूकावट पैंदा नहीं की। अपितु कला के क्षेत्र में सर्वाधिक उन्नति बौद्ध कला की ही हुई। कुषाण काल अपनी धार्मिक सहिष्णुता एवं समन्वय का उत्तम उदाहरण था। कुषाणों ने कला के क्षेत्र में अभूतपूर्व योगदान दिया तथा मथुरा एवं गांधार कला जैसी महान् कला संस्कृति का उत्थान हुआ।

शुंग कालीन संस्कृति 

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