Sung Kalin Sanskriti शुंग कालीन संस्कृति

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Shunga Period culture

मौर्य सम्राट बृहद्रथ के सेनापति ‘पुष्यमित्र शुंग‘ ने बृहद्रथ की 184 ईस्वी पूर्व में हत्या करके ‘शुंग वंश‘ की स्थापना की और  Sung Kalin Sanskriti की स्थापना हुई । शुंग वंश के लिए तत्कालीन राजनैतिक परिस्थितियों एवं कमजोर – शिथिल राजा और राजतंत्र ने अनुकूल वातावरण तैयार किया। जिसका सही उपयोग पुष्यमित्र शुंग ने किया और राजसिंहासन हस्तगत कर लिया।

शुंग ‘ब्राह्मण‘ जाति के थे और पुष्यमित्र शुंग को प्राचीन काल में ‘प्रथम ब्राह्मण‘ राज्य के गठन का श्रेय जाता है। पुष्यमित्र शुंग की राजधानी पाटलिपुत्र ही थी। पुष्यमित्र शुंग के पुत्र अग्निमित्र ने विदिशा को भी राजधानी बनाया। शुंगों ने कुल 112 वर्ष तक शासन किया। इस वंश में कुल 10 शासक हुए। शुंग वंश का अंतिम शासक ‘देवभूति

था। शुंगों के राजकीय सत्ता  प्राप्ति से वैदिक संस्कृति की पुनः प्रतिष्ठा हुई। वैदिक धर्म एवं सामाजिक धार्मिक ढाँचे का पुनरूत्थान हुआ।

धार्मिक स्थिति
शुंग राजवंश के ब्राह्मण जाति के होने कारण वैदिक या ब्राह्मण धर्म का पुनरूत्थान शुंग काल में हुआ। वस्तुतः मौर्यकाल की समाप्ति और ‘शुंग वंश‘ की स्थापना के साथ ही सर्वप्रथम राजनैतिक परिवर्तन के साथ ही धार्मिक परिवर्तन हुआ। वैदिक धर्म एवं ब्राह्मणों की श्रेष्ठता पुनः धार्मिक क्षेत्र में स्थापित हो गयी। शुंग काल में बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म का प्रचलन पूर्वतः प्रचलित रहा। शुंगों  ने बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म संस्कृति में कोई हस्तक्षेप नहीं किया।

वैदिक धर्म
शुंगकाल में वैदिक धर्म का पुनरूत्थान हुआ। शुंगकाल में धर्म को राजकीय संरक्षण मिलने से वैदिक धर्म एवं यज्ञों की प्रभुता स्थापित हो गयी। वैदिक धर्म के देवी – देवताओं की उपासना एवं उनसे संबंधित धर्म – कर्म, अनुष्ठान सम्पूर्ण शुंग शासनकाल में दृढ़ता के साथ किये जाने लगे। ब्राह्मणों की श्रेष्ठता पुनः स्थापित हो गयी।

ब्राह्मण वैदिक धर्म के विशेषज्ञ एवं यज्ञों के कर्ता होने के कारण धार्मिक  क्रियाकलापों के केन्द्र बिन्दु थे। शुंगों ने वैदिक यज्ञों को प्रतिष्ठित करते हुए दो ’अश्वमेघ यज्ञों’ का आयोजन किया। जिसकी पुष्टि शुंग वंश के अयोध्या अभिलेखों से होती है। इनमें से एक यज्ञ की पुरोहतायी महान् आचार्य पतंजलि के द्वारा संपन्न हुई थी। शुंगों द्वारा अश्वमेघ यज्ञ किया जाना वैदिक धर्म की पुनः स्थापना का प्रतीक है।

यज्ञों में पशुबलि को सिद्धान्त और व्यावहारिकतः स्वीकृति मिल गयी। वस्तुतः यज्ञ हेतु पशुबलि के कारण हिंसा को सीमित दायरे में मान्यता प्रदान कर दी गयी। इसी काल में यह युक्ति प्रतिष्ठित हो गयी कि, ’’वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति’’ अर्थात् यज्ञों में की गयी हिंसा, हिंसा नहीं होती है तथा ’’जीवों जीवस्य भोजनम्’’ अर्थात् जीव ही जीव का भोजन (आहार ) है।

शुंगकाल से विदेशी जातियों के भारतीय समाज वैदिक धर्म में सम्मिलित होने के प्रमाण मिलते है। इसकाल मे तेजी से विदेशी जातियों ने वैदिक धर्म को बड़े ही उत्साह के साथ स्वतः अपनाया। इसका सबसे बड़ा उदाहरण हेलियोडोरस का बेसनगर (विदिशा) का गरूड़ ध्वज (स्तम्भ) है। जिसमें उसने स्वयं की भागवत धर्म में आस्था प्रगट की है।

इससे यह भी सिद्ध होता है कि, शुंगकाल में भागवत धर्म प्रसिद्ध हो चुका था। शुंगकाल में विदेशी जातियों ने ब्राह्मण एवं बौद्ध धर्म में स्वयं को दीक्षित किया। सबसे बड़ा उदाहरण हेलियोडोरस था, जिसने वैष्णव धर्म को अपनाया। शक क्षत्रप रूद्रदामन ने ब्राह्मण धर्म में अपनी आस्था प्रगट की।

बौद्ध धर्म
शुंगकाल में बौद्ध धर्म, ब्राह्मण धर्म के बाद सर्वाधिक प्रचलित धर्म था। मौर्यो के राजकीय संरक्षण के कारण बौद्ध धर्म की अभूतपूर्व प्रगति हुई थी। वहीं, पुष्यमित्र शुंग बौद्ध धर्म के विरूद्ध ब्राह्मण क्रांति का साकार रूप था। शुंगकाल में बौद्ध धर्म से राजकीय संरक्षण छीन लिया गया और इसी कारण बौद्ध धर्मावलंबियों एवं उनके धार्मिक प्रतिमानों को भारी आर्थिक प्रशासनिक मदद् बंद हो गयी। इसी कारण बौद्ध ग्रंथ पुष्यमित्र शुंग को बौद्धद्रोही घोषित करते हैं।

बौद्ध ग्रंथ ’दिव्यावदान’ पुष्यमित्र शुंग को बौद्धद्रोही घोषित करते हुये कहता है कि, पुष्यमित्र शुंग ने अशोक द्वारा निर्मित अनेक बौद्ध स्तूपों को नष्ट कर दिया और उसने साकल (स्यालकोट) में घोषणा की कि, जो कोई भी मुझे श्रमण का सिर काट कर देगा उसे मैं 100 दीनार ईनाम दूंगा। किन्तु इतिहासकारों का कहना है कि, ’दिव्यावदान’ मे यह कोरी काल्पनिकता है क्योंकि शुंगकाल में दीनार ’मुद्रा’ प्रचलित ही नहीं थी।

तिब्बत का बौद्ध विद्वान तारानाथ भी पुष्यमित्र शुंग को बौद्धद्रोही घोषित करते हुए कहता है कि, उसने बौद्धों की हत्या की तथा स्तूपों और विहारों को नष्ट किया था। ’आर्यमंजूश्रीमूलकल्प’ एवं क्षेमेन्द्र कृत ’अवदानकल्पना’ भी पुष्यमित्र शुंग को बौद्धद्रोही कहती है। इतिहासविदों की धारणा है कि, बौद्ध ग्रंथों द्वारा बहुत बढ़ा – चढ़ाकर पुष्यमित्र शुंग को बौद्धद्राही बताया है। जिनकी अन्य ग्रंथों एवं अभिलेखीय साक्ष्यों से कोई पुष्टि नहीं होती है।

वहीं, पुष्यमित्र शुंग एवं उसके उत्तराधिकारियों की धार्मिक सहिष्णुता की पुष्टि होती है। जो ’दिव्यावदान’ पुष्यमित्र शुंग को बौद्धद्रोही कहता है, उसी में लिखा है कि, पुष्यमित्र ने बौद्ध मंत्रियों की राज्य में नियुक्ति की थी। शुंगकाल में भरहुत, बोध गया एवं साँची में बौद्ध स्थापत्य के कतिपय अंगों का निर्माण शुंग शासकों ने करवाये।

भाजा, नासिक, कार्ले के बौद्ध चैत्य एवं विहार शुंगकाल में ही बने थे। अतः स्पष्ट है कि, शुंग शासन बौद्ध द्रोही नहीं थे। वस्तुतः शुंग काल में बौद्ध धर्म पहले की तरह फलता-फूलता रहा। शुंग शासकों ने बौद्ध धर्म की पूजा पद्धति, पूजा स्थलों, स्तूपों, चैत्यों विहारों, बौद्ध गुफाओं एवं बौद्ध शिक्षा केन्द्रों में कोई हस्तक्षेप नहीं किया।

शुंगकाल में जैन धर्म भी पहले की तरह प्रचलित रहा। शुंगों ने जैन धर्म संस्कृति एवं उनके सामाजिक – धार्मिक सरोकारों में कोई हस्तक्षेप नहीं किया।

सामाजिक स्थिति
शुंगकाल सामाजिक परिवर्तन का काल था। पूर्व कालीन बौद्ध सामाजिक व्यवस्था के स्थान पर ब्राह्मण धर्म द्वारा विदित वर्ण और आश्रम व्यवस्था को प्रोत्साहित किया गया। ब्राह्मण विचारधारा ने बौद्ध श्रवण विचार धारा पर गहरा प्रहार किया और समाज में ब्राह्मण वर्णाश्रम व्यवस्था पुनः प्रभावशाली हो गयी।

वर्ण व्यवस्था
शुंगकाल ब्राह्मण वर्ण व्यवस्था का पुर्नरूत्थान का काल था। वर्णाश्रम धर्म के आधार पर सामाजिक नियमों को स्थापित किया गया। शुंगकाल में वर्ण व्यवस्था कर्म पर आधारित थी। समाज चार वर्णो में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र में कठोरता के साथ विभाजित था।

शुंगकाल में ब्राह्मणों की सर्वोच्चता पुनः स्थापित हो गयी। क्योंकि ब्राह्मणों ने धर्मविदित आपातकाल धर्म का पालन करते हुए क्षत्रिय कर्म को अपनाया तथा अपने राष्ट्र की रक्षार्थ राजपद ग्रहण किया। प्रजा की विदेशी आक्रमणों से रक्षा की तथा दुर्बल-अयोग्य मौर्य शासक ’वृहद्रथ’ की हत्या करके राज्य में ’शान्ती और व्यवस्था’ का शासन स्थापित किया।

शुंगों द्वारा राजसत्ता  प्राप्ति करना एक महान् ’ब्राह्मण क्रान्ति’ थी। ब्राह्मणों ने राजनैतिक अव्यवस्था को समाप्त कर राजनैतिक एवं प्रशासनिक सुव्यवस्था स्थापित करके विपरीत कठिन परिस्थितियों में अपनी योग्यता प्रमाणित कर दी थी। शुंगकाल में ब्राह्मणों के धर्म विहित वही कर्त्तव्य थे, जो परंपरागत चले आ रहे थे। अध्ययन – अध्यापन, धार्मिक – यज्ञानुष्ठान, दान लेना आदि थे।

शुंगकाल में ब्राह्मणों के राजनैतिक प्रशासनिक दायित्वों में बढ़ोत्तरी हुई। ब्राह्मण शुंगकाल में राजनैतिक रूप से शक्तिशाली हो गये थे। क्षत्रिय का कर्त्तव्य रक्षा – युद्ध, राजकाज से संबंधित था। वैश्य का कर्त्तव्य आर्थिक एवं क्रियाकलापों कृषि, पशुपालन, व्यापार एवं वाणिज्य से संबंधित था।

शूद्र का कर्त्तव्य समाज की सेवा करना था शूद्र को धर्म ग्रंथों के अध्ययन अध्यापन एवं सुनने का अधिकार नहीं था। किन्तु मनुस्मृति में शूद्र छात्रों और शिक्षकों का विवरण मिलता है। इससे स्पष्ट है कि, शूद्र शिक्षा एवं शिक्षाजन से वंचित नहीं थे, संभवतः सामाजिक एवं धार्मिक विधानों उल्ंघन करने वालों पर प्रतिबंध रहा होगा।

समाज में वर्ण शंकर के तेजी से बढ़ने के कारण सामाजिक व्यवस्थाकारों ने राज्य से समाज में कठोरता के साथ वर्ण संकरता को रोकने की सलाह दी है। संभवतः वर्ण संकरता के बढ़ने के कारण ही सामाजिक वर्ण एवं जाति में कठोरता देखने को मिलती है। मनुस्मृति में ऐसी ही शंका के कारण कहा गया है कि, वर्ण संकारता के कारण समाज का पतन हो सकता है। मनुस्मृति वर्णों  के लिए निर्धारित अधिकार एवं कर्तव्यों के पालन न करने पर शासन को दण्ड का सुझाव देती है।

आश्रम व्यवस्था
शुंगकाल में समाज में आश्रम व्यवस्था का पुनरूद्धार हुआ। ब्राह्मण विचारधारा ने बौद्ध श्रवण व्यवस्था पर करारा प्रहार किया। ब्राह्मण संस्कृति का मानना था कि, यौवनावस्था में गृह एवं संसार त्याग, समाज एवं राज्य दोनों के लिए अनुचित है। क्योंकि ब्राह्मण विचारधारा के अनुसार, गृहस्थाश्रम पर ही समाज की नींव टिकी हुई थी। इसके साथ ही भिक्षुओं की आड़ में अनेक अपराधी प्रवृत्ति  के लोगों ने संघों में शरण ले रखी थी।

अतः समाज एवं राज्यहित में आश्रम व्यवस्था को हितकर बताते हुए शुंग कालीन समाज में आश्रम व्यवस्था का पुनरूद्वार किया गया। द्विजों को चारों आश्रमों का पालन करना अनिवार्य कर दिया गया। आश्रम व्यवस्था का पालन नहीं करने वालों को सामाजिक एवं राजकीय भय भी दिखाया गया।

स्त्रियों की स्थिति
शुंगकाल में स्त्रियों की स्थिति अच्छी थी। उसे शिक्षा धर्म एवं सामाजिक अधिकार प्राप्त थे। शुंगकालीन समाज में पुनर्विवाह, नियोग प्रथा, पर्दा प्रथा, बाल-विवाह प्रचलित थे। समाज में एक पत्नी विवाह आदर्श माना जाता था। हालाँकि शासक वर्ग में बहुपत्नी प्रथा प्रचलित थी। सती प्रथा के प्रमाण नहीं मिलते हैं।

मनु स्त्रियों के बारे में दोहरा मत अपनाते है। मनु एक ओर कहते है कि, ’जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ ईश्वर निवास करते हैं। वही, दूसरी ओर जन्म से लेकर मृत्यु तक प्रत्येक अवस्था में पुरूष के नियंत्रण में रखने का विधान बताते हैं।’ समाज में धर्म विहित आठ प्रकार के विवाह मान्य थे। अन्तर्जातीय, अनुलोम-प्रतिलोग विवाह होते थे। सगोत्र, सपिण्ड विवाह समाज में प्रचलित नहीं था।

आर्थिक स्थिति
शुंग कालीन शासन काल तक समाज में कृषि व्यवस्था ने विकसित स्थिति प्राप्त कर ली थी। इसी कारण शुंगकाल के आर्थिक जन-जीवन में कृषि प्रधान व्यवसाय था। बहुसंख्यक जनता अपने भरण-पोषण, रोजगार एवं आर्थिक संसाधनों के लिए कृषि कार्य में लगी हुई थी। इस काल में विविध प्रकार की फसलों के उत्पादन से किसान समृद्ध थे।

भूमि पर कृषकों का मालिकाना हक होता था, किन्तु शासन भूमि का संरक्षक था। कृषक शासक को भूमिकर देते थे, जोकि संभवतः उपज का 1/6 भाग होता था। कृषि के साथ पशुपालन अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ था। पशुपालन से ग्रामीणों को कृषि एवं यातायात के पशु तथा खानपान के लिए दूध, दही, मक्खन, घी आदि की प्राप्ति होती थी।

शुंगकाल व्यापार एवं वाणिज्य में अभूतपूर्व प्रगति हुई। तत्कालीन ग्रंथों से विविध प्रकार के व्यवसायों एवं लघु उद्योगों की सूचना मिलती है। इसकाल में बड़े-बड़े नगरों ने व्यावसायिक प्रगति में महत्वपूर्ण योगदान दिया। व्यापार सड़कों एवं जलीय मार्ग दोनों से होता है। व्यापारी अपने व्यापारिक हितों एवं उन्नति के लिए व्यावसायिक संघों और श्रेणियों में संगठित हो गये थे।

अलग-अलग व्यवसायों की अलग-अलग श्रेणियाँ या संघ होते थे और उनके आंतरिक विधि-विधान होते थे। आर्थिक प्रगति में सुदृढ़ मुद्रा-प्रणाली ने महत्वपूर्ण योगदान दिया। सोने-चाँदी एवं ताँबे की विधिक मुद्राओं का उल्लेख मिलता है।

साहित्य एवं भाषा
शुंगकाल में साहित्य एवं भाषा की प्रगति हुई। ब्राह्मण धर्म के पुर्नरूत्थान के साथ ही, शुंगकाल में संस्कृत भाषा का अभूतपूर्व उत्थान हुआ। शुंगकाल में ब्राह्मण वर्ण के साथ ही अन्य वर्णो में संस्कृत के प्रसार के प्रमाण मिलते हैं। शिक्षा का माध्यम संस्कृत बन गयी थी तथा राजकीय संरक्षण भी संस्कृत भाषा को प्राप्त हो गया था।

इन सब कारणों से संस्कृत भाषा आम जनता में भी तेजी से प्रसारित हुई। हालाँकि, शुंगकाल में आम जनता में प्राकृत भाषा भी प्रचलित रही। संस्कृत भाषा को आम जनता के लिए सुगम बनाने में महान् आचार्य पतंजलि की भी महत्वपूर्ण भूमिका रही। पतंजलि ने पाणिनी की अष्टाध्यायी पर महाभाष्य की रचना की। शंुगकाल में ही मनुस्मृति के वर्तमान स्वरूप की रचना हुई। कतिपय विद्वानों की धारणा तो यह भी है कि, महाभारत के नवीन रूप की रचना शुंगकाल में हुई।

कला
शुंगकाल में कला एवं स्थापत्य में भी अभूतपूर्व प्रगति देखी गयी। शुंगकाल में स्तूपों के निर्माण के साथ ही, स्तूपों के विविध वास्तु अंगों एवं स्तूप स्थापत्य में विकास हुआ। अनेक विहार एवं चैत्यों का निर्माण हुआ। इसके साथ ही, अन्य अनेक कलात्मक गतिविधियों का प्रचलन होता रहा।

 स्तूप एवं उनके वास्तु अंगों का निर्माण
शुंगकाल में स्तूपों के निर्माण में पत्थरों का उपयोग होने लगा। स्तूपों की वेदिकाएँ एवं तोरण (द्वार) पत्थरों के बनने लगे। उन पर विविध प्रकार के अलंकरण किये गये। शुंगकाल में कला राजकीय प्रभाव से निकलकर लोक जीवन से अधिक प्रभावित हो गयी।

शुंगकाल में ’भरहूत स्तूप’ (सतना, मध्य प्रदेश) के वास्तु अंगों में पाषाण निर्मित महावेदिका एवं तोरणों (द्वारों) का निर्माण हुआ। भरहूत स्तूप के पूर्वी तोरण पर शुंग नरेश ’धनभूति’ का नाम अंकित था। इस वेदिका एवं तोरणों के स्तम्भों तथा तोरण के अन्य वास्तु अंगों पर जातक कथाओं एवं महात्मा बुद्ध के जीवन के दृश्यों, अन्य मूर्तियों एवं वनस्पति का कलात्मक उत्कीर्णन है।

’बोध गया’ के स्तूप के चारों ओर वेदिका का निर्माण शुंगकाल में हुआ। संपूर्ण वेदिका तो नष्ट हो गयी थी किन्तु वेदिका के कुछ अवशेष मिले हैं। जिन पर महात्मा बुद्ध के प्रतीकों, जातक कथाओं एवं वनस्पति का कलात्मक उत्कीर्णन है।

’साँची’ (रायसेन, मध्य प्रदेश) के तीन स्तूपों में शुंगकालीन कला के प्रमाण मिलते हैं। शुंग काल में स्तूप के अण्ड भाग पर प्लास्टर किया गया था। प्रथम ’महास्तूप’ जिसकी महावेदिका एवं तोरणों का निर्माण शुंगकाल में हुआ। महावेदिका पर कोई अलंकरण नहीं है। तोरणों के विविध वास्तु अंगों में महात्मा बुद्ध के जीवन की घटनाओं के प्रतीक, जातक कथाओं, शाल भंजिका, यक्षों एवं वनस्पति जगत का अंकन है।

साँची के द्वितीय स्तूप में शुंगकाल में महावेदिका, मध्य वेदिका एवं हर्मिका का निर्माण हुआ। महावेदिका या भूवेदिका पर महात्मा बुद्ध की जीवन की घटनाओं का प्रतीकों के माध्यम से अंकन के साथ ही त्रिरत्न, श्रीवत्स एवं अन्य अंकनों का उत्कीर्ण किया गया है। साँची के तीसरे स्तूप के एक मात्र तोरण एवं वेदिका पर यक्ष, नाग, अश्व स्तूप पूजा आदि अनेक अंकन उत्कीर्ण है। मथुरा का एक जैन स्तूप शुंगकाल का माना जाता है।

चैत्य एवं विहारों का निर्माण
’भाजा’ (महाराष्ट्र) का विहार एवं चैत्य शुंगकालीन है। भाजा के विहार में मुखमण्डप, स्तम्भ, अर्धस्तम्भ तथा विहार में अन्दर एक मण्डप, जिसमें बौद्ध भिक्षुओं के निवास के लिए तीन कोठरियाँ बनी है। भाजा के चैत्य में मण्डप एवं अंदर स्तम्भ तथा अंत में स्तूप का विधान है। इसकी छत गजपृष्ठाकार है।

’अजंता’ (महाराष्ट्र) का चैत्य, गुफा नं. 09 शुंगकालीन है। चैत्यगृह में प्रवेश द्वार के साथ ही, दो पार्श्व गवाक्ष बने है। इनके ऊपर छज्जे, उसके ऊपर संगीतशाला, जिस पर कीर्तिमुख का विधान है। चैत्यगृह के अंदर स्तम्भयुत मण्डप है। चैत्यगृह में अनेक आकर्षक चित्र अंकित है। ’नासिक’ (महाराष्ट्र) का चैत्यगृह शुंगकालीन है। इस चैत्य गृह के वास्तु अंगों में दो तलीय मुखमण्डप, प्रवेश द्वार एवं अंदर स्तम्भ युक्तमण्डल है। यह चैत्यगृह ’पाण्डुलेण’’ के नाम से जानी जाती है।

’कार्ले’ (महाराष्ट्र) का चैत्य शुंगकालीन है। चैत्यगृह के वास्तु अंगों में मुखमण्डप, मुखमण्डप के चतुर्मुखी स्तम्भ, कीर्तिमुख, संगीतशाला, मण्डप, वृताकार गर्भगृह तथा दोहरा प्रदक्षिणापथ तथा मण्डप के स्तम्भ, गर्भगृह के बीच में स्तूप प्रमुख है। इस चैत्यगृह में ब्राह्मी में अनेक अभिलेख उत्कीर्ण है। इस चैत्यगृह को भारत के शैलोत्कीर्ण चैत्यों में सर्वश्रेष्ठ माना जाता है।

गरूड़ ध्वज एवं अन्य कला कृतियाँ
शुंग राजवंश के 9 वें शासक भागभद्र (भागवत) के शासनकाल में बेसनगर (विदिशा मध्य प्रदेश) में ’गरूड़ ध्वज’ की स्थापना तक्षशिला के यूनानी शासक अंतलिकित के राजदूत हेलियोडोरस ने की। यह ’गरूड़ ध्वज’ सनातन धर्म या भागवत का सर्वप्रथम स्तम्भ है। मथुरा की अनेक यक्ष-यक्षिणी प्रस्तर प्रतिमाओं को भी शुंगकालीन माना है।

शुंगकालीन कला में मृण्मूर्तियों का भी महत्वपूर्ण स्थान है। शंुगकाल में विविध प्रकार की मृण्मूर्तियों का निर्माण हुआ। जोकि, लोककला की सर्वोत्तम कृति मानी जाती है। कौशाम्बी (उत्तर प्रदेश) से शुंगकालीन मिट्टी की मूर्तियाँ एवं खिलौने मिले हैं।

शुंगकाल में मिट्टी की मूर्तियों एवं खिलौनों को साँचे मे ढालकर बनाने की परंपरा प्रारम्भ हो गयी थी। इतिहासकारों का मत है कि, शुंगकाल में सबसे पहले मिट्टी की मूर्तियों को साँचे से बनाने की प्रथा प्रारंभ हुई थी।

बौद्ध धर्म के सिद्धांत 

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